जानने के दो मूलाधार कहे गये हैं अर्थात् जानकारियाँ दो जड़ों वाला वृक्ष है और इसकी दो ही मुख्य शाखायें होती हैं।
इन्हें दो परम्पराएँ कहा गया है। एक परम्परा को ब्रह्म परम्परा और दूसरी परम्परा को वेद परम्परा कहा गया है। संस्कृत के ब्रह्म शब्द से लेटिन का ब्रेन शब्द बना और वेद से बॉडी।
ब्रह्म परम्परा है ब्रह्म में रमण करने की अर्थात् स्वाध्याय-चिन्तन-मनन करने की, जिसे अध्यापक, शिक्षक, आचार्य परम्परा कहा जाता है यानी शिक्षा-विभाग की परम्पराऐं।
संस्कृत में एक द्वन्द्व समास होता है। जब हम किसी शब्द रचना में अक्षरों व मात्राओं को आगे पीछे कर देते हैं अथवा दो शब्दों को आगे पीछे करके उनका समास कर देते हैं तो उनके अर्थ के बदलने का कोई निश्चित नियम नहीं होता उसमें द्वन्द्व या अंतर्द्वंद्व बना रहता है।
जैसे कि 'गुरूकुल' संस्थावाचक है तो 'कुलगुरू' पदवाचक। 'आचार्यशंकर' व्यक्तिवाचक है तो 'शंकराचार्य' पदवाचक है।
इस तरह का एक शब्द है 'वेद' जिसका अर्थ होता है जानना। विद्[जानना] से वेद और विद्या बने हैं। वेद का अर्थ है वैदिक विद्याओं के पीछे छिपे विज्ञान के सिद्धान्त या प्रायोगिक कर्म की विधि को जानना। वेद शब्द द्वन्द्व समास से देव बन जाता है। देव वह व्यक्ति होता है जो वैदिक विद्याओं को जानता है अर्थात वेद का जानकार देव।
लेकिन 'ज्ञेय' का अर्थ भी जानना होता है। फिर दोनों जानने में फ़र्क क्या ! ज्ञेय से ज्ञान बना है। ज्ञेय का द्वन्द्व समास यज्ञे होता है जिसका अर्थ है सभी प्रकार के यज्ञ कर्मों की समसामयिक उपयोगिता को जानना, तथ्य या तात्पर्य जानना या तथ्य के पीछे छिपे सत्य को जानने वाला ज्ञानी।
ब्रह्म-परम्परा शिक्षा-संस्कार के माध्यम से ब्रह्म यानी सेन्स यानी बोध यानी चेतना को विकसित करने की परम्परा है ।
वेद-परम्परा उस शिक्षा परम्परा को जानने की परम्परा है जो बॉडी[देह] से सम्बन्ध रखती है और देह की एक आयु होती है अतः इसका नाम आयुर्वेद रखा गया है अर्थात् आयु बढ़ाने सम्बन्धी विज्ञान की जानकारी।
मैने अनेक तथाकथित धर्माचार्यों से यह कहते सुना है,वेद का अर्थ है ज्ञान! वेद के लिए जानना शब्द का उपयोग तो कर सकते हैं लेकिन ज्ञान शब्द का नहीं।
यह उनका अज्ञान[ग़लत,खोटा त्रुटिपूर्ण या विपरीत ज्ञान] है। क्योंकि आज की शिक्षा पद्धति में शब्द ब्रह्म की जानकारी नहीं दी जाती है बल्कि व्याकरण को महत्व दिया जाता है अतः उनका भी दोष नहीं है।
वेद के जानकार को विद्वान वैद्य,विद्वान पंडित कहा जा सकता है। वेद श्रुति परम्परा है जबकि ज्ञान स्मृति परम्परा है। स्वतःस्फूर्त संवेदनशीलता Awareness से जो ज्ञान पैदा होता है,उसको जानने वाला ज्ञानी।
वेद-त्रयी वेद-विद्याओं वाला विद्वान देव तीन वर्गों में वर्गीकृत है।
प्रथम श्रेणी में आते हैं ऋग्वेद के जानकर वैद्य यानी चिकित्सक तथा पुरोहित यानी यज्ञ-शाला[पाक-शाला] में भोजन पकाने की विद्याऐं जानने वाला,जो शरीर में सत्व की वृद्धि करने से सम्बन्ध रखते हैं।
दूसरी श्रेणी में आते हैं यजुर्वेद के जानकार यानि प्रणय एवं प्रसूति विज्ञान को जानने वाले,नर-मादा सन्तान और विशिष्ट योग्यता की सन्तान पैदा करने की विद्या से सम्बन्ध रखते हैं।
तीसरी श्रेणी में आते है संवेदी नृत्य संगीत,मनोरंजक विद्याओं के विद्वान जो तनाव को आनंद में बदल देने की विद्याएँ हैं।
जबकि ज्ञान वाला ज्ञानी ब्राह्मण कहलाता है जो भाषा का जानकार और आधारभूत गणित का ज्ञान रखने वाला स्वाध्याय यानी अध्ययन करने वाला अध्यापक होता है। जो प्रत्येक तथ्य के दो पक्षों की समानान्तर जानकारी रखता है। सत एवं असत को जानता है। जिस में कर्म-अकर्म का बोध, sense,ज्ञान होता है।
ब्रेन एवं बॉडी जिस तरह अलग-अलग होते हुए भी अलग-अलग नहीं होती उसी तरह ब्रह्म-परम्परा और वेद-परम्परा दोनों अलग-अलग होते हुए भी अद्वैत हैं।
सेन्स एवं साईन्स को जानने की दोनों परम्पराऐं एक ही सिक्के के दो पहलू हैं अतः ये अद्धैत हैं। जब तक ये अद्धैत रहते हैं तब तक सभ्यता-संस्कृतियाँ सनातन बनी रहती हैं। लेकिन ज्योंहि ये धर्म एवं विज्ञान नाम से दो अलग-अलग खण्डो में बँट जाती हैं, सनातन सभ्यता खण्डित हो जाती है। लेकिन चूँकि यह सनातन है, अखण्ड के आचरण वाली है अतः कालान्तर में पुनः विकसित हो जाती है। लेकिन जो मानव सभ्यता द्वैत का आचरण रखती है उसे पुनः पुनः आदि एवं अन्त में दोलन swinging नहीं करना पड़ता। क्योंकि उस कल्प का कालखंड भी काल बन कर बार-बार सामने नहीं आता क्योंकि तब वह काल से अतीत होकर सनातन समय का यायावर पथिक,मार्गी,राही बन जाता है।यानी...
{इसी शीर्षक से प्रकाशित बात के अन्य पक्ष को नैतिक राज बनाम राजनीति नामक ब्लॉग में भी पढ़ें।}
वेदत्रयी के बाद चौथे वर्ग में अथर्ववेद आ जाता है जो अर्थशास्त्रीय विद्याओं का संग्रह है। जिसका सम्बन्ध वास्तु और वास्तु विद्याओं के जानने से है अर्थात् औद्योगिक निर्माण,विज्ञान की जानकारी। इसमें शस्त्र[tools & weapens] निर्माण की विद्याएँ भी आ जाती हैं यहीं से जगत के नाश की उल्टी गिनती शुरू होती है। क्योंकि यहाँ से आप द्वैत में चले जाते हैं। एक तरफ़ आपकी निजी महत्वाकांक्षा दूसरी तरफ़ यह पूरा जगत।
यहाँ से जानने के लिए एक शब्द संख्ये का भी उपयोग होता है। आप जब सूत्र,समीकरण और विशेषकर सांख्यिकी Statistics को जानने के लिए शब्द का उपयोग करते हैं तो संख्ये का उपयोग होगा।
अब पुनः एक बार समझ लें कि जब आप किसी ऐसी सभ्यता और जीवन शैली को विकसित कर लेते हैं जब आप शहरों में रहकर ऑक्सीजन को तरसते हैं और अपने ही मलमूत्र की दुर्गन्ध में जीते हैं और दूसरी तरफ़ पौधे खाद एवं कार्बन डाई आक्साईड को तरसते हैं लेकिन आप का दिमाग़ सिर्फ़ विकास की संख्या और सांख्यिकी में,गणनाओं में लगा रहता है तो इसका अर्थ है आप अज्ञान से ग्रसित हैं। आपको इतना सा भी ज्ञान नहीं है कि आप इस असभ्य जीवन शैली को अपना कर सनातन धर्म चक्र में अवरोध पैदा कर रहे हैं। तब मुद्राओं की गणना और विकास के सारे आँकड़े धरे रह जाते है और आप अपनी प्रजाति को विलुप्ति की तरफ़ धकेल रहे होते हैं।
ध्यान रहें सनातन धर्म परम्परा में इकोलोजीकल सिस्टम के साथ-साथ आपका ख़ुद का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी शामिल होता है।
इस द्विआयामी स्वास्थ्य में विकार ही भ्रष्टाचार की जड़ है।
एक तरफ़ वे औद्योगिक इकाईयाँ जिन्हें नेहरू ने भी आधुनिक यज्ञशालायें नाम दिया था उनके अनुशासनहीन,अनियन्त्रित एवं अव्यवस्थित विस्तार से जल-वायु प्रदूषण फैल रहा है दूसरी तरफ़ शहरों में अपने ही मल-मूत्र से जल एवं वायु प्रदूषण फैल रहा है तीसरी ओर सर्वाधिक घातक स्थिति जो हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही है वो है शराब एवं दर्दनिवारक ड्रग्स का सेवन और व्यापारिक यज्ञशालाओं [होटलों के किचन्स] में आयुर्वेद के सिद्धान्तों के विपरीत सिर्फ़ जीभ के स्वाद के लिए भोजन बनाया जाना।
यह वह स्थिति है, जिसके लिए कह सकते हैं कि दोनों ही दिशाओं में आसुरी यज्ञ हो रहे हैं जो सनातन धर्म चक्र में विकार पैदा कर रहे हैं। इसी मानसिक[बौद्धिक] विकास के परिणामस्वरूप ही आज हम इस प्रौद्योगिकी विज्ञान वाली आसुरी वैदिक सभ्यता और सामाजिक असभ्यता की एक ऐसी सीमा रेखा पर हैं जहां से एक महाविनाशक युद्ध की उलटी गिनती शुरू होती है।
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