vivarn

Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.



कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।

Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made ​​by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

52. प्राकथन

      इन 51 संदेशों में भारतीय वर्गीकृत व्यवस्था के ऐतिहासिक,सांस्कृतिक,आर्थिक तीनो स्थितियों को संक्षिप्त में बताया है ताकि आगे के संदेशों में हम पूरी तरह वर्तमान की बात करें तो हमारे ब्रह्म [दिमाग] में वर्तमान के खट्टे-मिट्ठे फलों[संसमरणों] के साथ साथ उस भूतकाल को भी ध्यान में रख सकें जहाँ वर्तमान की जड़ जमीं हुई है।
    अतः यहाँ अब तक जो विषय चल रहा था वह गुरुओं,Governors की जातियों यानी ब्राह्मण जातियों का था, अब हम वंशानुगत जातियों पर,वैदिक जातियों पर आते हैं। 
     वर्तमान में हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि न तो हम इस जातियों में वर्गीकृत समाज को,जाति को, साम्प्रदायिक सोच को छोड़ पाने की स्थिति में हैं,  न ही वैवाहिक सम्बन्धों के चलते इस सामाजिक संरचना से मुक्त होने की स्थिति में हैं, न ही आरक्षण जैसे अनेक राजनैतिक मुद्दों के चलते इस सामाजिक सुरक्षा और जटिलता से मोक्ष प्राप्त करने की स्थिति में हैं और ना ही इस व्यवस्था को सम्मानजनक तरीके से स्थापित रख पाने की स्थिति में हैं। अतः अब हमें चाहिए योगी बन इस योग्यता का परिचय दें कि वर्तमान की यथार्थ वस्तुस्थिति स्थिति और परमपरागत जीवन शैली दोनों का योग करके एक नए भारत का निर्माण करें तब हम निर्वाण को प्राप्त हो पायेंगे।
   अतः अब आप अपनी अपनी जाति का हित चाहते हैं तो सर्व प्रथम आपको अपने अपने जाति धर्म के प्रति आस्थावान होना होगा यानि सकारात्मक सोच के साथ अपने परम्परागत कर्म को धर्म सझ कर स्वीकार करना होगा, ताकि न सिर्फ आपकी आगामी सन्ततियों को आरक्षित रोजगार मिलाता रहे बल्कि हँसते खेलते शिक्षा ग्रहण करने की उमर को वर्तमान की स्कूली शिक्षा के ग्रहण से मुक्ति मिले तत्पश्चात आप अपने जिले में अपनी जाति का एक प्रतिनिधि चुनें। ये सभी प्रतिनिधि किसी भी ऐसे व्यक्ति को निर्दलीय खड़ा करेंगे जो सभी को मान्य हो।  इस तरह क्षेत्रीय अर्थशास्त्र और जातीय अर्थशास्त्र का योग हो जायेगा। सभी जातीय समूह एक साथ मिलकर अपने जिले का विकास आर्थिक समृद्धि के लिए करें।जब आप खुद जनसाधारण बन कर आर्थिक समृद्धि को प्राप्त कर लेंगे तो आप अभाव मुक्त होकर अपने जनप्रतिनिधि को भी भाव दे सकेंगे और जन प्रतिनिधि खोटे भाव खायेगा तो उसे दबा सकते हैं उसे वापस बुला सकते हैं। 
     अब एक बार चलते हैं नैतिक राजनीति में फिर जब पुनः आयेंगे तो आप से आपकी जातिधर्म और पूर्वजों के बारे में बात करेंगे।

सोमवार, 30 जुलाई 2012

51. नागा सम्प्रदाय


      जिस तरह आदिनाथ परम्परा में नागा सम्प्रदाय दिगम्बर जैन सम्प्रदाय है उसी तरह शैव सन्यासियों के पशुपतिनाथ सम्प्रदाय में भी नागा हैं। ये नागा उन सभी सम्प्रदायों में प्रथम प्रोटोकोल रखते हैं जो वनों की रक्षा करने करने के हेतु हैं। कुम्भ के स्नान में सबसे पहले स्नान करना इनका अधिकार है.
     ये नागा गाँजे का नशा करने वाले तथा वसा एवं शर्करा का उपयोग नहीं करने वाले होते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि इनके शरीर में शर्करा की कमी हो जाती है अतः इनमें तर्क बुद्धि और दार्शनिक चरित्र नहीं होता है। अतः ये जब हथियार उठाकर किसी सेना के सामने भी आ जाते हैं तो सेना पर भारी पड़ते हैं। वैसे तो भारत ही नहीं विश्व की सभी मानव सभ्यताओं में हाथ में कोई न कोई हथियार Weapon or Tools रहते हैं, लेकिन इन नागा सन्यासियों के हाथों में अनेक प्रकार की डिजाईन किये हुए कुन्त [धारदार हथियार] रहते हैं और भारतवर्ष को बचाने वालों में ये सदेव निर्णायक भूमिका निभाते आ रहे हैं।वर्तमान में भी इनका धर्म बनता है नष्ट हो रहे वनों को सुरक्षित करना लेकिन ये भी अपनी मूल अवधारणा से भटक गये हैं। 
    यहाँ इस तथ्य को पुनः रेखांकित कर रहा हूँ कि धर्म के दो ही मार्ग हैं एक है आत्म-कल्याण का दूसरा है जगत के कल्याण का। जहाँ कही भी गुरू परम्परा या सामुदायिक और साम्प्रदायिक परम्परायें हैं वे सभी जगत के कल्याण के लिए बनी हैं और जगत के कल्याण से तात्पर्य है फोरेस्ट एवं ऐग्रीकल्चर ईकोलोजी से जुड़े जो मुख्य-मार्गी गृहस्थ होते हैं उनके कल्याण के लिए कार्य किया जाये। इस कार्य को करने के लिए ही आत्मसंयम योग पर योगारूढ होकर आत्म-कल्याण वाली ब्रह्मणी स्थिति को प्राप्त किया जाता है। जबकि आत्म-कल्याण का मार्ग पूर्णतः अपने आप में स्थिर स्थित होने पर अपने आप प्राप्त होता है। इसके विपरीत, आत्म कल्याण के मार्ग में तब अवरोध पैदा हो जाता है, जब किसी गुरू या परम्परा का अनुशरण किया जाता है। इस तरह सबसे दुःखद भ्रष्टाचार तो यह है कि तथाकथित गुरू आत्म-कल्याण के लिए मार्ग बताने की फीस लेते हैं। गुरू का सीधा सा अर्थ है जो अपने चेले को जीविकोपार्जन के लिए और जनकल्याण के लिए कोई गुर बताता है, विद्या देता है, टेक्नोलोजी बताता है। 
यदि भारत को भ्रष्टाचार मुक्त करना है तो राष्ट्रीय सरकार से उलझने से पहले इस साम्प्रदायिक वर्ग के उत्तरदायित्वों को समझना और समझाना पहली आवष्यकता है। जहाँ तक राष्ट्रीय सरकार को सत्ता  से हटाना है तो उससे पहले आपको एक नया और स्वतन्त्र विकल्प तैयार करना होगा । 
जब भारत में स्वतन्त्रता आन्दोलन का रूख नरम पंथियों की तरफ मोड़ने का सोचा था तब अंग्रेजों ने ही नरम पंथियों को यह समझाया कि आज यदि ब्रिटिस सरकार यहां से जाना भी चाहे तो वह सत्ता का हस्तान्तरण किसे करके जाये। अतः आप सबसे पहले एक मंच का निर्माण करो जिसे सत्ता हस्तान्तरित करके जा सके। इस तरह एक अंग्रेज ने ही काँग्रेस [सभा] का गठन किया था। आजादी के  बाद गांधी ने कहा था अब कांग्रेस पार्टी को समाप्त कर देना चाहिये और हमें अपने तरीके से प्रजातांत्रिक व्यवस्था बनानी चाहिये। इस बिन्दु पर उनकी आशंका सही साबित हुई और आज भी हम ब्रिटिस (यूरोपीयन) शासन पद्धति का अनुसरण कर रहे हैं। अतः हमारा पहला लक्ष्य होना चाहिये संसद को दल-दल से मुक्त करायें और निर्दलीय बनायें। जो कि भारत की प्रजातांत्रिक पद्धति की विशिष्टता रही है।                        

50. गौरक्षनाथ का नाथ सम्प्रदाय !

     जिस तरह सातवीं शताब्दी में सन्यासियों के स्वामी सम्प्रदाय को आचार्य शंकर ने एक यथार्थ रूप दिया, उसी तरह आठवीं शताब्दी में गुरू गौरक्षनाथ[गोरखनाथ] ने नाथ सम्प्रदाय को भी विभ्रम से बाहर निकाला और एक यथार्थ रूप दिया।
नाथ सम्प्रदाय के समानान्तर शाक्त सम्प्रदाय को भी स्थापित करके भारतीयों को दैहिक प्रजाति के रूप में पुनः शक्तिशाली बनाने के लिए एक परम्परा स्थापित की।
जिस तरह स्वामी सम्प्रदाय वनस्पतियों से चिकित्सा करने वाली परम्परा से जुड़ा है उसी तरह नाथ सम्प्रदाय प्राणियों के अंगों एवं सरीसृपों के विषों से चिकित्सा करने वाला सम्प्रदाय है। यूनानी चिकित्सा पद्धति इसी पद्धति से प्रेरित है क्योंकि युरोप एवं पश्चिमी एशिया में वनस्पतियों की इतनी प्रजातियाँ नहीं हैं कि उनसे चिकित्सा की जा सके।
नाथ सम्प्रदाय की एक समय [आठवी से सोलहवी शताब्दी के बीच] यह स्थिति थी कि ये सभी भारतीय समाजों के ऊपर छा गये थे। इनके वर्चस्व का कारण था, इनकी समाज में एक विषिष्ट भूमिका जो मध्यम मार्ग नहीं होते हुए भी समाज के आकर्षण का केन्द्र थी। इन्हें योगी भी कहा जाता रहा है । योगी सिर्फ़ उन्ही को कहा जाता था जो आत्म-संयम योग पर योगारूढ़ हो चुके होते थे। 
इनकी जीवन शैली अद्भुत थी। ये वर्ष के ग्यारह महीने अपनी गढ़ियों में रहते थे जो उन वनों में होती थी जिनमें सरीसृप प्रजातियों के विषधर रहते और मांसाहारी पशु-पक्षी भी बहुतायत में रहते।
एक तरफ ये समुदाय बनाकर झुंड में रहते थे जिसके पीछे सुरक्षा कारण थे तो दूसरी तरफ जब ये समाधि की प्रक्रिया में रहते अथवा विचरण करते थे तब अकेले हो जाते थे।
वर्ष में एक बार श्राद्ध पक्ष में जब ये अपनी गढ़ियों से बाहर निकलकर आते तो इनका लक्ष्य होता था शाक्त सम्प्रदाय की महिलाओं का आतिथ्य ग्रहण करना और इच्छुक महिलाओं को गर्भधारण कराना। ये पितृ पक्ष के श्राद्ध के समय अपने पितरों का श्राद्ध करते थे तब स्टार्च, वसा और शर्करायुक्त भोजन अर्थात् गौदुग्ध की खीर का भरपूर सेवन करते थे। पितृश्राद्ध पक्ष के पन्द्रह दिनों तक भरपूर पौष्टिक आहार लेते तथा अपने पूर्वजों का श्रद्धापूर्वक स्मरण करते। तत्पश्चात पन्द्रह दिनों के लिए ये शाक्त सम्प्रदाय की नारियों का आतिथ्य स्वीकार करते थे। यह समय मातृ कुल का श्राद्ध पक्ष माना जाता है। 
शाक्त सम्प्रदाय की मातृ सत्तात्मक कुल परम्परा के तीन मुख्य केन्द्र स्थापित किये गये।
    1. ब्रह्मपुत्र का समुद्र तटीय क्षेत्र; जिसे माउथ ऑफ़ गंगा भी कहा जाता है।
    2. ताप्ति, नर्मदा, माही, साबरमती नदियों का समुद्रतटीय क्षेत्र।
    3. केरल का समुद्रतटीय किनारा।
पहले और दूसरे क्षेत्र में दुर्गापूजा एवं गरबा नाम से आज भी वहाँ की महिलायें प्रतीक रूप में शक्ति की उपासना करती हैं। तीसरे क्षेत्र में अधिकांश मुस्लिम हो गये हैं फिर भी शक्ति पूजा होती है।
शाक्त सम्प्रदाय अर्थात् नारी सत्तात्मक समाज व्यवस्था की मूल अवधारणा तो, ब्रह्मपुत्र घाटी में आदिकाल से चली आ रही, मातृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था से प्रेरित थी लेकिन गुरू गोरक्षनाथ ने इसे एक नया रूप दिया जिसकी कुछ विशेषताऐं या कर्तव्य बिन्दु इस प्रकार थे।
जो भी अनाथ होते उनके ये नाथ थे। वह अनाथ चाहे मानव हो या पशु-पक्षी या फिर विदेशी शरणार्थी, जो कि समुद्री मार्ग से अपनी जान जोखिम में डालकर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए भारत की शरण में आते थे। 
शारीरिक-मानसिक दोनों रूपों से मानव नस्ल को मजबूत करने की यह वैज्ञानिक पद्धति है। अर्थात् वर्ष पर्यन्त आत्म संयम में रहते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले वीर्यवान नरों और अपनी आजीविका खुद चलाने वाली शक्तिशाली नारीयों के प्रणय उत्सव से जो प्रणय के देवी-देवता पैदा होते वे स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से परिपूर्ण होते थे। 
शरीर विज्ञान का एक नियम है कि जब नर बलवान होता है तो सन्तान में भी नर का अनुपात अधिक होता है और जब नारी शक्तिशाली होती है तो सन्तान में भी नारी का अनुपात अधिक होता है। आज जब आप विशेषज्ञ लोग समाज में लिंग, अनुपात की बात करते हैं तो यह भूल जाते है भारत में लिंगानुपात को जातीय परिप्रेक्ष में आंकलन करना चाहिये। क्योंकि भारतीय समाज में विवाह जातीय समाज में होता है।
अनेक जातियाँ ऐसी है जिनमें लड़कों की तुलना में लड़कियाँ अधिक हैं तो कुछ जातियों में लड़के अधिक हैं। अतः भारत में अंतर्जातीय विवाह की पौराणिक,वैदिक परम्परा हमेशा से रही है और मातृ-पितृ सत्तात्मक,बहुपत्नी-बहुपति वैवाहिक व्यवस्था इत्यादि सभी प्रकार की व्यवस्थाओं को भी पति-पत्नी समान अधिकार वाली मुख्यधारा के साथ समन्वय करके अक्षुण रखा गया है। लेकिन आज के भारत में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो संस्कृति के बारे में कुछ नहीं जानता लेकिन वह वर्ग संस्कृति की रक्षा करने वाला स्वयंभू ठेकेदार बना हुआ है।
भारत में जातिगत समाज व्यवस्था बनाने के पीछे जो उद्देश्य था उसे अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिये। इस व्यवस्था में पैदा होने वाले मानव को न तो रोजगार की तलाश करनी पड़ती है और न ही शिक्षित होने के लिए किसी अन्य के पास जाना होता है। गर्भावस्था में ही शिशु की चेतना अपने जॉब तथा जातीय अनुशासन के संस्कार लेना शुरू कर देती है, साथ साथ जेनेटिकली भी उसके शरीर की मांसपेशियाँ अपने परम्परागत जातीय जॉब के अनुकूल बन जाती है। लेकिन इसका एक नकारात्मक पक्ष यह भी है कि विशिष्ट बनने की प्रक्रिया में अनेक सन्तानें असामान्य और अयोग्य घोषित कर दी जाती हैं। 
नाथ एवं शाक्त सम्प्रदाय मध्यम मार्गी गृहस्थ समाज की इस समस्या का निवारण करता था। एक तरफ तो असामान्य एवं अयोग्य कहे जाने वाले बालकों के नाथ बन कर उन्हें असामान्य से असाधारण प्रतिभा वाले बनाता था तो दूसरी तरफ जिस किसी भी जातीय समाज में लिंग अनुपात बिगड़ जाता, उस समाज में इन योगियों एवं शक्तियों की सन्तानों का अपने समाज में स्वागत किया जाता था।
एक वाक्य में कहें तो ये नाथ योगी,असन्तुलित लिंगानुपात को सन्तुलित करने के लिए, वीर्यवान नर और शक्तिशाली नारी जेनरेशन के आपूर्तिकर्ता थे।
दूसरी तरफ वशीकरण विद्या Sexual Education एवं यौन चिकित्सा Sexual Medicare से जुड़े होने के कारण नाथ योगी और शाक्त महिलायें उच्च घरानों में शिक्षक-शिक्षिका के रूप में आमन्त्रित भी होते थे।कालान्तर में ये योगी सर्वसुलभ प्रेमी के रूप में भी जाने जाते थे जिसका उदेश्य था कोई भी नारी, योग्य पुत्र को प्राप्त करने के लिए इनसे गर्भ धारण करवा सकती थी। अनेक नाथ-युवा विवाह करके गृहस्थ भी होने लगे। यहां तक की लोकगीतों में इन योगियों के नाम भी आने लगे। योगी का अपभ्रंश जोगी हो गया। ये जिस रंग का कपड़ा पहनते उस रंग को भी जोगिया रंग कहा जाने लगा।
     जैसा कि होता आया है कि जब कोई व्यवस्था बनायीं जाती है तब तो वह किसी न किसी उदेश्य को केंद्र में या ध्यान में रख कर बनायी जाती है लेकिन चूँकि गुण सविकार होते है अतः सोलहवीं शताब्दी तक आते आते इनकी स्थिति इतनी खतरनाक हो गई थी कि ये स्त्रियों का अपहरण करके अपनी गढ़ियों में रखने लगे और यौन उत्तेजक विषों का सेवन करने वाले व्यभिचारी हो गये थे।
समय का चक्र कुछ ऐसा घूमता है कि सत्ताऐं बदल जाती हैं। जिस गौरक्षनाथ के नाथ अनुयाई ब्राह्मण योगियों से भी अधिक सम्मानित हो गये थे और जिन्होने आदिनाथ परम्परा के नाथों (तीर्थंकरों ) को कालकलवित कर दिया था और शैव सम्प्रदाय की सभी शाखाओं के अग्रणी,सम्मानित हो गये थे उनकी सत्ता सोलहवी शताब्दी में समाप्त हो गई।
अकबर ने जब पूरे भारत पर कब्ज़ा जमा लिया था और अपने सैन्य कर्मचारियों को अहिंसा धर्म अपनाने के लिए प्रेरित कर रहे थे तब अकबर ने एक सैन्य अभियान चलाया और इन बलात्कारी बन चुके नाथों (जो भैरवनाथ से भैरव राक्षस और यक्ष बन गये थे) का बड़ी संख्या में कत्लेआम किया और इनकी गढ़ियां खाली करवा कर नवनिर्मत जैन सम्प्रदाय को सौंपना शुरू कर दिया। तब नाथों के झुण्ड के झुण्ड आते और नव-अनुष्ठित जैन धर्मावलम्बियों की बस्तियों में सामूहिक कत्लेआम करते। इस का एक प्रमाण है राजस्थान और आसपास के क्षेत्र में जहाँ से अकबर की सेना के कर्मचारियों को जैन धर्म में दीक्षित करवाया था वहां एक बहुत प्रचलित नाम 'रिक्तिया भेरूँ' है। इसने भयानक रक्त बहाया था अतः इसका नाम 'रक्तिया' पड़ा जो अपभ्रंश होकर रिक्तिया हो गया।
अनादि काल से चली आ रही यह मानव मनोविज्ञान की विडम्बना है कि प्रत्येक परम्परा का मूल प्रवर्तक तो एक सुस्पष्ट सोच के साथ मान्यताऐं, विधि-विधान, संविधान, समाज व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था इत्यादि पहलुओं के माध्यम से एक विशेष कर्तव्य कर्म को प्रतिष्ठित करता है लेकिन कालान्तर में उसी समुदाय के अनुयाई संस्कृति एवं परम्पराओं के नाम पर अतिवादी बन जाते हैं और खुद ही अपनी मानसिकता को विकृत कर लेते हैं। इसी बिन्दु पर ब्रह्म परम्परा के इस स्लोगन यानी नारे को समझना चाहिये जिसको आचार्य शंकर ने जनमानस में उतारा । ब्रह्म सत्यं जगंमित्थ्या !
क्योंकि एक व्यक्ति ब्रह्मणी स्थिति को प्राप्त करके सत्य को यथार्थ रूप में प्रतिष्ठित करता है अथवा एक मनीषी वर्ग मान्यताओं को बनाता है, तब तो वह सत् के भाव से पैदा हुआ सत्यबोध का परिणाम होता है लेकिन मान्यताओं में स्थापित मिथक कालान्तर में मिथ्या अवधारणा यानी बनावटी धर्म बन जाता है। 
वर्तमान काल खण्ड में यही हो रहा है। मानव के स्वअनुष्ठित धर्म; राष्ट्रीय संविधान को ले लें या फिर परम्परा द्वारा अनुष्ठित धर्म जिसे साम्प्रदायिक या जातीय धर्म कहते है; को लें या फिर प्रकृति निर्मित प्रणय धर्म जिसकी तरफ हम अवश हुए प्रेरित होते हैं; को लें, सभी बिन्दुओं पर हम उनके मूल-अर्थ, यथा-अर्थ, तात्विक-अर्थ, तात्कालिक-अर्थ की तरफ तो पीठ कर चुके हैं और उनके भ्रामक अर्थों को मानने या मनाने के लिए दुराग्रहों से ग्रसित हो गये हैं। यह ठीक वैसे ही हुआ है जैसे कि पान के पत्तों के साथ हुआ।
   हमारे पूर्वजों ने Water deficiency disease, Dehydration निर्जलीकरण के प्रति प्रतिरोधक शक्ति    Resistance power को बढ़ाने के लिए पान के पत्ते की खोज की थी। उसे सुस्वादिष्ट बनाने के लिए तथा अन्य आवश्यक तत्वों जैसे कि कैलशियम के लिए चूना, धातुओं के लिए कत्था तथा मांसपेशियों में प्रतिरोधक क्षमता पैदा करने के लिए ताम्बूल (कच्ची सुपारी) का उपयोग प्रचलित किया। साथ में सौंफ, पीपरमिण्ट या अन्य सुगन्धित द्रव्य भी प्रचलित किय। लेकिन आज पान का पत्ता तो ग़ायब हो गया और बच गये गुटखों के रूप में अखाद्य द्रव्य। इसी तरह की स्थिति धर्म की हो गई जिनमें मूल तथ्य तो दब गये और जो असत् की सत्ता थी वह हावी हो गई। जबकि असत की सत्ता से भाव नहीं अभाव बढ़ते हैं। जैसे नशे की सामग्री मिले गुटखे में हो रहा हैं ठीक वैसे ही आज की धार्मिक मान्यताऐं नशे के रूप में ग्रहण की जाती है। उनमें न तो मानवता के प्रति संवेदनशीलता बची है न ही राग, द्वेष, दीनता, हीनता, कृपणता, हिंसा इत्यादि रोगों के प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने की क्षमता बची है। बल्कि इन रोगों को बढ़ाने की प्रेरणा विकसित हो रही हैं।

49. दशनामी शैव सम्प्रदाय की शाखायें !


   शैव सम्प्रदायों की आगे से आगे अनेक शाखायें है तथा इन्हीं के समानान्तर शाक्त सम्प्रदाय की शाखायें हैं। ये सभी शाखाएँ फोरेस्ट ईकोलोजी से जुड़ी शाखायें है। लेकिन इनमें एक व्यवस्था रही है कि जो गृहस्थ बनना चाहे वह परिवार बसा सकता है लेकिन इनको इस एक नियम का कठोरता से पालन करना होता था कि ये गृहस्थियों की बस्तियों में प्रवेश नहीं करेंगे।
जो मूल ब्राह्मण जाति जिसे आदि-ब्राह्मण या आदि गौड़ ब्राह्मण कहा जाता था, स्वभावतः ही उनका आचरण तो यह था कि वे तो एकान्त में स्थापित अपनी कुटिया से या गुरूकुल से बाहर जाते ही नहीं थे और ना ही उनमें संयुक्त परिवार होते थे। सात वर्ष और अधिकतम बारह वर्ष की सन्तान ही उनके साथ रह पाती थी । तत्पश्चात् उनके बालक भी गुरूकुल के अन्य छात्रों की तरह ही रहते थे। वे बालकों के अलावा अन्य किसी भी वर्ग से सीधा सम्पर्क नहीं रखते थे फिर भी पूरा समाज उनके बताये मार्ग पर चलता था। जब भी साम्प्रदायिक समुदायों में वैमनस्य फैलता और नई मान्यताओं के साथ नई समाज व्यवस्था करनी होती थी तभी इनकी भूमिका शुरू होती थी बाक़ी ये ब्रह्म में रमण करने वाली ब्राह्मणी स्थिति को प्राप्त हुए रहते थे।
     ब्राह्मण गृहस्थ जीवन की सांसारिक उठापटक से मुक्त निर्विकार निर्लिप्त रहने वाले स्वाभाविक आचरण वाले ब्रह्म-जीवी थे। इन्हें विप्र कहा जाता है। जिनको भी मिलना होता इनके घर आते थे।
दूसरे ब्राह्मण जिन्हें द्विज या साम्प्रदायिक ब्राह्मण कहा जाता था उनके लिए यह छूट थी कि ये गृहस्थ के घर में प्रवेश कर सकते थे लेकिन इनका आसन अलग होता था। ये द्विज ब्राह्मण अपनी शिष्य जातियों के घरों में ही प्रवेश करते थे। इनके जाने के बाद गृहणी इनके आसन को घर के बाहर ले जाकर झाड़ती और फिर समेट कर रख देती थी। ये द्विज ब्राह्मण अपनी शिष्य जाति के घरों में ही जन्मे होते थे और यदि इनकी सन्तानों का आचरण असंयमित होता या वे अविद्वान होते तो उन्हें अपनी शिष्य जाति की लड़की से विवाह करके पुनः अपनी मूल जाति में आना होता था और पुनः निर्माण अथवा उत्पादन में लग जाते। ऐसा इसलिये था जिससे अयोग्य शिक्षक वर्ग की संख्या असीमित नहीं हो ताकि निर्माता एवं उत्पादक वर्ग पर भी अनावश्यक बोझ नहीं पड़े। 
वैष्णव सम्प्रदाय में नियम था कि जो महंत होगा वह तो अविवाहित होगा ही होगा अन्य लोग चाहें तो अविवाहित भी रह सकते थे और विवाह भी कर सकते थे लेकिन सन्तानों की संख्या अधिक होने पर उस नई पीढ़ी को किसी न किसी निर्माण एवं उत्पादन से जुड़ी जाति में विलीन होना पड़ता था।  ये वैष्णव गांव में प्रवेश कर सकते थे लेकिन किसी के घर में प्रवेश  करना इनके लिए वर्जित था।  इनको सिर्फ़ मन्दिर तथा गौचर भूमि तक जाने की छूट थी।
शैव सम्प्रदाय की सभी जातियों के लिए नियम थे कि वे गाँव, बस्ती में प्रवेश नहीं करते थे। शैव सम्प्रदाय की सभी शाखायें वनौषधियों की जानकार होती थीं, यह उनका कर्तव्य कर्म था। वर्षा ऋतु में जब एक तरफ तो आवागमन के सभी मार्ग अस्त-व्यस्त हो जाते दूसरी तरफ मौसमी बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता तब ये लोग गांव के बाहर शिवालय में या उसके पास अपनी धूणी जमाते थे। लोग इस धूणी की भभूति[राख] लेने आते। एक तरफ श्रद्धा भाव, दूसरी तरफ औषधियों का प्रभाव ग्रामीण लोग उस भभूति को ग्रहण करके स्वस्थ हो जाते। विशेष बीमारी होने पर विशेष औषधि दे देते। 
वनौषधियों के जानकारों की तीन शाखायें थी।
     जैनाचार्य सूखी हुई जड़ी-बूटियों का उपयोग करते थे।
     संन्यासी हरी एवं ताज़ा जड़ी-बूटियों का प्रयोग करते थे तथा
     नाथ लोग प्राणियों के अंगों एवं विषों का उपयोग करते थे।
     उदासीन और वैरागी सम्प्रदाय वाले भूतविद्या[साईको-थेरेपी] से होने वाली चिकित्सा से जुड़े ओझा यानी झाड़ फूँक करने वाले होते।
आचार्य शंकर ने संन्यासी सम्प्रदाय को काल-स्थान-परिस्थिति के अनुरूप एक नई दशनामी व्यवस्था दी और इनको दस वर्गों में विभाजित किया तथा प्रत्येक वर्ग विशेषज्ञ चिकित्सक की तरह काम करता था। ये दस नाम इस प्रकार हैं:-
(1) तीर्थ (2) आश्रम (3) सरस्वती (4) भारती (5) वन (6) अरण्य (7) पर्वत (8) सागर (9) गिरि (10) पुरी
इनमें अलखनामी और दण्डी दो विशेष सम्मानित शाखाये थीं। दण्डी वे सन्यासी होते थे जो ब्राह्मण से संन्यासी बनते थे। इनके हाथ में दण्ड[डण्डा] होता था। ये आत्म-अनुशासित थे लेकिन इनका काम नवयुवा सन्यासियों को पढ़ाने[साक्षर करने] का था और उच्श्रृंखल नवयुवाओं को दण्ड देने का अधिकार सिर्फ इनके पास ही था। चुंकि सन्यास परम्परा गुरू चेला परम्परा होती है अर्थात् गुरू अपने सेवक[चेले] को प्रेक्टिकल जानकारी देता है अतः वह उसे दण्डित भी कर सकता है। अतः यह व्यवस्था बनाई गई कि दण्ड देने का अधिकार सिर्फ दण्डी स्वामी को ही होता था जो गुरूकुल चलाते थे। ये दण्डी, स्वामी-पुरी शाखा के अन्तर्गत ही रखे गये थे क्योंकि पुरी ही पुर अर्थात् परकोटे के अन्दर जा सकते थे।
दस प्रकार के रोगों और उनसे जुड़े दस प्रकार की औषधियों की जानकारी के परिप्रेक्ष्य में दसनामी सम्प्रदाय को समझना चाहिये।
   1 पुरी -   जो पुर अर्थात् परकोटे यानी घिरे हुए क्षेत्र में रहने वाले बड़े गाँवों में होने वाली बीमारियों का निदान एवं चिकित्सा करते थे। 
   2 तीर्थ -   तीर्थाटन पर आने वाले लोग विभिन्न क्षेत्र, जातीय और आर्थिक वर्गों के होते हैं। उनमें संक्रमण से होने वाले रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है। उनका निदान एवं चिकित्सा का विषय तीर्थ सन्यासियों का था।
   3 आश्रम - आश्रम उस स्थान को कहा जाता है जहाँ अनाथों से लेकर शोधकर्ताओं तक को आश्रय दिया जाता है। इस आश्रमों को रेज़ीडेन्शियल हॉस्पिटल भी कहा जा सकता है। यहाँ असाध्य रोगों का निदान एवं चिकित्सा होती थी।
   4 सरस्वती -  जो वर्ग नृत्य, संगीत एवं वाद्य यंत्रों को बजाने वाले तथा गायक होते हैं उनमें जोड़ों एवं मांसपेशी तंत्र के रोग होते है। उनका उपचार करना इनका विषय था।
   5 भारती =  जो लोग आहार की कमी यानी कुपोषण के शिकार होते हैं उन्हें आहार में पौष्टिक तत्वों को दिये जाने की जानकारी देने वाले भारती भ्रमणशील सन्यासी होते थे। ये लोग स्वर्ण निर्माण की विद्या भी जानते थे इस विद्या का उपयोग वहाँ करते थे जहाँ पूरे क्षेत्र में अकाल पड़ जाता था।
   6  वन =  जहाँ रेन फोरेस्ट होता है वहाँ अत्यधिक नमी के कारण पित्त के विकार से होने वाले रोग होते हैं वहाँ के लोगों के रोगों का निदान एवं चिकित्सा का काम वन करते थे।
   7 अरण्य =  जहाँ रेन फोरेस्ट के साथ-साथ चारागाह भी होते हैं और मांसाहारी तथा हिंसक पशु भी रहते हैं वह क्षेत्र अरण्य कहा जाता है। ऐसे स्थानों पर मूत्र रोग तथा डिहाईड्रेशन से सम्बन्धित रोग अधिक होते हैं उनका निदान एवं चिकित्सा करना इनका विषय होता है।
   8 पर्वत =  पहाड़, गिर, मेरू  इत्यादि नाम पर्यायवाची शब्द हैं। लेकिन पर्वत उन पहाड़ों को कहा जाता है जिनकी चोटियाँ ऊँची तथा पथरीली, पठारी होती है।
   9 गिरि = गिर उन पहाड़ों का कहा जाता है जो कम ऊँचे तथा हरियाली से अच्छादित होते हैं।
   10 सागर = जो वर्ग सागर किनारे रहने वाला तथा समुद्री जीवों को पकड़ कर आजीविका चलाने वाली जातीय समूहों के होते हैं उनमें कुछ विशेष प्रकार के त्वचा रोग होते हैं । उनका निदान एवं चिकित्सा इनका विषय रहा है।
     अब जब हमारा मुख्य मुद्दा भारत को भ्रष्टाचार मुक्त करने का है तो फिर हमें सबसे पहले इस धार्मिक वर्ग के बारे में सोचना चाहिये जिनका धर्म वनौषधीय चिकित्सा का कर्तव्य कर्म है। इनका कर्म गृहस्थियों तथा श्रम एवं उत्पादन से जुड़े समुदायों की सेवा करना रहा हैं न कि आस्थावान गृहस्थियों के श्रद्धा और विश्वास को माध्यम बना कर उनका भावनात्मक एवं आर्थिक दोहन करना रहा है, ना ही धर्म के नाम पर आपसी सम्बन्धों में वैमनस्य पैदा करना रहा है।
     आज जब फोरेस्ट ईकोलोजी नष्ट हो रही है तो सर्वाधिक और सर्वोच्च ज़िम्मेदारी इसी वर्ग की बनती है लेकिन आज यह वर्ग नगरों में रहने वाला ईश्वर भोगी वर्ग बन गया है। आज इस वर्ग में से उन गिने-चुने लोगों को हटा दिया जाये जो वयोवृद्ध हो चुके हैं तो बाक़ी बचे लोगों में से शायद ही कोई जानता होगा कि उनकी परम्परा कितनी कठोर तप की परम्परा रही हैं। बचपन से गुरू की सेवा करते हुए वनों में घूमना और औषधीय पौधों की प्रेक्टिकल जानकारी लेना और इसके साथ-साथ सेवा भाव बनाये रखना।
     आज सेवा का तात्पर्य बदल गया है। आज तो ये लोग कहते है कि हमारी सेवा करना गृहस्थों का धर्म है न कि हम सेवा करने वाले है। जबकि संन्यास की दीक्षा तभी दी जाती थी जब गुरू इस विषय के परिप्रेक्ष में आश्वस्त हो जाता था कि व्यक्ति में गृहस्थ की सेवा करने की भावना है। सेवा के बिन्दु पर आज भी ये लोग अपनी पैनी नज़र रखते हैं कि उनका शिष्य उनकी सेवा करता है या नहीं। लेकिन जब सेवा का सम्बन्ध गुरू की सेवा तक ही सीमित होकर रह जाता है तो फिर वह शिष्य भी कालान्तर में गुरू बन कर अपनी सेवा करायेगा।
    इस बिन्दु पर ईसाई मिशनरीज़ अधिक ईमानदार हैं जो आज भी इस परम्परा को सर्विस कहते हैं और निःशुल्क शिक्षण संस्थाऐं और चिकित्सालय चलाते हैं। लेकिन समस्या की जड़ यह है कि आज की मानव सभ्यता आध्यात्मिक पतन के निम्नतम स्तर पर इसलिए है कि व्यवस्था पद्धति का प्रत्येक लेन-देन काम एवं अर्थ आधारित यानी वाणिज्य आधारित हो गया है। प्रत्येक कार्य का मिशन पक्ष समाप्त हो गया है और प्रोफेशनल पक्ष हावी हो गया है।

48. ब्राह्मण सम्प्रदाय एवं शैव सम्प्रदाय !


      वैष्णव सम्प्रदाय सनातन धर्म की तीन शाखाओं में से एक है। ब्राह्मण संम्प्रदाय अध्यापकों, गुरूओं, शिक्षकों, ज्ञानियों, धर्मगुरूओं, आचार्यों इत्यादि वर्गों का सम्प्रदाय है तो शैव सम्प्रदाय क्षत्रियों, कृषि उत्पादकों, प्राकृतिक उत्पादकों, वनवासियों, श्रमजीवियों इत्यादि वर्गों का सम्प्रदाय है । 
   ब्राह्मण परम्परा ब्रह्म-भाव को विकसित करने के कर्तव्य कर्म की  परम्परा है, जबकि शैव-सम्प्रदाय ईश्वर-भाव को विकसित करने के कर्तव्य कर्म की परम्परा है । इन दोनों सम्प्रदायों को शिक्षा एवं स्वास्थ्य के परिप्रेक्ष में समझना  चाहिये । 
    जब सांस्कृतिक सभ्यताऐं पूरी तरह फोरेस्ट ईकोलोजी और एग्रीकल्चर ईकोलोजी से सीधा सम्बन्ध रखने वाली होती है, तब ज्ञान-विज्ञान की दिशा अव्यक्त की सच्चाई जानने की दिशा में जिज्ञासु होती है। ऐसी स्थिति में ब्राह्मण एवं शैव क्रमषः ब्रह्म और ईश्वर को जानने लग जाते हैं तब प्रकृति को माया अथवा योग माया कह कर मिथ्या (बनावटी) कह कर इसके अध्ययन को तुच्छ और सांसारिक कहते है । 
      लेकिन जब बाह्मण-क्षत्रिय आधारित सांस्कृतिक सभ्यता में व्यापार और वाणिज्य करने वाला वर्ग पैदा होता है तो ब्रह्म एवं ईश्वर भाव के विपरीत एक अभाव ग्रस्त वर्ग विकसित होने लगता है यानी उपजने लगता है। 
      चुंकि यह वर्ग मानसिक एवं शारीरिक दोनों आयामों से दुर्बल होता है अतः अभाव ग्रस्त होता है । इसी वर्ग को धर्म धारण करवाने का काम वैष्णव सम्प्रदाय का है । 
    कृष्ण ने वैष्णव सम्प्रदाय की स्थापना की। क्योंकि उस समय व्यापारी वर्ग के रूप में विदेशी  यक्षों ने अपनी वित्तीय सत्ता स्थापित कर ली थी। वही वैष्णव धर्म, जो कालकलवित हो गया था, उसे छठी शताब्दी में काल-स्थान-परिस्थिति के यथार्थ अनुरूप में पुनः स्थापित किया गया। अर्थात् वैष्णव मन्दिर अर्थव्यवस्था के केन्द्रीय कार्यालय या मुख्यालय थे और सनातन-धर्म या ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के प्रशासनिक स्थान थे। 
      ग्रामीण समुदाय अपनी वर्ष भर की आवष्यकताओं के जितना संग्रह करके बचे हुए अतिरिक्त उत्पादन को मन्दिर में चढ़ा देते थे। 
      गुप्त काल में जो भव्य अट्टालिकाऐं व्यक्तिगत हुआ करती थी उनका स्थान भव्य मन्दिरों ने लेना शुरू कर दिया । धीरे-धीरे नगर भी नष्ट हो गये और सनातन धर्म का वैभव लौटने लगा था। 
    वैष्णव मन्दिर एवं शैव मन्दिरों की संख्या गुप्तकाल में भी कम नहीं थी लेकिन उस समय ये दो सम्प्रदायों के रूप में वैमनस्य फैलाने वाले केन्द्र थे जबकि हर्षवर्धन के आन्दोलन में इन्हे निःशुल्क शिक्षा, आहार, भजन कीर्तन एवं चिकित्सा केन्द्र के रूप में विकसित किया गया । इन मन्दिरों की विपुल सम्पतियाँ, विष्णु एवं लक्ष्मी के श्रृंगार के स्वर्ग आभूषण इत्यादि ब्राह्मण गवर्नमेन्ट के एक तरह के राज्य कॉष का हिस्सा थे। 
    ये मन्दिर तीर्थ यात्रियों के विश्राम स्थल, तीर्थाटन के केन्द्र और उत्सवों त्यौहारों के केन्द्र तो थे ही थे लेकिन इनकी विषेष भूमिका तब बनती थी जब अकाल पड़ जाता था। इसी तरह की भूमिका के रूप में ईसाईयों के चर्च एवं इस्लामिक सम्प्रदाय की मस्ज़िदों का विकास हुआ। चर्चों एवं मस्ज़िदों में तथा वैष्णव मन्दिरों में एक फर्क अवष्य रहा। वह था देवी-देवताओं के विभागों के रूप में वैष्णव मन्दिर जाति आधारित थे । कालान्तर में मस्ज़िदें एवं चर्च भी साम्प्रदायिक विभाजन को स्वीकार करने लग गये। 
    राग एवं द्वैष जनित जातीय वैमनस्य जैसा आज हम देख रहे हैं वैसा कभी नहीं रहा। सभी जातियाँ एक दूसरे के जॉब के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास रखने वाले रहे हैं क्योंकि सभी जातियाँ एक दूसरे की पूरक होती हैं, आवष्यक वस्तुओं की आपूर्ति परस्पर होती है, यह समझ हमारे पूर्वजों में रही है । 
   सभी देवी-देवता किसी न किसी जाति विशेष के देवता होते थे लेकिन वर्ष में एक दिन ऐसा भी आता था जब ये सभी मन्दिर एक साथ एक समान सभी जातियों के उत्सव का केन्द्र होते थे। वर्ष का वह एक दिन वह दिन होता था जो उस देवता का जन्म दिन होता था तथा विशेष उत्सव एवं त्यौहार के नाम से जाना जाता था । उस दिन वहाँ  मेला लगता और प्रसाद वितरित होता था । वितरित किया जाने वाला प्रसाद निकट भविष्य में होने वाली मौसमी बीमारियों की अग्रिम चिकित्सा के रूप में औषधि होती थी । 
शैव एवं शाक्त सम्प्रदाय 
संख्या बल से देखा जाये तो ब्राह्मण सम्प्रदाय का अनुपात न्यूनतम रहा है । एक-दो प्रतिशत। वैष्णव सम्प्रदाय का प्रतिषत भी पाच दस से ऊपर नहीं रहा। वैष्णव सम्प्रदाय में वैष्य वर्ग के साथ-साथ निर्माण से जुड़ी जातियों को भी शामिल किया जाता है। क्योंकि इन्हें ही तो प्रकृति के महत्व को समझाया जाता है। ये सभी मिलाकर भी दस-पन्द्रह प्रतिषत से अधिक नहीं रहे। जबकि नब्बे प्रतिषत जातियां शैव सम्प्रदाय में आती हैं। 
वे सभी जातियां जो किसी न किसी प्राकृतिक उत्पादन से जुड़ी होती हैं वे शैव सम्प्रदाय में आती हैं । इन्हीं प्राकृतिक उत्पादक जातियों में विषेषकर फारेस्ट ईकोलोजी यानी, वनोत्पादन की अर्थ व्यवस्था से जुड़ी जो जातियाँ हैं उनमें मातृ सत्तात्मक परिवार या समाज से जुड़ी जातियाँ शाक्त सम्प्रदाय में आती हैं। जैन एवं बौद्ध सम्प्रदाय की शाखायें भी पितृ एवं मातृ सत्तात्मक भागों में विभाजित हैं। विषेषकर दिगम्बर जैन और बौद्धों में झेन सम्प्रदाय। झेन शब्द जैन का ही अपभ्रंष उच्चारण है । 
शैव सम्प्रदाय में शाखायें इस प्रकार हैं:-
    1. पशुपतिनाथ सम्प्रदाय 
नाथ
स्वामी
भैरव 
    2. परशुराम सम्प्रदाय
        क ब्राह्मण 
        ख वैरागी
        ग उदासीन
    3. आदिनाथ सम्प्रदाय 
नाथ
ख    स्वामी
  भैरव
   4. दत्तात्रैय द्वारा प्रचलित गुरू-शिष्य परम्परा 
दत्त सम्प्रदाय


47. वैष्णव धर्म बनाम वैश्य वर्ग !


   जैसा कि धर्म की मूल परिभाषा में धर्म के तीनों आधारों (1) मनोवैज्ञानिक पक्ष, शिक्षा (2) शरीर वैज्ञानिक पक्ष, आयुर्वेद तथा (3) समाज वैज्ञानिक पक्ष, अर्थ-व्यवस्था का उल्लेख बार-बार आता है। इस विषय में यह समझना महत्वपूर्ण है कि जब अर्थव्यवस्था वानिकीय पारिस्थितिकी Forest Ecology  पर सुचारू रूप से चल रही होती है तो धर्म का तीसरा अर्थशास्त्रीय आधार महत्वहीन हो जाता है। तब धर्म के दो ही आधार बचते हैं, शिक्षा और स्वास्थ।
शिक्षा का आधार ब्रह्म होता है जो कि हमारे ब्रेन से निकलने वाला चुम्बकीय क्षेत्र होता है। स्वास्थ का आधार ईश्वर होता है जो हमारे शरीर में विद्यमान अपरिमेय[असंख्य] परमाणुओं को अनुशासित रखने वाला ईथर होता है।
ब्रह्म-परम्परा के साहित्य को ब्रह्म-सूत्र वेदान्त और उपनिषद कहा गया है और परम्परा को स्मृति-परम्परा कहा गया है। वेद-परम्परा के साहित्य को वैदिक-ऋचाएँ, छन्द, सिद्धान्त और पुराण कहा गया है तथा परम्परा को श्रुति-परम्परा[लेखन भी इसी का भाग है] कहा गया है।
  इन दोनों परम्पराओं में धर्म शब्द का उपयोग अनुशासन के लिए नहीं होता। वैदिक परम्परा में धर्म का अर्थ हो जाता है तत्व की गुण-धर्मिता वहीं ब्राह्मण परम्परा में धर्म का अर्थ आत्म अनुशासित आचरण या प्रवृति हो जाता है। लेकिन जब अर्थव्यवस्था का आधार वानिकीय पारिस्थितिकी Forest Ecology नहीं होकर वस्तुओं के आदान-प्रदान वाली, श्रम एवं उत्पादन वाली अर्थात् मानव निर्मित अर्थव्यवस्था होती है तो वहाँ अनुशासित रहने के लिए एक मानवीय धर्म की आवश्यकता होती है। अनुशासित रहने के लिए कुछ मान्यताओं की आवश्यकता होती है। अनुशासन तोड़ने पर दण्ड के प्रारूप की आवश्यकता होती है। कुल मिलाकर एक धर्म की आवश्यकता होती है। नियम, संविधान, क़ानून-कायदों की आवश्यकता होती है।
गुप्त-काल में जब आर्थिक, सामाजिक, भावनात्मक तीनों स्तरों पर शोषक एवं शोषित वर्ग बन गये तो वैष्णव सम्प्रदाय नाम से एक सम्प्रदाय बनाया गया।
भारत में शोषित-वर्ग की दुर्दशा देख कर और अपने क्षेत्र में वैसी ही स्थिति देख कर पैग़म्बर मोहम्मद ने तो अपने अनुयाईयों से कहा कि, कोई किसी के सामने सजदा नहीं करें; यहाँ तक कहा कि प्रतिमाओं की भी पूजा न करें। क्योंकि यहाँ बौद्ध-जैन मन्दिरों में प्रतिमा पूजा और अरब क़बीलों में ओझाओं एवं कबीले के देवता की पूजा का प्रचलन था। अतः पैग़म्बर का यह मार्ग बहाव को रोकने जैसा था जो कालान्तर में दरगाहों में पूजा के रूप में फैला क्योंकि बहाव रूकता नहीं दिशा चाहता है जबकि भारत में उस प्रतिमा पूजा को एक अलग मन्तव्य से, अर्थव्यवस्था के केन्द्र के रूप में, एक सत्ता के केन्द्र के रूप में स्थापित किया गया था। यह एक तीर से अनेक निशाने जैसी व्यवस्था थी। इस व्यवस्था में इन बिन्दुओं पर निशाना साधा गया था।
   1- इन मन्दिरों से जुड़े विद्यालयों में विद्याएँ सिखाई जाती थीं, गुरूओं द्वारा गुर सिखाये जाते थे जिनसे निर्माण कार्य करके शिष्य जीविकोपार्जन कर सके। इस कार्य के लिए पैसा नहीं लिया जाता था और यह मान्यता भी प्रचारित-प्रसारित करके स्थापित की कि विद्याऐं बेचना घोर दुराचार माना जायेगा। कोई अपनी सुख-सुविधाओं के लिए अपनी पुत्री को बेचता है तो वह जितना दुराचारी माना जाता है उतना ही दुराचारी उस देव[विद्वान-ब्राह्मण] को माना जायेगा जो अपनी विद्या बेचता है।
    जबकि आज के गुरूओं के पास तो खुद के पास भी विद्याऐं नहीं अतः वे धूर्त बुद्धि का उपयोग करके गृहस्थियों की जेब से पैसे निकलवाकर खुद ऐश कर रहे हैं और जहाँ तक पाठ्य पुस्तकों में लिखा रटवाने वाले गुरू हैं वे पैसा लेकर क्या सिखाते हैं यह बात आप खुद शान्ति से सोचें। 
    2- विद्या की ही तरह मनोरंजन भी निःशुल्क था। अपने देवता की स्तुतियाँ गाना, नृत्य, संगीत, गायन, वादन से मन को अनुरंजित करने के काम का टिकिट नहीं लगता था। प्रेम-प्रसंग और परिणय-सम्बन्धों पर गीत, संगीत, नाटिकाऐं, नृत्य इत्यादि विषय पर रचने वाले रचनाकारों के लिए कृष्ण को एक महानायक का रूप दे दिया गया जिस पर वे कुछ भी रच सकते थे, सभी कुछ मान्य था। क्योंकि वह नायक भगवान का रूप था जिसके हजारों नाम थे जो नाम आप विष्णु सहस्त्र नाम में से चुन सकते थे। 
    3- इन दो मौलिक आवश्यकताओं के साथ-साथ नैसर्गिक आवश्यकताएँ भी होती हैं क्योंकि भूखे भजन न होय गोपाला। इन मन्दिरों में आहार और चिकित्सा भी निःशुल्क थी तथा भोज्य पदार्थ और औषधि को बेचने को तो इतना भयानक दुराचार कहा गया कि यह तो अपनी मां को बेचने जैसा दुराचार है।
अब जब आप भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो आज तो सबसे बड़े व्यापार ही ये ही हैं। Restaurant, hotel, hostel, hospitals, nursing home एवं स्कूलें खोलना ही समाज में सबसे प्रतिष्ठित धन्धे हैं बाकी सभी धन्धों में उधार देना पड़ता है इनमें नगद और एडवांस मिलता है। अब जब आपका अर्थ-शास्त्र ही काम एवं अर्थ (कामार्थ) वाली वाणिज्य पद्धति पर है तो आप भ्रष्टाचार मुक्त समाज वाली बेतुकी कल्पना को साकार रूप कैसे दे सकते हैं! इसके लिए एक सम्पूर्ण क्रान्ति आवश्यक है । उस क्रान्ति के क्रमबद्ध कार्यक्रमों को शुरू करने से पहले आवश्यकता है, एक वैचारिक आन्दोलन की, कि क्या हम एक सुखी मानव समाज की स्थापना के लिए तैयार तो हैं या खाली और खोखली बातें ही कर रहे हैं ?  

46. प्रतिमा की पूजा का विज्ञान !


     अर्जुन को आचार्य द्रोण नामक देव[द्विज ब्राह्मण] ने धनुर्विद्या स्वयं सिखाई थी लेकिन वह अर्जुन उस एकलव्य से धनुर्विद्या में बहुत पीछे था जिसने द्रोण की प्रतिमा के सामने विद्या सीखी थी। ऐसा इसलिए हुआ कि गीता का एक सिद्धान्त है ‘‘जो देवों का यजन करता है वह देवों को प्राप्त होता है और जो मेरा यजन करता है वो मुझे प्राप्त होता है। जो देवों का यजन करता है, मैं उसे उसी देव के प्रति श्रद्धा में बाँधता हूँ लेकिन वो लोग मूर्ख हैं जो मुझ पूर्ण से विमुख होते हैं और अपूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं।
अर्थात् अर्जुन ने आचार्य द्रोण नामक देव का यजन किया था अतः जितना आचार्य द्रोण जानते थे उतना ही या उससे कम ही अर्जुन जान पाया लेकिन एकलव्य ने द्रोण की प्रतिमा के सम्मुख आत्म-विश्वास से उस परमात्मा का यजन किया जो सभी के शरीर में शरीर की प्रकृति के रूप में 'मैं' या 'अहम्' रूप में विद्यमान है अर्थात् आत्म-विश्वास में आकर अपने चित्त को अपने आप में एकाग्र करके जब एकलव्य ने यजन[यज्ञ कर्म] किया, अभ्यास किया तो वह उस विद्या में परिपूर्ण हुआ,पूर्ण पारंगत हुआ, उस विद्या के प्रत्येक आयाम का विद्वान हो गया अर्थात् आप जब प्रतिमा विशेष के सामने जाकर दीन-हीन-कृपण बनते हैं तो आप के अन्दर का वह देवता-विशेष  भी दीन-हीन-कृपण हो जाता है जबकि प्रतिमा को उस देवता का प्रतीक मान कर उस देवता को अपना आदर्श मान कर उस देवता के चरित्र को अपने अन्दर विकसित करने का प्रयास या अभ्यास करते हैं तो आपके अन्दर उस विषय में पूर्णता विकसित हो जाती है। यह तो हुआ आत्म-कल्याण का यानी अपने शरीर-विज्ञान के धर्म का पक्ष।
  दूसरा है सामूहिक धर्म[अर्थशास्त्र] का पक्ष कि एक वर्ग जो सम्पन्न है, वह इस ब्राह्मण गवर्नमेन्ट के कार्यालय में प्रसाद चढ़ाता है तो दूसरा एक वर्ग जो विपन्न है उसे इस केन्द्र से पौष्टिक आहार के रूप में समान मात्रा में प्रसाद मिल जाता है।
आज अब हम इस बिन्दु पर भ्रष्टाचार की बात करें तो इन मन्दिरों में दिया गया दान पुजारियों का अभाव ही दूर नहीं कर सकता तो जनता में क्या वितरण होगा। यह ठीक वैसे ही है कि सरकार को दिया हुआ टैक्स सरकारी कर्मचारियों के वेतन में ही पूरा नहीं होता तो सरकार जन कल्याण में क्या कर पायेगी ?
सरकारी कर्मचारी,नौकरशाह, शाही-नौकर जो अपने नाम के आगे अधिकारी लगाना पसन्द करते हैं जिन्हें कर्मचारी शब्द ही पसन्द नहीं है, वे क्या कर्म कर पायेंगे! उनसे कर्म कराने के लिए घूस देनी पड़ती है। उसी तरह प्रतिमाओं को भगवान बना कर पुजारी लोग आप से चढ़ावा तो चढ़वाते हैं लेकिन वापस उसका वितरण नहीं करते। अब आप सोचें कि जब धर्म के नाम पर ही इतना अधर्म और अज्ञान है तो अन्य सांसारिक जीवन के पक्षों पर सदाचार कहाँ से आयेगा! क्योंकि आज प्रत्येक बिन्दु कॉमर्शियल हो गया है,  काम एवं अर्थ की गणित में उलझा है। अतः यदि एक ऐसे समाज की रचना करनी हो जहाँ भ्रष्टाचार नहीं हो तो पहली आवश्यकता है, सभी के अभावों को दूर किया जाये, तब उनमें भाव स्वतः पैदा होगा वे सदाचारी बने रहेंगे।
प्रतिमा की पूजा के परिप्रेक्ष्य में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचना चाहिये कि यह व्यवस्था सभी इन्सानों को एक जैसा मानने के आदर्श बौद्धिक स्तर के लिए बनायी गयी है ताकि व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का भावनात्मक शोषण न होने पाये।
जिस व्यक्ति ने बोधिसत्व प्राप्त कर लिया, जिसका सत्व ऊर्ध्वगामी है, जिसके आहार में लिए गये वसा-शर्करा-स्टार्च के तत्व तंत्रिका तंत्र में पहुंच कर सत्व में बदल जाते हैं अर्थात् हार्मोंस का स्राव अमृत-तत्व (सत्व) के रूप में होता है उसे अपने अन्दर भाव पैदा करने के लिए किसी सहारे, माध्यम, प्रतीक या मिथक की आवश्यकता नहीं होती है।
जिस व्यक्ति में रज का प्रभाव अधिक होता है और रज के साथ सत्व की पर्याप्त मात्रा भी हो तो व्यक्ति में भाव पैदा होता है। और यह तभी होता है, जब किसी लक्ष्य को प्राप्त करने का उचित मन्तव्य उसकी मानसिकता में भरा जाये। तब वह कर्म करने का पराक्रम दिखा सकता है।
इसी तरह जब व्यक्ति में तम का प्रभाव हो, उस के आहार की वसा व शर्करा सत्व में नहीं बदल पाती हो, शरीर से कच्ची शर्करा मलमूत्र द्वार से बाहर निकलने लगती हो, जब उसमें भय, आंशका, प्रतिस्पर्धा, अविश्वास इत्यादि अभाव पैदा हो जाते हैं ऐसे व्यक्ति को अभावों से मुक्त होने और सकारात्मकता यानी आस्था के भाव पैदा करने के लिए मिथक Mythology,प्रतीक symbol भ्रम-विभ्रम Fallacies - hallucinations मान्यताऐं Recognition इत्यादि मेथोलोजी के सहारे की आवश्यकता होती है और उनके लिए सर्वसुलभ सहारा होता है प्रस्तर-प्रतिमा।
निःसंदेह मैं यह लेखन उस बौद्धिक वर्ग के लिए कर रहा हूँ जो उपरोक्त 98 % प्रतिशत वर्ग में आने वाले उस अभावग्रस्त जनसमूह के लिए काम करने के लिए आगे आयेंगे जो सहारा ढूँढ रहा है। भले ही आप के और उसके मत (वोट) का भाव (वेल्यु) एक समान है लेकिन उसका मत लोगों की सह-मति से पड़ता है और आपका मत स्व-मति से पड़ता है। अतः यहाँ जो प्रसंग प्रतिमा, मन्दिर इत्यादि का चल रहा है, उसमें इस तथ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि ये प्रथाऐं जो परम्परा का रूप ले चुकी हैं इन प्रथाओं के दो पक्ष हैं। एक पक्ष है आप लोगों के लिए जो इस लेखन को पढ़-समझ सकते हैं और दूसरा पक्ष उन लोगों के लिए है, जिनके कल्याण के लिए आपको आगे आना है। तात्पर्य है आपको इन मन्दिरों की व्यवस्था में हस्तक्षेप करना है और इनको पुनः उसी रूप में रूपान्तरित करना है जिसके पीछे एक विशेष मन्तव्य था। 
मन्दिरों को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक व्यवस्थाओं का केन्द्र बनाकर आत्म-कल्याण की ब्राह्मण परम्परा और जगत के कल्याण की वेद परम्परा (दोनों) का योग करके एक अद्धैत परम्परा बनाई गई। आपको वहाँ ब्राह्मण की भूमिका निभानी है क्योंकि ब्रह्मा का मानस पुत्र ब्राह्मण[पत्रकार] तो देवों[विद्वानों] में भी ऋषि[समाज वैज्ञानिक] कहा गया है, जिसे गीता में भगवान की विभूति का दर्ज़ा [स्तर] दिया गया है। आप में से जो व्यक्ति राजनीति के माध्यम से संसद में जाने वाले मार्ग का प्रहरी है वह ध्यान रखेगा कि निर्दलीय संसद में जाने वाला सांसद अभावग्रस्त नहीं हो, भाव से भावित रहे। ऐसा प्रहरी हो जो चहुँ ओर अपनी ज्ञानेद्रियाँ सजग रखने वाला ब्रह्मा रूप स्वतः ही हो गया हो।

33. ब्रह्म vs ईश्वर

      ब्रह्म को लेटिन में ब्रेन कहा गया है लेकिन इसका हिन्दी में शब्दार्थ बनता है चेतना। इसको विज्ञान की भाषा में समझना चाहे तो यह एक चुम्बकीय बल रेखाओं का क्षेत्र है।
सदैव जागृत रहकर गतिशील रहने वाले जगत की प्रत्येक जीवित कोशिका Cell  में एक विशिष्ट चुम्बकीय बल रेखाओं वाला क्षेत्र होता है। उसी चुम्बकीय क्षेत्र या बल-रेखाओं को पहचान कर एक ही जाति-प्रजाति की कोशिकाएं एक समूह में इकट्ठी होती हैं। कोशिकाओं के उस समूह को ऊत्तक[Tissue] कहा जाता है। उस Tissue की चुम्बकीय बल रेखाऐं उसी अनुपात में अधिक बल[फोर्स] पैदा करती है। क्योंकि यह अपना क्षेत्र बनाकर उसमें स्थिर-स्थित रहकर स्पन्दन करती रहती हैं वही स्पन्दन उसका बल[फोर्स] कहलाता है।
यही बल-रेखाऐं आपस में धक्का-मुक्की करके यह निर्णय करती है कि किस अंग[Organ] का विस्तार कितना करना है और इसके विस्तार की सीमा रेखा क्या होनी चाहिये ताकि देह की संरचना (डिजाईन) वैसी ही बन जाये, जैसी उस जीव प्रजाति की देह परम्परा से चली आ रही है । देह की इस डिजाइन का अंकन (प्रिण्ट) वंशानुगत,आनुवंशिक गुणसूत्रों [genetic-code] में रहता है । 
ब्रह्म द्वारा संचालित इस प्रक्रिया (रासायनिक क्रिया) को अधियज्ञ कहा गया है। इस अधियज्ञ क्रिया में असंख्य परमाणु योग (Composition,combination) और भोग ( decomposition) की प्रक्रिया से गुजरते हैं अधिक विस्तार में न जाकर सिर्फ इतना ही समझना पर्याप्त है कि इस उठा-पटक में अणुओं-परमाणुओं को अनुशासित रखने का कार्यभार ईश्वर सम्भालता है जिसका अपभ्रंष उच्चारण लेटिन में ईथर हो जाता है अर्थात् ब्रह्म की कल्पना को ईश्वर साकार,आकारसहित बनाता है । 
प्रत्येक जीव कोशिका या जीव कोशिकाओं से बने देह,अंग,ऊत्तक [Tissue] रूपी पिण्ड की चुम्बकीय बल रेखाओं को बल देने वाला परम्ब्रह्म वह विशाल चुम्बकीय क्षेत्र है, जो सम्पूर्ण सृष्टि में फैला है। उस ब्रह्म की व्याख्या या चरित्र-चित्रण या परिभाषा जो कही गई है उसे चुम्बकीय क्षेत्र के चरित्र यानी गुणधर्मिता के समकक्ष रख कर समझने का प्रयास करे । 
'वह परम-गति वाला सभी के अन्दर सभी के बाहर सब से अन्तःस्थ तथा सब से दूरस्थ, समान भाव से सर्वत्र व्याप्त, सर्वत्र स्थिर-स्थित एक ही है फिर भी उसकी विशेषता यह है कि वह सब में विशिष्ट दृष्टिगोचर होता है'। (अर्थात् देखने में सब में विषिष्ट या असमान लगता है) 
    समझने का रोचक बिंदु यह है कि ब्रह्म सर्वत्र एक ही चुम्बकीय बल रेखाओं,परमगति वाला एक ही है लेकिन सभी में विशिष्टता देने वाला,वर्गीकृत करने वाला और जीवकोशिका को,जीव को,जीव के आत्मभाव [आत्मा] को अलग-अलग स्वतन्त्र,स्वाधीन,आत्म नियंत्रित रहने का बल देने वाला और अमरता देने वाला है. लेकिन फिर भी वह एक ही है 'एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति'।
     जब कि ईश्वर का मामला इससे विपरीत है.ईश्वर प्रतेक मूर्ति [मूर्त रूप] का, देह का अलग-अलग होता है क्योंकि प्रतेक संरचना के अणु परमाणु को अनुशासित रख कर उसके अस्तित्व को पूर्णता देता है। ईश्वर के कारण ही यह वह सब पूर्ण है अतः 'जीवो जीवस्य भोजनम्' मे भोजन,भोग भी वही है और भोग् कर्ता,भोक्ता भी वही है.अतः प्रतेक जीव-संरचना को अलग अलग संरक्षण देने वाला,अलग अलग ऐश्वर्य देने वाला और अलग अलग अस्तित्व बना कर उस अस्तित्व की अलग अलग रक्षा करने वाला ईश्वर सर्वत्र अलग अलग, ऊर्जा के बण्डल के रूप मे अलग अलग इकाई Unit मे बन्टा हुआ है फ़िर् भी सभी जीव पिण्डों के साथ एक समान सम भाव में रहता है कही भी विशिष्ट व्यवहार नहीं करता।
       इस तरह ईश्वर सभी का अपना होता है फिर भी एक समान गुणधर्मिता को धारण किये रहता है जबकि ब्रह्म एक ही है इकाइयों में बँटा हुआ नहीं है फिर भी ईश्वर निर्मित प्रतेक इकाई को विशिष्ट चेतना दे कर सभी को विशिष्ट बनाता है।      
इस को एक शब्द में भी परिभाषित किया गया है जो शब्द है ‘‘वसुघैव-कुटुम्बकम्‘‘ अर्थात् पृथ्वी पर विद्यमान जगत का प्रत्येक जीव ब्रह्म की तंरगों से बँधा एक ही कुटुम्ब, कम्यून, कम्युनिटी का हिस्सा है ।
ब्रह्मपरम्परा का ज्ञान सिर्फ चार सूत्रों में सिमटा हुआ है। 
     सामाजिक पत्रकारिता में इस विषय की विवेचना करने का अभिप्राय यह बताना है कि ब्रह्म की आवश्यकताएँ [शिक्षा,क्रीडा,मनोरंजन]  हमेशा अपनी अपनी मौलिक होती है जो अपने अपने मूल,जड़,root से निकलती है यह जड़ हमारी उर्ध्मूलाकार [The shape of the root upwards] शारीरिक संरचना में ऊपर अपनी-अपनी खोपड़ी में अपनी अपनी मौलिक बन कर पनपती है।
      जबकि ईश्वर निर्मित विभिन्न प्रकार के शरीर नैसर्गिक आवश्यकताएँ [आह़ार निन्द्रा विरेचन] सभी की एक सामान होती है.
       हमें एक ऐसा भारत बनाना है जिसमे सभी को ब्रह्म प्रदत अपनी अपनी मौलिक आवश्कताएँ पूरी करने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता हो, ईश्वर प्रदत नैसर्गिक आवश्यकताएं [आहार,निंद्रा,विरेचन] पूरी करने की सभी को निष्पक्ष एक समान सार्वजनिक सुविधा हों और बेसिक आवश्यकताएँ [आवास,वस्त्र,वाहन] काल-स्थान-परिस्थिति के अनुरूप समसामयिक यथार्थ के अनुरूप पूरी हों।
      यह तभी सम्भव होगा जब आप अप्राकृतिक वर्ग भेद को मिटा कर प्रकृति द्वारा वर्गिकृत स्वभाव के अनुरूप वर्गीकृत व्यवस्था करेंगे।

45. शीतला माता !


   यह त्यौहार अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में अलग-अलग दिन मनाया जाता है जो इस बात पर निर्भर करता है कि कब वहाँ सर्दी समाप्त होकर गर्मी पड़ने लग जाती है।
शीतला, कुम्हारों की देवी हैं और इस दिन गधे की पूजा होती है। गधे के शरीर में शीतलता होती है। गर्मी में वात का प्रकोप होता है और वात जनित व्याधियों जैसे चेचक, बोदरी, Smallpox, cowpox, chickanpox तथा अन्य वे बीमारियाँ होती हैं जिनकी रामबाण दवा है पेनिसिलीन। यह औषधी जब बनी तो इसका टीका लगाने का प्रचलन भी हुआ और इसके इंजेक्शन भी बने। पेनीसिलीन फ़ंगस/फफूँद fungi से बनाई जाती है। गर्मी के मौसम में रोटी अचार इत्यादि पर सफेद-सफेद रूई जैसा दिखाई देता है वह fungi होता है।
शीतला के दिन ठण्डी रोटी अर्थात् एक दिन की बासी रोटी, खिचड़ी इत्यादि खाई जाती है। इस बासी भोजन में हल्का सा फ़ंगस पैदा हो जाता है जो आने वाले समय में Smallpox, cowpox,chikanpox  इत्यादि बीमारियों की अग्रिम रोकथाम करता है। जब किसी मां की गोद में दूध पीता शिशु  होता है तो उसे पहले दिन की रोटी दूसरे दिन खाने का क्रम कई दिनो तक निभाने को कहा जाता है।
पेनिसिलीन का अविष्कार तो एक शताब्दी पूर्व का है जबकि भारत में तो यह सदियों से चली आ रही प्रथा है।
{इन त्यौहारों की लम्बी सूची है लेकिन यहाँ इतना ही। इस विषय में अधिक जानकारी चाहिये तो गीता की व्याख्या करके लिखी गई पुस्तक ‘‘परमात्मा विज्ञानमय है‘‘ मंगवा कर पढ़ें।}
इन उदाहरणों के द्वारा मैं आपका ध्यान तीन बिन्दुओं पर खींचना चाहता हूँ (1) धर्म के ये सभी बिन्दु जगत के कल्याण के रूप में स्थापित किये गये थे जो ब्रह्म-परम्परा और वेद-परम्परा को अद्धैत करके बनाये गये अर्थात् विज्ञान को धर्म से जोड़ा गया। (2) इन त्योहारों पर वही प्रसाद या भोग चढ़ाया जाता है जिसका प्रावधान है, न कि बाजार से चाहे जैसी उलजुलूल मिठाई लाकर चढ़ाई जाये। ये प्रसाद स्वाद और मनपसन्द मिठाई के रूप में नहीं होने चाहिये बल्कि परम्परा में जो-जो भोग जिस-जिस क्षेत्र में प्रचलित है वही भोग देवता के चढ़ाया जाता है और हमें उसे प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिये । (3) ये देवी देवता हमारे शरीर के अन्दर चल रही यज्ञ-प्रक्रिया यानी रासायनिक गतिविधियों के रूप में होते हैं अतः इन्हें शरीर के अन्दर पुष्ट करने के दृष्टिकोण से लेना चाहिये। इस शरीर से बाहर किसी भी देवी-देवता,भगवान,GOD, अल्लाह का कहीं भी कोई अस्तित्व नहीं है।

44. कृष्ण जन्माष्टमी !


      गणेश चतुर्थी से कुछ समय पहले कृष्ण जन्मोत्सव मनाया जाता है। यह सर्वाधिक वर्षा का समय होता है। वर्षा में पित्त की वृद्धि होती है अतः पित्त विकार से होने वाली मुख्य बीमारी मलेरिया हो जाती है। यदि शरीर भी पित्त प्रकृति का हो और पित्त विकार की चिकित्सा नहीं की जाये तो यह पित्त विकार पित्ताशय, अग्न्याशय Gall bladder, pancreas के बाद लीवर को प्रभावित करता है और आगे जाकर पीलिया रोग  [jaundice] हो जाता है । इसी तरह यदि शरीर कफ प्रकृति का हो और पित्त में विकार हो और वह विकृत पित्त शरीर के बाहर नहीं निकले तो मौसम का तापक्रम कम होते ही कफ-पित्त जनित व्याधि टाईफाईड Typhoid हो जाती है। 
आप प्रतिवर्ष देखते हैं कि वर्षा शुरू होते ही सर्वप्रथम मलेरिया का प्रकोप होता है फिर वर्षा काल के अन्तिम चरण में पीलीया[jaundice] एवं टाईफाईड के मरीजों की संख्या बढ़ जाती है। इसका अग्रिम उपाय है पित्त के प्रकोप को शान्त किया जाये। कुपित पित्त को आयुर्वेद में राक्षस कहा जाता है जबकि पित्त  के शुद्ध होने पर वही पित्त राजस गुणों में, रक्त में वृद्धि करता है अतः पित्त  का अग्रिम इलाज वर्ष का सर्वाधिक महत्वपूर्ण इलाज होता है। 
पित्त विकार को शान्त करने, पित्त को शुद्ध करने और उस शुद्ध पित्त का पेन्क्रियाज/पित्ताशय/अग्न्याशय में संग्रह करने के लिए कृष्ण-जन्माष्टमी पर पंजीरी का भोग लगाया जाता है । जिसमें अजवायन, सौंठ, सूखा धनिया, घी और शर्करा का योग होता है। दिन भर खाली पेट रहने से पित्त को पचाने को कुछ नहीं मिलता। रात्री के बारह बजे और दूसरे दिन से, कई दिनों तक सुबह खाली पेट यह खाया जाता है। 
सोंठ पित्ताशय को उत्तेजित करती है। अजवायन पित्त को फाड़ कर उसे शुद्ध करती है। सूखा धनिया पित्त  को शान्त करता है और घी[दुग्ध वसा] तथा शर्करा उसके साथ यौगिक[कम्पाउण्ड] बना कर उसका संग्रह करते हैं जो सर्दी के मौसम में शरीर में ताप पैदा करके सर्दी से मुकाबला करने की ताकत देता है। 
यह प्रसाद लेने से पुण्य होता है अर्थात् मलेरिया, पीलीया, टाइफाईड जैसी बीमारियाँ नहीं होती है और न लेने पर पाप लगता है क्योंकि तब आप बीमार हो जाओगे।  
इस तरह पाप और पुण्य से जोड़ कर तथा मन्दिरों से वितरित करके इन औषधियों को प्रत्येक व्यक्ति की पहूँच में बनाया गया ताकि मौसमी बीमारियों का अग्रिम इलाज हो जाये और चिकित्सा से जुड़े ब्राह्मण वर्ग को सुकून मिले, उनका कार्यभार कम हो जाये।

43. गणेश - गण (समूह) के ईश !


    ये बुद्धि के देवता हैं क्योंकि देह में विद्यमान सभी अंगों का सामूहिक नेतृत्व बुद्धि ही करती है। गणेश उस वर्ग के देवता हैं जो एकाउण्ट और एकाउण्टेबिलिटी यानी लेखा-जोखा के माध्यम से अर्थव्यवस्था के उत्तरदायित्व से जुड़ा वर्ग है। अतः सर्वप्रथम पूजनीय देवता गणेश हैं। जो अर्थशास्त्र एवं लेखा की शिक्षण संस्था के यानी गुरूकुल के कुलपति की उपाधि भी होती थी।
    ये तैतीस करोड़ वैष्णव देवी-देवताओं के ईश हैं और खुद शैव सम्प्रदाय की ईष्ट महादेवी के पुत्र हैं। 
इनका जन्म-दिन तब आता है जब गर्मी समाप्त हो रही होती है और सर्दी का प्रारम्भ होने जा रहा होता है। गणेश को मोदक लड्डू प्रिय होता है; जो लड्डू मैदा,घी एवं शक्कर से बना होता है उसे मोदक कहते हैं।
बुद्धि का स्तर बढ़ाने के लिए सत्व की आवश्यकता होती है। स्टार्च-वसा एवं शर्करा से सत्व की वृद्धि होती है। 
वर्षा काल में पित्त की वृद्धि होती है और सर्दी में कफ की वृद्धि होती है। वर्षाकाल में बढ़ा हुआ पित्त जठराग्नि को तेज़ करता है अतः एक पंथ दो काज हो जाते हैं अर्थात पित्त की अधिकता से पेट की अग्नि बढ़ती है और पाचन शक्ति तेज़ होती है उस वर्षाकाल में जब मोदक का सेवन किया जाये तो उसमें स्टार्च (मेदा) वसा और शर्करा के योग से सत्व का निर्माण होता है यही सत्व, बुद्धि का बोधिसत्व कहलाता है। इसी बोधिसत्व की प्राप्ति के लिए बुद्ध ने प्रेरित किया था और इसी बोधिसत्व को बढ़ाने के लिए सर्दी के मौसम में हम तेलीय वसा से बनी मिठाईयाँ खाते हैं। सर्दी में हमारे शरीर की पाचन क्रिया भी तेज़ हो जाती है। इसी बोधिसत्व के लिए बुद्धि के देवता गणेश की पूजा-अर्चना की जाती है।
सर्दी में कफ का प्रकोप होता है जो सत्व का विकार है। लेकिन सर्दी आने के पूर्व ही यदि मोदक का सेवन कर लिया जाये तो कफ जनित बीमारियों के प्रति शरीर में रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।
गणेश चतुर्थी का त्यौहार दस बारह दिनों तक चलता है। इन दस-बारह दिनों में गणेश के मोदक का भोग लगाया जाता है तत्पश्चात् भक्त उसको प्रसाद के रूप में श्रद्धा भाव से ग्रहण करते हैं। यहाँ वाक्य की भाषा पर ध्यान दें कि भोग तो देवता के लगाया जाता है और प्रसाद भक्त ग्रहण करता है। तात्पर्य है कि यह आहार भोग के रूप में नहीं बल्कि सन्तुलित मात्रा में लिया जाना चाहिये। स्वाद के लालच में नहीं स्वास्थ्य के हेतु लिया जाये। जो इस प्रसाद को लेता है उसे पुण्य प्राप्त होता है अर्थात् शरीर में पुण्य का संचय होता है और जो इन देवताओं का प्रसाद नहीं लेता उसे पाप लगता है अर्थात् वह अस्वस्थ, बीमार हो सकता है। प्रसाद लेने पर गुण बढ़ता है और विकार से लड़ने की शक्ति यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है जबकि प्रसाद नहीं लेने से वर्षा काल में पैदा हुआ अतिरिक्त पित्त शरीर में विकार[पाप] पैदा करेगा।
    गणेश का वाहन मूषक है जो धान के गोदामों में रहना पसंद करता है और कहने की आवश्यकता नहीं है कि जहाँ धन-धान्य है वहाँ रिद्धि-सिद्धि [समृद्धि] है।

42. वैष्णव सम्प्रदाय या वैश्यधर्म !


     वैष्णव सम्प्रदाय वैश्य वर्ग के विकल्प के रूप में तथा वैश्य वर्ग के धर्म के रूप में आरम्भ किया गया। 
छठी शताब्दी से पूर्व में गुप्तकाल में जब शासक भी वैश्य और बौद्ध-जैन (विशेषकर जैन) वैष्य वर्ग, जो ब्याज और वाणिज्य का काम करता था, वह धन लोलुप और आर्थिक शोषण करने वाला हो गया था, तब वैष्णव सम्प्रदाय का विकास वैश्य वर्ग के विकल्प के रूप में किया गया था। बौद्ध-जैन की चैत्यालय-जिनालय की व्यवस्थाऐं अपना मूल स्वरूप खो चुकी थीं और बौद्ध-जैन वैश्य वर्ग के केन्द्र मन्दिरों का रूप ले चुके थे, जिनमें प्रतिमाऐं स्थापित होती थीं (वर्तमान की ही तरह) और उनमें व्यभिचार होता था अर्थात् वे नर्सरी के स्थान पर स्त्री वैश्यालय और पुरूष वैश्यालय का रूप ले चुके थे जहाँ भोग के सारे सामान उपलब्ध थे। वातावरण को उत्तेजक बनाने के लिए सम्भोगरत प्रतिमाऐं दीवारों पर कुरेद दी गईं। संयम की परीक्षा के नाम पर इनकी मान्यताऐं स्थापित की गईं। स्थिति ऐसी हो गई थी कि विवाह और परिवार पद्धति समाप्त प्रायः हो गई थी। एक तरफ धनाढ्य जैनियों-बौद्धों के भवनों में बड़ी संख्या में सेविकाऐं रखी जातीं दूसरी तरफ एक बड़ा पुरूष वर्ग भिक्षुक बन गया था। भिक्षुक को भिक्षा तभी मिलती जब वह इन मन्दिरों में रहकर संयम की परीक्षा में खरे उतरते।
जब ब्राह्मण गवर्नमेण्ट की स्थापना का आन्दोलन चला तो बौद्ध-जैन सम्प्रदायों के भिक्षुओं और हस्त उद्योगों से जुड़े श्रमिकों की समस्याओं को लेकर एक तीर से तीन निशाने साधे गये।
    1. जहाँ-जहाँ श्रमिकों की सघन बस्तियाँ थीं वहाँ के प्रदूषित वातावरण से उन्हें हटाना था।
    2. उनके स्वास्थ को ठीक करना था और
    3. उन्हें कृषि-पशुपालन की मुख्यधारा में लाना था।
इसके लिए नई वैष्णव बस्तियाँ बसाई गईं जिनके बीच में वैष्णव मन्दिर बनाये गये। इससे पहले सनातन-धर्म में प्रतिमाओं की पूजा का प्रचलन नहीं था। वैष्णव मन्दिरों में अनेक देवी-देवताओं के अलग-अलग मन्दिर बनाये गये । 
ये मन्दिर ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के मुख्यालय थे, जिनकी अर्थ-व्यवस्था को चलाने के लिए आय के दो मार्ग थे। एक तो उनके स्वामित्व में बड़े-बड़े चारागाह बनाये गये जिनमें गौपालन होता था अतः इनका एक उपनाम गोस्वामी भी था। इन गायों का दुग्ध इनकी पौष्टिक आहार की आपूर्ति का माध्यम था। दूसरा आय का माध्यम दान था। प्रत्येक ग्रामीण अपने उत्पादन एवं निर्माण का पहला और सर्वोत्तम गुणवत्ता  वाला भाग मन्दिर में चढ़ाता था। 
इन मन्दिरों के माध्यम से चार कार्य होते थे -
     1. निःशुल्क विद्यादान [गृह उद्योग निर्माण या कहें हस्तकला Handicraft सम्बन्धी ]
     2. निःशुल्क भोजन
     3. निःशुल्क मनोचिकित्सा (भजन-कीर्तन-गायन संगीत)
     4. निःशुल्क कायचिकित्सा
      प्रत्येक मन्दिर में तैतीस करोड़ देवी-देवताओं में से किसी न किसी एक देवी या देवता की अथवा  कृष्ण बलराम की प्रतिमा होती थी। लेकिन पति-पत्नी तो सिर्फ शंकर-पार्वती ही होते थे। जो शैव सम्प्रदाय के महादेवता थे। राम एवं सीता के मन्दिर कहीं नहीं थे ये सभी मन्दिर गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित्-मानस से लेखन-प्रकाशन के बाद बने हैं । राम एवं सीता चुंकि साम्राज्य के आदर्श हैं अतः ये राजपूतों तक सीमित थे, बाद में शक्ति की उपासना के नाम पर जब बलि-प्रथा चली तो राम एवं सीता भी कोने में हो गये। 
     वैष्णव मन्दिर का विशिष्ट देवता उस जाति विशेष का देवता होता था, जिस जाति के विशेष जॉब की विद्याऐं, निर्माण-उत्पादन की टेक्नोलोजी विद्यार्थी सीखता था। प्रत्येक देवता का प्रसाद शरीर के उस विशेष अंग को पुष्ट करने वाला होता था, जो उस जाति विशेष को आवश्यकता होती थी इसलिए प्रत्येक देवता का भोग (परसाद-भोजन) भी अलग-अलग होता था अर्थात् उस मन्दिर के लंगर में आयुर्वेदिक नियमानुसार वह भोजन बनता था जो उस जाति के अनुकूल होता था । 
    इसी तरह से उस देवता को जो कि शरीर में होता है और वह व्यक्ति में विशेष चारित्रिक गुणधर्मिता, आचरण, शारीरिक-मानसिक-बल पैदा करता है उस देवता को उसकी स्तुति करके उसे प्रसन्न किया जाता था ताकि वह उस जाति के लोगों पर कृपा करे और उन्हें भी अपने जैसा बनाये अर्थात् वह देवता उस जातिविशेष के लोगों का आदर्श होता था अर्थात वे उस देवता के आचरण को अपने आचरण में स्थापित करने का प्रयास करते, यह स्तुति आरतियों और भजनों के माध्यम से होती थी।
    शिक्षा, भोजन और भजन-कीर्तन द्वारा मनोरंजन और मानसिक चिकित्सा के बाद भी यदि बीमार हो जाता तो उस व्यक्ति के लिए उन मन्दिरों में निःशुल्क चिकित्सा की व्यवस्था भी रहती थी। 
   अब जब चिकित्सक वर्ग निःशुल्क चिकित्सा करेगा तो स्वाभाविक है वह कामार्थ[कॉमर्शियल] भावना से चिकित्सा नहीं करेगा कि लोग अधिक से अधिक बीमार हो और उनकी प्रेक्टिस अच्छी चले। अतः चिकित्सक वर्ग चाहता था कि लोग कम से कम बीमार हों। 
     विशेष चिकित्सा तो विशेष जॉब से जुड़ी जाति की विशेष बीमारी से सम्बन्ध रखती है लेकिन भारत में तीन मौसम और छः ऋतुओं के परिवर्तन से होने वाली बीमारी सभी वर्गों को समान रूप में चपेट में लेती है अतः इस समस्या के समाधान के लिए पूर्व में सावधान Precautionary चिकित्सा पद्धति का उपयोग होता था।
     प्रत्येक देवता का एक जन्म दिन मनाया जाता था। व्यक्तिगत जन्म दिन मनाने का प्रावधान नहीं था।यहाँ तक कि जन्म दिन याद रखके आयु गिनने को भी बुरा माना जाता था लेकिन अजर-अमर देवताओं का जन्म दिन मनाया जाता था जो कि सामुहिक मनाया जाता था। जन्म-दिन उस विशेष देवता के मन्दिर या देवालय में ही नहीं मनाया जाता था बल्कि सभी मन्दिरों में मनाया जाता था और उस देवता को एक विशेष प्रसाद चढ़ाया जाता था जो सभी मंदिरों में समान रूप से वितरित किया जाता था। यह प्रसाद आने वाले मौसम परिवर्तन में होने वाली बीमारियों की अग्रिम रोकथाम के लिए दिया जाने वाला औषधीय योग होता था; जो अंग को पुष्ट करके उसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करता और गुणों में वृद्धि करता और विकार को बाहर निकालता था। ये कुल तैतीस देवी-देवता होते हैं जो करोड़ों ऊत्तकीय कोशिकाओं में विभाजित होते हैं अतः तैतीस करोड़ देवी देवता कहे गये हैं। क्या हम अब भी यह सब मंदिरों के माध्यम से नहीं कर सकते या इसके लिए भी सरकार या प्रशासन का मुंह देखने की आवश्यकता है !

41. ब्राह्मण सत्ता का उत्थान पतन !


यह व्यवस्था छठी शताब्दी के समाप्त होने और सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ होने तक स्थापित हो चुकी थी और तेरहवीं शताब्दी तक न सिर्फ बिना किसी अवरोध के चलती रही बल्कि अपने लक्ष्यों को विस्तार भी देती रही। लेकिन पृथ्वीराज चौहान के मोहम्मद गौरी से हारने के बाद विश्व में यह सन्देश गया कि भारत की सीमा अब उतनी सुदृढ़ नहीं रही। तब भारत की इस सांस्कृतिक व्यवस्था पर तीन तरफ से हमले होने लगे।
एक तो स्थल मार्ग से होने वाले हमले थे, जिनमें पश्चिम एवं मध्य एशिया से होने वाले मुस्लिम जातियों के हमले थे। दूसरे समुद्र मार्ग से होने वाले हमले थे। समुद्र मार्ग से होने वाले हमलों में हमलावर जातियाँ लड़ाकू और व्यापारिक जातियाँ तो थीं ही साथ ही साथ बड़ी संख्या में शरण लेने वाली जातियाँ भी थीं; जो लम्बे समय से आती रही हैं। इन सभी जातियों की विशेषतायें थीं कि ये भारत के स्थाई निवासी होते गये जबकि स्थल मार्ग से आने वाली जातियाँ कुछ दिन शासन करके पुनः अपने देशों में चली जाती थीं क्योंकि वे प्रशासक और शासक लोग नहीं थे अतः उनको शासन-प्रशासन की ज़िम्मेदारी निभाने से अच्छा यही लगता अतः वे सोना लूट कर ले जाते। इन दो कारणों से भारतीय जातियाँ विस्थापित होने लगी।
इस विस्थापन का एक तीसरा कारण जो था वह भारत के अन्दर का हमला था। आपने यह एक मानसिकता बना ली है कि किसानों पर या अन्य प्रजा पर राजाओं ने अत्याचार किये, लेकिन ये अत्याचार तो सोलहवीं शताब्दी के बाद धीरे-धीरे होने लगे थे, जो अठारहवीं शताब्दी तक अपनी पराकाष्ठा तक पहुँचे।
   जबकि उससे पूर्व तो यह स्थिति थी कि राजा लोग अपनी प्रजा से डरते थे क्योंकि यदि उनके प्रशासन में कमी होती तो आम जनता वहाँ से विस्थापित होकर अन्य राज्यों में स्थापित हो जाती थी। अब यदि राज्य शासन उन्हें अपने राज्य की सीमा से बाहर जाने से रोकता तो उनके पास एक बहाना, एक विकल्प था और वह यह कि वे तीर्थाटन के नाम पर निकल जाते थे और पुनः नहीं आते थे। मार्ग में पड़ने वाले राज्य में स्थापित हो जाते थे।
इन तीनों कारणों से होने वाले विस्थापन से विशेष कुछ फ़र्क नहीं पड़ा जिसे हम भारत की सांस्कृतिक व्यवस्था का नुकसान कहें। सिर्फ इतना फ़र्क पड़ा कि शिक्षा व्यवस्था गड़बड़ा गई क्योंकि नई जगह स्थापित होने में एक पीढ़ी तो लग ही जाती है और उस समय शिक्षक वर्ग अर्थात् ब्राह्मण वर्ग की अगली पीढ़ी तैयार होने से वंचित रह जाती परिणाम यह हुआ कि उनकी अयोग्य सन्तानें भी ब्राह्मण नाम से स्थापित होने लगीं।
इससे भी ज्यादा नुक़सानदायक बात यह रही कि विस्थापन से होने वाले भौगोलिक वातावरण के परिवर्तन और संक्रमण से बाल मृत्युदर अचानक बढ़ गई। अतः एक तरफ ब्राह्मणों की सन्तानें शिक्षा से वंचित रहने लगीं, दूसरी तरफ वे अधिक संख्या में सन्तान पैदा करने लगे कि कोई मरेगा तो कोई तो बचेगा। 
इससे भी ऐसा कुछ नुकसान नहीं हुआ जो स्थाई नुकसान कहलाता लेकिन 1857 के बाद जब यूरोपियन कम्पनियों को हटाकर ब्रिटेन ने अपनी सीधी सत्ता स्थापित की, तब उसने एक चाल चली कि भारत का ब्रेन कैसे खत्म किया जाये और उन्होने भारतीयों को ब्रिटेन में शिक्षा लेकर भारत में नागरिक प्रशासन के लिए प्रशासक बनने का प्रलोभन दिया और भारत के ब्रेन को अपने प्रभाव में लेना शुरू किया। 
इसके विरोध में बुजु़र्ग ब्राह्मणों ने नियम भी बनाये कि जो कोई समुद्रपार करके जायेगा, तो वापस आने पर उसे ब्राह्मण जाति से निष्कासित कर दिया जायेगा फिर भी नव-युवाओं का आकर्षण कम नहीं हुआ और भारत के ब्रेन को साईकोथेरेपी करके अंग्रेज़ी ब्रेन में बदल दिया गया और तब एक नवबौद्धिक वर्ग पैदा हुआ जिसने अपनी संस्कृति के पैरों पर कुल्हाड़ियाँ चलानी शुरू कर दी।
तथाकथित आजादी के बाद तो कुछ ऐसी उच्छ्रंखलता फैली कि ब्राह्मण का अभिप्राय कर्म-काण्ड, पूजा- पाठ, मूर्ति-पूजा, ज्योतिष इत्यादि का काम करने वालों से हो गया है। ब्राह्मण शब्द पर पण्डे-पुजारियों ने अतिक्रमण कर लिया है। आज यदि किसी को कहा जाये कि ब्राह्मण का अर्थ अध्यापक या शिक्षक होता है तो उन्हें अटपटे के साथ-साथ आश्चर्यजनक भी लगता है। 
      ब्राह्मण शब्द के आगे सम्प्रदाय नहीं लगता बल्कि परम्परा शब्द का उपयोग होता है। ब्राह्मण परम्परा का अर्थ है शिक्षित-संस्कारित करना। कर्तव्य एवं अधिकार दोनों बताना। ब्राह्मण शब्द के आगे सभ्यता भी नहीं लगता क्योंकि ब्राह्मण संस्कृति है। कुलीन ब्राह्मण जो अपनी संतान का खु़द ही शिक्षक होता है अर्थात् जो सन्तान परम्परा और शिष्य परम्परा दोनों परम्पराओं की पुत्र परम्परा की पालना करने की पात्रता रखता है, उन्हें विप्र ब्राह्मण कहा जाता है। वहीँ जो सन्तान किसी अन्य की लेकिन शिष्य किसी अन्य का वह द्विज माना जाता है।
ब्राह्मण चाहे विप्र हो या द्विज वह प्रतिमा की पूजा-उपासना नहीं करता, सूर्य की उपासना करता है। मंत्र रूप में सिर्फ ब्रह्म गायत्री का मानसिक जप करता है, मंत्र का उच्चारण नहीं करता बल्कि कल्पना में सूर्य से प्रार्थना करता है या कहता है कि -
ऊँ भू भुव स्वः तत् सवितुः वरेण्यम् भर्गो देवस्य धी मही धियो योनः प्रचोदयात्...
ऊँ आकार की भू (भौतिक देह) रूपी भुवन में स्वः संचालित/प्रकाशित यज्ञ में माध्यम से तत् (वह तत्व) जो सवितुः (सविता/फोटोन/प्रकाषकणों) से पैदा हुए वरेण्यम् (वर्णों, रंगो का वरण करके) भर्गो देवस्य (देव योनी के मनुष्य) की धी (बुद्धि) में मही (वसा एवं शर्करा युक्त सत्व) के माध्यम से धियो (बोध/सेन्स पैदा करने की सामर्थ भरता है) वह योनः (मुझे भी देवयोनी) को प्रचोद (बलपूर्वक दबाव डाल कर) यात् प्राप्त करवाये।
अर्थात वह जो स्व प्रकाशित है,जो सभी योनियों में वर्णों का, चेतना का, बुद्धि में सत्व का जनक और विस्तार करने वाला है वह ॐ आकार की मेरी भौतिक देह में भी बलपूर्वक इनका विस्तार करे।
शिक्षा का सम्बन्ध बौद्धिक विकास से होता है। आचरण के विकास से होता है। ज्ञान एवं विद्या के विकास से होता है। एक ऐसे वर्ग के विकास से होता है जो सर्वहारा वर्ग के जीवन की समस्याओं को सुलझाये और जब समाज में विषमताऐं नामक समस्या नहीं रहे तो सर्वहारा वर्ग के सुखों का विस्तार करे। लेकिन आज शिक्षा भी एक वस्तु हो गई है, जिसका व्यापार किया जाता है। 
शिक्षा का विकास, औद्योगिक-विकास, शहरी-विकास, सरकारी विभागों का विकास, सरकार में आय को बढ़ाने के उपायों का विकास नामक न जाने कितने विकास हो रहे हैं और इसके साथ ही व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन में विषमताओं का विकास और सुख का विनाश तथा परम अर्थ में लें तो सनातन धर्म (प्रकृति जनित पारिस्थितिकी ) का विनाश और अनावश्यक संघर्ष का विकास हो रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करें कि व्यवस्थाऐं कैसी-कैसी थीं और उनकी क्या स्थिति है।  इसे साम्प्रदायिकता नामक पूर्वाग्रह से मुक्त होकर समझने की चेष्टा करें। क्योंकि इन शब्दों के साथ ही एक पूर्वाग्रह जुड़ गया है लेकिन जो शब्द और विषय हैं इनसे द्वैष करने से काम नहीं चलेगा। इन्हें समझना आवश्यक है कि जब ये व्यवस्थाएँ बनी थीं तब इन व्यवस्थाओं के मूल में क्या था; और आज क्या है ?

40. ब्राह्मण गवर्नमेंट का ढांचा !


      भारत की सांस्कृतिक जीवन शैली के पतन का एक मात्र कारण रहा है कि ब्राह्मण की पहचान आचरण से नहीं होकर वंशानुगत जाति के रूप से होने  लगी। यह ठीक ऐसा ही है जैसे कि एक अध्यापक के निरक्षर चरित्रहीन अनपढ़ गंवार और असंस्कारित बेटे को भी अध्यापक के रूप में समाज पर थोपा जाए। इस से शिक्षा व्यवस्था का क्या हाल होगा ! वही हाल ब्राह्मण परम्परा का हुआ है। 
    जब आज की तरह के पूंजीपतियों की सत्ता वाले गुप्तकाल का पतन हुआ और प्रशासन का काम अध्यापक,शिक्षक,गुरु,आचार्य इत्यादि ब्राह्मणों के हाथ में देने के लिए प्रशासनिक ढांचा बनाया गया तब वह कुछ इस तरह था।
ब्राह्मण गवर्नमेण्ट का ढाँचा:-
      पंच गौड़ ब्राह्मण -
गौड़ शब्द का अभिप्रायः गुरू होता है यानी गुरु का पर्यायवाची शब्द है। 
    आदि-गौड़ के दो तात्पर्य निकलते हैं। एक तो यह कि आदिकाल या कल्प के आदि से या सभ्यता-संस्कृति के आदि (प्रारम्भ) से ही गुरू हैं। 
आदि का दूसरा तात्पर्य जीवनकाल के आदि से अर्थात् बचपन से या प्रारम्भिक शिक्षा से है।
आदि-गौड़ ब्राह्मण जाति सभी ब्राह्मणों की गुरू के रूप में प्रतिष्ठित की गई। जानकारी या शिक्षा के सभी विषयों की मूल (जड़) या नींव दो ही विषय होते हैं- 1.भाषा  2.गणित।  इसके बाद के सभी उनकी मुट्ठी में आ जाते हैं।
आदि-गौड़ ब्राह्मण प्रत्येक जातीय वर्ग या सम्प्रदाय के व्यक्ति के प्रारम्भिक या प्राथमिक शिक्षा के शिक्षक थे जो भाषा और गणित के आधारभूत तथ्यों को स्पष्ट करते थे। इस दरमियान वे शिष्य की रूचि और प्रतिभा का आंकलन भी कर लेते थे और फिर से आगे की शिक्षा के परिप्रेक्ष में मार्ग दर्शन भी करते थे। 
ये अपनी जीवन-शैली में अपरिग्रह और पवित्रता का ध्यान रखते थे। इनका आवास ही गुरूकुल होता था। जोड़ा धोती रखने के अलावा कुछ नहीं रखते थे यही स्थिति उनकी पत्नी की होती थी। महिला की धोती (साड़ी) आकार में लम्बी होती थी ताकि देह का उपरी भाग भी ढका जा सके, लेकिन वे एक वस्त्र को धारण करते थे। 
    इस तरह ये एकात्म परम्परा की पालना करते थे अतः अनेक गाँवों के मध्य किसी एक गांव के उत्तर पूर्व में ऊंचे भू-भाग पर एकान्त स्थान पर अपना आवास बनाते थे। एक पत्नी और एक सन्तान परम्परा का निर्वाह करते थे।
अपनी सन्तान को चार वर्ष की आयु तक की आचरण की शिक्षा माँ देती फिर अधिकतम बारह वर्ष की आयु तक वह पिता के संरक्षण में रहता था। उसके बाद वह स्वतन्त्र और आत्म-निर्भर हो जाता था और स्वाध्याय करने लग जाता था।
    इनके नीचे चार गौड़-ब्राह्मण स्थापित किये गये जिनके शिक्षा के विषय निर्धारित थे जो वैदिक विषय थे। 
       1. वनस्पति शास्त्र यानी वनौषधीय पौधों के गुणधर्मों की जानकारी के साथ-साथ कृषिविज्ञान  सम्बन्धी साहित्य (शास्त्र)  इनके पास होते थे। वैद्य और पुरोहितों के काम आने वाले शास्त्रीय साहित्य का ये संरक्षण संवर्धन करते थे। ये ऋग्वेदीय ब्राह्मण कहलाये।
       2. प्राणी शास्त्र यानी वैटरनरी डाक्टर अर्थात पशु चिकित्सा से जुड़े सभी वैज्ञानिक-साहित्य यानी शास्त्र इनके पास होते थे। जिसमें गाय की नस्लों के साथ सभी पालतू और जंगली पशुओं का साहित्य इनके संरक्षण में था। ये सन्तति विस्तार विज्ञान से जुड़े होने के कारण ये यजुर्वेदीय ब्राह्मण कहलाये।
       3. सामवेदीय शास्त्र अर्थात् नृत्य,संगीत,भजन-कीर्तन से मानव मनोविज्ञान के साथ-साथ जीव-नस्लों पर होने वाले प्रभाव का साहित्य इनके पास था । ज्योतिष,हस्तरेखा,स्वप्न विज्ञान इत्यादि प्रत्येक वह साहित्य जो मनोविज्ञान से सम्बन्ध रखता था उसका संरक्षण सवंर्धन यही करते थे।
       4. अर्थशास्त्र से लेकर शस्त्र निर्माण से जुड़ा पूरा अथर्ववेद साहित्य इनके पास था ।
इन सब के अलावा एक विषेष महत्वपूर्ण विषय था, वन संरक्षण और मानसून से जुड़े विषय, भूगोल और पर्यावरण यानी सनातन धर्म का केन्द्रीय विषय, इनके संरक्षण में था लेकिन इसमें साहित्य बहुत कम या नहीं के बराबर था। योग (प्रेक्टिकल) का विषय अधिक था । जिसे आप गोंड आदिवासियों का विषय भी कह सकते हैं। यह परशुराम परम्परा के ब्राह्मणों का विषय था।
पंच गौड़ों की व्यवस्था जैसी ही पंच द्रविड़ों की व्यवस्था थी। इन दोनों को अलग-अलग इसलिए किया गया कि इन दोनों की संस्कृत के उच्चारण में अन्तर था। गौड़ों की संस्कृत शुक्लवेदीय कही गई। द्रविड़ों की संस्कृत कृष्णवेदीय कही गई।  इसके बाद आर्थिक विषय आ जाता है।  पंचगौड़ गौपालन के अर्थशास्त्र पर चलते थे जबकि द्रविड़ संस्कृति का अर्थशास्त्र द्रव[समुद्री जल] में पैदा होने वाले आहार और रत्नों पर आश्रित था।
ये पाँच-पाँच ब्राह्मण जातियाँ गुरूकुल चलाती थीं। इन गुरूकुलों में एक समान शिक्षा पद्धतियाँ थीं। आदि गौडों के गुरूकुलों में पुस्तकें यानी शास्त्र नहीं होते थे। क्योंकि ये अपरिग्रही के साथ-साथ स्मृति परम्परा से जुड़े थे अतः उन्हें लिखित साहित्य की आवश्यकता नहीं थी। बाक़ी गौड़ों के गुरूकुलों की व्यवस्था जैसी थी उससे मिलती-जुलती ही व्यवस्था को पुनः शुरू करने की कल्पना नई बनने वाली शिक्षा परीक्षा पद्धति में कर रहा हूँ।
गुरूकुल एक विशाल पुस्तकालय होता था, जिसमें पुरानी पाण्डुलिपियाँ भी होती थी और नई पाण्डुलिपियाँ भी तैयार होती थीं। प्रत्येक गुरूकुल में सिर्फ एक शिक्षक होता था बाकी सभी जूनियर छात्र अपने सीनियर से पढ़ते थे। इसमें रटन्त विद्या नहीं थी, स्वाध्याय करके प्रयोग पर आधारित रह कर संयम की परीक्षा में खरे उतरना ही विद्यार्थियों के स्तर का आंकलन या मापदण्ड होता था। 
जब ब्राह्मण गवर्नमेण्ट की स्थापना हुई तो साथ ही साथ जातीय धर्म की भी हुई। गुरुकुल, जो देवालय भी थे, में जो शिक्षा ग्रहण की जाती थी वह अपनी-अपनी जाति के जॉब से जुड़ी व्यावहारिक, प्रायोगिक, Practical, Experimental, उपयोगी, Workable, Useful, Applied होती थी; आज की तरह बछड़े को गधा बनाने जैसी नहीं थी। 
आदि गौड़ ब्राह्मणों के छोटे-छोटे गुरूकुल ग्रामीण क्षेत्रों में सर्वत्र अनगिनत संख्या में फैले थे जहाँ किसी भी जाति का बालक भाषा और गणित की शिक्षा ले सकता था। फिर उसमें योग्यता होती तो वह अपनी जाति के जॉब से जुड़ा एक शास्त्र स्वयं तैयार करता था जिसके लिए वह अन्य चारों गुरूकुलों में जा सकता था। यह बालक युवा होते-होते अपनी जाति का ब्राह्मण घोषित कर दिया जाता था। वह अपनी जाति के जॉब  से जुड़ी सभी समस्याओं का समाधान, निर्माण उत्पादन की विधियों से लेकर अपनी जाति में होने वाली आधि-व्याधि यानी मानसिक शारीरिक बीमारियों का जानकार भी हो जाता था।
इस व्यवस्था में एक नियम था कि उसकी सन्तान योग्य होने पर ही ब्राह्मण पद पर प्रतिष्ठित होती थी अन्यथा वह पुनः अपनी जाति का साधारण व्यक्ति हो जाता था और शिक्षक के स्थान पर निर्माण एवं उत्पादन में लग जाता था।
इस व्यवस्था में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यही था कि जो भी बालक नवयुवा होने तक आत्मसंयम योग पर योगारूढ़ हो जाता वही ब्राह्मण पद पर प्रतिष्ठित हो सकता था वर्ना नहीं। वैसे अधिकांशतः गुरुकुल में रहने और सत्व प्रधान आहार लेने तथा निष्काम कर्म में लगे रहने से वह योगारूढ़ हो ही जाता था।
    आत्म-संयम पर योगारूढ़ होना इसलिए आवश्यक था ताकि उसमें समभाव पैदा हो जाये। अपनी सन्तान के प्रति मोहग्रस्त न हो और अपने जातीय-कुटुम्ब की समस्याओं को स्वार्थ जनित दृष्टिकोण से नहीं देखे; उसमें परमार्थ जनित दृष्टिकोण पैदा हो जाये। प्रत्येक व्यक्ति की समस्या को समुदाय की समस्या  समझे।
चारों गौड़ों तथा अन्य सभी ब्राह्मणों को जब भी किसी समस्या से सामना करना करना पड़ता या जब वो शास्त्रीय भाषा को नहीं समझ पाते या शब्द ब्रह्म का अर्थ स्पष्ट नहीं होता तो वे आदि गौड़ ब्राह्मण के पास जाते जो कि निकट ही कहीं न कहीं मिल ही जाते थे।
आदि गौड़ ब्राह्मणों के सिवाय सभी ब्राह्मण जब तक आत्म-संयम योग के लिए समाधि की अवस्था को प्राप्त नहीं हो जाते, तब तक तो ब्रह्मचर्य का पालन करते थे, लेकिन बाद में एक पत्नी धर्म की पालना करना उनके लिए कठोर नियम नहीं था क्योंकि कोई भी नारी एक अच्छी सन्तान के लिए उनसे आग्रह कर सकती थी और उनका यह धर्म होता था कि वे उसके आग्रह को स्वीकार करें और उसके गर्भ से अपनी संतान पैदा करें यानी पुत्र दान करें। यह प्रथा इसलिए बनाई गई ताकि नस्ल-सुधार का कार्यक्रम भी समानान्तर चलता रहे क्योंकि गुप्त शासन काल में नगरों में रहने, पौष्टिक-आहार की कमी से और व्यभिचार के कारण मानव नस्ल भी कमज़ोर हो गई थी जबकि इस नव-निर्मित सभ्यता-संस्कृति में सभी वर्गों को ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था में स्थापित करना था जहाँ वे दुर्बल साबित हो रहे थे। दूसरा तथ्य यह भी था कि उस समय स्त्री-पुरूष का अनुपात भी बिगड़ गया था। पुरूषों की संख्या भी कम हो गई थी ओर उनमें नपुंसकता भी आ गई थी। { यदि इसी तरह से शहरीकरण होता रहा तो यह समस्या निकट भविष्य में पुनः आने वाली है।} 
ये सभी ब्राह्मण जातियाँ जो अपनी जाति के गुरू के रूप में विकसित हुई थीं; द्विज कहलाती थीं। अर्थात् वे पहली बार सन्तान के रूप में पुत्र माता-पिता के पुत्र होते थे और फिर ये गुरूकुल में जाकर शिष्य पुत्र के रूप में दुबारा जन्म लेते थे तब यज्ञोपवीत संस्कार होता था।
     इस व्यवस्था का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि किसी भी कारण से यदि कोई युवक-युवती अपना जाति-धर्म बदलना चाहता तो बदल सकता था। जैसे अलग-अलग जाति के युवा में प्रेम हो गया अथवा अपना रोजगार अप्रिय लगा अथवा एक विषय के रोजगार सृजन के अनुपात में संख्या बढ़ गई और किसी अन्य में इसके विपरीत हो गया तो जाति धर्म बदला जा सकता था लेकिन एक सरत शर्त के साथ कि उनको आहार,वेशभूषा और जीवन शैली [दैनिकचर्या] भी बदलनी पड़ती थी।
    अब आप इस जाति व्यवस्था की इसके आज के खण्डहर से तुलना कर सकते हैं।
    यह व्यवस्था छठी शताब्दी के समाप्त होने और सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ होने तक स्थापित हो चुकी थी और तेरहवीं शताब्दी तक न सिर्फ बिना किसी अवरोध के चलती रही बल्कि अपने लक्ष्यों को विस्तार भी देती रही। लेकिन पृथ्वीराज चैहान के मोहम्मद गौरी से हारने के बाद विश्व में यह सन्देश गया कि भारत की सीमा अब उतनी सुदृढ़ नहीं रही। तब भारत की इस सांस्कृतिक व्यवस्था पर तीन तरफ से हमले होने लगे।