vivarn

Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.



कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।

Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made ​​by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

रविवार, 23 सितंबर 2012

सामाजिक भ्रष्टाचार से मुक्त भारत देश !

आपने संस्कृत की एक कहानी का अनुवाद अवश्य पढ़ा होगा। जिसमे  बताया गया है कि एक विद्वान पंडित को बछड़ा दान में मिलता है उसे लेकर वह अपने गाँव जा रहा होता है। मार्ग में वह चार धूर्त बुद्धि ठगों का शिकार हो जाता है।  

चारों ठग मार्ग में सुनियोजित तरीके से कुछ दुरी पर खड़े हो जाते हैं| 

पहला ठग कहता है 'ब्राह्मण हो फिर भी गधा लिए फिरते हो'। पंडित उसकी बात पर बछड़े को ध्यान से देखता है और कहता है यह गधा नहीं बछड़ा है।

कुछ दूरी पर दूसरा ठग भी उस बछड़े को गधा बताता है। पंडित गंभीरता से बछड़े को देखता है, कुछ दुरी पर तीसरा ठग मिलता है। वह भी बछड़े को गधा कहता है और पूछता है पंडित जी गधा कितने  में लाये!तब पंडित को कुछ शंका होती है।


इस तरह जब चौथा ठग भी कहता है कि 'पंडितजी कुम्हार के यहाँ से दान में गाय नहीं मिली तो गधा ही ले आये'। इस तरह जब चारों ठग एक ही बात को दोहराते हैं तब,विद्वान और ज्ञानी पंडित की शंका भी विश्वास में बदल जाती है और ठगों की योजनानुसार वह शर्मिंदगी से बचने के लिए गधे को छोड़ कर आगे बढ़ जाता है। 


इस तरह धूर्त-बुद्धि ठग एक ज्ञानी और विद्वान पंडित को भी भ्रमित कर देते हैं।  

इसी तरह, एक कूटनीतिज्ञ कहता है कि एक झूट सौ बार दोहराओ तो वह सच में बदल जाती है। 
ठीक इसी तरह जब जाति व्यवस्था की बार बार आलोचना की गयी तो आप जैसे पुरुषार्थियों में भी दोगलापन आ गया। 

गीता के सर्वाधिक प्रचलित श्लोक में कहा है साधुओं की रक्षा करने के लिए मैं अपना सृजन करता हूँ।यहाँ मैं से तात्पर्य ब्रह्म / Brain है और सीधे-साधे जनसाधारण के लिए साधू शब्द का उपयोग हुआ है, न कि वेशभूषा Dress code का दुरूपयोग करने वालों के लिए हुआ है। चूँकि भारत में भगवान के बनाये अर्थशास्त्र से धनधान्य उपजता है अतः यहाँ बुद्धि में धूर्तता की आवश्यकता नहीं होती है और सहजता बनी रहती है। इसी कारण ज्ञानी और विद्वान् पंडित भी सहजता से बछड़े को छोड़ देता है क्योंकि गधा रखना वह अपनी गरिमा के विरुद्ध समझता है।

इसी तरह एक तरफ तो आप अपने परम्परागत जाति-धर्म [रोजगार] का आधुनिकरण करने के स्थान पर परम्परा से मिले आरक्षित रोजगार को गरिमाहीन मान कर उसे छोड़ने लगे हैं। दूसरी तरफ आप जाति-प्रथा को राजनैतिक कारणों से मजबूती दे रहें हैं तो तीसरी तरफ जाति-प्रथा को समाज का नासूर कह कर आलोचना भी कर रहे हैं।.


क्या  आपके पूर्वज मुर्ख थे ? जो उन्होंने जाति-प्रथा बनायी ! शायद आपके जितने तो नहीं थे। 
नहीं ! 

जाति प्रथा बनाने के पीछे तीन वैज्ञानिक और तर्कसंगत कारण हैं। जब आप जाति आधारित परिचय और वैवाहिक बंधन को समाप्त नहीं कर सकते तो इसके पीछे  के कारण जानना आपका धर्म [दायित्व एवं अधिकार ] बनता है


1. आर्थिक-शैक्षणिक  लाभ - आज आप आरक्षण के लिए दौड़ रहे हैं जबकि इस व्यवस्था में आपका परम्परागत रोजगार आरक्षित होता है। 

आप अप्रिय लगने वाले विषय को रट कर पढ़ते हैं. ऊपर से पैसे भी खर्च करते हैं, फिर भी न तो नोकरी मिलती है और न ही योग्यता पनपती है। जबकि वंशानुगत रोजगार में, गर्भ में ही संस्कार जनित योग्यता विकसित होने लग जाती हैं और रोजगार के लिए भटकना भी नहीं पड़ता। रोजगार एक ऐसा काम हो जाता जो सभी प्रकार की कामनाएं पूरी करता है। 


2. सामाजिक  लाभ :- एक ही समाज और एक ही रोजगार होता है अतः परस्पर सहयोग बना रहता है, कमाने की प्रतिस्पर्धा नहीं होती बल्कि प्रतिस्पर्धा का रूप योग्यता निखारने के लिए होता है, परस्पर हार-जीत के लिए नहीं। इसी प्रतिस्पर्धा में हस्त कलाओं का विकास हुआ। आज मजबूत सिंथेटिक धागा भी 160 गेज से पतला हो तो मशीन अपने हाथ खड़े कर देती है, जबकि ढाका की विश्व-प्रसिद्ध मल-मल में 240 गेज का धागा हाथ से कात कर बुना जाता था। भारत की हस्त कलाएं जो अवशेष रूप में बची हैं वे भी आश्चर्य जनक हैं।

सामूहिक सुरक्षा कि भावना रहती है। इसी सुरक्षा भाव का परिणाम है आज भारत का नवयुवा पत्थरों के बने जंगलों [ शहरों ] में, इन्द्रियों के चारागाह में स्वछन्द विचरण करता रहता हैं। जबकि विश्वस्तर पर देखा जाये तो सभी राष्ट्रों के युवा अपने भविष्य को लेकर चिन्तित और आशंकित हैं, उनके आक्रोश को लेकर सरकारें चिंतित है। भारत में अभी अभी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में जो भीड़ इक्कठी हुई वह जन आक्रोश नहीं है बल्कि बैठेठालों की भीड़ है। 


 3. वैज्ञानिक लाभ :-  इसका शरीर-वैज्ञानिक कारण है कि जातिगत वर्गीकरण में आनुवांशिक 
Genetic गुणसूत्र की भूमिका होती है। इससे आपकी शारीरिक क्षमता और मासपेशियों कि संवेदनशीलता उसी रोजगार के अनुकूल हो जाती है जो वंशानुगत होता है। अतः आप को वंशानुगत कार्य सिद्धि प्राप्त हो जाती है।प्रशिक्षण के लिए किसी बाहरी व्यक्ति या संस्था का मोहताज होना नहीं पड़ता।

दक्ष होने का और मनोवैज्ञानिक लाभ का एक ही उदहारण पर्याप्त है जो सभी पर लागू होता है। भारत के सुथार [सूत्रधार], खाती, कारपेंटर,गज्जर,जांगीड इत्यादि नामो से जिनको पहचाना जाता है वे जातियाँ  विश्वकर्मा की परम्परा से हैं। आज आप I.T.I.,I.T., Engineer, Industrial Technician इत्यादि को बहुत ऊँची हस्ती मानते हो, लेकिन इस जाति मैं पैदा होने का अर्थ है जन्म-जात इंजिनियर।   


किसी भी साईन्स का उपयोग करने के लिए सेन्स की भूमिका निर्णायक होती है। जब आप विद्यालय में भरती होते है तो बछड़े होते हैं,लेकिन सांख्य को रट कर बिना उस पर प्रयोग-प्रशिक्षण किये और बिना उसकी उपयोगिता जाने ही डिगरी लेकर विद्यालय से बाहर निकलते हैं तो आप की नस्ल,मानसिक-प्रजाति गधा बन चुकी होती है। इसीलिए यह शिकायत होती है कि योग्य कर्मचारी या श्रमिक या तकनीशियन नहीं मिलते।यह समस्या तो एम्प्लोयर की है और बेरोजगारों के लिए पहले एक एम्पलोई और बाद में एक एम्प्लोयर रह चुकने के कारण मेरा अनुभव यह है की आज भारत में बेरोजगारी नहीं हरामखोरी है। क्योंकि कार्य-दक्षता न होने और परिश्रम करने की शारीरिक क्षमता दोनों का जहाँ आभाव हो और ऊपर से पैसों की लालसा वहां हरामखोरी अकर्मण्यता नहीं बल्कि एक सहज आचरण बन जाता है।    


आप यदि निकट भविष्य में आर्थिक सामाजिक एवं शैक्षनिक, तीनो विषयों में भ्रष्टाचार मुक्त समाज चाहते हैं और साथ में अपने परिजनों व समाज सहित एक उच्चस्तर की जीवन-शैली प्राप्त करने के साथ-साथ अपने जॉब में योग्यता का स्तर भी प्राप्त करना चाहते हैं तो आपको एक काम करना होगा। 


अपने अपने तहसील क्षेत्र में अपनी-अपनी जाति का एक एक विद्यार्थी प्रतिनिधि समूह बनायें। ये सभी समूह जिला स्तर पर अपनी-अपनी जाति का एक-एक राजनैतिक जन प्रतिनिधि के रूप में विद्यार्थी समूह बनायें। इस तरह सभी जातियों के समूह के एक एक मुखिया मिलकर एक ऐसे व्यक्ति को अपना राजनैतिक प्रतिनिधि चुनें जो सभी को मान्य हो,वह निर्दलीय क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि भी हो जाएगा और आपके जातीय प्रतिनिधियों का समूह भी हो जायेगा जिनका उदेश्य अपने जिले का चहुँमुखी विकास हो न कि इकतरफा प्रदूषित शहरी करण हो।


ये सभी जातीय समूह अपना बौद्धिक स्तर बनाए रख कर परस्पर मैत्री भाव से मंत्रणा करें और एक राजनैतिक जन प्रतिनिधि का सर्व-सम्मति से चुनाव करें और उसको निर्दलीय के रूप में खड़ा करें और अपने सभी जातीय बंधुओं में घोषणा करदें कि सभी उसी को मतदान करें।


यदि आप ऐसा कर लेते हैं और संसद में दो सो सांसद भी निर्दलीय आ जाते हैं तो हम पूरी संसद को निर्दलीय बनाने का मार्ग खोज सकते हैं। तब फिर संविधान में निर्विरोध और शतप्रतिशत समर्थन से संसोधन करके एक ऐसी व्यवस्था बना सकते हैं जो राष्ट्रहित, देशहित और मानवीय-हित में हो, मात्र दलीय-हित और हाई कमान के व्यक्तिगत-हित को देख कर चलने वाली इस राजनीति-व्यवस्था से जब तक मुक्ति नहीं मिलेगी, आप जातिगत आर्थिक सुरक्षा और सरकारी सेवा में,राजनीति में ,निजी व्यवसाय और शिक्षा इत्यादि में न तो आरक्षित ही रहने करने वाली और न ही भ्रष्टाचार से मुक्त करने वाली व्यवस्था बना पायेंगे।संविधान में इतना बड़ा परिवर्तन सर्व-सम्मति से ही सम्भव है जो निर्दलीय संसद बिना सम्भव नहीं हो सकता।


वर्तमान में तो यह स्थिति है चाहे आपके जातीय समाज की संस्था हो या चाहे व्यावसायिक विषय की कोई यूनियन हो आप जब वहाँ भी पदाधिकारी बनते ही सत्ता का उपयोग व्यक्तिगत लाभ के लिए करने लग जाते हैं तो फिर सरकारी संस्था में भ्रष्टाचार मुक्त भारत की कल्पना कैसे कर सकते हैं। अतः आप जो भी समूह बनायें मित्र-मण्डली हो न कि कोई पदाधिकारियों वाली रजिस्टर्ड संस्था हो।


जब आप इस उपर्युक्त व्यवस्था को बना लेते है तो एक तरफ तो 
सत्ता का इतना विकेंद्रीकरण हो जायेगा कि  एक साधारण व्यक्ति भी अपने जातीय समाज के प्रतिनिधि से अपने जॉब में आने वाली अड़चनों और उन्नति के परिप्रेक्ष में सुझाव दे सकेगा तो दूसरी तरफ निर्णय को लागू करने के लिए जनप्रतिनिधि किसी अन्य का यानी पार्टी हाई कमान का मोहताज नहीं रहेगा।

जिस व्यवस्था में भ्रष्टाचार को पारिभाषित करने की आवश्यकता समाप्त हो जाए और सुन्दरतम जीवन की परिभाषा क्या हो उस पर चिन्तन हो तब उस समाज को भ्रष्टाचार मुक्त समाज कहा जायेगा।


जिस तंत्र में स्व का अर्ग हो और प्रतिस्पर्धा में हार जीत नहीं बल्कि किसने कितना व्यक्तित्व विकास किया, कौन अपने कार्य में कितना दक्ष है, किसने अपने जातीय बंधुओं के कार्य में आधुनिकता लाने के लिए अनुसंधान किया इत्यादि प्रतिस्पर्धा हो तब समाज भ्रष्ट्राचार मुक्त कहा जायेगा।


समाज का एक भी व्यक्ति अथवा परिवार अभाव-ग्रस्त नहीं रहे ऐसा सर्वेक्षण चलता रहे तब समाज भ्रष्टाचार मुक्त कहा जायेगा।


जब समाज के प्रतेक व्यक्ति को मानव समाज में अपने जातीय समाज की भूमिका पर गर्व हो तब वह समाज भ्रष्टाचार मुक्त कहा जायेगा।


आज की स्थिति तो यह है की "धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का". न तो जाति के जॉब को लेकर गर्व है और न ही सामजिक समन्वय है। बस अपनी जाति को लेकर राग-अनुराग है और अन्य जातियों से द्वेष भाव है। न तो अपने परम्परागत जॉब को आरक्षित रख पा रहे हैं और न ही अपने जॉब सम्बन्धी सरकारी विभागों में ही आरक्षण की व्यवस्था बनवा पाए।


सामाजिक भ्रष्टाचार से मुक्ति तब मिलेगी जब राजनीति हो या सरकारी विभाग,गृह उद्दोग हो या भारी उद्योग बैकिंग हो या निजी फाईनेंस हो सभी कार्य अपने अपने परम्परागत जॉब से जुडी जाति के लिए आरक्षित  हों और सभी अपने अपने जातीय-धर्म [ सामजिक कर्तव्य और अधिकार] को धारण किये हुए रहें।


यह सम्भव भी तब होगा जब आप अपने मतदाता धर्म को धारण करंगे और विधायिकाओं को दल दल मुक्त करेंगे।


मंगलवार, 11 सितंबर 2012

विभिन्न सरकारी सेवाओं में जाने के इच्छुक विद्यार्थियों से !Students considering a career in various government services !



प्रिय विद्यार्थी बंधुओं, नमस्कार,


  • आप यदि इसलिए पढ़ रहे हैं कि आपको सरकारी सेवा में लिया जाये। तो निसन्देह आप सरकारी सेवाओं में आरक्षण के समर्थन या विरोध में कुछ न कुछ विचार अवश्य करते होंगे। 
  • भारत में जब बर्तानियाँ सरकार ने सरकारी सेवाओं के लिए भारतियों को आमन्त्रित किया तब किसी ने भी उसमे रूचि नहीं ली। कारण यह था कि सभी लोग अपने अपने जातिगत जॉब में लगे थे, जो उनके लिए पीढ़ी दर पीढ़ी स्थाई तौर पर आरक्षित रोजगार था, कोई भी बेरोजगार नहीं था। 
  • जब विशेष झांसा दिया गया तब उनका तर्क था कि अगर हम नोकरी में आजायेंगे तो दो समस्याएँ पैदा होंगी। एक यह की हमारी अगली पीढ़ी क्या करेगी ! दूसरी यह की बुढ़ापे में हमारा क्या होगा !
  • तब उन्होंने सेवा निवृति के बाद दो लाभ देने की बात कही, 1. घर के किसी भी एक सदस्य को उसी विभाग में नोकरी देना 2. सेवानिवृति वेतन Retirement Pension देना, तय किया।
  • कुछ समय बाद जब एक तरफ बेरोजगारी फैली और दूसरी तरफ सेवाकर्मियों का पश्चिमी पहनावा तब सरकारी सेवा आकर्षित करने लगी। 
  • वे तो व्यापारी थे अतः उनकी गणना अलग तरीके की थी लेकिन जब सत्ता हस्तान्तरण हुआ और भारत के राजनीतिज्ञों के पास सत्ता आई तो न सिर्फ भाषा बल्कि गणना भी बदल गयी।
  • एक समय था जब हर घर में गाय थी और सोने-चाँदी के आभुषण थे लेकिन जब राजनीति में नव्बौद्धिक वर्ग आया तो गरीबी को भी भारतीयों की जिम्मेदारी मानने लगा और बेरोजगारी से त्रस्त वर्गों को दलित,पिछडा हुआ इत्यादि कह कर स्वम को मसीहा साबित करने लग गए और इस तरह समस्या को दिशाहीनता में उलझा दिया।
  • अब आप सभी जो जो आरक्षण के समर्थक और विरोधी है उनको यह समझना चाहिए कि 
  • आप किसी न किसी जाति से सम्बन्ध रखते हैं और हर जाति का एक परम्परागत जॉब है जिसमे वह निपूण,दक्ष और पारंगत है।
  • हर रोजगार दो भागों में विभाजित है। एक है निजी Self-employed स्वरोजगार दूसरा है उसी विषय के सरकारी विभाग में सेवाकर्मी।
  • निजी रोजगार में भी गृह-उद्योग से लेकर भारी औद्योगिक इकाईयों के मालिक से लेकर श्रमिक तक,या प्राकृतिक उत्पादन में कृषि-श्रमिक से लेकर भूस्वामी तक विभिन्न स्तर होते हैं।
  • इसी तरह उतने के उतने सरकारी विभाग हैं जिनमे भी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर सचिव तक विभिन्न स्तर हैं।
  • इसी तरह उन विभागीय मंत्रालयों में राजनेता मंत्री होते हैं।
  • अब आप एक ऐसी व्यवस्था की कल्पना करें कि या तो आप वैवाहिक संबंधों तक में जाति के बंधन से मुक्त हो जाते हैं या फिर एक ऐसी आरक्षण प्रणाली बनायी जाए कि जो जिस विषय विशेष जाति से सम्बन्ध रखता है या रखना चाहता है रख सकता है यानी जाति-परिवर्तन कर सकता है लेकिन वह चाहे तो स्वतन्त्र स्वरोजगार में हो या  उसी विषय विशेष के सरकारी विभाग में जाना चाहे या फिर राजनीति में जाना चाहे उसके लिए वह विषय आरक्षित होगा।
  • इस तरह भ्रष्टाचार का अर्थ होगा अपनी ही जात=बिरादरी से धोका। 
  •  शुद्ध आचार-विचार का अर्थ होगा अपने विभाग,मंत्रालय और जाति-बिरादरी को सुरक्षित,संरक्षित और समृद्ध करने में अपनी योग्यता का उपयोग करना क्योंकि तब उनकी अगली सन्तति की समृद्धि का दायित्व भी तो जुड़ जायेगा।
  • इस तरह यदि आप सामाजिक कार्यों में रूचि रखते हैं तो इन ब्लोग्स पर नियमित विजिट करें और इस पोस्ट की कॉपी करके आगे से आगे मेल करें।
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गुरुवार, 2 अगस्त 2012

36. किसान-अध्यापक संस्कृति को बचाना है !

     शिक्षा के अनगिनत विषय होते हैं लेकिन सभी विषयों के मूल में दो ही विषय होते हैं। 
     भाषा एवं गणित।
    बहुत से गाँवों के बीच बसे एक शिक्षक-एक शिक्षिका प्रणाली के इन गुरूकुलों में भाषा में शब्द और गणित में जोड़-बाकी-गुणा-भाग व प्रतिशत को ही मजबूती से सिखाया जाता था ताकि बालक आगे जाकर किसी भी विषय का स्वाध्याय कर सके।
     आज हमें पुनः एक ऐसी शिक्षा-परीक्षा प्रणाली की पुनर्स्थापना करनी है जिस पद्धति में विद्यार्थी अपनी रूचि के अनुसार विषय का चुनाव विशाल पुस्तकालयों में बैठा स्वयं कर सके। लेकिन भाषाओँ एवं गणित विषयों की नींव मजबूत हो। शिक्षा निशुल्क हो।
पूरे भारत देश में यह किसान-ब्राह्मण संस्कृति थी। इसे सभ्यता-संस्कृति, जीवन-शैली, समाज-व्यवस्था कुछ भी नाम दिया जा सकता है। इस व्यवस्था पद्धति में कालान्तर में कुछ परिवर्तन आये जिनका उल्लेख प्रसंगानुसार किया जायेगा लेकिन यह वह मूल भारतीय संस्कृति है जो भारत की साँस्कृतिक पहचान है जो सनातन बनी रहती है। भारतीय गावों की यह वस्तु-विनिमिय अर्थव्यवस्था कुछ परिवर्तनों या संस्कृति विकास के साथ भारत की तथाकथित स्वतन्त्रता के एक दशक बाद तक बनी रही। इस व्यवस्था को भारतीय नव-धनाड्य, नव-बौद्धिक, नव-धार्मिक(नव-आध्यात्मिक) और नव-राजा(नव-राजनैतिक) वर्ग ने वित्तीय व्यवस्था के माध्यम नष्ट कर दिया।
इसे तथाकथित स्वतन्त्रता इसलिए कह रहा हूँ कि हमने जो तंत्र बनाया वह हमारा स्व-निर्मित तंत्र नहीं है बल्कि पश्चिमी सभ्यता के यक्षों द्वारा बनाया हुआ तंत्र है। दूसरी बात यह है कि हमने उच्छ्रंखलता को स्वतन्त्रता महसूस किया है या मान लिया है।
जिस भारत की आर्थिक व्यवस्था कुछ ऐसी थी कि प्रत्येक गाँव परिवार अपनी सालभर की आवश्यक सामग्री को घर में संग्रह करके रखता था ताकि उसकी आर्थिक-सुरक्षा बनी रहे, जबकि आज उसी भारत में हमारी स्थिति यह है कि अचानक कोई प्राकृतिक आपदा आ जाये या विश्वयुद्ध छिड़ जाये तो आज की परिस्थिति में गृहयुद्ध भी विश्वयुद्ध के साथ-साथ छिडेंगे। उस स्थिति में किसी भी परिवार की रसोई में दो-चार दिनों से अधिक चल जाये, इतनी मात्रा में खाद्य सामग्री नहीं है।
गावों के कुछ परिवारों में कुछ सप्ताह चल सके उतनी सामग्री शायद मिल भी जाये लेकिन विकसित शहरों में तो यह स्थिति है कि एक अच्छी-ख़ासी बरसात भी आ जाये तो वे अपने-अपने घरों में दूध, ब्रेड, अण्डे और सब्ज़ियों के इंतज़ार में भूखे बैठे रह जाते हैं।
यूरोप, अमेरिका में तो यह विकास उचित तरीके से व्यवस्थित किया गया है क्योंकि वहाँ का आम आदमी प्राकृतिक उत्पादन से जुड़ा नहीं रह सकता लेकिन भारत में इस तरह का अनियन्त्रित ऊटपटांग शहरीकरण उचित नहीं है। उन लोगों की मजबूरी है शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण करना, जबकि यह अन्धानुकरण हमारी मूर्खता है।
कुछ मुट्टीभर लोग वित्त के लालच में पूरे भारत को गर्त में ले जा रहे हैं। आज हमारी आवश्यकता है जो हमेशा से रही है, वह है धन-धान्य से समृद्ध होने की, करेंसी नोट(वित्त) को तो बकरी भी शायद ही खाये जबकि जिन राष्ट्रों की मुद्रा हमारी मुद्रा से पचास गुना महत्व रखती है वहाँ एक प्राकृतिक दुर्घटना उन्हें भूख से तड़प-तड़प कर मरने को मजबूर कर देगी। वे यदि अथाह खाद्य सामग्री का संग्रह भी कर लें तब भी वह कुछ दिनों, महीनों,वर्षों तक तो भले ही चल जाये लेकिन भारत में यदि सब कुछ समाप्त हो जाये तब भी एक सुसभ्य मानव समुदाय और ज्ञान-कोष सुरक्षित बचा रहेगा क्योंकि लोगों को घर बैठे-बैठे पौष्टिक आहार मिलता रहेगा क्योंकि यहाँ गौ-माता रहती है, जो चर-चराकर वहाँ पर स्वतः आ जायेगी जहाँ उसे इन्सान के रहने या जीवित बचने का अहसास हो जायेगा।
आज का तथाकथित वैज्ञानिक वर्ग यह बता-बता कर तो भयभीत करने की कोशिश कर रहा है कि पृथ्वी नष्ट हो सकती है, सूर्य से आग की लपटें आने वाली है या भयानक खगोलीय घटनाओं से पृथ्वी पर बड़े-बड़े रेगिस्तान बने हैं और डायनासोर युग आया था।
लेकिन हिरोशिमा और नागासाकी में बना डेज़र्ट उन्हें दिखाई नहीं देता। खुद जापानियों को भी दिखाई नहीं देता। जबकि सच्चाई यह है कि चाहे वह आस्ट्रेलिया का डेज़र्ट हो या भारत के पश्चिम क्षेत्र से लेकर ईरान, अफग़ान, अरब, इराक़, यानी पूरे के पूरे मध्य और पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका में फैला डेजर्ट, चीन का डेज़र्ट सब पूर्व में हो चुके परमाणु युद्धों का परिणाम है।
जिस तरह एक रावण लंका में विकसित हुआ तो उससे पूर्वकाल में एक रावण आस्ट्रेलिया में भी पनपा था। आस्ट्रेलिया से एशिया के बीच भी रामसेतु की तरह ही समुद्रीय भौगोलिक स्थिति है। रावण के पूर्वज केस्पीयन सागर के उस पार थे तो कालान्तर में कोई रावण पश्चिम-मध्य एशिया में भी हुआ होगा और मिश्र में भी हुआ होगा। लेकिन वर्तमान का रावण अमेरिका और यूरोप के राष्ट्रों में पनप रहा है जो सभी राष्ट्रों को अणु-विखण्डन भाट्टियाँ लगाने का प्रलोभन दे रहा है। अब भी यदि सचेत नहीं हुए तो सम्भव है पूरी पृथ्वी ही डेज़र्ट हो जाये । 
जब कोई व्यक्ति या वर्ग गलत दिशा में जाता है तो उसके दो ही कारण होते हैं या तो वह मूर्ख है या मूर्ख बनाया जा रहा है या वह जान कर भी गलत दिशा में इसलिए विकास कर रहा है कि वह धूर्त है और दुनिया को मूर्ख बना रहा है।
   धूर्त वर्ग की स्वयं की स्थिति ऐसी है कि वह इस सीमा तक भयभीत हैं कि किसी अन्य ग्रहों पर रहने का स्थान खोज रहा है क्योंकि उसे पता है जब भी वित्तेशों(कुबेरों) के सहयोग से उनके पूर्वजों ने वेदों को चुरा कर ऐसे आसुरी वैदिक अनुष्ठान(अणु-विखण्डन के कार्य) किये हैं तब-तब कोई न कोई राम पैदा हुआ है और उनके साम्राज्यों का पतन किया है अतः किसी दूसरे ग्रह को रहने के लिए खोजो।
जबकि पृथ्वी पर जो खाद्य संकट और आर्थिक संकट निकट भविष्य में आने वाला है वह उन्हें दिखाई नहीं दे रहा है।
दुर्भाग्य तो यह है कि जहाँ परशुराम, कृष्ण-बलराम और श्री राम जैसे चरित्र पैदा हो चुके हैं वहाँ का भारतीय भी एक ऐसा शतुरमुर्ग हो गया है जिसने अपनी सभी ज्ञानेन्द्रियाँ उस बैंक खाते पर केन्द्रित कर रखी है जिसमें काला धन नाम का नाग बैठा है। अब यदि आपकी कल्पना में कोई उपयुक्त व्यवस्था पद्धति का ढांचा ही नहीं है तो क्या तो उस काले धन से कल्याणकारी स्थिति बन जायेगी और क्या जन लोकपाल नौ की तेरह कर लेगा ?  जन-लोकपाल भी तो उसी तरह के संविधान में बँधा होगा जिस संविधान में भीष्म, द्रोण और कृप जैसे महारथी बँधे थे और जिस संविधान में आज के न्यायाधीश बँधे हैं।
आज की आवश्यकता है, एक ऐसी व्यवस्था पद्धति को विकसित करना जिसमें ईमानदारी से वे सभी सुख मिलें जो बेईमानी करने के बाद भी नहीं मिल पा रहे हैं। क्योंकि हम उस नगरीय एवं प्रोद्योगिकी प्रतिस्पर्धा में दौड़ रहे हैं जिसमें हम सौ साल पीछे हैं जबकि प्राकृतिक उत्पादन की उस दिशा की तरफ पीठ कर रखी है जिस में हम न सिर्फ हज़ारों वर्ष आगे हैं बल्कि सदा से ही आगे रहे हैं।

35. ब्राह्मण गवर्नमेण्ट बनाम वैदिक गवर्नमेण्ट:-

वैदिक गवर्नमेण्ट:-   

    संस्कृत के गुरू शब्द से गवर्न शब्द बना है। गुरू तीन वर्गों में वगीकृत होते हैं अर्थात् एक व्यक्ति जब दूसरे को गवर्न करता है, अनुशासित रखता है तो वह तीनों में से कोई एक या मिश्रित तरीका अपनाता है । 
एक तरीका है आप उसे शिक्षित सभ्य बनाते हैं और उसे कोई ऐसा गुर(विद्या) सीखा देते हैं जिससे वह अपनी जीविकाउपार्जन कर सके। तब वह आप का कहना मानने लग जाता है और आप उसे अनुशासित रखते हैं। उसे गवर्न करते हैं। देव के इस तरीके में आप उससे बँधे हुए नहीं रहते और उसका व्यक्तित्व भी स्वतन्त्र विकसित होता है । 
दूसरा तरीका है आप उसके साथ बल-प्रयोग करते हैं और उसे भी बल-प्रयोग का प्रशिक्षण देते हैं । तब उसे आप कहते हैं कि यदि मेरा काम करता रहेगा तो मैं तुम्हारी सुरक्षा करूँगा और यदि तूं ने मेरा कहना नहीं माना तो मैं तुझे मारूँगा। अनुशासन का यह तरीका रक्षस (रक्षक अथवा राक्षस) तरीका है जो राज्य सत्ताओं का तरीका है, सैनिक अनुशासन है । 
तीसरा तरीका है तू मेरा काम करेगा, मेरे लिए पैसे कमायेगा तो मैं तुझे पैसे [काम के बदले] दूँगा वर्ना तू भूखा मरेगा और यदि मेरा अनुबन्ध तोड़ेगा तो मैं राक्षस को पैसे देकर तुझे मरवा दूँगा। अनुशासित रखने या गवर्न करने का यह तरीका यक्ष तरीका है।
ये तीनों तरीके वैदिक-तरीके ही कहे जायेंगे। क्योंकि ये समाज व्यवस्था से सम्बन्ध रखते हैं । 
समाज-व्यवस्थाऐं ही सभ्यताऐं कही जाती हैं। आपने बुद्ध-महावीर से लेकर गुप्तों के पतन के बीच के इतिहास को दो विभिन्न दृष्टिकोण से जाना है। एक दृष्टिकोण तो वह था जो आपने पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा और दूसरा एक दृष्टिकोण जो विगत के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में मैंने बताया। अब यदि आप समग्र दृष्टिकोण से देखें तो आप देखेंगे कि ये तीन प्रकार के स्वभाव ही सारी उठापटक की जड़ है। इन तीनों स्वभावों के गुणों वाले तीनों वर्गों में आपस में एक सामान श्रद्धा एवं विश्वास हो तभी ये मिलकर सनातन परम्परा को स्थापित कर सकते हैं। यदि इनमें अपने वर्ग के प्रति राग एवं दूसरे वर्गों के प्रति द्वेष हो तो ये एक दूसरे पर हावी होकर एक दूसरे की सत्ताओं पर अतिक्रमण करके एक ऐसी अव्यवस्था फैला देते हैं जिसका पतन स्वाभाविक हो जाता है क्योंकि एक के वर्चस्व में इकतरफा विकास होता है और उसका एक बिन्दु concentrated point जल्दी ही आ जाता है। 

ब्राह्मण गवर्नमेण्ट:-

   इसके समानांतर ब्राह्मण गवर्नमेंट होती है। जो कि.. 
   आत्म-अनुशासन की शासन-व्यवस्था, 
   स्वतन्त्र पंचायती प्रशासन-व्यवस्था, 
   आत्मनियंत्रित पारिवारिक,कौटुम्बिक,सामाजिक जीवन-शैली और
   परस्पर दान-दक्षिणा वाली कहें या वस्तुविनिमय वाली कहें,स्वाधीन अर्थव्यवस्था होती है। 
   लेकिन यह तभी संभव होती है जब धरा Earth सश्य Harvest श्यामला Brunette वसुन्धरा Electromagnetic wave Earth हो। अर्थात वनस्पति से हरीभरी हो,प्राणी प्रजातियों के प्रजनन के अनुकूल और मानव मस्तिष्क से लेकर जीवकोशिका के शरीर से निकलने वाली चेतन तरंगों में भय, आशंका,अतृप्ति,तृष्णा इत्यादि अभावों से उपजने वाली विषमताएँ नहीं हों सब कुछ सम Harmonious हो।


मंगलवार, 31 जुलाई 2012

52. प्राकथन

      इन 51 संदेशों में भारतीय वर्गीकृत व्यवस्था के ऐतिहासिक,सांस्कृतिक,आर्थिक तीनो स्थितियों को संक्षिप्त में बताया है ताकि आगे के संदेशों में हम पूरी तरह वर्तमान की बात करें तो हमारे ब्रह्म [दिमाग] में वर्तमान के खट्टे-मिट्ठे फलों[संसमरणों] के साथ साथ उस भूतकाल को भी ध्यान में रख सकें जहाँ वर्तमान की जड़ जमीं हुई है।
    अतः यहाँ अब तक जो विषय चल रहा था वह गुरुओं,Governors की जातियों यानी ब्राह्मण जातियों का था, अब हम वंशानुगत जातियों पर,वैदिक जातियों पर आते हैं। 
     वर्तमान में हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि न तो हम इस जातियों में वर्गीकृत समाज को,जाति को, साम्प्रदायिक सोच को छोड़ पाने की स्थिति में हैं,  न ही वैवाहिक सम्बन्धों के चलते इस सामाजिक संरचना से मुक्त होने की स्थिति में हैं, न ही आरक्षण जैसे अनेक राजनैतिक मुद्दों के चलते इस सामाजिक सुरक्षा और जटिलता से मोक्ष प्राप्त करने की स्थिति में हैं और ना ही इस व्यवस्था को सम्मानजनक तरीके से स्थापित रख पाने की स्थिति में हैं। अतः अब हमें चाहिए योगी बन इस योग्यता का परिचय दें कि वर्तमान की यथार्थ वस्तुस्थिति स्थिति और परमपरागत जीवन शैली दोनों का योग करके एक नए भारत का निर्माण करें तब हम निर्वाण को प्राप्त हो पायेंगे।
   अतः अब आप अपनी अपनी जाति का हित चाहते हैं तो सर्व प्रथम आपको अपने अपने जाति धर्म के प्रति आस्थावान होना होगा यानि सकारात्मक सोच के साथ अपने परम्परागत कर्म को धर्म सझ कर स्वीकार करना होगा, ताकि न सिर्फ आपकी आगामी सन्ततियों को आरक्षित रोजगार मिलाता रहे बल्कि हँसते खेलते शिक्षा ग्रहण करने की उमर को वर्तमान की स्कूली शिक्षा के ग्रहण से मुक्ति मिले तत्पश्चात आप अपने जिले में अपनी जाति का एक प्रतिनिधि चुनें। ये सभी प्रतिनिधि किसी भी ऐसे व्यक्ति को निर्दलीय खड़ा करेंगे जो सभी को मान्य हो।  इस तरह क्षेत्रीय अर्थशास्त्र और जातीय अर्थशास्त्र का योग हो जायेगा। सभी जातीय समूह एक साथ मिलकर अपने जिले का विकास आर्थिक समृद्धि के लिए करें।जब आप खुद जनसाधारण बन कर आर्थिक समृद्धि को प्राप्त कर लेंगे तो आप अभाव मुक्त होकर अपने जनप्रतिनिधि को भी भाव दे सकेंगे और जन प्रतिनिधि खोटे भाव खायेगा तो उसे दबा सकते हैं उसे वापस बुला सकते हैं। 
     अब एक बार चलते हैं नैतिक राजनीति में फिर जब पुनः आयेंगे तो आप से आपकी जातिधर्म और पूर्वजों के बारे में बात करेंगे।

सोमवार, 30 जुलाई 2012

51. नागा सम्प्रदाय


      जिस तरह आदिनाथ परम्परा में नागा सम्प्रदाय दिगम्बर जैन सम्प्रदाय है उसी तरह शैव सन्यासियों के पशुपतिनाथ सम्प्रदाय में भी नागा हैं। ये नागा उन सभी सम्प्रदायों में प्रथम प्रोटोकोल रखते हैं जो वनों की रक्षा करने करने के हेतु हैं। कुम्भ के स्नान में सबसे पहले स्नान करना इनका अधिकार है.
     ये नागा गाँजे का नशा करने वाले तथा वसा एवं शर्करा का उपयोग नहीं करने वाले होते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि इनके शरीर में शर्करा की कमी हो जाती है अतः इनमें तर्क बुद्धि और दार्शनिक चरित्र नहीं होता है। अतः ये जब हथियार उठाकर किसी सेना के सामने भी आ जाते हैं तो सेना पर भारी पड़ते हैं। वैसे तो भारत ही नहीं विश्व की सभी मानव सभ्यताओं में हाथ में कोई न कोई हथियार Weapon or Tools रहते हैं, लेकिन इन नागा सन्यासियों के हाथों में अनेक प्रकार की डिजाईन किये हुए कुन्त [धारदार हथियार] रहते हैं और भारतवर्ष को बचाने वालों में ये सदेव निर्णायक भूमिका निभाते आ रहे हैं।वर्तमान में भी इनका धर्म बनता है नष्ट हो रहे वनों को सुरक्षित करना लेकिन ये भी अपनी मूल अवधारणा से भटक गये हैं। 
    यहाँ इस तथ्य को पुनः रेखांकित कर रहा हूँ कि धर्म के दो ही मार्ग हैं एक है आत्म-कल्याण का दूसरा है जगत के कल्याण का। जहाँ कही भी गुरू परम्परा या सामुदायिक और साम्प्रदायिक परम्परायें हैं वे सभी जगत के कल्याण के लिए बनी हैं और जगत के कल्याण से तात्पर्य है फोरेस्ट एवं ऐग्रीकल्चर ईकोलोजी से जुड़े जो मुख्य-मार्गी गृहस्थ होते हैं उनके कल्याण के लिए कार्य किया जाये। इस कार्य को करने के लिए ही आत्मसंयम योग पर योगारूढ होकर आत्म-कल्याण वाली ब्रह्मणी स्थिति को प्राप्त किया जाता है। जबकि आत्म-कल्याण का मार्ग पूर्णतः अपने आप में स्थिर स्थित होने पर अपने आप प्राप्त होता है। इसके विपरीत, आत्म कल्याण के मार्ग में तब अवरोध पैदा हो जाता है, जब किसी गुरू या परम्परा का अनुशरण किया जाता है। इस तरह सबसे दुःखद भ्रष्टाचार तो यह है कि तथाकथित गुरू आत्म-कल्याण के लिए मार्ग बताने की फीस लेते हैं। गुरू का सीधा सा अर्थ है जो अपने चेले को जीविकोपार्जन के लिए और जनकल्याण के लिए कोई गुर बताता है, विद्या देता है, टेक्नोलोजी बताता है। 
यदि भारत को भ्रष्टाचार मुक्त करना है तो राष्ट्रीय सरकार से उलझने से पहले इस साम्प्रदायिक वर्ग के उत्तरदायित्वों को समझना और समझाना पहली आवष्यकता है। जहाँ तक राष्ट्रीय सरकार को सत्ता  से हटाना है तो उससे पहले आपको एक नया और स्वतन्त्र विकल्प तैयार करना होगा । 
जब भारत में स्वतन्त्रता आन्दोलन का रूख नरम पंथियों की तरफ मोड़ने का सोचा था तब अंग्रेजों ने ही नरम पंथियों को यह समझाया कि आज यदि ब्रिटिस सरकार यहां से जाना भी चाहे तो वह सत्ता का हस्तान्तरण किसे करके जाये। अतः आप सबसे पहले एक मंच का निर्माण करो जिसे सत्ता हस्तान्तरित करके जा सके। इस तरह एक अंग्रेज ने ही काँग्रेस [सभा] का गठन किया था। आजादी के  बाद गांधी ने कहा था अब कांग्रेस पार्टी को समाप्त कर देना चाहिये और हमें अपने तरीके से प्रजातांत्रिक व्यवस्था बनानी चाहिये। इस बिन्दु पर उनकी आशंका सही साबित हुई और आज भी हम ब्रिटिस (यूरोपीयन) शासन पद्धति का अनुसरण कर रहे हैं। अतः हमारा पहला लक्ष्य होना चाहिये संसद को दल-दल से मुक्त करायें और निर्दलीय बनायें। जो कि भारत की प्रजातांत्रिक पद्धति की विशिष्टता रही है।                        

50. गौरक्षनाथ का नाथ सम्प्रदाय !

     जिस तरह सातवीं शताब्दी में सन्यासियों के स्वामी सम्प्रदाय को आचार्य शंकर ने एक यथार्थ रूप दिया, उसी तरह आठवीं शताब्दी में गुरू गौरक्षनाथ[गोरखनाथ] ने नाथ सम्प्रदाय को भी विभ्रम से बाहर निकाला और एक यथार्थ रूप दिया।
नाथ सम्प्रदाय के समानान्तर शाक्त सम्प्रदाय को भी स्थापित करके भारतीयों को दैहिक प्रजाति के रूप में पुनः शक्तिशाली बनाने के लिए एक परम्परा स्थापित की।
जिस तरह स्वामी सम्प्रदाय वनस्पतियों से चिकित्सा करने वाली परम्परा से जुड़ा है उसी तरह नाथ सम्प्रदाय प्राणियों के अंगों एवं सरीसृपों के विषों से चिकित्सा करने वाला सम्प्रदाय है। यूनानी चिकित्सा पद्धति इसी पद्धति से प्रेरित है क्योंकि युरोप एवं पश्चिमी एशिया में वनस्पतियों की इतनी प्रजातियाँ नहीं हैं कि उनसे चिकित्सा की जा सके।
नाथ सम्प्रदाय की एक समय [आठवी से सोलहवी शताब्दी के बीच] यह स्थिति थी कि ये सभी भारतीय समाजों के ऊपर छा गये थे। इनके वर्चस्व का कारण था, इनकी समाज में एक विषिष्ट भूमिका जो मध्यम मार्ग नहीं होते हुए भी समाज के आकर्षण का केन्द्र थी। इन्हें योगी भी कहा जाता रहा है । योगी सिर्फ़ उन्ही को कहा जाता था जो आत्म-संयम योग पर योगारूढ़ हो चुके होते थे। 
इनकी जीवन शैली अद्भुत थी। ये वर्ष के ग्यारह महीने अपनी गढ़ियों में रहते थे जो उन वनों में होती थी जिनमें सरीसृप प्रजातियों के विषधर रहते और मांसाहारी पशु-पक्षी भी बहुतायत में रहते।
एक तरफ ये समुदाय बनाकर झुंड में रहते थे जिसके पीछे सुरक्षा कारण थे तो दूसरी तरफ जब ये समाधि की प्रक्रिया में रहते अथवा विचरण करते थे तब अकेले हो जाते थे।
वर्ष में एक बार श्राद्ध पक्ष में जब ये अपनी गढ़ियों से बाहर निकलकर आते तो इनका लक्ष्य होता था शाक्त सम्प्रदाय की महिलाओं का आतिथ्य ग्रहण करना और इच्छुक महिलाओं को गर्भधारण कराना। ये पितृ पक्ष के श्राद्ध के समय अपने पितरों का श्राद्ध करते थे तब स्टार्च, वसा और शर्करायुक्त भोजन अर्थात् गौदुग्ध की खीर का भरपूर सेवन करते थे। पितृश्राद्ध पक्ष के पन्द्रह दिनों तक भरपूर पौष्टिक आहार लेते तथा अपने पूर्वजों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करते। तत्पश्चात पन्द्रह दिनों के लिए ये शाक्त सम्प्रदाय की नारियों का आतिथ्य स्वीकार करते थे। यह समय मातृ कुल का श्राद्ध पक्ष माना जाता है। 
शाक्त सम्प्रदाय की मातृ सत्तात्मक कुल परम्परा के तीन मुख्य केन्द्र स्थापित किये गये।
    1. ब्रह्मपुत्र का समुद्र तटीय क्षेत्र; जिसे माउथ ऑफ़ गंगा भी कहा जाता है।
    2. ताप्ति, नर्मदा, माही, साबरमती नदियों का समुद्रतटीय क्षेत्र।
    3. केरल का समुद्रतटीय किनारा।
पहले और दूसरे क्षेत्र में दुर्गापूजा एवं गरबा नाम से आज भी वहाँ की महिलायें प्रतीक रूप में शक्ति की उपासना करती हैं। तीसरे क्षेत्र में अधिकांश मुस्लिम हो गये हैं फिर भी शक्ति पूजा होती है।
शाक्त सम्प्रदाय अर्थात् नारी सत्तात्मक समाज व्यवस्था की मूल अवधारणा तो, ब्रह्मपुत्र घाटी में आदिकाल से चली आ रही, मातृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था से प्रेरित थी लेकिन गुरू गोरक्षनाथ ने इसे एक नया रूप दिया जिसकी कुछ विशेषताऐं या कर्तव्य बिन्दु इस प्रकार थे।
जो भी अनाथ होते उनके ये नाथ थे। वह अनाथ चाहे मानव हो या पशु-पक्षी या फिर विदेशी शरणार्थी, जो कि समुद्री मार्ग से अपनी जान जोखिम में डालकर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए भारत की शरण में आते थे। 
शारीरिक-मानसिक दोनों रूपों से मानव नस्ल को मजबूत करने की यह वैज्ञानिक पद्धति है। अर्थात् वर्ष पर्यन्त आत्म संयम में रहते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले वीर्यवान नरों और अपनी आजीविका खुद चलाने वाली शक्तिशाली नारीयों के प्रणय उत्सव से जो प्रणय के देवी-देवता पैदा होते वे स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से परिपूर्ण होते थे। 
शरीर विज्ञान का एक नियम है कि जब नर बलवान होता है तो सन्तान में भी नर का अनुपात अधिक होता है और जब नारी शक्तिशाली होती है तो सन्तान में भी नारी का अनुपात अधिक होता है। आज जब आप विशेषज्ञ लोग समाज में लिंग, अनुपात की बात करते हैं तो यह भूल जाते है भारत में लिंगानुपात को जातीय परिप्रेक्ष में आंकलन करना चाहिये। क्योंकि भारतीय समाज में विवाह जातीय समाज में होता है।
अनेक जातियाँ ऐसी है जिनमें लड़कों की तुलना में लड़कियाँ अधिक हैं तो कुछ जातियों में लड़के अधिक हैं। अतः भारत में अंतर्जातीय विवाह की पौराणिक,वैदिक परम्परा हमेशा से रही है और मातृ-पितृ सत्तात्मक,बहुपत्नी-बहुपति वैवाहिक व्यवस्था इत्यादि सभी प्रकार की व्यवस्थाओं को भी पति-पत्नी समान अधिकार वाली मुख्यधारा के साथ समन्वय करके अक्षुण रखा गया है। लेकिन आज के भारत में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो संस्कृति के बारे में कुछ नहीं जानता लेकिन वह वर्ग संस्कृति की रक्षा करने वाला स्वयंभू ठेकेदार बना हुआ है।
भारत में जातिगत समाज व्यवस्था बनाने के पीछे जो उद्देश्य था उसे अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिये। इस व्यवस्था में पैदा होने वाले मानव को न तो रोजगार की तलाश करनी पड़ती है और न ही शिक्षित होने के लिए किसी अन्य के पास जाना होता है। गर्भावस्था में ही शिशु की चेतना अपने जॉब तथा जातीय अनुशासन के संस्कार लेना शुरू कर देती है, साथ साथ जेनेटिकली भी उसके शरीर की मांसपेशियाँ अपने परम्परागत जातीय जॉब के अनुकूल बन जाती है। लेकिन इसका एक नकारात्मक पक्ष यह भी है कि विशिष्ट बनने की प्रक्रिया में अनेक सन्तानें असामान्य और अयोग्य घोषित कर दी जाती हैं। 
नाथ एवं शाक्त सम्प्रदाय मध्यम मार्गी गृहस्थ समाज की इस समस्या का निवारण करता था। एक तरफ तो असामान्य एवं अयोग्य कहे जाने वाले बालकों के नाथ बन कर उन्हें असामान्य से असाधारण प्रतिभा वाले बनाता था तो दूसरी तरफ जिस किसी भी जातीय समाज में लिंग अनुपात बिगड़ जाता, उस समाज में इन योगियों एवं शक्तियों की सन्तानों का अपने समाज में स्वागत किया जाता था।
एक वाक्य में कहें तो ये नाथ योगी,असन्तुलित लिंगानुपात को सन्तुलित करने के लिए, वीर्यवान नर और शक्तिशाली नारी जेनरेशन के आपूर्तिकर्ता थे।
दूसरी तरफ वशीकरण विद्या Sexual Education एवं यौन चिकित्सा Sexual Medicare से जुड़े होने के कारण नाथ योगी और शाक्त महिलायें उच्च घरानों में शिक्षक-शिक्षिका के रूप में आमन्त्रित भी होते थे।कालान्तर में ये योगी सर्वसुलभ प्रेमी के रूप में भी जाने जाते थे जिसका उदेश्य था कोई भी नारी, योग्य पुत्र को प्राप्त करने के लिए इनसे गर्भ धारण करवा सकती थी। अनेक नाथ-युवा विवाह करके गृहस्थ भी होने लगे। यहां तक की लोकगीतों में इन योगियों के नाम भी आने लगे। योगी का अपभ्रंश जोगी हो गया। ये जिस रंग का कपड़ा पहनते उस रंग को भी जोगिया रंग कहा जाने लगा।
     जैसा कि होता आया है कि जब कोई व्यवस्था बनायीं जाती है तब तो वह किसी न किसी उदेश्य को केंद्र में या ध्यान में रख कर बनायी जाती है लेकिन चूँकि गुण सविकार होते है अतः सोलहवीं शताब्दी तक आते आते इनकी स्थिति इतनी खतरनाक हो गई थी कि ये स्त्रियों का अपहरण करके अपनी गढ़ियों में रखने लगे और यौन उत्तेजक विषों का सेवन करने वाले व्यभिचारी हो गये थे।
समय का चक्र कुछ ऐसा घूमता है कि सत्ताऐं बदल जाती हैं। जिस गौरक्षनाथ के नाथ अनुयाई ब्राह्मण योगियों से भी अधिक सम्मानित हो गये थे और जिन्होने आदिनाथ परम्परा के नाथों (तीर्थंकरों ) को कालकलवित कर दिया था और शैव सम्प्रदाय की सभी शाखाओं के अग्रणी,सम्मानित हो गये थे उनकी सत्ता सोलहवी शताब्दी में समाप्त हो गई।
अकबर ने जब पूरे भारत पर कब्ज़ा जमा लिया था और अपने सैन्य कर्मचारियों को अहिंसा धर्म अपनाने के लिए प्रेरित कर रहे थे तब अकबर ने एक सैन्य अभियान चलाया और इन बलात्कारी बन चुके नाथों (जो भैरवनाथ से भैरव राक्षस और यक्ष बन गये थे) का बड़ी संख्या में कत्लेआम किया और इनकी गढ़ियां खाली करवा कर नवनिर्मत जैन सम्प्रदाय को सौंपना शुरू कर दिया। तब नाथों के झुण्ड के झुण्ड आते और नव-अनुष्ठित जैन धर्मावलम्बियों की बस्तियों में सामूहिक कत्लेआम करते। इस का एक प्रमाण है राजस्थान और आसपास के क्षेत्र में जहाँ से अकबर की सेना के कर्मचारियों को जैन धर्म में दीक्षित करवाया था वहां एक बहुत प्रचलित नाम 'रिक्तिया भेरूँ' है। इसने भयानक रक्त बहाया था अतः इसका नाम 'रक्तिया' पड़ा जो अपभ्रंश होकर रिक्तिया हो गया।
अनादि काल से चली आ रही यह मानव मनोविज्ञान की विडम्बना है कि प्रत्येक परम्परा का मूल प्रवर्तक तो एक सुस्पष्ट सोच के साथ मान्यताऐं, विधि-विधान, संविधान, समाज व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था इत्यादि पहलुओं के माध्यम से एक विशेष कर्तव्य कर्म को प्रतिष्ठित करता है लेकिन कालान्तर में उसी समुदाय के अनुयाई संस्कृति एवं परम्पराओं के नाम पर अतिवादी बन जाते हैं और खुद ही अपनी मानसिकता को विकृत कर लेते हैं। इसी बिन्दु पर ब्रह्म परम्परा के इस स्लोगन यानी नारे को समझना चाहिये जिसको आचार्य शंकर ने जनमानस में उतारा । ब्रह्म सत्यं जगंमित्थ्या !
क्योंकि एक व्यक्ति ब्रह्मणी स्थिति को प्राप्त करके सत्य को यथार्थ रूप में प्रतिष्ठित करता है अथवा एक मनीषी वर्ग मान्यताओं को बनाता है, तब तो वह सत् के भाव से पैदा हुआ सत्यबोध का परिणाम होता है लेकिन मान्यताओं में स्थापित मिथक कालान्तर में मिथ्या अवधारणा यानी बनावटी धर्म बन जाता है। 
वर्तमान काल खण्ड में यही हो रहा है। मानव के स्वअनुष्ठित धर्म; राष्ट्रीय संविधान को ले लें या फिर परम्परा द्वारा अनुष्ठित धर्म जिसे साम्प्रदायिक या जातीय धर्म कहते है; को लें या फिर प्रकृति निर्मित प्रणय धर्म जिसकी तरफ हम अवश हुए प्रेरित होते हैं; को लें, सभी बिन्दुओं पर हम उनके मूल-अर्थ, यथा-अर्थ, तात्विक-अर्थ, तात्कालिक-अर्थ की तरफ तो पीठ कर चुके हैं और उनके भ्रामक अर्थों को मानने या मनाने के लिए दुराग्रहों से ग्रसित हो गये हैं। यह ठीक वैसे ही हुआ है जैसे कि पान के पत्तों के साथ हुआ।
   हमारे पूर्वजों ने Water deficiency disease, Dehydration निर्जलीकरण के प्रति प्रतिरोधक शक्ति    Resistance power को बढ़ाने के लिए पान के पत्ते की खोज की थी। उसे सुस्वादिष्ट बनाने के लिए तथा अन्य आवश्यक तत्वों जैसे कि कैलशियम के लिए चूना, धातुओं के लिए कत्था तथा मांसपेशियों में प्रतिरोधक क्षमता पैदा करने के लिए ताम्बूल (कच्ची सुपारी) का उपयोग प्रचलित किया। साथ में सौंफ, पीपरमिण्ट या अन्य सुगन्धित द्रव्य भी प्रचलित किय। लेकिन आज पान का पत्ता तो ग़ायब हो गया और बच गये गुटखों के रूप में अखाद्य द्रव्य। इसी तरह की स्थिति धर्म की हो गई जिनमें मूल तथ्य तो दब गये और जो असत् की सत्ता थी वह हावी हो गई। जबकि असत की सत्ता से भाव नहीं अभाव बढ़ते हैं। जैसे नशे की सामग्री मिले गुटखे में हो रहा हैं ठीक वैसे ही आज की धार्मिक मान्यताऐं नशे के रूप में ग्रहण की जाती है। उनमें न तो मानवता के प्रति संवेदनशीलता बची है न ही राग, द्वेष, दीनता, हीनता, कृपणता, हिंसा इत्यादि रोगों के प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने की क्षमता बची है। बल्कि इन रोगों को बढ़ाने की प्रेरणा विकसित हो रही हैं।

49. दशनामी शैव सम्प्रदाय की शाखायें !


   शैव सम्प्रदायों की आगे से आगे अनेक शाखायें है तथा इन्हीं के समानान्तर शाक्त सम्प्रदाय की शाखायें हैं। ये सभी शाखाएँ फोरेस्ट ईकोलोजी से जुड़ी शाखायें है। लेकिन इनमें एक व्यवस्था रही है कि जो गृहस्थ बनना चाहे वह परिवार बसा सकता है लेकिन इनको इस एक नियम का कठोरता से पालन करना होता था कि ये गृहस्थियों की बस्तियों में प्रवेश नहीं करेंगे।
जो मूल ब्राह्मण जाति जिसे आदि-ब्राह्मण या आदि गौड़ ब्राह्मण कहा जाता था, स्वभावतः ही उनका आचरण तो यह था कि वे तो एकान्त में स्थापित अपनी कुटिया से या गुरूकुल से बाहर जाते ही नहीं थे और ना ही उनमें संयुक्त परिवार होते थे। सात वर्ष और अधिकतम बारह वर्ष की सन्तान ही उनके साथ रह पाती थी । तत्पश्चात् उनके बालक भी गुरूकुल के अन्य छात्रों की तरह ही रहते थे। वे बालकों के अलावा अन्य किसी भी वर्ग से सीधा सम्पर्क नहीं रखते थे फिर भी पूरा समाज उनके बताये मार्ग पर चलता था। जब भी साम्प्रदायिक समुदायों में वैमनस्य फैलता और नई मान्यताओं के साथ नई समाज व्यवस्था करनी होती थी तभी इनकी भूमिका शुरू होती थी बाक़ी ये ब्रह्म में रमण करने वाली ब्राह्मणी स्थिति को प्राप्त हुए रहते थे।
     ब्राह्मण गृहस्थ जीवन की सांसारिक उठापटक से मुक्त निर्विकार निर्लिप्त रहने वाले स्वाभाविक आचरण वाले ब्रह्म-जीवी थे। इन्हें विप्र कहा जाता है। जिनको भी मिलना होता इनके घर आते थे।
दूसरे ब्राह्मण जिन्हें द्विज या साम्प्रदायिक ब्राह्मण कहा जाता था उनके लिए यह छूट थी कि ये गृहस्थ के घर में प्रवेश कर सकते थे लेकिन इनका आसन अलग होता था। ये द्विज ब्राह्मण अपनी शिष्य जातियों के घरों में ही प्रवेश करते थे। इनके जाने के बाद गृहणी इनके आसन को घर के बाहर ले जाकर झाड़ती और फिर समेट कर रख देती थी। ये द्विज ब्राह्मण अपनी शिष्य जाति के घरों में ही जन्मे होते थे और यदि इनकी सन्तानों का आचरण असंयमित होता या वे अविद्वान होते तो उन्हें अपनी शिष्य जाति की लड़की से विवाह करके पुनः अपनी मूल जाति में आना होता था और पुनः निर्माण अथवा उत्पादन में लग जाते। ऐसा इसलिये था जिससे अयोग्य शिक्षक वर्ग की संख्या असीमित नहीं हो ताकि निर्माता एवं उत्पादक वर्ग पर भी अनावश्यक बोझ नहीं पड़े। 
वैष्णव सम्प्रदाय में नियम था कि जो महंत होगा वह तो अविवाहित होगा ही होगा अन्य लोग चाहें तो अविवाहित भी रह सकते थे और विवाह भी कर सकते थे लेकिन सन्तानों की संख्या अधिक होने पर उस नई पीढ़ी को किसी न किसी निर्माण एवं उत्पादन से जुड़ी जाति में विलीन होना पड़ता था।  ये वैष्णव गांव में प्रवेश कर सकते थे लेकिन किसी के घर में प्रवेश  करना इनके लिए वर्जित था।  इनको सिर्फ़ मन्दिर तथा गौचर भूमि तक जाने की छूट थी।
शैव सम्प्रदाय की सभी जातियों के लिए नियम थे कि वे गाँव, बस्ती में प्रवेश नहीं करते थे। शैव सम्प्रदाय की सभी शाखायें वनौषधियों की जानकार होती थीं, यह उनका कर्तव्य कर्म था। वर्षा ऋतु में जब एक तरफ तो आवागमन के सभी मार्ग अस्त-व्यस्त हो जाते दूसरी तरफ मौसमी बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता तब ये लोग गांव के बाहर शिवालय में या उसके पास अपनी धूणी जमाते थे। लोग इस धूणी की भभूति[राख] लेने आते। एक तरफ श्रद्धा भाव, दूसरी तरफ औषधियों का प्रभाव ग्रामीण लोग उस भभूति को ग्रहण करके स्वस्थ हो जाते। विशेष बीमारी होने पर विशेष औषधि दे देते। 
वनौषधियों के जानकारों की तीन शाखायें थी।
     जैनाचार्य सूखी हुई जड़ी-बूटियों का उपयोग करते थे।
     संन्यासी हरी एवं ताज़ा जड़ी-बूटियों का प्रयोग करते थे तथा
     नाथ लोग प्राणियों के अंगों एवं विषों का उपयोग करते थे।
     उदासीन और वैरागी सम्प्रदाय वाले भूतविद्या[साईको-थेरेपी] से होने वाली चिकित्सा से जुड़े ओझा यानी झाड़ फूँक करने वाले होते।
आचार्य शंकर ने संन्यासी सम्प्रदाय को काल-स्थान-परिस्थिति के अनुरूप एक नई दशनामी व्यवस्था दी और इनको दस वर्गों में विभाजित किया तथा प्रत्येक वर्ग विशेषज्ञ चिकित्सक की तरह काम करता था। ये दस नाम इस प्रकार हैं:-
(1) तीर्थ (2) आश्रम (3) सरस्वती (4) भारती (5) वन (6) अरण्य (7) पर्वत (8) सागर (9) गिरि (10) पुरी
इनमें अलखनामी और दण्डी दो विशेष सम्मानित शाखाये थीं। दण्डी वे सन्यासी होते थे जो ब्राह्मण से संन्यासी बनते थे। इनके हाथ में दण्ड[डण्डा] होता था। ये आत्म-अनुशासित थे लेकिन इनका काम नवयुवा सन्यासियों को पढ़ाने[साक्षर करने] का था और उच्श्रृंखल नवयुवाओं को दण्ड देने का अधिकार सिर्फ इनके पास ही था। चुंकि सन्यास परम्परा गुरू चेला परम्परा होती है अर्थात् गुरू अपने सेवक[चेले] को प्रेक्टिकल जानकारी देता है अतः वह उसे दण्डित भी कर सकता है। अतः यह व्यवस्था बनाई गई कि दण्ड देने का अधिकार सिर्फ दण्डी स्वामी को ही होता था जो गुरूकुल चलाते थे। ये दण्डी, स्वामी-पुरी शाखा के अन्तर्गत ही रखे गये थे क्योंकि पुरी ही पुर अर्थात् परकोटे के अन्दर जा सकते थे।
दस प्रकार के रोगों और उनसे जुड़े दस प्रकार की औषधियों की जानकारी के परिप्रेक्ष्य में दसनामी सम्प्रदाय को समझना चाहिये।
   1 पुरी -   जो पुर अर्थात् परकोटे यानी घिरे हुए क्षेत्र में रहने वाले बड़े गाँवों में होने वाली बीमारियों का निदान एवं चिकित्सा करते थे। 
   2 तीर्थ -   तीर्थाटन पर आने वाले लोग विभिन्न क्षेत्र, जातीय और आर्थिक वर्गों के होते हैं। उनमें संक्रमण से होने वाले रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है। उनका निदान एवं चिकित्सा का विषय तीर्थ सन्यासियों का था।
   3 आश्रम - आश्रम उस स्थान को कहा जाता है जहाँ अनाथों से लेकर शोधकर्ताओं तक को आश्रय दिया जाता है। इस आश्रमों को रेज़ीडेन्शियल हॉस्पिटल भी कहा जा सकता है। यहाँ असाध्य रोगों का निदान एवं चिकित्सा होती थी।
   4 सरस्वती -  जो वर्ग नृत्य, संगीत एवं वाद्य यंत्रों को बजाने वाले तथा गायक होते हैं उनमें जोड़ों एवं मांसपेशी तंत्र के रोग होते है। उनका उपचार करना इनका विषय था।
   5 भारती =  जो लोग आहार की कमी यानी कुपोषण के शिकार होते हैं उन्हें आहार में पौष्टिक तत्वों को दिये जाने की जानकारी देने वाले भारती भ्रमणशील सन्यासी होते थे। ये लोग स्वर्ण निर्माण की विद्या भी जानते थे इस विद्या का उपयोग वहाँ करते थे जहाँ पूरे क्षेत्र में अकाल पड़ जाता था।
   6  वन =  जहाँ रेन फोरेस्ट होता है वहाँ अत्यधिक नमी के कारण पित्त के विकार से होने वाले रोग होते हैं वहाँ के लोगों के रोगों का निदान एवं चिकित्सा का काम वन करते थे।
   7 अरण्य =  जहाँ रेन फोरेस्ट के साथ-साथ चारागाह भी होते हैं और मांसाहारी तथा हिंसक पशु भी रहते हैं वह क्षेत्र अरण्य कहा जाता है। ऐसे स्थानों पर मूत्र रोग तथा डिहाईड्रेशन से सम्बन्धित रोग अधिक होते हैं उनका निदान एवं चिकित्सा करना इनका विषय होता है।
   8 पर्वत =  पहाड़, गिर, मेरू  इत्यादि नाम पर्यायवाची शब्द हैं। लेकिन पर्वत उन पहाड़ों को कहा जाता है जिनकी चोटियाँ ऊँची तथा पथरीली, पठारी होती है।
   9 गिरि = गिर उन पहाड़ों का कहा जाता है जो कम ऊँचे तथा हरियाली से अच्छादित होते हैं।
   10 सागर = जो वर्ग सागर किनारे रहने वाला तथा समुद्री जीवों को पकड़ कर आजीविका चलाने वाली जातीय समूहों के होते हैं उनमें कुछ विशेष प्रकार के त्वचा रोग होते हैं । उनका निदान एवं चिकित्सा इनका विषय रहा है।
     अब जब हमारा मुख्य मुद्दा भारत को भ्रष्टाचार मुक्त करने का है तो फिर हमें सबसे पहले इस धार्मिक वर्ग के बारे में सोचना चाहिये जिनका धर्म वनौषधीय चिकित्सा का कर्तव्य कर्म है। इनका कर्म गृहस्थियों तथा श्रम एवं उत्पादन से जुड़े समुदायों की सेवा करना रहा हैं न कि आस्थावान गृहस्थियों के श्रद्धा और विश्वास को माध्यम बना कर उनका भावनात्मक एवं आर्थिक दोहन करना रहा है, ना ही धर्म के नाम पर आपसी सम्बन्धों में वैमनस्य पैदा करना रहा है।
     आज जब फोरेस्ट ईकोलोजी नष्ट हो रही है तो सर्वाधिक और सर्वोच्च ज़िम्मेदारी इसी वर्ग की बनती है लेकिन आज यह वर्ग नगरों में रहने वाला ईश्वर भोगी वर्ग बन गया है। आज इस वर्ग में से उन गिने-चुने लोगों को हटा दिया जाये जो वयोवृद्ध हो चुके हैं तो बाक़ी बचे लोगों में से शायद ही कोई जानता होगा कि उनकी परम्परा कितनी कठोर तप की परम्परा रही हैं। बचपन से गुरू की सेवा करते हुए वनों में घूमना और औषधीय पौधों की प्रेक्टिकल जानकारी लेना और इसके साथ-साथ सेवा भाव बनाये रखना।
     आज सेवा का तात्पर्य बदल गया है। आज तो ये लोग कहते है कि हमारी सेवा करना गृहस्थों का धर्म है न कि हम सेवा करने वाले है। जबकि संन्यास की दीक्षा तभी दी जाती थी जब गुरू इस विषय के परिप्रेक्ष में आश्वस्त हो जाता था कि व्यक्ति में गृहस्थ की सेवा करने की भावना है। सेवा के बिन्दु पर आज भी ये लोग अपनी पैनी नज़र रखते हैं कि उनका शिष्य उनकी सेवा करता है या नहीं। लेकिन जब सेवा का सम्बन्ध गुरू की सेवा तक ही सीमित होकर रह जाता है तो फिर वह शिष्य भी कालान्तर में गुरू बन कर अपनी सेवा करायेगा।
    इस बिन्दु पर ईसाई मिशनरीज़ अधिक ईमानदार हैं जो आज भी इस परम्परा को सर्विस कहते हैं और निःशुल्क शिक्षण संस्थाऐं और चिकित्सालय चलाते हैं। लेकिन समस्या की जड़ यह है कि आज की मानव सभ्यता आध्यात्मिक पतन के निम्नतम स्तर पर इसलिए है कि व्यवस्था पद्धति का प्रत्येक लेन-देन काम एवं अर्थ आधारित यानी वाणिज्य आधारित हो गया है। प्रत्येक कार्य का मिशन पक्ष समाप्त हो गया है और प्रोफेशनल पक्ष हावी हो गया है।

48. ब्राह्मण सम्प्रदाय एवं शैव सम्प्रदाय !


      वैष्णव सम्प्रदाय सनातन धर्म की तीन शाखाओं में से एक है। ब्राह्मण संम्प्रदाय अध्यापकों, गुरूओं, शिक्षकों, ज्ञानियों, धर्मगुरूओं, आचार्यों इत्यादि वर्गों का सम्प्रदाय है तो शैव सम्प्रदाय क्षत्रियों, कृषि उत्पादकों, प्राकृतिक उत्पादकों, वनवासियों, श्रमजीवियों इत्यादि वर्गों का सम्प्रदाय है । 
   ब्राह्मण परम्परा ब्रह्म-भाव को विकसित करने के कर्तव्य कर्म की  परम्परा है, जबकि शैव-सम्प्रदाय ईश्वर-भाव को विकसित करने के कर्तव्य कर्म की परम्परा है । इन दोनों सम्प्रदायों को शिक्षा एवं स्वास्थ्य के परिप्रेक्ष में समझना  चाहिये । 
    जब सांस्कृतिक सभ्यताऐं पूरी तरह फोरेस्ट ईकोलोजी और एग्रीकल्चर ईकोलोजी से सीधा सम्बन्ध रखने वाली होती है, तब ज्ञान-विज्ञान की दिशा अव्यक्त की सच्चाई जानने की दिशा में जिज्ञासु होती है। ऐसी स्थिति में ब्राह्मण एवं शैव क्रमषः ब्रह्म और ईश्वर को जानने लग जाते हैं तब प्रकृति को माया अथवा योग माया कह कर मिथ्या (बनावटी) कह कर इसके अध्ययन को तुच्छ और सांसारिक कहते है । 
      लेकिन जब बाह्मण-क्षत्रिय आधारित सांस्कृतिक सभ्यता में व्यापार और वाणिज्य करने वाला वर्ग पैदा होता है तो ब्रह्म एवं ईश्वर भाव के विपरीत एक अभाव ग्रस्त वर्ग विकसित होने लगता है यानी उपजने लगता है। 
      चुंकि यह वर्ग मानसिक एवं शारीरिक दोनों आयामों से दुर्बल होता है अतः अभाव ग्रस्त होता है । इसी वर्ग को धर्म धारण करवाने का काम वैष्णव सम्प्रदाय का है । 
    कृष्ण ने वैष्णव सम्प्रदाय की स्थापना की। क्योंकि उस समय व्यापारी वर्ग के रूप में विदेशी  यक्षों ने अपनी वित्तीय सत्ता स्थापित कर ली थी। वही वैष्णव धर्म, जो कालकलवित हो गया था, उसे छठी शताब्दी में काल-स्थान-परिस्थिति के यथार्थ अनुरूप में पुनः स्थापित किया गया। अर्थात् वैष्णव मन्दिर अर्थव्यवस्था के केन्द्रीय कार्यालय या मुख्यालय थे और सनातन-धर्म या ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के प्रशासनिक स्थान थे। 
      ग्रामीण समुदाय अपनी वर्ष भर की आवष्यकताओं के जितना संग्रह करके बचे हुए अतिरिक्त उत्पादन को मन्दिर में चढ़ा देते थे। 
      गुप्त काल में जो भव्य अट्टालिकाऐं व्यक्तिगत हुआ करती थी उनका स्थान भव्य मन्दिरों ने लेना शुरू कर दिया । धीरे-धीरे नगर भी नष्ट हो गये और सनातन धर्म का वैभव लौटने लगा था। 
    वैष्णव मन्दिर एवं शैव मन्दिरों की संख्या गुप्तकाल में भी कम नहीं थी लेकिन उस समय ये दो सम्प्रदायों के रूप में वैमनस्य फैलाने वाले केन्द्र थे जबकि हर्षवर्धन के आन्दोलन में इन्हे निःशुल्क शिक्षा, आहार, भजन कीर्तन एवं चिकित्सा केन्द्र के रूप में विकसित किया गया । इन मन्दिरों की विपुल सम्पतियाँ, विष्णु एवं लक्ष्मी के श्रृंगार के स्वर्ग आभूषण इत्यादि ब्राह्मण गवर्नमेन्ट के एक तरह के राज्य कॉष का हिस्सा थे। 
    ये मन्दिर तीर्थ यात्रियों के विश्राम स्थल, तीर्थाटन के केन्द्र और उत्सवों त्यौहारों के केन्द्र तो थे ही थे लेकिन इनकी विषेष भूमिका तब बनती थी जब अकाल पड़ जाता था। इसी तरह की भूमिका के रूप में ईसाईयों के चर्च एवं इस्लामिक सम्प्रदाय की मस्ज़िदों का विकास हुआ। चर्चों एवं मस्ज़िदों में तथा वैष्णव मन्दिरों में एक फर्क अवष्य रहा। वह था देवी-देवताओं के विभागों के रूप में वैष्णव मन्दिर जाति आधारित थे । कालान्तर में मस्ज़िदें एवं चर्च भी साम्प्रदायिक विभाजन को स्वीकार करने लग गये। 
    राग एवं द्वैष जनित जातीय वैमनस्य जैसा आज हम देख रहे हैं वैसा कभी नहीं रहा। सभी जातियाँ एक दूसरे के जॉब के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास रखने वाले रहे हैं क्योंकि सभी जातियाँ एक दूसरे की पूरक होती हैं, आवष्यक वस्तुओं की आपूर्ति परस्पर होती है, यह समझ हमारे पूर्वजों में रही है । 
   सभी देवी-देवता किसी न किसी जाति विशेष के देवता होते थे लेकिन वर्ष में एक दिन ऐसा भी आता था जब ये सभी मन्दिर एक साथ एक समान सभी जातियों के उत्सव का केन्द्र होते थे। वर्ष का वह एक दिन वह दिन होता था जो उस देवता का जन्म दिन होता था तथा विशेष उत्सव एवं त्यौहार के नाम से जाना जाता था । उस दिन वहाँ  मेला लगता और प्रसाद वितरित होता था । वितरित किया जाने वाला प्रसाद निकट भविष्य में होने वाली मौसमी बीमारियों की अग्रिम चिकित्सा के रूप में औषधि होती थी । 
शैव एवं शाक्त सम्प्रदाय 
संख्या बल से देखा जाये तो ब्राह्मण सम्प्रदाय का अनुपात न्यूनतम रहा है । एक-दो प्रतिशत। वैष्णव सम्प्रदाय का प्रतिषत भी पाच दस से ऊपर नहीं रहा। वैष्णव सम्प्रदाय में वैष्य वर्ग के साथ-साथ निर्माण से जुड़ी जातियों को भी शामिल किया जाता है। क्योंकि इन्हें ही तो प्रकृति के महत्व को समझाया जाता है। ये सभी मिलाकर भी दस-पन्द्रह प्रतिषत से अधिक नहीं रहे। जबकि नब्बे प्रतिषत जातियां शैव सम्प्रदाय में आती हैं। 
वे सभी जातियां जो किसी न किसी प्राकृतिक उत्पादन से जुड़ी होती हैं वे शैव सम्प्रदाय में आती हैं । इन्हीं प्राकृतिक उत्पादक जातियों में विषेषकर फारेस्ट ईकोलोजी यानी, वनोत्पादन की अर्थ व्यवस्था से जुड़ी जो जातियाँ हैं उनमें मातृ सत्तात्मक परिवार या समाज से जुड़ी जातियाँ शाक्त सम्प्रदाय में आती हैं। जैन एवं बौद्ध सम्प्रदाय की शाखायें भी पितृ एवं मातृ सत्तात्मक भागों में विभाजित हैं। विषेषकर दिगम्बर जैन और बौद्धों में झेन सम्प्रदाय। झेन शब्द जैन का ही अपभ्रंष उच्चारण है । 
शैव सम्प्रदाय में शाखायें इस प्रकार हैं:-
    1. पशुपतिनाथ सम्प्रदाय 
नाथ
स्वामी
भैरव 
    2. परशुराम सम्प्रदाय
        क ब्राह्मण 
        ख वैरागी
        ग उदासीन
    3. आदिनाथ सम्प्रदाय 
नाथ
ख    स्वामी
  भैरव
   4. दत्तात्रैय द्वारा प्रचलित गुरू-शिष्य परम्परा 
दत्त सम्प्रदाय


47. वैष्णव धर्म बनाम वैश्य वर्ग !


   जैसा कि धर्म की मूल परिभाषा में धर्म के तीनों आधारों (1) मनोवैज्ञानिक पक्ष, शिक्षा (2) शरीर वैज्ञानिक पक्ष, आयुर्वेद तथा (3) समाज वैज्ञानिक पक्ष, अर्थ-व्यवस्था का उल्लेख बार-बार आता है। इस विषय में यह समझना महत्वपूर्ण है कि जब अर्थव्यवस्था वानिकीय पारिस्थितिकी Forest Ecology  पर सुचारू रूप से चल रही होती है तो धर्म का तीसरा अर्थशास्त्रीय आधार महत्वहीन हो जाता है। तब धर्म के दो ही आधार बचते हैं, शिक्षा और स्वास्थ।
शिक्षा का आधार ब्रह्म होता है जो कि हमारे ब्रेन से निकलने वाला चुम्बकीय क्षेत्र होता है। स्वास्थ का आधार ईश्वर होता है जो हमारे शरीर में विद्यमान अपरिमेय[असंख्य] परमाणुओं को अनुशासित रखने वाला ईथर होता है।
ब्रह्म-परम्परा के साहित्य को ब्रह्म-सूत्र वेदान्त और उपनिषद कहा गया है और परम्परा को स्मृति-परम्परा कहा गया है। वेद-परम्परा के साहित्य को वैदिक-ऋचाएँ, छन्द, सिद्धान्त और पुराण कहा गया है तथा परम्परा को श्रुति-परम्परा[लेखन भी इसी का भाग है] कहा गया है।
  इन दोनों परम्पराओं में धर्म शब्द का उपयोग अनुशासन के लिए नहीं होता। वैदिक परम्परा में धर्म का अर्थ हो जाता है तत्व की गुण-धर्मिता वहीं ब्राह्मण परम्परा में धर्म का अर्थ आत्म अनुशासित आचरण या प्रवृति हो जाता है। लेकिन जब अर्थव्यवस्था का आधार वानिकीय पारिस्थितिकी Forest Ecology नहीं होकर वस्तुओं के आदान-प्रदान वाली, श्रम एवं उत्पादन वाली अर्थात् मानव निर्मित अर्थव्यवस्था होती है तो वहाँ अनुशासित रहने के लिए एक मानवीय धर्म की आवश्यकता होती है। अनुशासित रहने के लिए कुछ मान्यताओं की आवश्यकता होती है। अनुशासन तोड़ने पर दण्ड के प्रारूप की आवश्यकता होती है। कुल मिलाकर एक धर्म की आवश्यकता होती है। नियम, संविधान, क़ानून-कायदों की आवश्यकता होती है।
गुप्त-काल में जब आर्थिक, सामाजिक, भावनात्मक तीनों स्तरों पर शोषक एवं शोषित वर्ग बन गये तो वैष्णव सम्प्रदाय नाम से एक सम्प्रदाय बनाया गया।
भारत में शोषित-वर्ग की दुर्दशा देख कर और अपने क्षेत्र में वैसी ही स्थिति देख कर पैग़म्बर मोहम्मद ने तो अपने अनुयाईयों से कहा कि, कोई किसी के सामने सजदा नहीं करें; यहाँ तक कहा कि प्रतिमाओं की भी पूजा न करें। क्योंकि यहाँ बौद्ध-जैन मन्दिरों में प्रतिमा पूजा और अरब क़बीलों में ओझाओं एवं कबीले के देवता की पूजा का प्रचलन था। अतः पैग़म्बर का यह मार्ग बहाव को रोकने जैसा था जो कालान्तर में दरगाहों में पूजा के रूप में फैला क्योंकि बहाव रूकता नहीं दिशा चाहता है जबकि भारत में उस प्रतिमा पूजा को एक अलग मन्तव्य से, अर्थव्यवस्था के केन्द्र के रूप में, एक सत्ता के केन्द्र के रूप में स्थापित किया गया था। यह एक तीर से अनेक निशाने जैसी व्यवस्था थी। इस व्यवस्था में इन बिन्दुओं पर निशाना साधा गया था।
   1- इन मन्दिरों से जुड़े विद्यालयों में विद्याएँ सिखाई जाती थीं, गुरूओं द्वारा गुर सिखाये जाते थे जिनसे निर्माण कार्य करके शिष्य जीविकोपार्जन कर सके। इस कार्य के लिए पैसा नहीं लिया जाता था और यह मान्यता भी प्रचारित-प्रसारित करके स्थापित की कि विद्याऐं बेचना घोर दुराचार माना जायेगा। कोई अपनी सुख-सुविधाओं के लिए अपनी पुत्री को बेचता है तो वह जितना दुराचारी माना जाता है उतना ही दुराचारी उस देव[विद्वान-ब्राह्मण] को माना जायेगा जो अपनी विद्या बेचता है।
    जबकि आज के गुरूओं के पास तो खुद के पास भी विद्याऐं नहीं अतः वे धूर्त बुद्धि का उपयोग करके गृहस्थियों की जेब से पैसे निकलवाकर खुद ऐश कर रहे हैं और जहाँ तक पाठ्य पुस्तकों में लिखा रटवाने वाले गुरू हैं वे पैसा लेकर क्या सिखाते हैं यह बात आप खुद शान्ति से सोचें। 
    2- विद्या की ही तरह मनोरंजन भी निःशुल्क था। अपने देवता की स्तुतियाँ गाना, नृत्य, संगीत, गायन, वादन से मन को अनुरंजित करने के काम का टिकिट नहीं लगता था। प्रेम-प्रसंग और परिणय-सम्बन्धों पर गीत, संगीत, नाटिकाऐं, नृत्य इत्यादि विषय पर रचने वाले रचनाकारों के लिए कृष्ण को एक महानायक का रूप दे दिया गया जिस पर वे कुछ भी रच सकते थे, सभी कुछ मान्य था। क्योंकि वह नायक भगवान का रूप था जिसके हजारों नाम थे जो नाम आप विष्णु सहस्त्र नाम में से चुन सकते थे। 
    3- इन दो मौलिक आवश्यकताओं के साथ-साथ नैसर्गिक आवश्यकताएँ भी होती हैं क्योंकि भूखे भजन न होय गोपाला। इन मन्दिरों में आहार और चिकित्सा भी निःशुल्क थी तथा भोज्य पदार्थ और औषधि को बेचने को तो इतना भयानक दुराचार कहा गया कि यह तो अपनी मां को बेचने जैसा दुराचार है।
अब जब आप भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो आज तो सबसे बड़े व्यापार ही ये ही हैं। Restaurant, hotel, hostel, hospitals, nursing home एवं स्कूलें खोलना ही समाज में सबसे प्रतिष्ठित धन्धे हैं बाकी सभी धन्धों में उधार देना पड़ता है इनमें नगद और एडवांस मिलता है। अब जब आपका अर्थ-शास्त्र ही काम एवं अर्थ (कामार्थ) वाली वाणिज्य पद्धति पर है तो आप भ्रष्टाचार मुक्त समाज वाली बेतुकी कल्पना को साकार रूप कैसे दे सकते हैं! इसके लिए एक सम्पूर्ण क्रान्ति आवश्यक है । उस क्रान्ति के क्रमबद्ध कार्यक्रमों को शुरू करने से पहले आवश्यकता है, एक वैचारिक आन्दोलन की, कि क्या हम एक सुखी मानव समाज की स्थापना के लिए तैयार तो हैं या खाली और खोखली बातें ही कर रहे हैं ?  

46. प्रतिमा की पूजा का विज्ञान !


     अर्जुन को आचार्य द्रोण नामक देव[द्विज ब्राह्मण] ने धनुर्विद्या स्वयं सिखाई थी लेकिन वह अर्जुन उस एकलव्य से धनुर्विद्या में बहुत पीछे था जिसने द्रोण की प्रतिमा के सामने विद्या सीखी थी। ऐसा इसलिए हुआ कि गीता का एक सिद्धान्त है ‘‘जो देवों का यजन करता है वह देवों को प्राप्त होता है और जो मेरा यजन करता है वो मुझे प्राप्त होता है। जो देवों का यजन करता है, मैं उसे उसी देव के प्रति श्रद्धा में बाँधता हूँ लेकिन वो लोग मूर्ख हैं जो मुझ पूर्ण से विमुख होते हैं और अपूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं।
अर्थात् अर्जुन ने आचार्य द्रोण नामक देव का यजन किया था अतः जितना आचार्य द्रोण जानते थे उतना ही या उससे कम ही अर्जुन जान पाया लेकिन एकलव्य ने द्रोण की प्रतिमा के सम्मुख आत्म-विश्वास से उस परमात्मा का यजन किया जो सभी के शरीर में शरीर की प्रकृति के रूप में 'मैं' या 'अहम्' रूप में विद्यमान है अर्थात् आत्म-विश्वास में आकर अपने चित्त को अपने आप में एकाग्र करके जब एकलव्य ने यजन[यज्ञ कर्म] किया, अभ्यास किया तो वह उस विद्या में परिपूर्ण हुआ,पूर्ण पारंगत हुआ, उस विद्या के प्रत्येक आयाम का विद्वान हो गया अर्थात् आप जब प्रतिमा विशेष के सामने जाकर दीन-हीन-कृपण बनते हैं तो आप के अन्दर का वह देवता-विशेष  भी दीन-हीन-कृपण हो जाता है जबकि प्रतिमा को उस देवता का प्रतीक मान कर उस देवता को अपना आदर्श मान कर उस देवता के चरित्र को अपने अन्दर विकसित करने का प्रयास या अभ्यास करते हैं तो आपके अन्दर उस विषय में पूर्णता विकसित हो जाती है। यह तो हुआ आत्म-कल्याण का यानी अपने शरीर-विज्ञान के धर्म का पक्ष।
  दूसरा है सामूहिक धर्म[अर्थशास्त्र] का पक्ष कि एक वर्ग जो सम्पन्न है, वह इस ब्राह्मण गवर्नमेन्ट के कार्यालय में प्रसाद चढ़ाता है तो दूसरा एक वर्ग जो विपन्न है उसे इस केन्द्र से पौष्टिक आहार के रूप में समान मात्रा में प्रसाद मिल जाता है।
आज अब हम इस बिन्दु पर भ्रष्टाचार की बात करें तो इन मन्दिरों में दिया गया दान पुजारियों का अभाव ही दूर नहीं कर सकता तो जनता में क्या वितरण होगा। यह ठीक वैसे ही है कि सरकार को दिया हुआ टैक्स सरकारी कर्मचारियों के वेतन में ही पूरा नहीं होता तो सरकार जन कल्याण में क्या कर पायेगी ?
सरकारी कर्मचारी,नौकरशाह, शाही-नौकर जो अपने नाम के आगे अधिकारी लगाना पसन्द करते हैं जिन्हें कर्मचारी शब्द ही पसन्द नहीं है, वे क्या कर्म कर पायेंगे! उनसे कर्म कराने के लिए घूस देनी पड़ती है। उसी तरह प्रतिमाओं को भगवान बना कर पुजारी लोग आप से चढ़ावा तो चढ़वाते हैं लेकिन वापस उसका वितरण नहीं करते। अब आप सोचें कि जब धर्म के नाम पर ही इतना अधर्म और अज्ञान है तो अन्य सांसारिक जीवन के पक्षों पर सदाचार कहाँ से आयेगा! क्योंकि आज प्रत्येक बिन्दु कॉमर्शियल हो गया है,  काम एवं अर्थ की गणित में उलझा है। अतः यदि एक ऐसे समाज की रचना करनी हो जहाँ भ्रष्टाचार नहीं हो तो पहली आवश्यकता है, सभी के अभावों को दूर किया जाये, तब उनमें भाव स्वतः पैदा होगा वे सदाचारी बने रहेंगे।
प्रतिमा की पूजा के परिप्रेक्ष्य में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचना चाहिये कि यह व्यवस्था सभी इन्सानों को एक जैसा मानने के आदर्श बौद्धिक स्तर के लिए बनायी गयी है ताकि व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का भावनात्मक शोषण न होने पाये।
जिस व्यक्ति ने बोधिसत्व प्राप्त कर लिया, जिसका सत्व ऊर्ध्वगामी है, जिसके आहार में लिए गये वसा-शर्करा-स्टार्च के तत्व तंत्रिका तंत्र में पहुंच कर सत्व में बदल जाते हैं अर्थात् हार्मोंस का स्राव अमृत-तत्व (सत्व) के रूप में होता है उसे अपने अन्दर भाव पैदा करने के लिए किसी सहारे, माध्यम, प्रतीक या मिथक की आवश्यकता नहीं होती है।
जिस व्यक्ति में रज का प्रभाव अधिक होता है और रज के साथ सत्व की पर्याप्त मात्रा भी हो तो व्यक्ति में भाव पैदा होता है। और यह तभी होता है, जब किसी लक्ष्य को प्राप्त करने का उचित मन्तव्य उसकी मानसिकता में भरा जाये। तब वह कर्म करने का पराक्रम दिखा सकता है।
इसी तरह जब व्यक्ति में तम का प्रभाव हो, उस के आहार की वसा व शर्करा सत्व में नहीं बदल पाती हो, शरीर से कच्ची शर्करा मलमूत्र द्वार से बाहर निकलने लगती हो, जब उसमें भय, आंशका, प्रतिस्पर्धा, अविश्वास इत्यादि अभाव पैदा हो जाते हैं ऐसे व्यक्ति को अभावों से मुक्त होने और सकारात्मकता यानी आस्था के भाव पैदा करने के लिए मिथक Mythology,प्रतीक symbol भ्रम-विभ्रम Fallacies - hallucinations मान्यताऐं Recognition इत्यादि मेथोलोजी के सहारे की आवश्यकता होती है और उनके लिए सर्वसुलभ सहारा होता है प्रस्तर-प्रतिमा।
निःसंदेह मैं यह लेखन उस बौद्धिक वर्ग के लिए कर रहा हूँ जो उपरोक्त 98 % प्रतिशत वर्ग में आने वाले उस अभावग्रस्त जनसमूह के लिए काम करने के लिए आगे आयेंगे जो सहारा ढूँढ रहा है। भले ही आप के और उसके मत (वोट) का भाव (वेल्यु) एक समान है लेकिन उसका मत लोगों की सह-मति से पड़ता है और आपका मत स्व-मति से पड़ता है। अतः यहाँ जो प्रसंग प्रतिमा, मन्दिर इत्यादि का चल रहा है, उसमें इस तथ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि ये प्रथाऐं जो परम्परा का रूप ले चुकी हैं इन प्रथाओं के दो पक्ष हैं। एक पक्ष है आप लोगों के लिए जो इस लेखन को पढ़-समझ सकते हैं और दूसरा पक्ष उन लोगों के लिए है, जिनके कल्याण के लिए आपको आगे आना है। तात्पर्य है आपको इन मन्दिरों की व्यवस्था में हस्तक्षेप करना है और इनको पुनः उसी रूप में रूपान्तरित करना है जिसके पीछे एक विशेष मन्तव्य था। 
मन्दिरों को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक व्यवस्थाओं का केन्द्र बनाकर आत्म-कल्याण की ब्राह्मण परम्परा और जगत के कल्याण की वेद परम्परा (दोनों) का योग करके एक अद्धैत परम्परा बनाई गई। आपको वहाँ ब्राह्मण की भूमिका निभानी है क्योंकि ब्रह्मा का मानस पुत्र ब्राह्मण[पत्रकार] तो देवों[विद्वानों] में भी ऋषि[समाज वैज्ञानिक] कहा गया है, जिसे गीता में भगवान की विभूति का दर्ज़ा [स्तर] दिया गया है। आप में से जो व्यक्ति राजनीति के माध्यम से संसद में जाने वाले मार्ग का प्रहरी है वह ध्यान रखेगा कि निर्दलीय संसद में जाने वाला सांसद अभावग्रस्त नहीं हो, भाव से भावित रहे। ऐसा प्रहरी हो जो चहुँ ओर अपनी ज्ञानेद्रियाँ सजग रखने वाला ब्रह्मा रूप स्वतः ही हो गया हो।

33. ब्रह्म vs ईश्वर

      ब्रह्म को लेटिन में ब्रेन कहा गया है लेकिन इसका हिन्दी में शब्दार्थ बनता है चेतना। इसको विज्ञान की भाषा में समझना चाहे तो यह एक चुम्बकीय बल रेखाओं का क्षेत्र है।
सदैव जागृत रहकर गतिशील रहने वाले जगत की प्रत्येक जीवित कोशिका Cell  में एक विशिष्ट चुम्बकीय बल रेखाओं वाला क्षेत्र होता है। उसी चुम्बकीय क्षेत्र या बल-रेखाओं को पहचान कर एक ही जाति-प्रजाति की कोशिकाएं एक समूह में इकट्ठी होती हैं। कोशिकाओं के उस समूह को ऊत्तक[Tissue] कहा जाता है। उस Tissue की चुम्बकीय बल रेखाऐं उसी अनुपात में अधिक बल[फोर्स] पैदा करती है। क्योंकि यह अपना क्षेत्र बनाकर उसमें स्थिर-स्थित रहकर स्पन्दन करती रहती हैं वही स्पन्दन उसका बल[फोर्स] कहलाता है।
यही बल-रेखाऐं आपस में धक्का-मुक्की करके यह निर्णय करती है कि किस अंग[Organ] का विस्तार कितना करना है और इसके विस्तार की सीमा रेखा क्या होनी चाहिये ताकि देह की संरचना (डिजाईन) वैसी ही बन जाये, जैसी उस जीव प्रजाति की देह परम्परा से चली आ रही है । देह की इस डिजाइन का अंकन (प्रिण्ट) वंशानुगत,आनुवंशिक गुणसूत्रों [genetic-code] में रहता है । 
ब्रह्म द्वारा संचालित इस प्रक्रिया (रासायनिक क्रिया) को अधियज्ञ कहा गया है। इस अधियज्ञ क्रिया में असंख्य परमाणु योग (Composition,combination) और भोग ( decomposition) की प्रक्रिया से गुजरते हैं अधिक विस्तार में न जाकर सिर्फ इतना ही समझना पर्याप्त है कि इस उठा-पटक में अणुओं-परमाणुओं को अनुशासित रखने का कार्यभार ईश्वर सम्भालता है जिसका अपभ्रंष उच्चारण लेटिन में ईथर हो जाता है अर्थात् ब्रह्म की कल्पना को ईश्वर साकार,आकारसहित बनाता है । 
प्रत्येक जीव कोशिका या जीव कोशिकाओं से बने देह,अंग,ऊत्तक [Tissue] रूपी पिण्ड की चुम्बकीय बल रेखाओं को बल देने वाला परम्ब्रह्म वह विशाल चुम्बकीय क्षेत्र है, जो सम्पूर्ण सृष्टि में फैला है। उस ब्रह्म की व्याख्या या चरित्र-चित्रण या परिभाषा जो कही गई है उसे चुम्बकीय क्षेत्र के चरित्र यानी गुणधर्मिता के समकक्ष रख कर समझने का प्रयास करे । 
'वह परम-गति वाला सभी के अन्दर सभी के बाहर सब से अन्तःस्थ तथा सब से दूरस्थ, समान भाव से सर्वत्र व्याप्त, सर्वत्र स्थिर-स्थित एक ही है फिर भी उसकी विशेषता यह है कि वह सब में विशिष्ट दृष्टिगोचर होता है'। (अर्थात् देखने में सब में विषिष्ट या असमान लगता है) 
    समझने का रोचक बिंदु यह है कि ब्रह्म सर्वत्र एक ही चुम्बकीय बल रेखाओं,परमगति वाला एक ही है लेकिन सभी में विशिष्टता देने वाला,वर्गीकृत करने वाला और जीवकोशिका को,जीव को,जीव के आत्मभाव [आत्मा] को अलग-अलग स्वतन्त्र,स्वाधीन,आत्म नियंत्रित रहने का बल देने वाला और अमरता देने वाला है. लेकिन फिर भी वह एक ही है 'एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति'।
     जब कि ईश्वर का मामला इससे विपरीत है.ईश्वर प्रतेक मूर्ति [मूर्त रूप] का, देह का अलग-अलग होता है क्योंकि प्रतेक संरचना के अणु परमाणु को अनुशासित रख कर उसके अस्तित्व को पूर्णता देता है। ईश्वर के कारण ही यह वह सब पूर्ण है अतः 'जीवो जीवस्य भोजनम्' मे भोजन,भोग भी वही है और भोग् कर्ता,भोक्ता भी वही है.अतः प्रतेक जीव-संरचना को अलग अलग संरक्षण देने वाला,अलग अलग ऐश्वर्य देने वाला और अलग अलग अस्तित्व बना कर उस अस्तित्व की अलग अलग रक्षा करने वाला ईश्वर सर्वत्र अलग अलग, ऊर्जा के बण्डल के रूप मे अलग अलग इकाई Unit मे बन्टा हुआ है फ़िर् भी सभी जीव पिण्डों के साथ एक समान सम भाव में रहता है कही भी विशिष्ट व्यवहार नहीं करता।
       इस तरह ईश्वर सभी का अपना होता है फिर भी एक समान गुणधर्मिता को धारण किये रहता है जबकि ब्रह्म एक ही है इकाइयों में बँटा हुआ नहीं है फिर भी ईश्वर निर्मित प्रतेक इकाई को विशिष्ट चेतना दे कर सभी को विशिष्ट बनाता है।      
इस को एक शब्द में भी परिभाषित किया गया है जो शब्द है ‘‘वसुघैव-कुटुम्बकम्‘‘ अर्थात् पृथ्वी पर विद्यमान जगत का प्रत्येक जीव ब्रह्म की तंरगों से बँधा एक ही कुटुम्ब, कम्यून, कम्युनिटी का हिस्सा है ।
ब्रह्मपरम्परा का ज्ञान सिर्फ चार सूत्रों में सिमटा हुआ है। 
     सामाजिक पत्रकारिता में इस विषय की विवेचना करने का अभिप्राय यह बताना है कि ब्रह्म की आवश्यकताएँ [शिक्षा,क्रीडा,मनोरंजन]  हमेशा अपनी अपनी मौलिक होती है जो अपने अपने मूल,जड़,root से निकलती है यह जड़ हमारी उर्ध्मूलाकार [The shape of the root upwards] शारीरिक संरचना में ऊपर अपनी-अपनी खोपड़ी में अपनी अपनी मौलिक बन कर पनपती है।
      जबकि ईश्वर निर्मित विभिन्न प्रकार के शरीर नैसर्गिक आवश्यकताएँ [आह़ार निन्द्रा विरेचन] सभी की एक सामान होती है.
       हमें एक ऐसा भारत बनाना है जिसमे सभी को ब्रह्म प्रदत अपनी अपनी मौलिक आवश्कताएँ पूरी करने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता हो, ईश्वर प्रदत नैसर्गिक आवश्यकताएं [आहार,निंद्रा,विरेचन] पूरी करने की सभी को निष्पक्ष एक समान सार्वजनिक सुविधा हों और बेसिक आवश्यकताएँ [आवास,वस्त्र,वाहन] काल-स्थान-परिस्थिति के अनुरूप समसामयिक यथार्थ के अनुरूप पूरी हों।
      यह तभी सम्भव होगा जब आप अप्राकृतिक वर्ग भेद को मिटा कर प्रकृति द्वारा वर्गिकृत स्वभाव के अनुरूप वर्गीकृत व्यवस्था करेंगे।