गुप्तों के शासन का पतन जिस कारण हुआ था उसकी तुलना आज की स्थिति से की जा सकती है। जैसे कि एक तरफ विश्व के सभी राष्ट्र भयानक ऋण में डूबे हैं और जिनके हाथ में अर्थ[धन-धान्य] पैदा करने की सत्ता हैं वे गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं।
दूसरी तरफ आप युवा वर्ग अच्छी वित्तीय स्थिति[अच्छे वेतनमान] को प्राप्त करने के लिए उन व्यापारिक घरानों-प्रतिष्ठानों के नौकर बनकर उनके लिए दिन रात मेहनत करके उन्हें राष्ट्रों को खरीदने की क्षमता रखने वाले वित्तेश बनाने को आतुर हो रहे हैं। ये वित्तेश अपने भवनों को राष्ट्रपति भवन जैसा बनाने में सक्षम हो रहे हैं। ऐसा क्यों है और इससे पूर्व भी ऐसा बार-बार क्यों होता आया है ?
क्योंकि देव, रक्षस, यक्ष इन तीन वैदिक सत्ताओं के पीछे जो तीन स्वभावों की सत्ताऐं हैं उसके ऊपर एक सत्ता है जिसे आत्म-भाव यानी आत्म-अनुशासन की सत्ता कहा जाता है इसे ब्राह्मण-धर्म की सत्ता कहा जाता है। वह सत्तावर्ग आज हाशिये पर आ गया है। ब्राह्मण[अध्यायक] को शूद्र[नौकर,तनख्वाह लेने वाला तनखैया,वेतन लेने वाला वृत्तिधारी,प्रशासन का गुलाम] बना दिया है,ऐसी स्थिति में योग्य[योगी]तो ब्राह्मण बनना भी नहीं चाहेगा।
प्रत्येक वर्गीकृत सत्ता की तरह ब्राह्मण सत्ता में भी दो वर्ग तो होते ही है, एक शासक दूसरा शासित(जन साधारण प्राकृतिक उत्पादक)।
जब तीनों वैदिक सत्ताओं के स्वभाव में विकार आ जाता है तो प्रथम स्तर पर वे अपने द्वारा शासित वर्ग के शोषक बन जाते है तत्पश्चात् वे अन्य दोनों वर्गों को भी शासित करना शुरू कर देते हैं और उनके भी शोषक बन जाते हैं। क्योंकि इन सभी प्रकार के वर्गो के मनोविज्ञान में मूल मनोविकार एक ही होता है और वह है असन्तुष्टि। उस असन्तुष्टि के कारण पैदा होता है राग एवं द्वैष नामक अभाव। अभाव के कारण तृष्णा बनी रहती है.
जबकि यदि शासक वर्ग शिक्षित ब्राह्मण अध्यापक है और आत्म-अनुशासन में आत्म-भाव में, आत्म-विश्वास में रहता है और अपनी प्रकृति, प्रवृति, स्वभाव, अध्यात्म, नेचर, आदत, फ़ितरत को अपने वश में करने का मानसिक सामर्थ रखता है तत्पश्चात् जो शासित वर्ग है उसको अपने-अपने स्वभाव के स्वाभाविक स्तर अर्थात् अपने-अपने आध्यात्मिक स्तर का, अपनी रूचि एवं क्षमता के अनुरूप काम (Job) मिल जाता है तो उसे कार्य सन्तुष्टि Job satisfaction रहती है तब उस व्यवस्था को ब्राह्मण धर्म आधारित व्यवस्था कहा जाता है। वह सनातन बनी रहती है।
लेकिन यह संभव तभी हो पाता है जब शासित होने के पीछें आर्थिक मजबूरी नहीं हों। सभी को प्रकृति प्रदत अर्थशास्त्र का ज्ञान हो।
इस ब्रह्मविद्या का उपयोग करके ही छठी शताब्दी में एक सनातन समाज व्यवस्था बनाई थी। लेकिन सोलहवी शताब्दी में इस व्यवस्था पर चारों तरफ से आघात हुए लेकिन इसको जड़ से उखाड़ कर फेंका इस संस्कृति की अपनी ही सन्तानो ने ।
छठी शताब्दी से पूर्व तक और बुद्ध-महावीर से पूर्व, कृष्ण-बलराम से पूर्व कष्यप ऋषि से पूर्व यहाँ तक कि आदि पुरूष शंकर से भी पूर्व की परम्परा है ब्राह्मण परम्परा।
श्रीमद्भगवद् गीता सहित सभी वर्गों के धार्मिक ऐहित्य (पौराणिक साहित्य) में उल्लेख आता है कि सभी पुरूष प्रधान सभ्यता संस्कृतियों के आदि के संस्कारित पुरूष सप्त-ब्रह्मण कहे गये हैं। वैदिक साहित्य में उन्हें सप्त-ऋषि कहा गया ।
एक इस बिन्दु पर भी ग़ौर करें कि शंकर को इस पृथ्वी का पहला नर पुरूष बताया गया है और प्रजापति कष्यप को भी कल्प का आदि पुरूष बताया गया है लेकिन शक्ति पार्वती को भी और कष्यप की पत्नियों को भी दक्ष प्रजापति की कन्याऐं बताया गया है ।
इस विषय के सभी पहलुओं को स्पष्ट करने के लिए अलग से लेखन होगा लेकिन यहाँ इतना ही समझना पर्याप्त है कि ब्राह्मण-सत्ता की परम्परा शरीर की वंश (Hereditary,Genetic) परम्परा नहीं है जो शुक्राणुओं के गुणसूत्रों के सहारे चलती है बल्कि यह तो वह परम्परा है जो सुर्य के चुम्बकीय क्षेत्र से जुड़ी है।
प्रकृति और पुरूष अर्थात् गुरूत्वाकर्षण बल और पदार्थ (ईथर) अजर-अमर है। इसी को गीता में देही और शरीर कहा गया है जो कि न मरता है न पैदा होता है। न जलाया जा सकता है इत्यादि - इत्यादि । लेकिन ब्रह्मा की आयु होती है जो कि हज़ारों युगों की होती है ।
ब्रह्मा के दिन के समय पृथ्वी पर जीव-जगत व्यक्त होता है और रात्रि के समय अव्यक्त में चला जाता है । यह गीता सहित अनेक उपनिषदों में कहा गया है ।
इसका तात्पर्य है जब सूर्य में हाइड्रोजन के आणविक विस्फोट से उर्जा बनती है तो वह ब्रह्मा के दिन का काल-खण्ड होता है। सभी वनस्पति जीव सूर्य की ऊर्जा से चेतना ग्रहण करते हैं और वैदिक परम्परा का, बोडी की परम्परा का निर्वाह होता है जिसके मूल सिद्धान्त दो है -
(1) जीव ही जीवन का भोजन है ।
(2) जीव से जीव की उत्पति होती है ।
तात्पर्य यह कि जैविक-विकास तो सूर्य (ब्रह्मा) के प्रकाशित होने के बाद होता है जबकि सूर्य जब ठण्डा गोला होता है और पृथ्वी बर्फ का गोला होती है, तब भी सूर्य का चुम्बकीय क्षेत्र या चुम्बकीय बल रेखायें बनी रहती है।
वैदिक-ज्ञान यानी विज्ञान का ज्ञान तो तब शुरू होता है जब मानव देह का विकास हो चुका होता है,वह शारीरिक,मानसिक रूप से कमजोर हो चूका होता है तब उसे वैदिकज्ञान [विज्ञान] की आवश्यकता होती है और जब नस्ल कमजोर हो जाती है तो वह आत्म-अनुशासित भी नहीं रह सकती तब उसे वैदिक-प्रशासन प्रणाली की आवश्यकता होती है।
जबकि ब्रह्म (चेतना) की परम्परा तो तभी पुनः शुरू हो जाती है जब ब्रह्मा के दिन के समय के प्रारम्भ में पृथ्वी पर पुनः रासायनिक योगिक (मोलिक्यूल) का रूप लेती है और एमीनो एसिड (प्रोटीन) के मुदगलों में जीव (चेतना) का विकास होने लगता है ।
बीच में इस विषय को लाने का अभिप्राय यह है कि ब्रह्म परम्परा को लेकर कोई अतिशियोक्ति या अतिवादी विचार न माने बल्कि यथार्थ धरातल पर सोचे कि पृथ्वी के नष्ट होने या 2020 तक सभी कुछ नष्ट होने इत्यादि की प्राकृतिक दुर्घटना से डरने के स्थान पर यह सोचे कि हम अगर अव्यय जीवआत्मा बन कर ब्रह्म के चुम्बकीय क्षेत्र में अपने भाव से भावित रह कर अमर हो जाते हैं तो हम काल से अतीत हो जाते हैं। लेकिन अभी हमें यह सोचना है कि हम जिस विकास की तरफ जा रहे हैं वह हमारा वर्तमान का जीवन ही नरक बना रहा है, उस स्थिति में आगामी जीवन की कोन सोचेगा। हमें इस यथार्थ को समझना है कि जो काम हमारे बलबूते का है, उसे हम कैसे कर सकते हैं और हमने खुद ने आपस में राग-द्वेष पालकर राग-द्वैष जनित प्रतिस्पर्धा को जीवन की सच्चाई मान ली है उससे मुक्त होकर हम वर्तमान में क्या कर सकते हैं! एक सुन्दर भविष्य कैसे बना सकते हैं!
अतः यहाँ मैं उस ब्रह्म परम्परा की बात कर रहा हूँ जो न तो साक्षरता से सम्बन्ध रखती है और न ही सभ्यता से और न ही प्राकृत स्थिति से उसमे रूकावट आती है।
ब्रह्म-परम्परा तो वह स्मृति परम्परा है जो संस्कार बन कर जन्म-जन्मान्तर के लिए साथ चलती है और आगामी जीवन में पुनः उन्हीं भावों-अभावों को विकसित करती है। अब यह निर्णय आपका है कि आप भाव में भावित रह कर यह कलेवर (देह का ढ़ाचा) छोड़ कर जाना चाहते हैं या अभाव ग्रस्त होकर।
जब तक अभावों से मुक्त नहीं होंते, भाव में भावित नहीं हो सकते, अतः इस लेखन को समझने के लिए इसमें उपयोग में लिए जा रहे, वैज्ञानिक-शब्दों को विज्ञान एवं दर्शन के शब्दकोष के रूप में समझें। इनके प्रति पूर्वाग्रहों को समाप्त करने के लिए ही मैं ब्रह्म,वेद शब्दों का बार-बार उपयोग कर रहा हूँ। फिर यह तथ्य भी है कि जहाँ विज्ञान के शब्द हैं वहाँ उनके स्थान पर कथा साहित्य के शब्दों का उपयोग करना सम्भव भी नहीं है। अतः ब्रह्म, ब्रह्मणी स्थिति, ब्रह्मण परम्परा, ब्राह्मण-धर्म शब्दों को उसी परिप्रेक्ष में समझने की चेष्टा करे जिस परिप्रेक्ष में, जिस प्रसंग में, जिस तात्पर्य से इनका उपयोग किया जा रहा है। क्योंकि मजबूरी यह है कि इन संस्कृत शब्दों के भावार्थ तो सभी भाषा में मिल सकते है लेकिन इसके शब्दार्थ और तत्वार्थ समझे बिना भावार्थ से भ्रामक धारणाये विकसित हो गई हैं। उन्हीं भ्रामक धारणाओं के कारण आपके मन में इन शब्दों के प्रति पूर्वाग्रह बन गये हैं जैसे कि ये ब्रह्मणवाद या साम्प्रदायिकता फैलाने वाले शब्द हैं। जबकि आप युवा पीढी को तो इन शब्दों के मूल अर्थो को जानना चाहिये ।
आप कल्पना करें कि वर्तमान का सभी प्रकार का विकास समाप्त हो जाये तब भी मानव जाति समूल नष्ट तो हो नहीं सकती। बची हुई जनसंख्या में कुछ शिक्षित लोग भी बचेंगे। उनमें इतनी समझ तो होगी ही होगी कि वो बचे हुए वर्ग को आदिम स्थिति में नहीं जाने देंगे। उनका बौद्धिक नेतृत्व करेंगे और स्वयं पीछे की घटनाओं और भविष्य की सम्भावनाओं पर चिन्तन करेंगे। यहीं से ब्राह्मण-परम्परा शुरू हो जाती है क्योंकि वह व्यक्ति ब्रह्म में रमण करने वाला दार्शनिक बन कर जब विज्ञान के इस विकास के सकारात्मक-नकारात्मक पक्ष पर चिन्तन करेगा यहीं से ब्राह्मण परम्परा शुरू हो जाती हैं। इस घटना क्रम में यह महत्वहीन हो जाता है कि वह किस जातीय सम्प्रदाय का था ।
जितने भी वैज्ञानिक आविष्कार और अनुसंधान हुए हैं, उनके जनक दार्शनिक रहे हैं। जिस वैज्ञानिक शोधकर्ता में दार्शनिक चरित्र जितना अधिक होता है वह उस शोध की निर्णायक स्थिति तक उतना ही जल्दी पहुँचता है ।
यह मनीषी परम्परा सिर्फ शुक्राणुओं, गुण-सूत्रों पर नहीं चलती अतः सभी-कुछ नष्ट होने पर भी पुनः जीवित हो उठती है लेकिन इसके विकास के हेतु संस्कार हैं। संस्कार के हेतु माता-पिता होते हैं अतः यह एक पितृकुल और दो गुरूकुल तीनों कुलों के सति होने से अर्थात् तीनों कुलों के माध्यमों को सेतु बना कर अपने आप में विकसित होती है। अर्थात् जिसे माता-पिता और परिजनों से बना परिवेस ब्रह्म में रमण करने वाला मिलता है, वह ब्राह्मण कहलाने वाली मानसिक प्रजाति का बन जाता है। इसके लिए उसे आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक इत्यादि सेतुओं की आवष्यकता नहीं होती अतः सभ्यता-संस्कृतियों के पतन और उत्थान से अविचलित यह परम्परा भारत में सदा बनी रहती है।
भारत में इसलिए कि भारत वर्ष ही इस पृथ्वी का जैवविविधता वाला एक मात्र स्थान बचा हुआ है जहाँ सभी प्रकार के पौष्टिक आहार वर्षा के वार्षिक चक्र से स्वतः प्रक्रिया से उत्पादित होते रहते हैं । विश्व के अन्य किसी भी भाग में इतनी अधिक वनस्पतियाँ एवं प्राणियों की प्रजातियाँ नहीं है और इस नस्ल की गायें भी नहीं है जो वनों में चरकर स्वतः अपने खूंटे पर पहूँच जाती हों ।
छठी शताब्दी में जब राजपूतों की उत्पत्ति हुई थी तो उनके शारीरिक बल को और मांसपेसियों की लचक को विशिष्ट बनाने के लिए वैदिक यज्ञों को माध्यम बनाया और उनके गुण सुत्रों (जीन्स) में एक विषेष कोड विकसित कर दिया था लेकिन साथ ही साथ उनमें संस्कार भी विकसित किये थे और वे संस्कार थे गाय, ब्राह्मण एवं स्त्री की रक्षा करना।
गुप्त शासकों के पतन के समय भी यह ब्राह्मण जाति दूरदराज़ के गांवों में, एकान्त में व्यापारिक, राजनैतिक, प्रतिस्पर्धाओं से मुक्त, दृढ़ता से जमी हुई थी। आज भी है, भविष्य में भी बनी रहेगी। यही ब्राह्मण जाति भारत में ज्ञान-विज्ञान को समूल नष्ट नहीं होने देती ।
छठी शताब्दि में जो क्रान्ति हुई उसमें सम्पूर्ण भारत वर्ष को ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के माध्यम से एक सूत्र में बाँध दिया गया था। जबकि राजाओं की सत्ता अपने छोटे-छोटे राज्यों तक सीमित थी और वे कृषि उत्पादक क्षत्रिय वर्ग की सुरक्षा के साथ-साथ ब्राह्मण सत्ता को स्थापित करने और संरक्षण करने में भी मुख्य भूमिका में थे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें