शिक्षा के अनगिनत विषय होते हैं लेकिन सभी विषयों के मूल में दो ही विषय होते हैं।
भाषा एवं गणित।
बहुत से गाँवों के बीच बसे एक शिक्षक-एक शिक्षिका प्रणाली के इन गुरूकुलों में भाषा में शब्द और गणित में जोड़-बाकी-गुणा-भाग व प्रतिशत को ही मजबूती से सिखाया जाता था ताकि बालक आगे जाकर किसी भी विषय का स्वाध्याय कर सके।
आज हमें पुनः एक ऐसी शिक्षा-परीक्षा प्रणाली की पुनर्स्थापना करनी है जिस पद्धति में विद्यार्थी अपनी रूचि के अनुसार विषय का चुनाव विशाल पुस्तकालयों में बैठा स्वयं कर सके। लेकिन भाषाओँ एवं गणित विषयों की नींव मजबूत हो। शिक्षा निशुल्क हो।
पूरे भारत देश में यह किसान-ब्राह्मण संस्कृति थी। इसे सभ्यता-संस्कृति, जीवन-शैली, समाज-व्यवस्था कुछ भी नाम दिया जा सकता है। इस व्यवस्था पद्धति में कालान्तर में कुछ परिवर्तन आये जिनका उल्लेख प्रसंगानुसार किया जायेगा लेकिन यह वह मूल भारतीय संस्कृति है जो भारत की साँस्कृतिक पहचान है जो सनातन बनी रहती है। भारतीय गावों की यह वस्तु-विनिमिय अर्थव्यवस्था कुछ परिवर्तनों या संस्कृति विकास के साथ भारत की तथाकथित स्वतन्त्रता के एक दशक बाद तक बनी रही। इस व्यवस्था को भारतीय नव-धनाड्य, नव-बौद्धिक, नव-धार्मिक(नव-आध्यात्मिक) और नव-राजा(नव-राजनैतिक) वर्ग ने वित्तीय व्यवस्था के माध्यम नष्ट कर दिया।
इसे तथाकथित स्वतन्त्रता इसलिए कह रहा हूँ कि हमने जो तंत्र बनाया वह हमारा स्व-निर्मित तंत्र नहीं है बल्कि पश्चिमी सभ्यता के यक्षों द्वारा बनाया हुआ तंत्र है। दूसरी बात यह है कि हमने उच्छ्रंखलता को स्वतन्त्रता महसूस किया है या मान लिया है।
जिस भारत की आर्थिक व्यवस्था कुछ ऐसी थी कि प्रत्येक गाँव परिवार अपनी सालभर की आवश्यक सामग्री को घर में संग्रह करके रखता था ताकि उसकी आर्थिक-सुरक्षा बनी रहे, जबकि आज उसी भारत में हमारी स्थिति यह है कि अचानक कोई प्राकृतिक आपदा आ जाये या विश्वयुद्ध छिड़ जाये तो आज की परिस्थिति में गृहयुद्ध भी विश्वयुद्ध के साथ-साथ छिडेंगे। उस स्थिति में किसी भी परिवार की रसोई में दो-चार दिनों से अधिक चल जाये, इतनी मात्रा में खाद्य सामग्री नहीं है।
गावों के कुछ परिवारों में कुछ सप्ताह चल सके उतनी सामग्री शायद मिल भी जाये लेकिन विकसित शहरों में तो यह स्थिति है कि एक अच्छी-ख़ासी बरसात भी आ जाये तो वे अपने-अपने घरों में दूध, ब्रेड, अण्डे और सब्ज़ियों के इंतज़ार में भूखे बैठे रह जाते हैं।
यूरोप, अमेरिका में तो यह विकास उचित तरीके से व्यवस्थित किया गया है क्योंकि वहाँ का आम आदमी प्राकृतिक उत्पादन से जुड़ा नहीं रह सकता लेकिन भारत में इस तरह का अनियन्त्रित ऊटपटांग शहरीकरण उचित नहीं है। उन लोगों की मजबूरी है शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण करना, जबकि यह अन्धानुकरण हमारी मूर्खता है।
कुछ मुट्टीभर लोग वित्त के लालच में पूरे भारत को गर्त में ले जा रहे हैं। आज हमारी आवश्यकता है जो हमेशा से रही है, वह है धन-धान्य से समृद्ध होने की, करेंसी नोट(वित्त) को तो बकरी भी शायद ही खाये जबकि जिन राष्ट्रों की मुद्रा हमारी मुद्रा से पचास गुना महत्व रखती है वहाँ एक प्राकृतिक दुर्घटना उन्हें भूख से तड़प-तड़प कर मरने को मजबूर कर देगी। वे यदि अथाह खाद्य सामग्री का संग्रह भी कर लें तब भी वह कुछ दिनों, महीनों,वर्षों तक तो भले ही चल जाये लेकिन भारत में यदि सब कुछ समाप्त हो जाये तब भी एक सुसभ्य मानव समुदाय और ज्ञान-कोष सुरक्षित बचा रहेगा क्योंकि लोगों को घर बैठे-बैठे पौष्टिक आहार मिलता रहेगा क्योंकि यहाँ गौ-माता रहती है, जो चर-चराकर वहाँ पर स्वतः आ जायेगी जहाँ उसे इन्सान के रहने या जीवित बचने का अहसास हो जायेगा।
आज का तथाकथित वैज्ञानिक वर्ग यह बता-बता कर तो भयभीत करने की कोशिश कर रहा है कि पृथ्वी नष्ट हो सकती है, सूर्य से आग की लपटें आने वाली है या भयानक खगोलीय घटनाओं से पृथ्वी पर बड़े-बड़े रेगिस्तान बने हैं और डायनासोर युग आया था।
लेकिन हिरोशिमा और नागासाकी में बना डेज़र्ट उन्हें दिखाई नहीं देता। खुद जापानियों को भी दिखाई नहीं देता। जबकि सच्चाई यह है कि चाहे वह आस्ट्रेलिया का डेज़र्ट हो या भारत के पश्चिम क्षेत्र से लेकर ईरान, अफग़ान, अरब, इराक़, यानी पूरे के पूरे मध्य और पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका में फैला डेजर्ट, चीन का डेज़र्ट सब पूर्व में हो चुके परमाणु युद्धों का परिणाम है।
जिस तरह एक रावण लंका में विकसित हुआ तो उससे पूर्वकाल में एक रावण आस्ट्रेलिया में भी पनपा था। आस्ट्रेलिया से एशिया के बीच भी रामसेतु की तरह ही समुद्रीय भौगोलिक स्थिति है। रावण के पूर्वज केस्पीयन सागर के उस पार थे तो कालान्तर में कोई रावण पश्चिम-मध्य एशिया में भी हुआ होगा और मिश्र में भी हुआ होगा। लेकिन वर्तमान का रावण अमेरिका और यूरोप के राष्ट्रों में पनप रहा है जो सभी राष्ट्रों को अणु-विखण्डन भाट्टियाँ लगाने का प्रलोभन दे रहा है। अब भी यदि सचेत नहीं हुए तो सम्भव है पूरी पृथ्वी ही डेज़र्ट हो जाये ।
जब कोई व्यक्ति या वर्ग गलत दिशा में जाता है तो उसके दो ही कारण होते हैं या तो वह मूर्ख है या मूर्ख बनाया जा रहा है या वह जान कर भी गलत दिशा में इसलिए विकास कर रहा है कि वह धूर्त है और दुनिया को मूर्ख बना रहा है।
धूर्त वर्ग की स्वयं की स्थिति ऐसी है कि वह इस सीमा तक भयभीत हैं कि किसी अन्य ग्रहों पर रहने का स्थान खोज रहा है क्योंकि उसे पता है जब भी वित्तेशों(कुबेरों) के सहयोग से उनके पूर्वजों ने वेदों को चुरा कर ऐसे आसुरी वैदिक अनुष्ठान(अणु-विखण्डन के कार्य) किये हैं तब-तब कोई न कोई राम पैदा हुआ है और उनके साम्राज्यों का पतन किया है अतः किसी दूसरे ग्रह को रहने के लिए खोजो।
जबकि पृथ्वी पर जो खाद्य संकट और आर्थिक संकट निकट भविष्य में आने वाला है वह उन्हें दिखाई नहीं दे रहा है।
दुर्भाग्य तो यह है कि जहाँ परशुराम, कृष्ण-बलराम और श्री राम जैसे चरित्र पैदा हो चुके हैं वहाँ का भारतीय भी एक ऐसा शतुरमुर्ग हो गया है जिसने अपनी सभी ज्ञानेन्द्रियाँ उस बैंक खाते पर केन्द्रित कर रखी है जिसमें काला धन नाम का नाग बैठा है। अब यदि आपकी कल्पना में कोई उपयुक्त व्यवस्था पद्धति का ढांचा ही नहीं है तो क्या तो उस काले धन से कल्याणकारी स्थिति बन जायेगी और क्या जन लोकपाल नौ की तेरह कर लेगा ? जन-लोकपाल भी तो उसी तरह के संविधान में बँधा होगा जिस संविधान में भीष्म, द्रोण और कृप जैसे महारथी बँधे थे और जिस संविधान में आज के न्यायाधीश बँधे हैं।
आज की आवश्यकता है, एक ऐसी व्यवस्था पद्धति को विकसित करना जिसमें ईमानदारी से वे सभी सुख मिलें जो बेईमानी करने के बाद भी नहीं मिल पा रहे हैं। क्योंकि हम उस नगरीय एवं प्रोद्योगिकी प्रतिस्पर्धा में दौड़ रहे हैं जिसमें हम सौ साल पीछे हैं जबकि प्राकृतिक उत्पादन की उस दिशा की तरफ पीठ कर रखी है जिस में हम न सिर्फ हज़ारों वर्ष आगे हैं बल्कि सदा से ही आगे रहे हैं।
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