यहाँ आप वैदिक गवर्नमेण्ट व्यवस्था और ब्राह्मण गवर्नमेण्ट व्यवस्था के मूल बिन्दुओं को तुलनात्मक तरीके़ से समझें।
वैदिक सत्ता[प्रशासनिक व्यवस्था] में देव, यक्ष, राक्षस तीन प्रशासक होते हैं वहीं ब्राह्मणी सत्ता में ब्राह्मण,वैष्णव,शैव तीन संरक्षक गुरु होते हैं।
वैदिक-सत्ता जहाँ टैक्स, कर, लगान,शुल्क इत्यादि से चलती है वहीं ब्राह्मण-सत्ता दान-दक्षिणा-भेंट-उपहार-वस्तु-विनिमय,श्रम-सहयोग से चलती हैं। कर या लगान में गणितीय आंकलन होता है जबकि दान में ऐसा नहीं है। एक कंजूस व दीन-हीन-कृपण आजीवन निःशुल्क लाभ उठा सकता है तो एक उदार व्यक्ति अपनी पूरी की पूरी संपत्ति दान में दे सकता है। जबकि टैक्स,लगान इत्यादि कम देने पर चोरी मानी जाती है और अधिक देने पर देने वाले के प्रति शंका पैदा होती है।
वैदिक-सत्ता में प्रोटोकॉल होता है। एक के ऊपर एक पद होते हैं और छोटे-बड़े का क्रम होता है। एक संस्था दूसरी संस्था को अनुशासित करती है। नीचे से ऊपर तक सजदा करने,नमस्कार,प्रणाम,अभिवादन करने की मानव निर्मित नियमानुसार एक प्रक्रिया होती है।
जबकि ब्राह्मण-सत्ता में कोई प्रोटोकॉल नहीं होता। एक होता है स्वयं-आत्म जो कि स्वतन्त्र, स्वाधीन आत्म-अनुशासित एक व्यक्ति का 'मैं' होता है जो उभयपक्षी होता है जिसका एक पक्ष परम गति वाले ब्रह्म का अहँकार होता है जिसके आयतन के विस्तार की सीमा को नापा नहीं जा सकता; दूसरा पक्ष स्वाभिमान का घनत्व इतना अधिक होता है कि प्रोटोकोल में उसके आत्म के ऊपर कोई नहीं होता सिर्फ परम्-आत्म [परमात्मा] होता है। किसी को भी सजदा करना उसकी मजबूरी नहीं होती, उसका स्वविवेक होता है।
वैदिक-सत्ता में नीति का तात्पर्य पॉलिसी और संवैधानिक नियम होते हैं जबकि ब्राह्मण-सत्ता में नीति का तात्पर्य नैतिकता और काम करने की नीयत होती है। संविधान के स्थान पर स्वविवेक होता है।
वैदिक-सत्ता सभ्यता और असभ्यता के मापदण्डों पर चलती है जबकि ब्राह्मण-सत्ता स्मृति-संस्कारों पर आधारित होती है यानी अवचेतन में संस्कारों को आधार बना कर स्वाधीन होकर स्वतन्त्र चलती है।
वैदिक-सत्ता का शासन वेतनभोगी कर्मचारियों द्वारा आगे से आगे बढ़ता है जबकि ब्राह्मण परम्परा तीन तरह की पुत्र परम्परा है।
आप सन्तान और पुत्र को एक ही मानते हैं जबकि इन दोनों शब्दों में अन्तर है। पुत्र शब्द का अर्थ है परम्पराओं की पालना करने की पात्रता रखने वाला। परम्पराऐं तीन प्रकार की होती हैं अतः पुत्र भी तीन प्रकार के होते हैं।
जो सन्तति परम्परा की पालना करने की पात्रता रखता है उसे सन्तान रूपी पुत्र कहा जाता है। यदि संतान अविवाहित रहता है तो वह मात्र सन्तान ही कहा जायेगा, पुत्र नहीं।
जो गुरू-शिष्य यानी गुरूकुल परम्परा की पालना करने की पात्रता रखता है वह शिष्य रूपी पुत्र होता है।यह अध्यापक परम्परा है।
जो गुरूसेवक परम्परा की पालना करने की पात्रता रखता है वह सेवक रूपी पुत्र होता है। यह चिकित्सा परम्परा से जुड़ी अनेक समसामयिक परम्परायें हैं।
वैष्णव एवं शैव परम्परा प्रारम्भ में गुरू-चेला परम्परा थी क्योंकि किसी भी अस्वस्थ, अनाथ, अपाहिज, असामान्य मनोस्थिति वाले अबोध के भोजन, आवास और चिकित्सा में सेवा भावना की आवश्यकता होती है। आजकल ये सेवा करते नहीं बल्कि करवाते हैं। ईसाई मिशनरी इसे सेवा के स्थान पर सर्विस कह देते हैं।
इन उदाहरणों की लम्बी सूची बनाई जा सकती है लेकिन चूँकि इन प्रारम्भिक संदेशों में संक्षिप्त में संकेत रूप में ही बताया जा रहा है फिर जब आपकी जिज्ञासा होगी तो एक-एक बिंदु पर विस्तार से भी कहा जा सकता है। लेकिन मैं जहाँ तक सोचता हूँ कि सनातन धर्म के दो पक्ष और तीन आधारों को स्पष्ट करने का मेरा प्रयास सही दिशा में चल रहा है।
वैदिक-सत्ता सब्जेक्टस यानी विषय के भोगों को लेकर विस्तार लेती है जबकि ब्राह्मण परम्परा ऑब्जेक्ट यानी उद्देश्य को केन्द्र में लेकर विस्तार लेती है।
भारत में ब्राह्मण परम्परा सदा जीवित रहती है। आज भी भारत की केन्द्रीय सरकार एवं सभी राज्य सरकारें जितने टैक्स का संग्रह करती हैं, उस राशि से कई गुना अधिक राशि भारतीय लोग दान में दे देते हैं। उस का अधिकांश भाग सीधा दान में दिया जाता है जबकि मन्दिरों में दिया हुआ दान उसका थोड़ा सा अंश होता है। भारतीयों की अर्थव्यवस्था की सनातन स्थिति बनी रहने के लिऐ दो ही बिन्दु पर्याप्त हैं।
एक बिन्दु है ग्रीष्म ऋतु में वर्षा के वार्षिक चक्र का आना और धन धान्य का उपजना और दूसरा बिन्दु है दान देने की प्रथा में श्रद्धा और विश्वास से जुड़े रहना। इसी का नतीजा है कि इतनी आर्थिक विषमता के बाद भी भारत में भूख से मरने वाली घटनाऐं अपवाद स्वरूप ही होती हैं।
जब कभी भी पृथ्वी पर कोई ऐसी घटना घटती है जिसके परिणामस्वरूप सभी सभ्यता संस्कृतियाँ नष्ट हो जाती हैं और साथ ही पृथ्वी के अधिकांश भू-भाग पर मानव-प्रजातियाँ अर्थात् मनुष्य की मानसिक-प्रजातियाँ नष्ट हो जाती हैं या विलुप्त हो जाती है तब भी भारत में मनीषी[मनुष्य] प्रजाति या ब्राह्मण प्रजाति या कहें कि कुलीन-योगियों के कुल की प्रजाति बची हुई रहती है और उसी मनुष्य प्रजाति से मानव-प्रजातियाँ पुनः पृथ्वी के भू-भाग पर फैलती है।
इस ब्राह्मण जाति का मूल उत्पत्ति स्थान है ब्रह्मपुत्री क्षेत्र जिसे ब्रह्मपुत्र घाटी कहा जा सकता है।
ब्रह्मपुत्र नदी तीन प्रकार के भूभागों में विभाजित है। एक भाग दक्ष प्रजापति का क्षेत्र है जो हिमालय का वह क्षेत्र है जहाँ नदी हिमालय पर ही चलती रहती है। दूसरा क्षेत्र जो तिब्बत का पठार है,जहाँ से नदी हिमालय से उतरती है और ढलान में घाटी में बहती है तथा तीसरा वह क्षेत्र जहाँ नदी समुद्र के मुहाने पर समतल भूमि पर आती है।
जहाँ घाटी और पहाड़ी क्षेत्र है वह दक्ष प्रजापति की कन्याओं का क्षेत्र है अर्थात् वहाँ मातृ-सत्तात्मक संस्कृति रही है। घाटी के तीनों तरफ की पहाड़ियों के बाहर का क्षेत्र जो वर्तमान में पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश और म्याँमार[पूर्व का बर्मा] है ये पूरा क्षेत्र ब्रह्म देश कहलाता था।
विश्व की सर्वप्रथम लिपी यहीं से विकसित हुई जिसे ब्राह्मी लिपी कहा जाता है। विश्व की विभिन्न प्रकार की लिपियाँ इसी से प्रेरित हैं। ब्राह्मी लिपी और ब्रह्मणी भाषा में व्याकरण का उपयोग नहीं होता। अतः शब्द ही बोले जाते हैं, शब्द ही ब्रह्म रूप हैं और व्याकरण न होने से शब्द स्त्रिलिंग पुल्र्लिग नहीं होते, बहुवचन भी नहीं होता शब्दों के द्वन्द्व समास से भावाभिव्यक्ति होती है।
संस्कृत, हिन्दी, नेपाली, मराठी इत्यादि भाषाऐं देव-नागरी लिपी में लिखी जाती है। नगरों में रहने वाले देवों[विद्वानों] ने इसकी रचना की अतः यह देव नागरी लिपी कहलाती है।
वैदिक-भाषा संस्कृत-भाषा में शब्द की उत्पत्ति धातु से होती है और धातुओं की संख्याएँ मुश्किल से चार-पाँच सौ होगी अतः कह सकते हैं कि विश्व की सभी धार्मिक वैज्ञानिक भाषाओं के असंख्य शब्दों की जननी संस्कृत के सिर्फ चार-पांच सौ शब्द ही हैं। वर्तमान की संस्कृत में अनेक शब्द वैदिक संस्कृत से, तो अनेक शब्द ब्रह्मणी एवं प्राकृत भाषाओं के हैं।
इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसी मानव प्रजाति नहीं है जो ब्रह्मपुत्री क्षेत्र में नहीं हो अर्थात् विश्व की सभी मानव प्रजातियां ब्रह्मपुत्री क्षेत्र में हैं बल्कि ऐसी अनेक प्रजातियाँ भी ब्रह्मपुत्री क्षेत्र में मिलेगी जो पृथ्वी के किसी भी अन्य भू-भाग में नहीं मिलतीं।
आज जब हम नारी के उत्थान और महिला अधिकारों की बात करते हैं तो इस परिप्रेक्ष्य में इससे अधिक विडम्बना, इससे बड़ा अधर्म और भ्रष्टाचार क्या हो सकता है! कि ये महिला-कल्याण संगठन और तथाकथित नारी स्वतन्त्रता की बातें करने वाले पुरूष संगठन, विश्व की एक मात्र मातृ-सत्तात्मक संस्कृति के बचे हुए क्षेत्र पर भी पुरूष सत्ता के अतिक्रमण का विरोध नहीं कर रहे हैं। पृथ्वी के एक मात्र भू-भाग पर, जहाँ जीव-ब्रह्म का अस्तित्व बना रहता है, उस पर भी वित्त की सत्ता के माध्यम से भौतिक-विकास के नाम पर वनों को नष्ट करके वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था वाली उस भूमि पर किये जा रहे अतिक्रमण की तरफ से आँखें मूँद रखी हैं। यही वह भू-भाग है जो धरती पर सनातन धर्म के अस्तित्व को बचाए रखता है यानी ईको-चैनल को पुनः विस्तार देने के लिए वनस्पति,प्राणी और मानव साम्राज्य की विभिन्न प्रजाओं [प्रजातियों,नस्लों] को एक साथ संरक्षित करके रखता है।
इसलिए आज की आवश्यकता है, हम इस सभ्यता और विकास के बहाव को रोकें जो कि ग़लत दिशा में बह रहा है। निःसन्देह बहाव कभी भी रोका नहीं जा सकता उसकी सिर्फ़ दिशा बदली जा सकती है। पानी का एक बहाव भूमि का कटाव करके उपजाऊ भूमि को बंजर बना देता है तो दूसरी तरफ़ पानी के उसी बहाव को व्यवस्थित तरीके से उपयोग में लिया जाये तो फसलें उपजाने के काम आता है।
जहाँ सभी कुछ वित्तीय सत्ता के बहाव में बहा जा रहा है वहाँ दो-चार पत्थर अवरोध रूप में व्यवस्थित करने से क्या भ्रष्टाचार का बहाव रूक सकता है ? आज की आवश्यकता है एक वर्गीकृत ढांचा बनाने की जिसमें हम करेंसी की लिक्विडिटी का पूरा उपयोग कर सकें,साथ ही साथ यह तरल मुद्रा शोषक-शोषित वर्ग पैदा न कर सके इसके लिए वर्गीकृत व्यवस्था अर्थात सर्वकल्याणकारी व्यवस्था पद्धति को स्थापित एवं प्रतिष्ठित कर सकें, न कि इस लिक्विडिटी के बहाव में बहते रहें।
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