vivarn

Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.



कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।

Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made ​​by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

सोमवार, 30 जुलाई 2012

48. ब्राह्मण सम्प्रदाय एवं शैव सम्प्रदाय !


      वैष्णव सम्प्रदाय सनातन धर्म की तीन शाखाओं में से एक है। ब्राह्मण संम्प्रदाय अध्यापकों, गुरूओं, शिक्षकों, ज्ञानियों, धर्मगुरूओं, आचार्यों इत्यादि वर्गों का सम्प्रदाय है तो शैव सम्प्रदाय क्षत्रियों, कृषि उत्पादकों, प्राकृतिक उत्पादकों, वनवासियों, श्रमजीवियों इत्यादि वर्गों का सम्प्रदाय है । 
   ब्राह्मण परम्परा ब्रह्म-भाव को विकसित करने के कर्तव्य कर्म की  परम्परा है, जबकि शैव-सम्प्रदाय ईश्वर-भाव को विकसित करने के कर्तव्य कर्म की परम्परा है । इन दोनों सम्प्रदायों को शिक्षा एवं स्वास्थ्य के परिप्रेक्ष में समझना  चाहिये । 
    जब सांस्कृतिक सभ्यताऐं पूरी तरह फोरेस्ट ईकोलोजी और एग्रीकल्चर ईकोलोजी से सीधा सम्बन्ध रखने वाली होती है, तब ज्ञान-विज्ञान की दिशा अव्यक्त की सच्चाई जानने की दिशा में जिज्ञासु होती है। ऐसी स्थिति में ब्राह्मण एवं शैव क्रमषः ब्रह्म और ईश्वर को जानने लग जाते हैं तब प्रकृति को माया अथवा योग माया कह कर मिथ्या (बनावटी) कह कर इसके अध्ययन को तुच्छ और सांसारिक कहते है । 
      लेकिन जब बाह्मण-क्षत्रिय आधारित सांस्कृतिक सभ्यता में व्यापार और वाणिज्य करने वाला वर्ग पैदा होता है तो ब्रह्म एवं ईश्वर भाव के विपरीत एक अभाव ग्रस्त वर्ग विकसित होने लगता है यानी उपजने लगता है। 
      चुंकि यह वर्ग मानसिक एवं शारीरिक दोनों आयामों से दुर्बल होता है अतः अभाव ग्रस्त होता है । इसी वर्ग को धर्म धारण करवाने का काम वैष्णव सम्प्रदाय का है । 
    कृष्ण ने वैष्णव सम्प्रदाय की स्थापना की। क्योंकि उस समय व्यापारी वर्ग के रूप में विदेशी  यक्षों ने अपनी वित्तीय सत्ता स्थापित कर ली थी। वही वैष्णव धर्म, जो कालकलवित हो गया था, उसे छठी शताब्दी में काल-स्थान-परिस्थिति के यथार्थ अनुरूप में पुनः स्थापित किया गया। अर्थात् वैष्णव मन्दिर अर्थव्यवस्था के केन्द्रीय कार्यालय या मुख्यालय थे और सनातन-धर्म या ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के प्रशासनिक स्थान थे। 
      ग्रामीण समुदाय अपनी वर्ष भर की आवष्यकताओं के जितना संग्रह करके बचे हुए अतिरिक्त उत्पादन को मन्दिर में चढ़ा देते थे। 
      गुप्त काल में जो भव्य अट्टालिकाऐं व्यक्तिगत हुआ करती थी उनका स्थान भव्य मन्दिरों ने लेना शुरू कर दिया । धीरे-धीरे नगर भी नष्ट हो गये और सनातन धर्म का वैभव लौटने लगा था। 
    वैष्णव मन्दिर एवं शैव मन्दिरों की संख्या गुप्तकाल में भी कम नहीं थी लेकिन उस समय ये दो सम्प्रदायों के रूप में वैमनस्य फैलाने वाले केन्द्र थे जबकि हर्षवर्धन के आन्दोलन में इन्हे निःशुल्क शिक्षा, आहार, भजन कीर्तन एवं चिकित्सा केन्द्र के रूप में विकसित किया गया । इन मन्दिरों की विपुल सम्पतियाँ, विष्णु एवं लक्ष्मी के श्रृंगार के स्वर्ग आभूषण इत्यादि ब्राह्मण गवर्नमेन्ट के एक तरह के राज्य कॉष का हिस्सा थे। 
    ये मन्दिर तीर्थ यात्रियों के विश्राम स्थल, तीर्थाटन के केन्द्र और उत्सवों त्यौहारों के केन्द्र तो थे ही थे लेकिन इनकी विषेष भूमिका तब बनती थी जब अकाल पड़ जाता था। इसी तरह की भूमिका के रूप में ईसाईयों के चर्च एवं इस्लामिक सम्प्रदाय की मस्ज़िदों का विकास हुआ। चर्चों एवं मस्ज़िदों में तथा वैष्णव मन्दिरों में एक फर्क अवष्य रहा। वह था देवी-देवताओं के विभागों के रूप में वैष्णव मन्दिर जाति आधारित थे । कालान्तर में मस्ज़िदें एवं चर्च भी साम्प्रदायिक विभाजन को स्वीकार करने लग गये। 
    राग एवं द्वैष जनित जातीय वैमनस्य जैसा आज हम देख रहे हैं वैसा कभी नहीं रहा। सभी जातियाँ एक दूसरे के जॉब के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास रखने वाले रहे हैं क्योंकि सभी जातियाँ एक दूसरे की पूरक होती हैं, आवष्यक वस्तुओं की आपूर्ति परस्पर होती है, यह समझ हमारे पूर्वजों में रही है । 
   सभी देवी-देवता किसी न किसी जाति विशेष के देवता होते थे लेकिन वर्ष में एक दिन ऐसा भी आता था जब ये सभी मन्दिर एक साथ एक समान सभी जातियों के उत्सव का केन्द्र होते थे। वर्ष का वह एक दिन वह दिन होता था जो उस देवता का जन्म दिन होता था तथा विशेष उत्सव एवं त्यौहार के नाम से जाना जाता था । उस दिन वहाँ  मेला लगता और प्रसाद वितरित होता था । वितरित किया जाने वाला प्रसाद निकट भविष्य में होने वाली मौसमी बीमारियों की अग्रिम चिकित्सा के रूप में औषधि होती थी । 
शैव एवं शाक्त सम्प्रदाय 
संख्या बल से देखा जाये तो ब्राह्मण सम्प्रदाय का अनुपात न्यूनतम रहा है । एक-दो प्रतिशत। वैष्णव सम्प्रदाय का प्रतिषत भी पाच दस से ऊपर नहीं रहा। वैष्णव सम्प्रदाय में वैष्य वर्ग के साथ-साथ निर्माण से जुड़ी जातियों को भी शामिल किया जाता है। क्योंकि इन्हें ही तो प्रकृति के महत्व को समझाया जाता है। ये सभी मिलाकर भी दस-पन्द्रह प्रतिषत से अधिक नहीं रहे। जबकि नब्बे प्रतिषत जातियां शैव सम्प्रदाय में आती हैं। 
वे सभी जातियां जो किसी न किसी प्राकृतिक उत्पादन से जुड़ी होती हैं वे शैव सम्प्रदाय में आती हैं । इन्हीं प्राकृतिक उत्पादक जातियों में विषेषकर फारेस्ट ईकोलोजी यानी, वनोत्पादन की अर्थ व्यवस्था से जुड़ी जो जातियाँ हैं उनमें मातृ सत्तात्मक परिवार या समाज से जुड़ी जातियाँ शाक्त सम्प्रदाय में आती हैं। जैन एवं बौद्ध सम्प्रदाय की शाखायें भी पितृ एवं मातृ सत्तात्मक भागों में विभाजित हैं। विषेषकर दिगम्बर जैन और बौद्धों में झेन सम्प्रदाय। झेन शब्द जैन का ही अपभ्रंष उच्चारण है । 
शैव सम्प्रदाय में शाखायें इस प्रकार हैं:-
    1. पशुपतिनाथ सम्प्रदाय 
नाथ
स्वामी
भैरव 
    2. परशुराम सम्प्रदाय
        क ब्राह्मण 
        ख वैरागी
        ग उदासीन
    3. आदिनाथ सम्प्रदाय 
नाथ
ख    स्वामी
  भैरव
   4. दत्तात्रैय द्वारा प्रचलित गुरू-शिष्य परम्परा 
दत्त सम्प्रदाय


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