प्राकृतधर्म सम्प्रदायों की मुख्य शाखायें इस तरह हैं...
एक है भिक्षु सम्प्रदाय जो आदिनाथ वाला नाथ सम्प्रदाय कहा जाता है, जिस परम्परा में 24 जैन तीर्थंकर हुए हैं।
एक है योगी सम्प्रदाय जो पशुपतिनाथ वाला नाथ सम्प्रदाय है जिस परम्परा में मछिन्द्रनाथ[मक्षइन्द्र] और गौरक्षनाथ इत्यादि हुए,जिन्होंने आठवीं शताब्दी में नाथ सम्प्रदाय का नवीनीकरण किया।
ये दोनों परम्पराएँ मूल परम्पराएँ हैं।
कालान्तर में दो सम्प्रदाय और बने जिनके प्रवर्तक परशुराम एवं दत्तात्रेय हुए थे। परशुराम ने एकात्म परम्परा का ‘‘एकला चलो‘‘ का सिद्धान्त अपनाया। अतः वे ब्राह्यण कहलाये।
दत्तात्रेय ने गुरू-शिष्य[गुरु-चेला] वाला सन्यासी सम्प्रदाय चलाया। शिष्य को भी दत्तक पुत्र कहते हैं ये अत्रिय के दत्त बने अतः दत्तात्रेय कहलाये।
कालान्तर में इस सन्यासी सम्प्रदाय की अनेक शाखायें बनीं और बिगड़ीं, इनका वर्णन आगे आएगा।
ये सभी गुरू वर्ग यानी गवर्नर वर्ग में आते हैं। यह वनवासियों को गवर्न करने, उनको सनातन धर्म का ज्ञान देने की गुरू-चेला या गुरू-सेवा परम्परा है जिसमें न तो साक्षरता आवश्यक होती है और न ही पाठ्य पुस्तकों में बँधे पाठ्यक्रम की आवश्यकता होती है क्योंकि यह प्रेक्टिकल ज्ञान से जुड़ा विषय है और वन क्षेत्र एक बहुत बड़ा ज़ूलोजिकल एवं बोटेनिकल गार्डन होता यानी जीव-विज्ञान की जीती-जागती प्रयोगशाला होती है।
इन सभी गुरूओं यानी गवर्नर्स का उत्तरदायित्व होता है कि वे ऐसी शिक्षा व्यवस्था करे,आचरण सिखाये ताकि सभी प्रकार की वनस्पति पशु एवं मानव प्रजातियों के रूप में फैली प्रजा में भावों का परस्पर आदान-प्रदान सम बना रहे और किसी भी प्रकार की विषमता न फैले।
जीव-आत्मा और परम्-आत्मा के बीच के सम्बन्ध को वही समझ सकता है जो जीव के विज्ञान/जीव-विज्ञान को समझ पाता है।
जब वन क्षेत्र में मानव प्रजाति संख्या में विस्तार लेने लगती है तो वह अर्धवनीय अरण्य क्षेत्र में आती है। अर्थात् शुद्ध वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था से निकलकर गौपालन(पशुपालन) की अर्थव्यवस्था में आती है। तत्पश्चात् जब भाषा(साक्षरता) तथा ज्ञान की विविध धारा वाली परम्परा में आती है तब वह ब्राह्यण धर्म में आती है।
तत्पश्चात् वह कृषि कार्य एवं अन्न उत्पादन को भी पशुपालन के साथ अपनाने लग जाती है तब वह मानव प्रजाति वैदिक धर्म में प्रवेश करती है। जब तक ज्ञान एवं विद्याऐं तथा बुद्धि भी आयुर्वेद के विकास तक सीमित रहती है तब तक वह सनातन धर्म के ही तीन आधारभूत सम्प्रदायों वाली सभ्यता-संस्कृति मानी जाती है।
प्राकृत धर्म सम्प्रदाय, ब्राह्मण धर्म सम्प्रदाय और वैदिक धर्म सम्प्रदाय तीनों की जीवन शैली एवं समाज व्यवस्था सनातन धर्म की समर्थक होती है क्योंकि इनकी अर्थव्यवस्था/इकोनोमिक्स जो होती है वह ईकोसिस्टम पर निर्भर करती है।
प्रथमतः फ़ॉरेस्ट ईकोलोजी तत्पश्चात् एग्रीकल्चर ईकोलोजी। एग्रीकल्चर ईकोलोजी अपनाने वाले कल्चर्ड कहलाने लग जाते हैं।
लेकिन जब तक वैदिक-विकास जीव-विज्ञान,जिसमें आयुर्वेद के आठों अंग(अष्टांग आयुर्वेद) भी आ जाता है, तक सीमित रहता है तब तक सनातन-धर्म की हानि नहीं होती लेकिन ज्योंहि वैदिक विकास भौतिक-विज्ञान में प्रवेश करता है,जो कि आवश्यक भी है क्योंकि कपड़ा-मकान भौतिक विज्ञान में आ जाता है, तब एक सम्भावना बन जाती है कि कालांतर में यह विकास आसुरी विस्तार ले ले।
जब विकास की परिभाषा इतनी भौतिक विज्ञान आधारित हो जाती है कि शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण ही विकास की परिभाषा बन जाती है तो यह आसुरी वैदिक-सम्प्रदाय बन जाता है जो सनातन धर्म[ईकोसिस्टम] को नष्ट करने लग जाता है। तब अर्थ-शास्त्र कामार्थ-शास्त्र बन जाता है यानि ईकोनोमिक सेटअप, काम एवं अर्थ वाला कोमर्सियल सेटअप बन जाता है। कॉमर्स शब्द कामार्थ का ही अपभ्रंष उच्चारण है।
इसी तरह जब वैदिक-विकास आयुर्वेद के विष-चिकित्सा अंग को विस्तार देकर ड्रग्स का विकास करता है और अपने शरीर में कामोत्तेजना पैदा करने के लिए अपने अग्न्याशय यानी पित्ताशय यानी पेन्क्रियाज़ को अति सक्रिय कर लेता है तब उसे बहुत सारा भोग और बहुत सारा काम चाहिये।
तब वह आखेट करना,पशुबली देना,ड्रग्स का सेवन करना,बहुत सारा आहार लेना और दिन-रात काम भोग में लगा रहना शुरू कर देता है। जब इनकी संख्या बढ़ जाती है तो फिर शाकाहारी वन्य पशुओं का वध होता है और उन्हें पकाया जाता है। बचे हुए अंग जब मासांहारी पशुओं को सुगमता से सुलभ होने लग जाते हैं तो मांसाहारी पशुओं की संख्या भी बढ़ जाती है। इस तरह यह आसुरी वैदिक विकास का दूसरा पक्ष है जिसे कर्मकाण्ड,हवन इत्यादि नाम देकर तथा नशे की स्थिति के रूप को समाधि बता देकर और मरने के बाद के काल्पनिक स्वर्ग का लालच देकर इस आसुरी वैदिक विकास का विस्तार किया जाता है।
यह भी सनातन धर्म[ईकोसिस्टम] को नष्ट करने वाला विकास है। औद्योगिक इकाईयों एवं कर्मकाण्डों में चलने वाले दोनों यज्ञ अग्नि के द्वारा किये जाने वाले आसुरी वैदिक यज्ञ हैं। जबकि प्राणी की जठराग्नि से चलने वाली पाचन क्रिया वाले यज्ञ और वनस्पति में प्रकाश-संश्लेषण क्रिया वाले यज्ञ सनातन धर्मी यज्ञ होते हैं।
सनातन धर्म का ज्ञानाधार
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