vivarn

Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.



कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।

Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made ​​by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

28. भूमि का पट्टा या रजिस्ट्री से ही मेरी भूमि उसकी भूमि का झगड़ा शुरू होता है !

       राष्ट्र शब्द का शब्दार्थ होता है वह भूमि जिसकी सीमा का निर्धारण राजनैतिक व्यवस्था के लिए राजा द्वारा किया जाता है। राष्ट्र शब्द में अक्षरों के द्वन्द्व समास से स्टोर शब्द भी बनता है।
जिस तरह छोटे-छोटे भौगोलिक क्षेत्र, जिनकी सीमा का निर्धारण प्रकृति द्वारा किया जाता है, वहाँ देश शब्द का उपयोग होता है। जैसे कि पंजाब,मारवाड़,मेवाड़,काठियावाड़,मराठवाड़ा इत्यादि देश कहलाते हैं और हिमालय,ब्रह्मपुत्रघाटी,सिन्धु घाटी और समुद्र चारों दिशाओं से घिरा भारतीय भू भाग भारत देश कहलाता है। 
ठीक इसी तरह भारत जहाँ तक वर्षा का वार्षिक चक्र बना रहता है वह भारत वर्ष। जब आर्यावर्त,आर्यन जो आज ईरान नाम से जाना जाता है वहाँ परमाणु युद्धों के परिणाम स्वरूप रेगिस्तान हो गया तब इस भू भाग का नाम कारण भारत वर्ष हुआ और इसका क्षेत्र हिन्दू कुश पर्वत से लेकर इंडोनेशिया तक माना गया।
    राष्ट्र का अर्थ है भारत की राजनैतिक सीमा रेखा। आपके मकान का प्लाट जिसकी रजिस्ट्री आपके नाम हो गई, वह आपका निजी राष्ट्र कहलायेगा। 
भूमि का पट्टा या रजिस्ट्री से ही मेरी भूमि उसकी भूमि का झगड़ा शुरू होता है।
1498 में पुर्तगाली ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना हुई। 1600 में अंग्रेज़, 1602 में डच, 1606 डेनिस, 1664 में फ्राँसिसी और 1731 में स्वीडिश कम्पनी की स्थापना हुई थी। इन कम्पनियों ने अपने-अपने राष्ट्र की समृद्धि के लिए भारत का आर्थिक शोषण करने की नीयत से यहाँ कार्यालय खोले थे। क्योंकि इनको भूमि का आवंटन हुआ था।
इन सभी कम्पनियों को भूमि का पट्टा देकर उसकी रजिस्ट्री कराने के बाद ये कम्पनियाँ उस ज़मीन की मालिक हो गईं वहीं से भारत को भी राष्ट्र नामक अवधारणा के मनोविकार से ग्रसित होने का रोग लगा था और भारत ने अपने पैरों पर ख़ुद कुल्हाड़ी चलाई।
इधर अकबर ने भारत को एक राष्ट्र में बाँधने के नाम पर युद्ध अभियान चला ही रखा था। 
कहने को तो अकबर राजा,सम्राट,बादशाह था और यूरोपियन लोग व्यापारी थे लेकिन दोनों ही यक्ष की श्रेणी में आते हैं जो अनुबन्ध में बाँध कर शासन करते हैं।
महाभारत ग्रन्थ सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान का विश्वकोष है और श्रीमद्भगवद्गीता उसका सारांश है। उस गीता का प्रारम्भ धृतराष्ट्र उवाच से होता है। यानी उस व्यक्ति के कारण महाभारत युद्ध होता है जो आँखों से ही अंधा नहीं था बल्कि उसकी धृति राष्ट्र से बँधी थी। इस तरह वह राष्ट्र के नाम बँधी धृति[बौद्धिक धारणा] से भी यानी बुद्धि से भी अंधा था।
दूसरी तरफ देखें तो भीष्म,द्रोण,कृप जैसे ज्ञानी और विद्वान अनुबन्ध में बँधे थे क्योंकि वे राष्ट्र के वेतन भोगी कर्मचारी भी थे और उन्होंने अपने आप को वचन में भी बाँध रखा था। अतः अपना नाश सामने देख कर भी युद्ध में दुर्योधन के पक्ष में लड़ रहे थे।
आज हम सभी प्रकृति के नियमों के विरूद्ध राजनैतिक सीमा रेखा में बँधे भौगोलिक क्षेत्र को राष्ट्र का नाम देकर आपस में लड़ने-मरने को तैयार बैठे है।
आज हमने एक ही तरह के भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले एक ही तरफ की भाषा बोलने वाले और एक ही तरह की सभ्यता संस्कृति वाले जनसमुदायों को प्रकृति के नियमों के विरूद्ध बने राष्ट्रों की सीमा में विभाजित कर दिया है।
भरण-पोषण के लिए अमृत पैदा करने वाली भूमि को अनुबन्ध के माध्यम से ख़रीद कर उनमें उद्योग के नाम से आसुरी यज्ञों को करते हैं और उनसे विष[विषाक्त जल, विषाक्त वायु] पैदा करते है। क्यों ?
क्योंकि हम यक्षों द्वारा संचालित उस व्यवस्था में अनुबन्धों के सहारे कर्मबन्धनों में बँध गये हैं जिन्होंने वित्तीय सत्ता के माध्यम से हमारी बौद्धिक,राजनैतिक,आर्थिक सत्ता को पंगु बना रखा है।
यहाँ मैं उन नवयुवाओं से यह कहना चाहता हूँ कि आप अपना कैरियर बनाने के लिए दौड़ तो रहे हैं लेकिन आप वेतन के रूप में जिस अच्छे-खासे वित्त की कल्पना करते हैं और उस वित्त से जिस सुख को प्राप्त करना चाहते हैं वह सम्भव नहीं है। क्यों ?
क्योंकि इस वित्तीय सत्ता का एक सान्ध्रित बिन्दु Concentrated point आ गया है और जब इन वित्तीय सत्ताओं के महल ताश के पत्तों से बने महल की तरह ढहने लगेंगे तो इनकी मनोस्थिति यह होगी कि ‘‘हम तो डूबे ही सनम तुमको भी ले डूबेंगे‘‘। यह मनोस्थिति कब बन जाये और कब तीसरा विश्वयुद्ध छिड़ जाये और कब आप परमाणु बमों की रेडियोधर्मी किरणों और परमाणु रियेक्टरों के तहस-नहस होने से निकले रेडियोधर्मी तत्वों के प्रभाव से रिस-रिस कर मरने तो मजबूर हो जायेंगे, कह नहीं सकते।
अतः आप नव युवाओं से आह्वान है सनातन धर्म की रक्षा के लिए उत्तिष्ठ भारत !
हे भारतीय युवाओं ! सर्वकल्याणकारी व्यवस्था पद्धति को स्थापित करने के लिए खड़े हो जाओ !

27. छठी शताब्दी से चली यह व्यवस्था सोलहवीं शताब्दी तक अक्षुण्ण चलती रही।

     इस बीच बारहवीं शताब्दी के बाद इस्लामिक मूवमेन्ट का आक्रमण होने लगा था लेकिन वे सभी  घटनाएँ अस्थाई थीं क्योंकि वे लूटपाट करके चले जाते थे और इनके युद्धों का प्रभाव उत्तर-पश्चिम भारत तक सीमित था वह भी सिर्फ़ साम्राज्य और राजाओं तक; जबकि गणराज्य सुरक्षित थे क्योंकि ये शासक या आक्रमणकारी इतने मूर्ख नहीं थे कि कृषि उपज क्षेत्र को नुकसान पहुँचाते। यह काम तो यूरोपियन यक्षों ने किया जिस को उनके नवविकसित भारतीय शिष्यों ने इस अंजाम तक पहुँचा दिया है जिसे हम देख ही रहे हैं।
  मोहम्मद गजनी का आक्रमण सोमनाथ मन्दिर में लूट से अधिक कुछ नहीं था और मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को मारकर भारत में हिन्दू सम्राट को यानी राजपूत सम्राट को मार दिया था। उसके बाद भी अनेक मुस्लिम बादशाह आये और गये लेकिन भारतीय गणराज्यों पर सिर्फ इतना ही प्रभाव पड़ा कि उनकी उपज का एक एक भाग उन्हें देना पड़ता था बस इससे अधिक कुछ नहीं।
जनजीवन में कहावत बन गई थी...
कोई नृपु होय हमें का हानी। 
देव राज  की  कृपा महानी। 
अर्थात् हमारे ऊपर तो देवताओं के राजा इन्द्र[मानसून] की महान कृपा है अतः जब तक वर्षा का वार्षिक चक्र चलता है हमें किसी भी नृपु के राजसिंहासन पर बैठने से क्या हानि हो सकती है। अधिक से अधिक यही होगा कि वह हमारा लगान बढ़ा देगा। 
इस तरह अर्थव्यवस्था देवों के राजा इन्द्र द्वारा संचालित थी और बाक़ी की सभी व्यवस्थायें जिनमें शिक्षा,चिकित्सा,परिवार,समाज,राजनीति से सम्बन्धित सभी व्यवस्थाऐं देवस्थानों,मन्दिरों,शिवालयों नामक कार्यालयों द्वारा नियन्त्रित ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के हाथों में थीं और ब्राह्मण गवर्नमेण्ट व्यवस्था[गुरू व्यवस्था] राजाओं पर भारी पड़ती थी। 
बारहवीं सदी में पश्चिम भारतीय जनसमूह कहीं न कहीं विस्थापित होने लगा था। आप सभी के विचारों में एक तथ्य भ्रामक है कि राजा लोग प्रजा पर अत्याचार करते थे। जबकि बारहवीं से सोलहवीं शताब्दी तक यह स्थिति थी कि राजघराने प्रजा से भयभीत रहने लगे थे। क्योंकि उस समय जब कभी भी किसी भी राज्य में जनता असुरक्षा महसूस करती तो वह दूसरे राज्यों में विस्थापित हो जाती। उन्हें रोकने का प्रयास बलपूर्वक किया जाता तो वे तीर्थाटन के बहाने राज्य की सीमा से बाहर निकल जाते। लेकिन मुग़ल साम्राज्य और ब्रिटिश साम्राज्य के समय जब राजाओं ने देखा कि अब उनकी सत्ता प्रजा की भावनाओं और समर्थन की मोहताज नहीं रही है बल्कि बादशाहों तथा बाद में ब्रिटिश सरकार की मेहरबानी पर टिकी है तब उन्होंने प्रजा पर अत्याचार शुरू कर दिया। उनकी एक मजबूरी यह भी थी कि उन्हें आगे भी नजराना और टेक्स देना पड़ता था। लेकिन फिर भी कृषक और पशुपालक वर्ग तथा वनवासी वर्ग सोलहवीं सदी तक ब्राह्मण व्यवस्था के अधीन रहा और देवालयों की छत्रछाया में सुरक्षित रहा।
ब्राह्मण व्यवस्था की नींव पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त और सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हिलने लगी थी। क्योंकि उस समय उस पर तीन तरफ़ से आक्रमण हुआ। [इस बिन्दु पर अगले क्रम में बात की जाएगी; अभी भूमि व्यवस्था और वैदिक गवर्नमेण्ट का प्रसंग चल रहा है।]
जब सर्वे भूमि गौपाल की तथा कोई नृपु होय हमें का हानि की मान्यता जन मानस में चल रही थी तब मनीषियों ने एक मान्यता यह भी जन-मानस में प्रतिष्ठित कर रखी थी कि जिस भूमि पर आप खेती कर रहे हैं उस भूमि को नापना और अपने पशुधन की गिरनी करना अशुभ होता है।
मनीषी जब मान्यताऐं एवं मिथक बनाते हैं तो उनका उद्धेश्य इस एक बिन्दु पर ही केन्द्रित रहता है कि गणित में उलझकर कोई भी अपनी हारमोनी,सुर,सम स्थिति को डिस्टर्ब न करे। क्योंकि ब्राह्मण गवर्नमेण्ट एकाउण्ट के स्थान पर एकाउण्टिबिलीटी[जिम्मेदारी] को धर्म कह कर स्थापित करती है ताकि व्यक्ति आत्म-अनुशासित रहे और उसे वैदिक शासन-प्रशासन पद्धति की आवश्यकता ही नहीं रहे।
शेरशाह सुरी ने भारत में पहली बार भूमि को नापने की तथा भूमि को कृषि कार्य के लिए आवंटित करने की तथा भूमि के क्षेत्रफल के आधार पर जोत[लगान] लेने की व्यवस्था बनाई। 
अकबर के नवरत्नों में एक जाट महाराजा भी था जिसने भूमि के पट्टे बनाने की व्यवस्था बनवाई। यह कार्य-व्यवस्था बनाई तो थी भूमि सुधार के नाम से लेकिन इसका लाभ मिला युरोपियन ईस्ट-इण्डिया कम्पनियों को जो भारत के लिए दुर्भाग्यशाली साबित हुई। क्योंकि यहाँ से भारत वर्ष और भारत देश दोनों गौण हो गये और भारत राष्ट्र का उदय हुआ।



26. रजपुत्रों की शासन पद्धति

        छठी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के छ सौ वर्षों तक भारत की वैदिक गवर्नमेण्ट राजपुत्रों के शासन-अनुशासन से निर्विध्न चलती रही। सोलहवीं सदी तक ये अनेक बाधाओं के साथ चलती रही उसके बाद संगदोष के कारण रजपुत्रों में रज का विकार आने लग गया और वे ईश्वर भाव से च्युत्त होकर ईश्वर भोगी होने लगे।
    कहने को तो छठी शताब्दी से राजपूत साम्राज्य का विस्तार पूरे भारत में था और उनका सम्राट अजयमेरू पर रहता था लेकिन भारत के इस साम्राज्य की परम्परा राम राज्य की परम्परा थी। रक्षक व्यवस्था थी,राक्षस व्यवस्था नहीं थी अर्थात् सभी राज्य स्वाधीन थे।
नगर एवं कस्बे समाप्त कर दिये गये या स्वतः समाप्त हो गये क्योंकि प्रत्येक गाँव में या दो चार गाँवों के एक केन्द्र में या दस बीस बस्तियों-ढाणियों के समूहों के बीच में एक किसान मुखिया होता था जो गणराज्य का चौधरी,पटेल इत्यादि कहलाता। आज की भाषा में सरपंच कह सकते हैं। आर्थिक राजनैतिक व्यवस्था कुछ ऐसी कर दी गई थी कि चौधरी ही सर्वेसर्वा होता था और प्रत्येक गण राज्य या कहें गाँव अपने आप में एक पूर्ण स्वतन्त्र और स्वाधीन इकाई बना दिया गया था। इन ग्राम समूहों को उनकी भौगोलिक, पर्यावर्णिक स्थिति के अनुरूप यानी विशेष भौगोलिक सीमाओं के बीच बसे गावों के समूहों को देश कहा जाता था। प्रत्येक देश में दस बीस राजपूत योद्धाओं के साथ एक प्रमुख रहता था जिनका एक मात्र काम था हिंसक वन्य प्राणियों से गाँवों की रक्षा करना। इस कार्य के एवज में उन योद्धाओं के लिए आवश्यक खाद्य सामग्री और अन्य आवश्यक सामान की व्यवस्था वे गावों के समूह करते थे।
इन छोटे-छोटे गण-राज्यों यानी देशों के समूहों का एक राजा यानी राजघराना होता था जिनके पास अपनी स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था के लिए भूमि होती थी और उस भूमि पर उनकी अर्थव्यवस्था चलती थी इनका सम्राट अजमेर में बैठता था जिसकी अर्थव्यवस्था भी अपनी स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था थी अर्थात किसी प्रकार का कोई राजस्व या राज्य कर नहीं था । 
इन गण राज्यों में स्थान-स्थान पर साप्ताहिक,पाक्षिक,मासिक,त्रैमासिक,अर्धवार्षिक,वार्षिक,हाट बाज़ार या मेले लगते थे। उन मेलों में उस खाद्य सामग्री और पशुओं का आदान-प्रदान यानी वस्तु-विनिमय होता था जो उत्पादन उनकी वार्षिक आवश्यकता के जितना संग्रह करने के बाद अतिरिक्त बच जाता था।
चूँकि एक भौगोलिक क्षेत्र में सभी आवश्यक चीजें तो उपलब्ध हो नहीं सकती थीं,उपज नहीं सकती थी अतः अपने क्षेत्र की अतिरिक्त उपज को अन्य क्षेत्रों की उस उपज से अदला-बदली कर लेते थे जो उनके क्षेत्र में नहीं उपजती थी। इन मेलों के आयोजन में जो लाभ होता था उसका हिसाब राव या राय रखते थे जो बाद में कायस्थ कहलाये और यह लाभ राजपूतों का वह अतिरिक्त लाभ होता था जिसका वे संग्रह करते थे और ये लाभ आपातकाल में काम आता था। आपातकाल से तात्पर्य है प्राकृतिक आपदा के समय। चुंकि प्राकृतिक आपदाओं में अतिवृष्टि ही मुख्य समस्या थी जो वर्षा के वार्षिक चक्र से आती थी अतः राजपूतों की सैनिक छावनीयाँ ऊँचे स्थानों पर बनाई जाती थीं।
इस व्यवस्था में सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह था कि ‘‘सर्वेभूमि गोपाल की‘‘ का सिद्धान्त लागू था कहीं भी किसी भी भूमि पर किसी का मालिकाना हक नहीं था।
[‘‘सर्वे भूमि गोपाल की‘‘ का सीधा सा अर्थ न लेकर आज कल का बौद्धिक वर्ग इसका अनावश्यक अनुवाद करके इसके अर्थ का अनर्थ कर रहा है। गोपाल शब्द की जगह ईश्वर या भगवान का उपयोग कर जाते हैं।]
   बारहवीं सदी के बाद जब इस्लामी आक्रमण तेज हो गये थे तब भी कृषि भूमि और वनों को तो वे भी हानि नहीं पहुँचाते थे उनके युद्धों का प्रभाव उत्तर-पश्चिम भारत तक सीमित था वह भी सिर्फ साम्राज्य और राजाओं तक सीमित था,जबकि गणराज्य पूर्ण सुरक्षित थे। उन आक्रमणकारियों को सिर्फ़ सोना चाहिए था जो उन्हें देवालयों में राजाओं से भी अधिक मिलता था। लेकिन आज हमारे ही लोग जब सनातन धर्म को नहीं समझ पा रहे हैं तो क्या किया जा सकता है। इसका एक ही उपाय है सनातन धर्म को पुनः अर्थ[Earth, धन, Meaning , sense] से जोड़ा जाये।


25. वेदत्रयी से चाहे जैसी मानव नस्ल तैयार की जा सकती है !


     वेदत्रयी वैदिक यज्ञ एवं वेदत्रयी के बारे में संक्षिप्त में पुनः जान लें। क्योंकि जब छठी शताब्दी में आमूलचूल परिवर्तन का क्रमबद्ध कार्यक्रम चला तो वैदिक साहित्य को भूमिगत कर दिया गया था और वैदिक साहित्य के सभी शब्दों का मानवीकरण करके उन्हें पौराणिक साहित्य में रूपान्तरित कर दिया गया ताकि श्रुति परम्परा से यह ज्ञान जीवित भी रहे और असुरों के हाथ भी न पड़े। छठी सदी में इस विषय को इतना भूमिगत कर दिया गया कि भारतीय लोगों ने वेद शब्द को पहली बार अठारहवीं सदी में अंग्रेज़ी पत्रकारिता के माध्यम से और दयानन्द सरस्वती के मुख से सुना। तब से लेकर आज तक यह शब्द एक विभ्रम बन कर जनमानस में तैर रहा है।
     अभी कुछ वर्षों पहले मेरे चाचा ने मुझ से पूछा कि 'मेरे दिमाग़ में एक जिज्ञासा लम्बे समय से है कि आखिर वेदों में लिखा क्या है ! तुम ने गीता की व्याख्या की है और इस विषय में तुम गहराई तक उतर चुके हो इसलिए मैं काफी दिनों से सोच रहा था अब की बार तुमसे मिलूँगा तो तुम से पूछूँगा।' 
मुझे उनके प्रश्न  पर हँसी आ गई और मैंने कहा कि 'यह कैसी विडम्बना है कि आप ख़ुद वैद्य हैं और आयुर्वेद को गहराई से जानते हैं। आपके कहने पर ही मैंने आयुर्वेद की आपकी पुस्तकों को पढ़ा और अब आप ही मुझे से पूछ रहे हैं कि वेदों में क्या लिखा है! जो आप पहले से जानते हैं वही वेदों में है!' 
वेदो के विषय में जो विभ्रम[भ्रामक धारणाऐं] फैली हुई हैं उनके बारे में भी यहाँ लिखना प्रासंगिक होगा। क्योंकि इस लेखन के माध्यम से मैं तीन अंको का मान दे रहा हूँ। 
   1. सभ्यता-संस्कृतियों तथा आर्थिक स्थितियों के उत्थान-पतन के इतिहास का वह पक्ष जो आपके मस्तिष्क में मानवीय आचार संहिता को स्पष्ट करेगा कि शिष्टाचार और भ्रष्टाचार की सीमा रेखायें कहाँ से शुरू होकर कहाँ समाप्त होती हैं। [भूतकाल] 
   2. वर्त्तमान की समस्याओं को स्वनिर्धारित अर्थ से न जान कर उसे समग्र दृष्टिकोण के परम अर्थ से देखें। इसी को स्वार्थ जनित मानसिकता और परमार्थ जनित दृष्टिकोण कहा गया है। [वर्त्तमानकाल]
   3. धर्म के दोनों पक्षों की जानकारी जिसे विज्ञान एवं दर्शन कहा गया है जिनके गुरूओं को आप ऋषि-मुनि नाम से जानते तो हैं लेकिन वह जानकारी इन शब्दों के साथ जुड़ी भ्रामक धारणाओं तक सीमित है। यहाँ हमें अपनी अवधारणाएं सुस्पष्ट करनी है और पुर्वाग्रहों से मुक्त होकर सोचना है। [सम्यक ज्ञान]
    4. इस तरह जब आपके पास तीन अंक होते हैं तो चौथे अंक का मान आप सरलता से निकाल सकते हैं। यह चौथा अंक है।[भविष्य निर्माण] 
     हमें कैसी व्यवस्था पद्धति को प्रतिष्ठित करना है जिसके माध्यम से इस भारतीय भू भाग[भारत वर्ष] को ही नहीं बल्कि नर्क बनती जा रही पूरी पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाया जा सके।
अब यहाँ से उपर्युक्त तीनों बिन्दु एक साथ गड्डमड्ड(मिश्रित)हो कर चलेंगे,आपको अपने दिमाग में सम्पादित करना है।  

    वेदों को चार वेद कहा गया है। दरअसल ये दो भागों में विभाजित है। इस वर्ग को वेदत्रयी कहा गया है जिसमें ऋक्-वेद (ऋग्वेद), यजु-वेद(युजुर्वेद) तथा सामवेद आते हैं।
दूसरा वर्ग अथर्व-वेद है।
वेदत्रयी मूल वेद हैं जो उस समय से हैं जब से वर्त्तमान कल्प का प्रारम्भ हुआ। अर्थात् अर्वाचीन ऋषि कश्यप इसके प्रणेता हैं जिन्होंने दक्ष प्रजापति की कन्याओं से विवाह किया था जिनकी संख्या कहीं नौ बताई गई तो कहीं तेरह। जबकि अथर्ववेद महाभारत काल की रचना है जो अर्थविज्ञान यानी पदार्थ विज्ञान के सभी विषयों का वेद है।
वेदत्रयी के माध्यम से दो तरह की मानव नस्लें विकसित की गईं। दिति के गर्भ से हिरण्य-अक्ष[सुनहरी आँखों वाले] तथा हिरण्य कशिपु[सुनहरे बालों वाले] दो नर-सन्तानें हुईं। दिति से होलिका भी पैदा हुई। अदिति के गर्भ से बारह आदित्य हुए। ये दो मानसिक प्रजातियाँ थीं।
हिरण्य-अक्ष और हिरण्य-कशिपु दोनों के वंशज कालान्तर में क्रमशः  रक्षस एवं यक्ष कहलाये तथा बारह आदित्यों के वंशज देव कहलाये। 
देव सत्व प्रधान थे। रक्षस रज प्रधान थे और यक्ष तम प्रधान थे। इन्हीं से वैदिक सभ्यता संस्कृति का विकास हुआ था। 
दक्ष की अन्य कन्याओं के गर्भ से सिर्फ़ लड़कियाँ ही हुई जो जलचर,स्थलचर,नभचर,उभयचर इत्यादि प्राणियों की तथा विभिन्न वनस्पतियों की माताऐं कहलाईं क्योंकि कश्यप ने इन्हीं वैदिक यज्ञों से लुप्त-विलुप्त हो चुकी अनेक प्रजातियों का संरक्षण-संवर्धन किया और अपनी अन्य पत्नियों को इन विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण का कार्य सौंपा।
इसी वैदिक यज्ञ प्रक्रिया से पुष्कर में तीन प्रजातियों का विकास हुआ।
ऋक्-वेद में देवताओं का आह्वान किया जाता है। प्रत्येक वैदिक-ऋचा का एक ऋषि होता है और एक देवता होता है। ऋषि उस वैज्ञानिक को कहा गया है जिसने रिसर्च की ओर देवता उस भाव को कहा गया है,जिस पर रिसर्च हुआ है। ऋचा को साहित्य की भाषा में छन्द कहा गया है।
ऋग्वेद की पहली ऋचा का पहला पार्ट है । अग्नी मिळे पुरोहितम् ।
पुरोहित का अर्थ है जो पुर[नव द्वारों वाली देह] का हित करने वाला हो।
[पुरोहित और ब्राह्मण में भेद होता है ब्राह्मण का अर्थ होता है जो ब्रह्म में रमण करने वाला चिन्तन मनन, अध्ययन-अध्यापन करने वाला हो। ध्यान रहे ब्रह्म से ब्रेन शब्द बना है।]
पुरोहित को जब अग्नि मिलेगी तब वह औषधीय गुणों वाले पौष्टिक खाद्य पदार्थ को पकायेगा । खाद्य पदार्थों के रासायनिक तत्वों से यज्ञ-मान[यजमान] के ब्रेन में अमृत[हारमोन्स] का स्राव होगा वही विशिष्ट अमृत तत्व विशेष देवता को शरीर में पुष्ट करेगा और वही विशेष देवता शरीर में विशिष्ट अंगों को,उत्तकों को,Tissues को पुष्ट करेगा। 
जब वयस्क नर-नारी के लिए ऋग्वेद की ऋचाओं के गायन के साथ औषधीय तत्वों वाला पौष्टिक भोजन पकाया जायेगा तो उन खाद्य द्रव्यों की जीवित कोषिकाओं में एक विषेष भाव पैदा होगा और उससे विशेष अमृत का विशेष स्राव होगा जो शरीर में विशेष गुणधर्मिता को विकसित करेगा। 
जब शरीर में देवता, देवी सम्पदा के रूप में पुष्ट हो जाता है तब फिर यजुर्वेद का नम्बर आता है। 
यजुर्वेद के नियमानुसार विशेष काल स्थान परिवेश में देव यज्ञ करवाया जाता है अर्थात् देवता को गर्भ में प्रतिष्ठित कराया जाता है। प्रणय कराया जाता है।
  उसके बाद सामवेद का नम्बर आता है। अर्थात् उस विशिष्ट देवता की विशिष्ट चारित्रिक गुणधर्मिता की स्तुति की जाती है। स्तुति से देवता में उस चारित्रिक गुणधर्मिता के भाव,संवेदना,Sense,sensation पैदा होते हैं।
जब एक देवी सम्पदा वाला यानी एक विशेष चारीत्रिक गुणधर्मिता के भाव से भावित होकर गर्भ से शिशु बाहर निकलता है तब भी सामवेद की स्तुतियाँ चलती रहती हैं और ऋग्वेद का अमृत पदार्थ भी चलता रहता है। यह क्रम कुल सात पीढ़ियों तक चलता है।
यदि पितृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था के लिए नरों को विकसित करना होता है तो यह वैदिक यज्ञ नर सन्तानों के रूप में चलता है जबकि यदि मातृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था के लिए नारियों को विकसित करना हो तो यह प्राकृतिक यज्ञ नारी सन्तानों में स्वतः ही चलता है।

24. कुम्भ की धर्मसंसद !

       हर्षवर्धन ने इसी क्रम में एक क्रान्तिकारी और उच्च पराक्रम का कदम उठाया था जो अपने आप में विलक्षण था। वह था कुम्भ के मेले के आयोजन को नया रूप देना। 
उस समय तक कुम्भ में मेला नहीं लगता था बल्कि जितने भी धार्मिक सम्प्रदाय या धर्म की शाखाएँ हैं, उनके धर्मगुरूओं का बौद्धिक-सांस्कृतिक समागम होता था। इस समागम में तीन वर्ग आते थे। एक वर्ग ऋषि कहलाता था जो वेद परम्परा से जुड़ा वर्ग था अर्थात् वैज्ञानिक वर्ग । 
[ऋषि शब्द से लेटिन का रिसर्च शब्द बना है। ऋषि समुदाय वह वर्ग था जो वेदों की मूल परम्परा से जुड़ा था जिसमें कर्मकाण्ड का कोई स्थान नहीं था। वे यज्ञ की मूल रासायनिक क्रियाओं का अध्ययन करते थे और प्राकृतिक स्थानों[वनों] में ही जिनकी प्रयोगशालायें थीं। विक्रमादित्य के आन्दोलन ने इस आदि परम्परा को पुनः स्थापित किया था।]
दूसरा एक वर्ग मुनि कहलाता था जो दार्शनिक वर्ग था, समाधि परम्परा से जुड़ा वर्ग था। 
  इन दोनों वर्गों के ऊपर एक वर्ग था जो मनीषी,योगी एवं ब्राह्मण इन तीनों नामों से सम्बोधित होता था। इन तीनों नामों का मूलार्थ एक ही होता है। 
मुनि ऋषि से मनीषी बना और दोनों विरोधाभासी परम्पराओं का योग करने की योग्यता के कारण उन्हें योगी भी कहा जाता था। 
ब्रह्म में रमण करने के कारण वह वर्ग दार्शनिक या ज्ञानी तो था ही लेकिन इस वर्ग का वेद परम्परा से यानी विद्याओं से जो सम्बन्ध था वह भाषा,लिपी एवं शब्द ब्रह्म की जानकारी के कारण था। लिखित शास्त्र इसी वर्ग के पास हुआ करते थे। 
शास्त्र से लेटिन में साईन्स शब्द बना और ग्रीक में सेन्स शब्द बना। ये दोनों शब्द अंग्रेज़ी के विकास के साथ ही अंग्रेज़ी में आ गये। 
आपने जो इतिहास पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा वह राज्य सत्ताओं के लिए लड़ने वाले हिंसक वर्ग का इतिहास है। इस तरह इतिहास को लिखने की परम्परा भारत में कभी नहीं रही अतः वह इतिहास विदेशियों की डायरियों से मिला। नव बौद्धिक वर्ग द्वारा इस हिंसक वर्ग को पराक्रमी कह कर स्थापित किया गया। 
अभी तक मैंने इतिहास के जिस पक्ष को रखा वह अर्थव्यवस्था और उससे जुड़े सनातन धर्म का इतिहास था। सत्ता परिवर्तन के साथ ही अर्थव्यवस्था में परिवर्तन होता आया है। अतः उस परिवर्तन का इतिहास भी साथ-साथ चलता है। इस इतिहास में अधिकांश कथाओं में यक्ष-यक्षिणियों द्वारा वचन[अनुबंध] में बाँध कर उपजाऊ भूमि को बंजर बनाने और फिर किसी लोकदेवी या लोकदेवता द्वारा मुक्ति दिलाने के पराक्रम से कथा का अंत होता है।
इतिहास के इन दोनों पक्षों से अलग इतिहास का एक तीसरा पक्ष है,जो योगियों,ब्राह्मणों,मनीषियों का इतिहास है। इसे इतिहास नाम से नहीं जाना जाता क्योंकि यह एक ऐसी परम्परा है जो सभ्यता-संस्कृति के विकास की किसी भी दिशा से अप्रभावित रहती है और इसका सनातन स्वरूप एक जैसा बना रहता है। 
     चुंकि यह परम्परा न तो जेनेटिक्स से सम्बन्ध रखती है और न ही आचरण के ज्ञान से सम्बन्ध रखती है बल्कि यह आत्मकल्याण और आत्मसंयम की वह परम्परा है जो पृथ्वी पर सभी सभ्यता-संस्कृतियों के पतन के बाद भी बनी रहती है। क्योंकि यह परम्परा गुरू शिष्य परम्परा नहीं है।
गुरू-शिष्य परम्पराएँ जगत के कल्याण के लिए होती हैं, मार्ग-दर्शन के लिए होती हैं। लेकिन मनीषी-योगियों की यह ब्राह्मण परम्परा, वह आत्म-कल्याण की परम्परा है जो एकान्त में रहकर जगत के राग एवं द्वेष जनित व्यक्त स्वरूप को अपने उपर हावी नहीं होने देने पर स्वतः अपने आप के भीतर अपने आप बलवती होती है। 
बुद्ध एवं महावीर के समय से पूर्व सभी सभ्यता संस्कृतियाँ नष्ट हो गई थीं फिर भी यह एकात्म परम्परा जीवित थी। इसी परम्परा से जुड़े वर्ग ने वेदों एवं उपनिषदों के ज्ञान को अपनी स्मृति में रखा था। यहाँ मैं उस स्मृति की बात कर रहा हूँ जो संस्कार बन कर जन्म-जन्मान्तर साथ रहती है। 
इसी वर्ग से राजकुमार सिद्धार्थ और वर्धमान ने दोनों विषयों के सांख्य को जाना था और फिर उसका योग किया था। 
इसी वर्ग से विक्रमादित्य ने जाना था कि सनातन धर्म क्या होता है और इस काल-स्थान परिस्थिति में सनातन धर्म की रक्षा कैसे की जाये!
[इसी वर्ग से हर्षवर्धन ने जाना था कि उसे अब क्या करना है।]
भारत इन्द्र[मानसून] की कृपा से धन-धान्य से समृद्ध रहा अतः जब भी पृथ्वी के किसी भी भूभाग में जनसंख्या वृद्धि होती और आहार की कमी पड़ जाती तो समुद्री रास्ते से भी लोग आते थे। पश्चिम से भूमि मार्ग से तीन वर्ग आते थे। 
एक वर्ग जनसाधारण वर्ग होता था जो शरणार्थी बन कर आता। एक वर्ग जो रजोगुणी-तमोगुणी होता वह सामरिक-आर्थिक दृष्टि से आक्रामक बन कर आता। तीसरा एक वर्ग जो सत्व-गुणी होता वह पत्रकार लेखक की तरह अपनी बौद्धिक भूख मिटाने आता।
इन तीनों वर्गों को भारतीय जन-मानस स्वीकार करता था। शरणार्थी वर्ग को किसी न किसी उत्पादन व निर्माण कार्य में काम मिल जाता। यह वर्ग अपनी एक संस्कृति भी लेकर आता था। अतः उसे एक जातीय नाम दे दिया जाता जो उनके जॉब से जुड़ा होता। 
रज-तम गुणों से आवेशित वर्ग यहाँ अपनी राजनैतिक-आर्थिक सत्ता स्थापित करना चाहता था, वह भी अपने मकसद में सफल हो जाता था क्योंकि पुराना शासक वर्ग ऐशो-आराम में पड़ चुका होता था जबकि नया वर्ग अस्तित्व की लड़ाई लड़ता था। एक दो-पीढ़ी बाद में वह भी ऐशो-आराम में पड़ जाता और नया आया हुआ वर्ग अस्तित्व के लिए लड़ता। इस तरह भारत में बाहर से विस्थापित आते रहते और भारत में स्थापित होते रहते थे। 
     तीसरा वर्ग ईसा एवं पैग़म्बर की तरह और पत्रकार की तरह आता। वे यहाँ से ज्ञानार्जन करके जाते भी थे और यहाँ रूक भी जाते। अनेक ऋषि[वैज्ञानिक] एवं मुनि[दार्शनिक] रूप में शास्त्रों में स्थान भी पा जाते थे। 
इन सभी वर्गों को अपना-अपना धर्म समझाने वाला मनीषी वर्ग ब्राह्मण ही था।
जिसे आप कुम्भ के मेले के नाम से जानते हैं, वह कभी धर्म-संसद के नाम से पहचाना जाने वाला बौद्धिक-समागम, Intellectual-meeting होता था। बारह वर्षों के अन्तराल के बाद की परिवर्तित परिस्थितियों में भारत के किस क्षेत्र में क्या-क्या परिवर्तन आया है इसका अध्ययन उस धर्म संसद में रखा जाता था।   
     परिस्थितियों के परिवर्तन के पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारण विदेशों से आने वाली नई-नई सभ्यता संस्कृतियाँ होती थीं। जिसके तीन बिन्दुओं पर चिन्तन-मनन, विचार-विमर्श होता था। 
1. जीवन शैली में परिवर्तन  2. मान्यताओं में अंतर्द्वंद्व एवं विरोधाभास  3. आर्थिक धरातल पर परिवर्तन । 
इन तीनों बिन्दुओं पर विचार-विमर्श होता और वैज्ञानिक एवं दार्शनिक वर्ग उन पर अपने-अपने विचार रखते। अन्ततः मनीषी ब्राह्मण वर्ग आवश्यकतानुकूल नई मान्यताऐं एवं मिथक बनाता और शास्त्रों में अध्यात्म[स्वभाव, प्रवृति] विषय पर संशोधन करता और नये विधि-विधान शामिल करके जन-साधारण वर्ग, शासक वर्ग और व्यापारिक वर्ग के लिए बनाये गये धर्मों में कर्तव्यों एवं अधिकारों की संशोधित संवर्धित व्याख्याऐं लिखी जातीं। इसे संविधान संशोधन के रूप में देखा जाये तो फर्क इतना ही है कि राष्ट्रीय संविधान में अधिकार दिये जाते हैं और शास्त्रों में कर्तव्य के बारे में बताया जाता रहा है।
अधिकार से टकराव होता है जबकि कर्तव्य निजी अनुशासन होता है। 
हर्षवर्धन ने एक अभूतपूर्ण दुस्साहस दिखाया और इस धर्म संसद में हस्तक्षेप किया जब कि यह व्यवस्था भारत में अनादिकाल से चली आ रही है। अलग-अलग काल खण्डों में फर्क इतना ही होता है कि कभी यह संशोधन लिखित शास्त्रों में होता है कभी अलिखित मान्यताओं में। 
हर्षवर्धन ने देखा कि उस समय के ऋषि-मुनि अपना स्तर खो चुके थे क्योंकि कहते हैं कि जैसा राजा वैसी प्रजा। जब गुप्त शासक ही अर्थव्यवस्था को कॉमर्शियल व्यवस्था बना चुके थे तो फिर जन साधारण वर्ग भी काम एवं अर्थ से मुक्त कैसे रहता! इसका परिणाम यह हुआ कि जो नैतिक रूप से मजबूत थे वे उस आयोजन से दूर हो गये और अपने मूल चरित्र को बनाये रखने के लिये अपने-अपने एकान्त एवं पवित्र स्थानों पर आत्म-केन्द्रित होकर रहने लगे। जैसे कि आज हो गया है।
हर्षवर्धन ने इसी उच्च नैतिक वर्ग से सम्पर्क किया और इनकी सलाह पर इस आयोजन में दखल दिया। अपने सम्राट होने के अधिकारों का उपयोग किया और दो प्रस्ताव रखे। 
एक तो यह कि ‘‘मेरी अध्यक्षता में एक धर्म संसद बिठाई जाए और जो भी संशोधन करना है वह अन्तिम संशोधन हो।‘‘ ऐसा इसलिए किया गया कि धार्मिक या धर्माधिकारी वर्ग अपने वैज्ञानिक-दार्शनिक आचरण से च्युत होकर या कहें पथ-भ्रष्ट होकर, अपने बौद्धिक स्तर से गिर कर शास्त्रोक्त कथनों का मनगढ़न्त अर्थ निकाल कर दान-दक्षिणा को ही सबसे बड़ा पुण्य बताकर कामार्थ अभिप्राय से संशोधन करने लगे थे। इस विषय पर मनमुटाव; वाद-विवाद,लड़ाई-झगड़े तक पहुँचने लगा था।
अतः दूसरा प्रस्ताव यह था कि यह आयोजक राज्य शासक के संरक्षण में होगा और उसमें जनसाधारण को भी शामिल होने की छूट दी जाये।
इसमें सर्वाधिक रोचक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस धर्म संसद में पैग़म्बर मोहम्मद भी उपस्थित थे। उन्होंने भी एक प्रस्ताव रखा या बिल रखा। चुंकि मोहम्मद ने यरूशलम से लेकर पूरे अरब में भी देखा था कि ओझाओं, कबीले के सरदारों, पूँजीपतियों एवं व्यापारियों के माध्यम से जनसाधारण का शोषण होता है और यही स्थिति उन्होंने भारत में भी देखी, अतः उनका प्रस्ताव शोषक एवं शोषित वर्ग पर ही केन्द्रित रहा अतः उनका प्रस्ताव या बिल साम्यवादी मानसिकता से ग्रसित था। जबकि भारत का सनातन मत मध्यम मार्ग में चलना और सम को स्थापित करना रहा है। एक पक्षीय दृष्टिकोण विषमता को पैदा करता है। 
मोहम्मद को लेकर दो मत हो गये। एक वर्ग ने उन्हें दसवें कल्कि-अवतार के रूप में मान्यता दे दी तो एक वर्ग ने उन्हें अमान्य कर दिया। 
प्रसंग आ गया है तो बता देना रोचक रहेगा कि वैसे तो अवतारों की लम्बी सूची है लेकिन दस अवतारों  को विशेष सूची में रखा गया है क्योंकि इन्होंने सनातन धर्म के ईकोसिस्टम को विकसित करने में विशेष भूमिका निभाई थी। इसे विकासवाद या उद्विकास[इवोल्यूशन] के समकक्ष रख कर देखें। 
प्रथम अवतार: मत्स्य-अवतार। यह अवतार व्हेल मछली के रूप में है। यह एक मात्र समुद्री जीव है जो स्तनधारी है। इसने जल-मग्न पृथ्वी पर पर्यावरण सन्तुलन यानी ईकोचैनल का सेटअप संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 
द्वितीय अवतार: कष्यप-अवतार[कछुआ] यह उभयचर है जो जल एवं स्थल दोनों पर रह सकता है। 
तृतीय अवतार: वराह-अवतार[सुअर] जिसने पृथ्वी[भूमि] को दलदल से मुक्त किया। जलीय वनस्पति जमीकन्द रूप में विस्तार लेने लगी। 
चतुर्थ अवतार:  नृसिंह-अवतार। जिसने हिरण्य-अक्ष और हिरण्य-कषिपु को मारा था क्योंकि वे वनों को नष्ट कर रहे थे। ये आधे नर और आधे सिंह थे।
पंचम अवतार: वामन-अवतार। अर्ध विकसित बौना मानव जिसने उस राजा बली को उपजाऊ भूमि छोड़ने को मजबूर किया था जो नगर-निर्माण के लिए भूमि पर के वनों को कटवाना चाहता था। इन्होंने ही जम्बूद्वीप को यूरोप एवं एशिया के रूप में विभाजित किया और राजा बलि को अपने अनुयायियों सहित यूरोप में जाने को मजबूर किया इस तरह भरण-पोषण के लिए आहार पैदा करने वाले भू भाग को मुक्त कराया। उस समय से एशिया आर्यावर्त कहलाया। 
षष्टम अवतार: परशुराम अवतार। सत्व प्रधान जिन्होंने वनों की रक्षा करने के लिए वनों पर अतिक्रमण करने वाले क्षत्रियों का इक्कीस बार नाश किया था। शायद अब बाइसवीं बार ऐसा होगा।  
सप्तम अवतार: रामावतार। सत्व व रज प्रधान जिन्होंने उस रावण को मारा था जिसने दक्षिण भारत को रेगिस्तान बना दिया था और आणविक उर्जा का अनुसंधान कर लिया था।
अष्टम अवतार: कृष्णावतार। जो[सत्व-रज-तम] तीनों प्रकार की प्रवृति का समयानुसार उपयोग करने वाले पूर्ण अवतार। जिन्होंने गौपालन संस्कृति को घर-घर में स्थापित किया। 
नवम् अवतार: बुद्धावतार। जिन्होंने वनों की रक्षा के लिए वैश्य वर्ग को उपदेश दिया और व्यापारिक दोहन से वनों को बचाया। 
दशम् अवतार: कल्कि अवतार। इसी क्रम में कल्कि अवतार का वर्णन भविष्य पुराण में किया गया था कि यह अवतार पश्चिम दिशा से आयेगा। यह अपने पूर्ववर्ती अवतारों की परम्पराओं को अमान्य करेगा। अतः उस समय का ऋषि वर्ग इसे अमान्य कर देगा। 
{सम्पूर्ण अवतार के बाद इन दोनों अवतारों को अंशावतार कहा गया है। इस विषय में विस्तार से नैतिक राज बनाम राजनीति वाले ब्लॉग में पढ़ें।}
पुनः अपने केन्द्रीय विषय पर आते हैं। 
कुम्भ की धर्म संसद में जो प्रस्ताव रखे गये इसमें यह भी प्रस्ताव था कि अब भविष्य में शास्त्रों में संशोधन नहीं होंगे। इस प्रस्ताव को भी मान लिया गया और जन-साधारण को इस आयोजन में भाग लेने के प्रस्ताव को भी मान लिया और राज्य-प्रशासन द्वारा व्यवस्था के प्रस्ताव को भी मान लिया ताकि जन साधारण को सुविधायें दी जा सकें। 
लेकिन इसके एवज में मनीषी ब्राह्मणों ने एक प्रस्ताव रखा कि जब शास्त्रीय संविधानों में समयानुकूल संशोधन नहीं किया जा सकता तो फिर हमें भी दो सुविधायें दी जाये ताकि हम यहाँ आये बिना ही अपने उत्तरदायित्व को निभा सकें। एक तो यह कि ध्यान-योग के माध्यम से ब्रह्मणी स्थिति को प्राप्त करवा कर नये ब्राह्मणों का सृजन करें और ब्राह्मण सत्ता का विस्तार कर सकें। दूसरी यह कि क्षत्रियों की तरह जनसाधारण को भी पितृ कुल परम्परा से जोड़ कर उन्हें कुलीन बना सकें,ऐसी व्यवस्था बनाने दी जाये। 
इसी बिन्दु पर पुष्कर सरोवर[झील] के पुनरोद्धार के समय दो प्रकार के यज्ञों का आयोजन किया गया। 
एक प्रकार का यज्ञ वैदिक यज्ञ था दूसरे प्रकार का यज्ञ ब्रह्म यज्ञ था। 
वैदिक यज्ञ से पुरोहित,राजपूत और कायस्थ तीन प्रकार के आचरण विकसित किये गये जिनकी सत्ता  पूरे भारत में फैली।
ब्रह्म यज्ञ के लिए ऐसे गुरूकुलों को स्थापित किया गया जो ध्यान योग से सम्बन्धित थे। यह ब्राह्मण सत्ता थी जो पूरे भारतवर्ष में तो फैली ही; ईसाई धर्म और इस्लाम में भी इस ब्राह्मण सत्ता का धार्मिक सत्ता के नाम से विस्तार हुआ। 
[वैदिक-यज्ञ के माध्यम से साधारण व्यक्ति को सत्व-गुणी रजोगुणी और तमोगुणी बनाया जा सकता है। 
वैदिक यज्ञ की शुरूआत आपके रसोई घर में बनने वाले भोजन के रूप में हो जाती है। भोजन के बनाने के समय हुई रासायनिक क्रियाओं से लेकर पाचन क्रियाओं तक;तत्पश्चात् पौष्टिक तत्वों के प्रभाव से मस्तिष्क में होने वाले हार्मोस के स्राव तक को यज्ञ ही कहा जाता है। 
आयुर्वेद की शुरूआत भोजन के पौष्टिक तत्वों में होती है और इसका सर्वोपरी रूप है विजया[भाँग] अम्ल [अफीम] तथा आसव व अरिष्ट[एलकोहल]।
ये तीनों नशीले विष सन्तुलित मात्रा में लिए जाते हैं जिनका उद्देश्य होता है पाचन क्रिया को तेज़ करके आहार की मात्रा बढ़ाना।]

सोमवार, 23 जुलाई 2012

23. तीर्थराज पुष्कर का पुनरोद्धार और नव-समाज-व्यवस्था की नींव !

      हर्षवर्धन खुद चालीस साल की आयु में ही युद्ध में मारा गया था। लेकिन उसने जो कार्यक्रम शुरू किये थे, वे सौ वर्ष तक एक के बाद एक चलते रहे थे। 
हर्षवर्धन ने पुष्कर झील का पुनरूद्धार करवाया। झील की मिट्टी को खोदकर पका कर उसे पहाडों  की चोटियों तक पहुँचाया गया इसके लिए गधों का उपयोग किया गया।
यह चरण समाप्त होने के बाद पहाड़ियों की चोटियों पर झील के बाहर की तरफ छः सौ पचास यज्ञशालाओं का निर्माण कराया गया। जो 5X5X5X5 के सांख्य के आधार पर आधारित थी।
अंग्रेज़ों ने भी जब भारतीय जातीय समुदायों को भाषा, सांस्कृतिक प्रथाओं एवं पहनावा[ड्रेस कोड] के आधार पर सर्वेक्षण कराया था तो उन्होंने भी 650 जातीय समूह रेखांकित किये थे।
उत्तर भारत में इसे पंच गौड़ शिक्षा व्यवस्था और दक्षिण भारत में पंच-द्रविड़ शिक्षा व्यवस्था कहा गया।
इन यज्ञ-शालाओं में पुरोहितों की नियुक्ति करके अलग-अलग जातीय समुदायों के लिए भेषज योग पर आधारित वर्गीकृत खाद्य पदार्थों को पकाने की विधियाँ अपनाई जाती थी।
    आज आप जिस जाति व्यवस्था में हैं यह व्यवस्था बहुत पुरानी नहीं है। यह आज से 1500 वर्ष पुरानी है। छठी शताब्दी की हर्षवर्धन के समय की बनी हुई है।
भारत की इस जातीय व्यवस्था को रोज़गार के दृष्टिकोण से देखे तो स्थिति यह बनती है कि प्रत्येक बालक पैदा होते ही अपने पैतृक रोजगार में दक्ष होना शुरू हो जाता है।
बच्चा जब मां के गर्भ में होता है तभी से वह अपने परम्परागत कार्य के धर्म[कर्तव्य एवं अधिकार] के प्रत्येक बिन्दु को संस्कार में ग्रहण करना प्रारम्भ कर देता है।
जब इस व्यवस्था को बनाया गया था तब इस नव-समाज-व्यवस्था की यह विशेषता थी कि कोई भी व्यक्ति,परिवार या समूह अपना धर्म[रोज़गार] बदलना चाहता तो बदल सकता था। क्योंकि यह आवश्यक नहीं होता कि किसी जातीय समूह की जनसंख्या जिस अनुपात में बढ़े उसी अनुपात में उनके विषय के रोजगार का सृजन हो अर्थात् उनके द्वारा निर्मित या उत्पादित सामग्री या द्रव्य की खपत उसी अनुपात में बढ़े। जहाँ जिस रोज़गार में सम्भावना बढ़ती उसी रोजगार को अपनाने के लिए वे अपना धर्म[जाति] बदल सकते थे। 
इस परिवर्तन के बाद उनके लिये आवश्यक होता था कि वे नये अपनाये जाने वाले धर्म[जातीय सम्प्रदाय] के अनुसार पौष्टिक आहार,पहनावा,दैनिकचर्या और सामाजिक रीति-रिवाज़ को अपनाऐं ताकि उनकी बौद्धिक एवं शारीरिक क्षमता वैसी ही बन जाये जैसी उस विशिष्ट रोज़गार के लिए कल्याणकारी हो।
इस तरह निर्माण एवं उत्पादन के विज्ञान की वैदिक-परम्परा तथा शिक्षा परम्परा वाली ब्राह्मण परम्परा, इन दोनों का योग करके एक सनातन समाज-व्यवस्था की नींव डाली गई।
    आज इस जातीय व्यवस्था का मूल उद्देश्य तो गौण हो गया और मान्यताएँ Recognition, Tradition,Convention, Respectability नामक बेड़ियाँ बन कर रह गयी हैं।

22. पुष्कर के यज्ञ अनुष्ठान में पाँच जातियों की उत्पत्ति !

     पुष्कर में झील के पुनरुथान का जो यज्ञ चला उसमें जो लोग श्रमिक थे तथा मिट्टी खोद कर ईंटें पकाकर गधों के माध्यम से पर्वतों के ऊपर डालने का काम करते थे उन्हीं को विजया का सेवन कराया गया और गाय का दूध और शर्करा का भरपूर आहार देकर उनमें सत्व की वृद्धि की गयी और उन्हें वैदिक पुरोहित बनाया गया जो यज्ञशालाओं में भोजन पकाने की विद्याओं में पारंगत विद्वान बने। ये कालान्तर में पुष्करणे ब्राह्मण भी कहलाये। पौष्टिक आहार पकाने की विद्या के वैद्य होने के कारण ये पुष्टिकर ब्राह्मण भी कहलाये। 
भारत में उस समय कोई योद्धा जाति नहीं थी अतः यहाँ का यज्ञ रजोगुणी राजपूतों की उत्पत्ति के परिप्रेक्ष्य में ही जाना जाता है। रजोगुण की वृद्धि के लिए अम्ल[अफीम-अमल] का सेवन करवा कर घी और गुड़ का भरपूर आहार दिया गया। रजोगुण काम[परिश्रम) और भोग[भरपूर आहार]माँगता है। अतः घुड़सवारी करके, आखेट पर जाकर और तलवारबाज़ी से शरीर की मांसपेशियों को मज़बूत करने के योग करवाये गये। इस तरह भारत में एक श्रेष्ठ योद्धा नस्ल को विकसित किया गया ताकि वे गण-राज्यों की रक्षा कर सकें। इनका मूल नाम रजपुत्र था जो कि वैदिक शब्द रक्षस का पर्यायवाची था। रजपुत्र से राजपुत्र बना और फिर राजपूत बन गया।
तीसरा वर्ग खाता-बही लिखने वाले और एकाउण्टेण्ट के काम के लिए विकसित किया गया। यह वर्ग भू-राजस्व काश्तकार] का हिसाब रखने के कारण कायस्थ कहलाये। काश्तकारों के बही खाता लिखने के कारण कायस्थ शब्द बाद में उर्दू के प्रचलन के बाद पड़ा। इनका मूल नाम राय था जो कि राव शब्द के समकक्ष मायने रखता है। इनको एल्कोहल का सेवन कराया गया और मांसाहार कराया गया। भारत में इनकी आठ जातियाँ हैं।
ये तीनों महाऔषधियाँ या विष-औषधियाँ कहलाती हैं। महादेव ने जिस विष को कण्ठ में रोका था, वह विष विजया एवं अम्ल ही था। शक्ति के शराब चढ़ती है।
इन तीनों महाऔषधियों की विडम्बना यह है कि ग़लती तो करते हैं इसका सेवन करने वाले जो इनकी मात्रा तो अधिक लेते है, आहार कम लेते हैं। जबकि बदनाम होती हैं ये तीनों महाऔषधियाँ। 
अफ़ीम,घी,गुड़ खाकर राजपूतों की नस्ल विकसित हुई और मुग़लों व अंग्रेज़ों की संगत में शराब पीकर बर्बाद हो गई। अफीम लेने वाले घृत के स्थान पर चाय पी-पी कर बर्बाद हो गए।
[गुरू गोविन्द सिंह ने भी अफीम का सेवन करवा कर सिखों को योद्धा बनाया था। यह नस्ल भी शराब पीकर बर्बाद हो गयी है।]
राजपूतों सहित इन तीनों नस्लों को सात पीढ़ियों तक यज्ञ करवाया गया तब जाकर इन तीनों नस्लों के शुक्राणुओं के गुणसूत्रों Sperm chromosomes में यानी संतति परम्परा Generation Practices में ये तीन विशिष्ट आचरण विकसित हुए थे। इस तरह यह यज्ञ सौ वर्षो तक चला था। 
    [कुछ लोगों ने यज्ञ को यथा-अर्थ नहीं जानकर यानी यज्ञ को हवन जैसे अन्यथा अर्थ[अदरवाईज़ मीनिंग] में लेकर यह कल्पना कर ली कि राजपूतों के चार गोत्रों के चार पुरूष हवन कुण्ड से निकले थे।]
ये तीनों नशे हानिप्रद तब होते हैं जब व्यक्ति व्यसनी हो जाता है तथा इन तीनों के लिए निर्धारित आहार की पर्याप्त मात्रा नहीं लेता है।
राजपूतों की उत्पत्ति का काल छठी शताब्दी था। एक शताब्दी के अन्दर-अन्दर राजपूतों का राज उत्तर-पश्चिम में हिन्दुकुश यानी रूस की सीमा तक फैल गया था। उत्तर-पूर्व में बर्मा तक तथा दक्षिण में कर्नाटक तक फैल गया था। लेकिन राजपुत्रों के फैलने का तरीका भी अलग था।
मनीषी ब्राह्मणों ने एक पौराणिक परम्परा को पुनः जीवित किया। वह परम्परा थी स्वयंवर की,अपने वर का चुनाव स्वयं करने की। बर्मा का नाम ब्रह्म प्रदेश था जो बाद में बर्मा पड़ा और वहाँ के शासक बर्मन कहलाये। हिन्दुकुश तक हिमालय का पठार है वहाँ के शासक पठान कहलाये जो कालान्तर में हिमाचल तक आते आते पाल हो गये।
नेपाल के क्षेत्री, त्रिपुरा मणिपुर के शाक्तबर्मा के बर्मन राजघरानों तक तथा बंगाल,उड़ीसा,आंध्रा, कर्नाटक,महाराष्ट्र,गुजरात,अफ़ग़ानिस्तान,हिंगलाज माता की पहाड़ियों तक पूरे भारत में स्वयंवर रचाये जाने लगे और वहाँ राजपुत्रों को आमन्त्रित किया जाने लगा। वहाँ की राजकुमारियाँ स्वयंवर के माध्यम से इनको वर रूप ने चुनतीं और ये वहाँ भावी राजा या राजा के पद पर स्थापित हो जाते।
इन राजपूतों के साथ पुरोहित और लेखाधिकारी भी जाते। इस तरह पुष्कर तीन प्रकार की विशेषता रखने वाली तीन नस्लों के नरों का उत्पत्ति स्थान बना।
    ये तीनों जातियाँ देवयज्ञ से उत्पन हुईं जिसमें वेदों के ज्ञान का उपयोग किया गया। चूँकि ऋगवेद में आहार का विज्ञान है तो यजुर्वेद में गर्भधारण का विज्ञान है लेकिन सामवेद में स्तुति है जिसमे साइन्स के स्थान पर सैंस की आवश्यकता होती है। अतः ब्रह्म यज्ञ द्वारा चारण जाति का विकास किया गया। जिनके लिए गीता के विभूतियोग में कहा है मैं कवियों में उष्णा कवि हूँ। एक चारण जब किसी श्रद्धाहीन को भी अपने बोलों से आवेशित करता है तो उसी समय वह बलहीन बलवान की तरह व्यवहार करने लग जाता है।
    इस चौथी मानसिक नस्ल के साथ ही मुझ नारद की जाति का उद्भव हुआ।
राजपूत अपनी सैनिक छावनियाँ स्थापित कर लेते जिनकी मुख्य ज़िम्मेदारी थी सुरक्षा। वनों में विचरण करने वाले हिंसक पशुओं से, जिनकी तादाद काफ़ी हो गयी थी, उनसे कृषि क्षेत्र और पालतू पशुओं की रक्षा करना और उसके एवज में ग्रामीण कृषक क्षत्रियों से कृषि-उत्पादन का एक भाग लेना। 
पुष्कर झील के एक तरफ की एक पहाड़ी पर राजपूतों ने केन्द्रीय राजधानी बनाई। उसका नाम रखा अजयमेरू, मेरू, पर्वत को कहा जाता है,ऐसा पर्वत जिसको कोई जीत नहीं सकता। यह बाद में अजमेर बना।
लेखा विभाग कायस्थों के हाथ में था तो व्यापार की ज़िम्मेदारी गुप्तों ने सम्भाली। यानी गुप्त शासक श्रेष्ठ वैश्य बन गये। तथा बौद्ध-जैन सम्प्रदायों में जैनियों को कर्नाटक के हुबली-धारवाड़ के क्षेत्र को छोड़ कर सभी स्थानों पर से धर्म परिवर्तन करा दिया गया। दक्षिण भारत में जैन उत्तर भारत के कायस्थों की तरह लिपिक एवं खाताबही का काम करने लग गये। सिर्फ दक्षिण के इस स्थान को छोड़ कर सभी स्थानों से जैन बस्तियों को हटा दिया गया। जैन सम्प्रदाय के जैन शब्द को भी हटा दिया और इसके स्थान पर आदिनाथ सम्प्रदाय कर दिया गया। वनों में रहने वाले आदिवासियों को वनों की रक्षा करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया और अहिंसा शब्द को भी हटा दिया गया। जैन मन्दिरों में जो प्रतिमाऐं थीं उनको आदिनाथ बाबा एवं आदिबाबा बना दिया गया और इन आदिवासियों में यह मान्यता स्थापित कर दी कि यदि कोई आदमी जंगल में शाकाहारी पशु  का शिकार करेगा तो उस पर आदिबाबा का कोप होगा और यदि कोई व्यक्ति शाकाहारी पशुओं को मारने वाले मांसाहारी पशु का शिकार करके बाबा के चढ़ायेगा तो बाबा खुश होकर तुम्हारी रक्षा करेंगे। दिगम्बर आदिबाबा को बाघाम्बर बना दिया गया। 
  जहाँ जैन मन्दिर नहीं थे वहाँ शिवलिंग स्थापित किये गये।
मुनि-ऋषि से बना मनीषी और मनीषी से बना मनुष्य मान्यताओं को बनाता है और मानव उन मान्यताओं को मानकर अपनी एक विशेष मानसिकता बनाता है। यह ब्राह्मण-अनुशासन परम्परा कही गई है।
   [ सोलहवीं शताब्दी में जब बादशाह अकबर ने भी अशोक की ही तरह भारत के अधिकांश क्षेत्रों को जीत लिया तो उसकी भी सेना राज्य पर आर्थिक बोझ बन गई थी। अशोक की ही तरह अकबर ने भी जैन सम्प्रदाय में दीक्षा ली और पूरी तरह से काल के अतीत में खो चुका जैन सम्प्रदाय पुनः उत्तर पश्चिम भारत में पनपने लगा। क्योंकि अकबर ने अपने सैन्य कर्मचारियों को जैन बनाकर उन्हें अहिंसा धर्म को मानने वाले व्यापारी बना दिया।
   जो सैन्य कर्मचारी राजपूत रह चुके थे उनकी एक समस्या थी कि वे शक्ति की पूजा करते थे और बौद्ध-जैन सम्प्रदाय में इस तरह की कोई मान्यता नहीं होती बल्कि प्राकृत धर्म की मूल अवधारणा में तो वैवाहिक पारिवारिक विषय को छुआ तक नहीं गया है। सिर्फ़ सन्तति या प्रजाति विस्तार की अवधारणा है। जबकि दूसरी तरफ प्राकृत धर्म में मात्तृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था होती है। चूँकि कूटनीति में नियम-सिद्धान्त मान्यताऐं अपने प्रासंगिक हित में अप्रासंगिक कर दी जाती हैं, अतः श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में भी राजपूतों की कुलदेवियों को जैन कुलदेवियाँ बना दिया गया।
   इस नव श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय को राजकीय अनुदान के रूप में धन देकर इन्हें व्यापार में भी करों की छूट देकर भारत के पश्चिम में फैला दिया गया। राजकोष से धन देकर सिन्धु घाटी और ईरान एवं अन्य क्षेत्रों में भी जैन मन्दिर बनवाये गए जो आज भी अपनी भव्यता लिए खड़े मिलेंगे।
   दूसरी तरफ दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में उन्हीं लोगों ने दीक्षा ली जो पहले से ही अग्रवाल-खंडेलवाल  इत्यादि वैश्य जातियों से थे,जैन बनाए जा चुके थे। इनमें नसियाँ और जिनालय भी विकसित किये गये थे तो इनके समाज में एक प्रथा प्रचलित की गई।
      इनके लड़कियाँ अधिक होती थीं और पंजाब तथा आगे के पठारी क्षेत्र में लड़कियाँ बहुत कम होती थीं। अतः ये जैन अपनी लड़कियों को बेचते थे इससे समाज में नर-मादा अनुपात सन्तुलित होता था।
[द्रौपदी का एक नाम पांचाली भी था क्योंकि उसके पाँच पति थे और पांचाल देश में यह प्रथा पूर्वकाल से चली आ रही है। पंजाब में कुछ समय पहले तक प्रचलन में थी।]
छठी शताब्दी में एक तरफ तो वैदिक यज्ञों के द्वारा इन जातियों की उत्पति हुई और राजकीय सत्ताओं को एक अलग रूप से विकसित किया गया दूसरी तरफ ब्राह्मण सत्ता को विस्तार दिया गया।