सच्चाई तो यह है कि जिसमें सच्चा अहम् भाव होता है और अहम के ऊपर सिर्फ परम को मानता है किसी अन्य व्यक्ति को नहीं, वही परम के यथार्थ(यथा-अर्थ) को समझ कर परमार्थ भाव से सर्व-कल्याणकारी व्यवस्था कर सकता है।
यहाँ अहम शब्द का तात्पर्य आत्म से होता है तो परम का तात्पर्य परम्-आत्म[परमात्मा] से हो जायेगा और अहम् का तात्पर्य स्वयं से होता है तो परम् का तात्पर्य प्रत्येक से या सर्व से हो जाता है। जो अहम् का सच्चा भाव रखने वाला ब्रह्मणि स्थिति में रहता है, वही व्यक्ति वैदिक-धर्म में आने पर जगत की प्रत्येक रचना और समाज के प्रत्येक व्यक्ति के हित के बारे में सोचता है और सार्वजनिक जीवन में हम का भाव रख सकता है। स्वार्थ से परमार्थ पर आ जाता है।
ब्रह्मपुत्र घाटी क्षेत्र को आप असम कहते हैं जबकि इसका मूल नाम अहम है और भाषा अहमिया भाषा कही जाती है। आप जब सामूहिक बन्द का आयोजन करते हैं तो कितना कुछ करते हैं, फिर भी पूर्ण बन्द नहीं रख पाते जबकि असम में जब बन्द का आह्वान होता है तो वह जनता कर्फ्यू बन जाता है क्योंकि अहम् भाव वाला आत्म-अनुशासित होता है अतः बन्द के आह्वान मात्र से सभी अपने आप ही बन्द को अनुशासित तरीक़े से अन्जाम देते हैं। यह एक उदाहरण है, जिससे आप मेरी बात को अतिवादी नहीं समझें कि ब्रह्म-परम्परा कोई यथार्थ से दूर भ्रामक या विभ्रम की अवधारणा हैं।
सच्चाई तो यह है कि बालक जब अबोध होता है तब उसमें वे सभी गुण होते हैं जो एक आत्म-संयम योग पर योगरूढ़ योगी में होते हैं लेकिन ज्यों-ज्यों वह बुद्धिमान होता है, उसमें भ्रामक अवधारणाएँ पनपने लग जाती हैं, इसे संग दोष कहा जाता है।
वर्तमान में हम जिस भ्रष्टाचार की बातें करते हैं, वह संग-दोष का ही परिणाम है। यदि हम यह चाहते हैं कि भारत एक भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र बने तो इसका एक मात्र रास्ता है एक ऐसा वर्गीकृत ढ़ाँचा बनाया जाये जहाँ एक वर्ग, अपने वर्ग की जीवन-शैली सिद्धान्तों एवं मान्यता को सभी वर्गों पर समान रूप से थोपने की कोशिश न करे।
जो आचरण एक वर्ग के लिए मान्य होता है, वही आचरण दूसरे वर्ग के लिए अमान्य हो सकता है, अतः वह भ्रष्ट-आचरण कहलाता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आचरण के अनेक पहलू होते हैं जबकि आप सिर्फ वित्तीय घोटालों को ही भ्रष्टाचार कहते हैं। वित्त की रचना प्रकृति ने नहीं की है यह मानवीय धूर्त बुद्धि की खोज है अतः जहाँ वित्त का प्रचलन होगा वहाँ हेराफेरी होगी ही। वित्त को अर्थ[धन-धान्य] पर हावी करने से आज भारत एक शर्मनाक स्थिति में पहुँच गया है जबकि दूसरी तरफ भारत इतनी तरह की संस्कृतियों और भौगोलिक भागों में बंटा रहने के बाद भी, इतना वित्तीय भ्रष्टाचार होने के बाद भी राजनीति में और संसद में इतने अधिक आपराधिक प्रवृति के लोग होने के बाद भी आश्चर्यजनक रूप से प्रजातान्त्रिक राष्ट्र बना हुआ है।
क्यों!क्योंकि भारत की मूल संस्कृति ब्राह्मण संस्कृति है अर्थात् आत्म-संयम की संस्कृति है अतः कुछ मूर्ख अनुयाइयों के सिवा कोई भी भारतीय वर्ग-संघर्ष की सीमा तक नहीं जाता है।
वैदिक संस्कृति के आदर्श पुरूष राम ब्राह्मण संस्कृति से जुड़े होने के कारण ही सनातन धर्म की रक्षा करते हैं, जबकि रावण ब्राह्मण होते हुए भी वैदिक-सभ्यता संस्कृति के आसुरी पक्ष का विस्तार करता है और सनातन धर्म को नष्ट करता है क्योंकि वह ऋषि की सन्तान होने से ब्राह्मण कहलाया जबकि ब्राह्मण का तात्पर्य आचरण से होता है, आत्म-संयम से होता है, विषमता को सम में बदलने की प्रतिभा से होता है।रज और तम सत्व को आवृत्त कर देते हैं अतः व्यक्ति ब्राह्मणत्व से गिर जाता है।
भारत की सांस्कृतिक जीवन शैली के पतन का एक मात्र कारण रहा है कि ब्राह्मण की पहचान आचरण से नहीं होकर वंशानुगत जाति के रूप से होने लगी। यह ठीक ऐसा ही है जैसे कि एक अध्यापक के निरक्षर चरित्रहीन अनपढ़ गंवार और असंस्कारित बेटे को भी अध्यापक के रूप में समाज पर थोपा जाए । इस से शिक्षा व्यवस्था का क्या हाल होगा ? यही हाल ब्राह्मण परम्परा का हुआ है।
इससे भी गहरी बात यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये चार समसामयिक-धर्म Contemporary-righteousness,समयानुकूल कर्त्तव्य और अधिकार होते हैं। जाति तो वह होती है जो आपके रोजगार का विषय होता है।
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