शब्द को शब्द-ब्रह्म भी कहा गया है। क्योंकि शब्द का अर्थ जानने से ही हमारे ब्रह्म(ब्रेन) में रासायनिक क्रिया होती है और हम उस शब्द के परिप्रेक्ष्य में एक डिज़ाइन बनाते हैं। यदि हम शब्द का अर्थ नहीं जानकर मात्र व्याकरण में ही उलझे रहते हैं तो किसी की भी कही हुई बात को तथ्यपरक नहीं जान सकते। विशेषकर जो बात धर्म एवं विज्ञान के विषयान्तर्गत होती है,उसे तो बिल्कुल ही नहीं। जैसे ब्रह्म को ही लें। जब तक आप यह नहीं जानेंगे कि संस्कृत के ब्रह्म का लेटिन उच्चारण ब्रेन है,तब तक आप उलझे रहेंगे।
अतः जब मैं अपनी कही हुई बात को प्रामाणिक बनाने के लिए गीता अथवा अन्य धार्मिक-वैज्ञानिक पुस्तक की भाषा का उपयोग करूँगा तो वहाँ पर उन शब्दों के अर्थ बताने आवश्यक होंगे जिन शब्दों का मैं उपयोग करूँगा। क्योंकि इन सभी शब्दों को लेकर पूर्वाग्रह और भ्रामक अवधारणायें विकसित हो गई हैं।
इस तरह इस भूमिका में इतिहास के काल खण्ड के साथ-साथ सभी साम्प्रदायिक धर्मों के परिप्रेक्ष्य में मैं जो कुछ भी बताऊँगा,उसको पढ़ते समय शब्दों को समझने के कारण एक तरफ़ प्रवाह में अड़चन भी आ सकती है तो दूसरी तरफ़ वह आपको रोचक भी लग सकता है।
अड़चन इसलिए कि आपने शब्दों के उन अर्थों को न तो कभी जानने का प्रयास किया और ना ही उनमें रूचि ली। लेकिन यदि आप भी शब्दों के प्रति रूचि रखते हैं तो आपको यह जानकारी रोचक लगेगी।
रोचक इसलिए भी लगेगी कि आपने उन शब्दों के अर्थ जाने,जिनको आप बोलने में काम में लेते हैं और सुनते भी हैं। लेकिन उनके सटीक अर्थ जाने बिना उनके ऊलजुलूल भावार्थ निकालकर उनकी व्याख्या सुनते और करते आये हैं। अतः इन शब्दों के प्रति आप पूर्वाग्रहग्रस्त भी हो सकते हैं। जबकि रोचक इसलिए भी लगेंगे कि आपने उन शब्दों को सुना है लेकिन खण्ड-खण्ड में सुना है,उसकी क्रमबद्धता(Sequence) को नहीं समझा।
ऐतिहासिक काल खण्डों तथा धर्म एवं विज्ञान के अन्तर्गत आने वाले संस्कृत एवं लेटिन के शब्दों को समझने के साथ एक सबसे बड़ी अड़चन उन तथ्यों को समझने के परिप्रेक्ष्य में आयेगी जिनको लेकर हम कुण्ठा एवं पूर्वाग्रहों में बँधे हैं।
जाति,धर्म,सम्प्रदाय,समाज व्यवस्था से जुड़े कुछ ऐसे विषय हैं जिनसे हम परम्पराओं के नाम से बँधे हैं। उस बन्धन में भी इतनी गाँठें हैं कि हम न तो उन बन्धनों से मुक्त हो पा रहे हैं और न ही उनके पीछे-छिपे मन्तव्यों को समझ पा रहे हैं। समझ इसलिए नहीं पा रहे हैं कि हम उन विषयों को ही अछूत समझ रहे हैं अतः उन पर चर्चा भी नहीं कर पा रहे हैं।
इस भूमिका में (1) ऐतिहासिक काल खण्ड (2) धर्म एवं विज्ञान के सम्बन्ध एवं (3) जातीय समाज व्यवस्था इन तीनों के बाद चौथा विषय है (4) वर्तमान की भौतिकवादी विकास यात्रा के प्रति विरोधाभासी मानसिकता।
इन चारों तथ्यों को लेकर लिखी जाने वाली इस भूमिका के माध्यम से मैं आपके ध्यान को इस बिन्दु पर केन्द्रित करना चाहता हूँ कि यदि हमें एक सुन्दर मानवीय समाज व्यवस्था बनानी है तो हमें एक ऐसा परिवर्तन लाना होगा जिसमें सब कुछ बदलना होगा।
सत्ताओं के तीन वर्ग !
(ब) राजनैतिक सत्ता
(स) आर्थिक सत्ता
इनको हम:-
(अ) शैक्षणिक यानी अध्यापकों के वर्चस्व वाली
(ब) प्रशासनिक यानी सरकारी मशीनरी के वर्चस्व वाली
(स) वित्तीय या वैतनिक यानी पूँजीपतियों के वर्चस्व वाली सत्ताएँ भी कह सकते हैं।
इनको हमः-
(अ) धार्मिक सत्ता
(ब) राष्ट्रीय राजनैतिक या राजाओं की सत्ता
(स) व्यापारिक प्रतिष्ठानिक सत्ता (कम्पनी सत्ता) भी कह सकते हैं ।
इन्हें हमः- सनातन परम्परा के शब्दों में
(अ) ब्राह्मण सत्ता
(ब) क्षत्रिय सत्ता
(स) वैश्य सत्ता भी कह सकते हैं।
वैदिक शब्दावली में:-
(अ) देव सत्ता
(ब) रक्षस सत्ता
(स) यक्ष सत्ता भी कह सकते हैं।
अब यदि हमें इन शब्दों के प्रति पूर्वाग्रह है तो हम नये शब्द गढ़ सकते हैं। अर्थात् हमें चाहे शब्द रचना बदलनी पड़े लेकिन हम एक भ्रष्टाचारमुक्त नैतिक समाज की स्थापना तभी कर सकेंगे जब इन तीनों सत्ताओं की व्यवस्था पद्धतियाँ बदलेंगे और तीनों सत्ताओं को स्वतन्त्र सत्ताऐं बनायेंगे। ताकि कोई भी सत्ता एक-दूसरी सत्ता पर अतिक्रमण नहीं करे। अतिक्रमण का परिणाम अव्यवस्था होता है।
भारत में धार्मिक सत्ता,राजनैतिक सत्ता[राज्य सत्ता] और आर्थिक सत्ता तीनों अपने-अपने कार्य क्षेत्र में स्वतन्त्र काम करती रही हैं।
भारत की इस 2700 वर्ष की ऐतिहासिक स्थिति का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि बीसवीं शताब्दी से पूर्व के भारत में ये तीनों सत्ताऐं-जब जब अपने-अपने दायरे में रही भारत स्वर्ग रहा और जब जब कभी कोई एक वर्ग सत्ता रहा,भारत भयानक विषमता की चपेट में आया।
प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व जो भारतीय अपनी क्षेत्रीय भौगोलिक-राजनैतिक स्थिति की जानकारी तक सीमित थे वे अचानक अन्र्तराष्ट्रीय, भौगोलिक-राजनैतिक स्थिति को जानने लग गये।
इसके समानान्तर एक नव-बौद्धिक, नव-धनाढ्य और नव-धार्मिक वर्ग उभरा जिसने भारत का बण्टाधार कर दिया। आज़ादी के बाद इस नव वर्ग के हाथ में सत्ता आई है तो भारत नये राजाओं[राजनीतिज्ञों] की फ़ौज पैदा करने वाली नर्सरी के रूप में उभरा है और तीनों नव-आचरण वालों के हथियार और ढाल बन कर राजनेताओं ने उस भारत को एक शर्मनाक स्थिति में ला खड़ा कर दिया है जो कभी विश्व गुरू था और सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में जिस भारतवर्ष और भारतदेश ने यूरोपीय राष्ट्रों को ऐश्वर्यशाली समृद्धि दी एवज में ख़ुद धृतराष्ट्र बन कर अभावग्रस्त हो गया।
अब इसे एक वाक्य में कहें तो भारत की बौद्धिक,राजनैतिक और आर्थिक सत्ताऐं अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय सत्ताओं द्वारा संचालित होने लगी हैं। इसकी पृष्ठभूमि में सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से आज तक की विभिन्न सत्ताओं की कहानियाँ हैं। घटनाक्रम को गम्भीरता से लिये बिना आप निकट भविष्य में बनने वाली प्रतिकूल एवं विषम स्थिति को गम्भीरता से नहीं ले पायेंगे।
इसी तरह सोलहवीं शताब्दी से पूर्व के भारत की स्थिति को जाने बिना आप सोलहवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुए घटनाक्रम को भी गम्भीरता से नहीं ले सकेंगे।
अतः आइये बुद्ध-महावीर से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी के भारत को समग्र दृष्टिकोणों से,नई दृष्टि से देखें।
कई बार ऐसा भी हो जाता है कि पुरानी किन्तु ऑरिजिनल चीज़ नई कही जाने लगती है। यह दृष्टिकोण भी ऐसा ही नया दृष्टिकोण है जो कि मूल दृष्टिकोण है।
ऐसा भी हो सकता है कि जो लोग तथ्य के परम्-अर्थ की अवहेलना करके स्व-अर्थ से विश्लेषण करेंगे। उन्हें इसमें किन्तु-परन्तु लगेगा लेकिन सर्वकल्याणकारी अर्थ तभी कहा जाता है जब उसका अर्थ स्वार्थ से मुक्त होकर परमार्थ यानी उस गहरे अर्थ तक लिया जाये जो अर्थ सभी पर समान अर्थ में लागू हो,सभी के स्वार्थ की एक समान आपूर्ति करे।
पौराणिक भारत/समग्र भारत का मूल स्वरूप
भारत का नाम कभी आर्यावर्त भी था। उससे पहले इसे जम्बुद्वीप नाम से भी जाना जाता था। भारत का नाम भारत कब पड़ा अभी यहाँ इस प्रसंग में नहीं जाकर इतना ही समझें कि तीन प्रकार के भारत हैं।
तीनों प्रकार के भारत के तीन-तीन आदर्श हैं। तीनों प्रकार के भारत के तीन राम हैं जो कि तीन प्रकार का पुरूषार्थ करने वाले तीन आदर्श पुरूष हैं और तीन भरत हैं जिनको तीन आदर्श आचरण कहा गया है जिनके नाम पर भारत का नाम भारत पड़ा।
जब हम भारत माता या जय भारती कहते हैं तो उसका तात्पर्य नौ प्रकार की अग्नियों में से उस अग्नि से होता है जिसका नाम भारती है।
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