vivarn

Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.



कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।

Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made ​​by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

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सोमवार, 30 जुलाई 2012

33. ब्रह्म vs ईश्वर

      ब्रह्म को लेटिन में ब्रेन कहा गया है लेकिन इसका हिन्दी में शब्दार्थ बनता है चेतना। इसको विज्ञान की भाषा में समझना चाहे तो यह एक चुम्बकीय बल रेखाओं का क्षेत्र है।
सदैव जागृत रहकर गतिशील रहने वाले जगत की प्रत्येक जीवित कोशिका Cell  में एक विशिष्ट चुम्बकीय बल रेखाओं वाला क्षेत्र होता है। उसी चुम्बकीय क्षेत्र या बल-रेखाओं को पहचान कर एक ही जाति-प्रजाति की कोशिकाएं एक समूह में इकट्ठी होती हैं। कोशिकाओं के उस समूह को ऊत्तक[Tissue] कहा जाता है। उस Tissue की चुम्बकीय बल रेखाऐं उसी अनुपात में अधिक बल[फोर्स] पैदा करती है। क्योंकि यह अपना क्षेत्र बनाकर उसमें स्थिर-स्थित रहकर स्पन्दन करती रहती हैं वही स्पन्दन उसका बल[फोर्स] कहलाता है।
यही बल-रेखाऐं आपस में धक्का-मुक्की करके यह निर्णय करती है कि किस अंग[Organ] का विस्तार कितना करना है और इसके विस्तार की सीमा रेखा क्या होनी चाहिये ताकि देह की संरचना (डिजाईन) वैसी ही बन जाये, जैसी उस जीव प्रजाति की देह परम्परा से चली आ रही है । देह की इस डिजाइन का अंकन (प्रिण्ट) वंशानुगत,आनुवंशिक गुणसूत्रों [genetic-code] में रहता है । 
ब्रह्म द्वारा संचालित इस प्रक्रिया (रासायनिक क्रिया) को अधियज्ञ कहा गया है। इस अधियज्ञ क्रिया में असंख्य परमाणु योग (Composition,combination) और भोग ( decomposition) की प्रक्रिया से गुजरते हैं अधिक विस्तार में न जाकर सिर्फ इतना ही समझना पर्याप्त है कि इस उठा-पटक में अणुओं-परमाणुओं को अनुशासित रखने का कार्यभार ईश्वर सम्भालता है जिसका अपभ्रंष उच्चारण लेटिन में ईथर हो जाता है अर्थात् ब्रह्म की कल्पना को ईश्वर साकार,आकारसहित बनाता है । 
प्रत्येक जीव कोशिका या जीव कोशिकाओं से बने देह,अंग,ऊत्तक [Tissue] रूपी पिण्ड की चुम्बकीय बल रेखाओं को बल देने वाला परम्ब्रह्म वह विशाल चुम्बकीय क्षेत्र है, जो सम्पूर्ण सृष्टि में फैला है। उस ब्रह्म की व्याख्या या चरित्र-चित्रण या परिभाषा जो कही गई है उसे चुम्बकीय क्षेत्र के चरित्र यानी गुणधर्मिता के समकक्ष रख कर समझने का प्रयास करे । 
'वह परम-गति वाला सभी के अन्दर सभी के बाहर सब से अन्तःस्थ तथा सब से दूरस्थ, समान भाव से सर्वत्र व्याप्त, सर्वत्र स्थिर-स्थित एक ही है फिर भी उसकी विशेषता यह है कि वह सब में विशिष्ट दृष्टिगोचर होता है'। (अर्थात् देखने में सब में विषिष्ट या असमान लगता है) 
    समझने का रोचक बिंदु यह है कि ब्रह्म सर्वत्र एक ही चुम्बकीय बल रेखाओं,परमगति वाला एक ही है लेकिन सभी में विशिष्टता देने वाला,वर्गीकृत करने वाला और जीवकोशिका को,जीव को,जीव के आत्मभाव [आत्मा] को अलग-अलग स्वतन्त्र,स्वाधीन,आत्म नियंत्रित रहने का बल देने वाला और अमरता देने वाला है. लेकिन फिर भी वह एक ही है 'एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति'।
     जब कि ईश्वर का मामला इससे विपरीत है.ईश्वर प्रतेक मूर्ति [मूर्त रूप] का, देह का अलग-अलग होता है क्योंकि प्रतेक संरचना के अणु परमाणु को अनुशासित रख कर उसके अस्तित्व को पूर्णता देता है। ईश्वर के कारण ही यह वह सब पूर्ण है अतः 'जीवो जीवस्य भोजनम्' मे भोजन,भोग भी वही है और भोग् कर्ता,भोक्ता भी वही है.अतः प्रतेक जीव-संरचना को अलग अलग संरक्षण देने वाला,अलग अलग ऐश्वर्य देने वाला और अलग अलग अस्तित्व बना कर उस अस्तित्व की अलग अलग रक्षा करने वाला ईश्वर सर्वत्र अलग अलग, ऊर्जा के बण्डल के रूप मे अलग अलग इकाई Unit मे बन्टा हुआ है फ़िर् भी सभी जीव पिण्डों के साथ एक समान सम भाव में रहता है कही भी विशिष्ट व्यवहार नहीं करता।
       इस तरह ईश्वर सभी का अपना होता है फिर भी एक समान गुणधर्मिता को धारण किये रहता है जबकि ब्रह्म एक ही है इकाइयों में बँटा हुआ नहीं है फिर भी ईश्वर निर्मित प्रतेक इकाई को विशिष्ट चेतना दे कर सभी को विशिष्ट बनाता है।      
इस को एक शब्द में भी परिभाषित किया गया है जो शब्द है ‘‘वसुघैव-कुटुम्बकम्‘‘ अर्थात् पृथ्वी पर विद्यमान जगत का प्रत्येक जीव ब्रह्म की तंरगों से बँधा एक ही कुटुम्ब, कम्यून, कम्युनिटी का हिस्सा है ।
ब्रह्मपरम्परा का ज्ञान सिर्फ चार सूत्रों में सिमटा हुआ है। 
     सामाजिक पत्रकारिता में इस विषय की विवेचना करने का अभिप्राय यह बताना है कि ब्रह्म की आवश्यकताएँ [शिक्षा,क्रीडा,मनोरंजन]  हमेशा अपनी अपनी मौलिक होती है जो अपने अपने मूल,जड़,root से निकलती है यह जड़ हमारी उर्ध्मूलाकार [The shape of the root upwards] शारीरिक संरचना में ऊपर अपनी-अपनी खोपड़ी में अपनी अपनी मौलिक बन कर पनपती है।
      जबकि ईश्वर निर्मित विभिन्न प्रकार के शरीर नैसर्गिक आवश्यकताएँ [आह़ार निन्द्रा विरेचन] सभी की एक सामान होती है.
       हमें एक ऐसा भारत बनाना है जिसमे सभी को ब्रह्म प्रदत अपनी अपनी मौलिक आवश्कताएँ पूरी करने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता हो, ईश्वर प्रदत नैसर्गिक आवश्यकताएं [आहार,निंद्रा,विरेचन] पूरी करने की सभी को निष्पक्ष एक समान सार्वजनिक सुविधा हों और बेसिक आवश्यकताएँ [आवास,वस्त्र,वाहन] काल-स्थान-परिस्थिति के अनुरूप समसामयिक यथार्थ के अनुरूप पूरी हों।
      यह तभी सम्भव होगा जब आप अप्राकृतिक वर्ग भेद को मिटा कर प्रकृति द्वारा वर्गिकृत स्वभाव के अनुरूप वर्गीकृत व्यवस्था करेंगे।

शनिवार, 28 जुलाई 2012

34. चार ब्रह्म सूत्र



  वह परम-गति वाला सभी के अन्दर सभी के बाहर सब से अन्तःस्थ तथा सब से दूरस्थ, समान भाव से सर्वत्र व्याप्त, सर्वत्र स्थिर-स्थित एक ही है फिर भी उसकी विषेषता यह है कि वह सब में विषिष्ट दृष्टिगोचर होता है । (अर्थात् देखने में सब में विषिष्ट या असमान लगता है) 
इसको शब्द में भी परिभाषित किया गया है जो शब्द है ‘‘वसुघैव कुटुम्बकम्‘‘ अर्थात् पृथ्वी पर विद्यमान जगत का प्रत्येक जीव ब्रह्म की तंरगों से बँधा एक ही कुटुम्ब, कम्यून, कम्युनिटी का हिस्सा है ।
ब्रह्मपरम्परा का ज्ञान सिर्फ चार सूत्रों में सिमटा हुआ है । 

1- ‘‘ब्रह्म जगदोद्भव कारणम्‘‘

ब्रह्म ही जगत के उद्भव का कारण है‘‘
अर्थात् इस निर्जीव सृष्टि में जो जीव-सृष्टि यानी जगत है उसके उद्भव (उपजने, उत्पन्न होकर वृद्धि करने) के पीछे जो कारण और कारक Causes and Factors  है वह ब्रह्म ही है।

2- ब्रह्म-सत्य जगंमित्थ्या 

अर्थात् ब्रह्म जो है वह सत्य है जबकि जगत का यह भौतिक-रूप एक मिथक की तरह बनावटी है । यहाँ जगत से तात्पर्य यदि मानव निर्मित समाज व्यवस्था से हो तो वह तो बनती बिगड़ती रहती है जबकि इस व्यवस्था के बनने बिगड़ने के पीछे ब्रह्म का वह रूप है जिसे हम मनो-विज्ञान के नाम से जानते है । 
एक मुनि-ऋषि यानी मनीषी यानी मनुष्य अपने ब्रेन का उपयोग करके मान्यताऐं, विधि-विधान, संविधान बनाता है जिसे मानव का स्वनिर्मित धर्म कहा गया है वह धर्म जब मान्यता प्राप्त कर लेता है तो फिर एक मानव अपनी मानसिकता उसी तरह की बना लेता है और उस पर चलता रहता है । इसे ब्राह्मण संस्कृति की समाज व्यवस्था कहते हैं। ये मान्यताऐं जब अज्ञान जनित पूर्वाग्रहों का रूप धारण कर लेती हैं तो पुनः कोई मनीषी वर्ग अपने ब्रह्मसत्य का उपयोग करके काल-स्थान परिस्थिति के अनुरूप नई मान्यताऐं बनाता है, नये मिथक गढ़ता है, एक नई मैथोलोजी पनपती है अतः जगत का यह रूप मित्थ्या (बनावटी) अवधारणाओं पर चलता है । जैसे कि अनेक देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के रूप में जो मिथक गढे गये, उनसे भारतीय समाज का अनुशासन बना हुआ था और कमोबेस आज भी है । लेकिन इन सभी मिथको पर भारी पड़ने वाला एक मिथक गढ्ढा गया जिसका नाम करेंसी नोट है । इसे वित्त के नाम से, पुंजी के नाम से जनमानस में स्थापित कर दिया गया है यह सभी मिथको पर भारी पड़ रहा है। 

3- एको ब्रह्म द्वितियो नास्ति ।

ब्रह्म सर्वत्र एक ही है अतः इस में प्रथम द्वितीय का प्रोटोकोल नहीं होता है । कुछ भी नीच और सर्वोच्च नहीं होता, तुलनात्मक आंकलन नहीं होता क्योंकि प्रत्येक जीव-पिण्ड अपने आप में विषिष्ट होता है  ।
अब आप वैदिक-जगत की ईश्वर प्रणीत देह में आते हैं तो पहला भेद नर-मादा का होता है। पुरूष सत्तात्मक समाज व्यवस्था में पति प्रथम और पत्नी द्वितीय स्थान पर होती है और मातृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था में पत्नी प्रथम व पति द्वितीय स्थान पर होता  है । 
इसी तरह बड़ा भाई, छोटा भाई प्रथम-द्वितीय होता है। संस्था में अध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष इत्यादि का प्रोटोकोल होता है। राजकीय विभाग में ग्रेड होते हैं इत्यादि । 
जबकि ब्राह्मण संस्कृति में गणितीय सांख्य शून्य एवं एक पर चलता है। शुन्य जो कि indefinite  है और मैं डेफिनेट Definitely हूँ। परम्ब्रह्म इनडेफिनेट indefinite है जबकि मैं Definitely हूँ। 
     अहम् और परम् के बीच मे यह मिथकीय जगत फ़ैला है| जब एक ही ब्रह्म सर्वत्र स्थिर स्थित है लेकिन प्रत्तेक 'मैं' में विषिष्ट होता है तो सबसे पहला धर्म और कर्म यह होना चाहिए की मैं अपने आप को पहचानू,आत्म साक्षात्कार Self-interviewing करूँ दूसरों से, द्वितीय पक्ष से अपनी तुलना और प्रतिस्पर्धा क्यों ?     

4- अहं ब्रह्मास्मि ।

मैं ब्रह्म हूँ। हमारे स्वयं के शरीर के विभिन्न नाम हैं । हम अपने पालतू पशुओं का भी नाम रखते हैं । नामकरण संस्कार करते है और अपने बच्चो का एक नाम रखते हैं, जो उसकी देह का नाम होता है । जबकि ब्रह्म के रूप को हम सभी एक ही नाम से पुकारते हैं अर्थात् ‘‘मैं‘‘ नाम से पुकारते हे । संस्कृत के अहम का तात्पर्य है कि हम के विपरीत जो होता है वह अहम ही ब्रह्म रूप है क्योंकि मैं जो अपने आप के बारे में महसूस करता हूँ वही सत्य । 
यही अहं जब हम हो जाता है तब वह हमारा रूप वैदिक-धर्म का रूप हो जाता है क्योंकि हम सभी मानव सभी जीव वेद (बॉडी के विज्ञान) से एक दूसरे से बंधे है। हमारी अपनी सभी प्रकार की अवष्यकताऐं एक दूसरे से पूरी होती हैं। हम सभी मिलकर सभी प्रकार की व्यवस्थाऐं बनाते हे ताकि हम अनुशासित रहते हुए जीवन को सुखपूर्वक जियें । 
अब खुद सोचो कि यह कैसी विडम्बना है कि जहाँ आपको हम होना चाहिये वहाँ आपका अहम् जाग जाता है और जहाँ अहम् जागना चाहिये वहाँ अहम् सो जाता है और धर्म के नाम पर आप हम में शामिल हो जाते हैं और किसी न किसी विषय में या अनेक विषयों में अपना गुरु ढूंढते फिरते हैं.। 
जहां हमें आपस में मिल-बैठ कर एक सर्वकल्याणकारी व्यवस्था पद्धति के बारे में विचार-विमर्श  करना चाहिये वहाँ तो हमारा अहम् जाग जाता है और कहने लग जाते है कि मैं जो कर रहा हूँ वह तो उचित आचरण है और दूसरे जो कर रहे हैं, वह भ्रष्टाचार है । 
इसके विपरीत जब आप में अहम् भाव होना चाहिये तथा एकान्त सेवन करना चाहिये वहा आप अपने अहं को नष्ट करके दीन-हीन कृपण बन के आत्म-कल्याण का मार्ग तलाशने उस बाजार में निकल जाते हैं जहाँ पाखण्डी पण्डितों ने तथा विशेष आडम्बरपूर्ण वेशभूषा धारण किये बाबाओं, धर्मगुरूओं, आध्यात्मिक गुरूओं ने दुकानें सजा रखी हैं । 
जब संसद में सभी सांसद बैठते है तो वहाँ हम का भाव होना चाहिये कि हमें मिल-जुलकर एक-एक निर्णय पर इस तरीके से विचार-विमर्श  करना चाहिये कि उस बिल में ऐसा कोई नकारात्मक पक्ष न रहे जो लाभ से अधिक हानि कर दे, वहाँ तो सभी अपने अपने अहम् में आ जाते है और अपने विचार को, अपने प्रश्न को अपनी शंका को इस तरह आवेशित होकर व्यक्त करते है जैसे कि यह एक बिन्दु समस्या का सम्पूर्ण पक्ष है और प्रश्न  का उत्तर देने वाला या अपने बिल का समर्थन करने वाला इस तरीके से उत्तर देता है कि उसका अहम् भाव उस प्रश्न  और प्रश्न कर्ता दोनों को ही महत्वहीन बना देता है । 
   लेकिन वही सांसद या मन्त्री जब हम के विपरीत अहम् भाव में होकर सोचने की स्थिति में होना चाहिये कि मुझे जनता ने अपना प्रतिनिधि चुना है और मैं अपने बलबूते पर क्षेत्र और राष्ट्र की जनता के लिए क्या कर सकता हूँ तब वह अपनी पार्टी, अपने कार्यकर्ता अपने अनुयाई तथा अपने परिजनों को ख़ुश रखने की तिकड़म के बारे में सोचता है और अपने हाईकमान द्वारा संचालित होता है.

32. सांख्य का अर्थ होता है सिद्धान्तों का ज्ञान !

      सांख्य का अर्थ होता है सिद्धान्तों का ज्ञान। प्रिंसिपल्स एवं थ्योरीज़ की जानकारी। 
यही सांख्य (Mental Status) जब सांख्यिकी (Statistics) बन जाता है तो यह वैदिक-धर्म का आधार हो जाता है क्योंकि विज्ञान एवं टेक्नोलोजी की प्रत्येक जानकारी पदार्थ[मेटर] से शुरू होती है, तत्व (एलीमेण्ट) से शुरू होती है जिसमें संख्याओं का उपयोग होता है। अंको का उपयोग होता है। सांख्यिकी को ही वैदिक-सांख्य कहा गया है।
एक लेखा विभाग[एकाउन्ट] का व्यक्ति कैशबुक से लेकर बेलेन्सशीट तक दोनों पक्षों के अंको के योग को जब समान अंको में ले आता है तब उसे सांख्यिकी कहते हैं।
एक समाज-वैज्ञानिक और अर्थ-शास्त्री के लिए सांख्य का अर्थ है आँकड़े बनाना ताकि सभी को समान साधन-सुविधायें वितरित की जा सकें। बराबर की संख्या में विभाजित किया जा सके।
एक भौतिक-वैज्ञानिक की सांख्यिकी कहती है कि इस सम्पूर्ण सृष्टि में पदार्थ और ऊर्जा की कुल मात्रा का अनुपात हमेशा बराबर बना रहता है और जितना पदार्थ सृष्टि में है उतना ही बना रहता है। 
एक रसायन-वैज्ञानिक के लिए सांख्य का अर्थ है पदार्थ की अविनाशिता का नियम अर्थात् एक तत्व दूसरे तत्व से मिलकर जब तीसरा या अन्य अनेक तत्वों[एलीमेण्टस] का निर्माण करते हैं तब भी उन तत्वों में विद्यमान परमाणुओं की कुल संख्या समान अंको में रहती है। 
यही सांख्य जब जीवो-जीवस्य भोजनम के सिद्धान्त पर आकर ब्राह्मण-परम्परा से जुड़े विज्ञान अर्थात् जीव-विज्ञान में आता है तो इसे पूर्णता का सिद्धान्त कहा जाता है।
पूर्ण इदम् पूर्ण तदम...
‘‘यह भी पूर्ण है वह भी पूर्ण है । पूर्ण को पूर्ण में मिला देते हैं तो दोनों के मिलने से जो बनता है वह भी पूर्ण है। पूर्ण को पूर्ण में से निकाल लेते हैं तो जो निकला है वह भी पूर्ण है और शेष बचा है वह भी पूर्ण ही कहा जाता है ।‘‘
अर्थात् परमाणु भी पूर्ण है उनके योग से बना अणु[Molecule -मुद्गल्] भी पूर्ण है। उन अणुओं-योगिकों Compounds से बनी जीव-कोषिका भी पूर्ण है और एक ही जैसी जीव कोषिकाओं के समूह के रूप में बना ऊत्तक (Tissue) भी पूर्ण संरचना है और उन ऊत्तकों से बना अंगविशेष भी पूर्ण संरचना है और विभिन्न अंगों से बनी जीव की देह भी पूर्ण संरचना है। अब यदि एक जीव, दूसरे जीव को भोजन रूप में ग्रहण करता है और वह भोजन शरीर में जाकर भोग Decomposition,अपघटन  होता है तब भी विघटित होकर बने विभिन्न योगिकों में से प्रत्येक कम्पाउण्ड पूर्ण है और उसका एक पार्ट शरीर में जुड़ जाता है वह भी पूर्ण है और बचा हुआ पार्ट मलमूत्र शरीर से विरेचन excretion की क्रिया से बाहर निकल जाता है उनमें भी पूर्ण संरचना है। खाद है तब भी कृत्स्नं है और खाद्य सामग्री है तब भी कृत्स्न [कार्बनिक योगिक Organic compounds] पूर्ण है अर्थात प्रत्येक संरचना अपने आप में पूर्ण है कम्पलीट है,कोई संरचना अधूरी नहीं है। 
इसलिए ब्राह्मण-परम्परा कहती है कि आप इसकी संख्या के चक्कर में क्यों पड़ते हो, अंको की गणित में क्यों उलझते हो ? जो भी संरचना है वह अपने आप में पूर्ण है। देह के मरने के बाद भी उसकी प्रत्येक कोषिका चाहे वह सड़े-गले शरीर के रूप में है फिर भी पूर्ण है। अब जब सभी कुछ पूर्ण है तो उसके प्रति भाव एवं अभाव में क्यों उलझते हो ? आप को चाहिये इस पूर्ण जगत की प्रत्येक संरचना से अपना ध्यान हटाकर अपना ध्यान अपने आप पर केन्द्रित करो और शम से सम्बन्ध बनाने वाले समाधि-योग का अभ्यास करो तब आप को उस पूर्ण का भी दर्शन हो जायेगा जो सभी पूर्ण[कम्पलीट] संरचनाओं में समान भाव से स्थिर-स्थिर है अतः वह पूर्ण कहा गया है। सम्पूर्ण[Whole] तो एक ही है जिसे ब्रह्म कहा गया है क्योंकि वह अखण्ड है,अखंडित है फिर भी प्रतेक पिण्ड,खण्ड,जैविक संरचना में विशिष्ट दृष्टिगोचर होता है।

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

2. शब्द-ब्रह्म !

         इस भूमिका के माध्यम से जो मैं बताने जा रहा हूँ,उसमें सबसे बड़ी अड़चन कहें या रोचकता एक बिन्दु पर आएगी,वह है भाषा में शब्दों का उपयोग। 
       शब्द को शब्द-ब्रह्म भी कहा गया है। क्योंकि शब्द का अर्थ जानने से ही हमारे ब्रह्म(ब्रेन) में रासायनिक क्रिया होती है और हम उस शब्द के परिप्रेक्ष्य में एक डिज़ाइन बनाते हैं। यदि हम शब्द का अर्थ नहीं जानकर मात्र व्याकरण में ही उलझे रहते हैं तो किसी की भी कही हुई बात को तथ्यपरक नहीं जान सकते। विशेषकर जो बात धर्म एवं विज्ञान के विषयान्तर्गत होती है,उसे तो बिल्कुल ही नहीं। जैसे ब्रह्म को ही लें। जब तक आप यह नहीं जानेंगे कि संस्कृत के ब्रह्म का लेटिन उच्चारण ब्रेन है,तब तक आप उलझे रहेंगे। 
       अतः जब मैं अपनी कही हुई बात को प्रामाणिक बनाने के लिए गीता अथवा अन्य धार्मिक-वैज्ञानिक पुस्तक की भाषा का उपयोग करूँगा तो वहाँ पर उन शब्दों के अर्थ बताने आवश्यक होंगे जिन शब्दों का मैं उपयोग करूँगा। क्योंकि इन सभी शब्दों को लेकर पूर्वाग्रह और भ्रामक अवधारणायें विकसित हो गई हैं।   
      इस तरह इस भूमिका में इतिहास के काल खण्ड के साथ-साथ सभी साम्प्रदायिक धर्मों के परिप्रेक्ष्य में मैं जो कुछ भी बताऊँगा,उसको पढ़ते समय शब्दों को समझने के कारण एक तरफ़ प्रवाह में अड़चन भी आ सकती है तो दूसरी तरफ़ वह आपको रोचक भी लग सकता है।    
      अड़चन इसलिए कि आपने शब्दों के उन अर्थों को न तो कभी जानने का प्रयास किया और ना ही उनमें रूचि ली। लेकिन यदि आप भी शब्दों के प्रति रूचि रखते हैं तो आपको यह जानकारी रोचक लगेगी। 
      रोचक इसलिए भी लगेगी कि आपने उन शब्दों के अर्थ जाने,जिनको आप बोलने में काम में लेते हैं और सुनते भी हैं। लेकिन उनके सटीक अर्थ जाने बिना उनके ऊलजुलूल भावार्थ निकालकर उनकी व्याख्या सुनते और करते आये हैं। अतः इन शब्दों के प्रति आप पूर्वाग्रहग्रस्त भी हो सकते हैं। जबकि रोचक इसलिए भी लगेंगे कि आपने उन शब्दों को सुना है लेकिन खण्ड-खण्ड में सुना है,उसकी क्रमबद्धता(Sequence) को नहीं समझा। 
      ऐतिहासिक काल खण्डों तथा धर्म एवं विज्ञान के अन्तर्गत आने वाले संस्कृत एवं लेटिन के शब्दों को समझने के साथ एक सबसे बड़ी अड़चन उन तथ्यों को समझने के परिप्रेक्ष्य में आयेगी जिनको लेकर हम कुण्ठा एवं पूर्वाग्रहों में बँधे हैं। 
      जाति,धर्म,सम्प्रदाय,समाज व्यवस्था से जुड़े कुछ ऐसे विषय हैं जिनसे हम परम्पराओं के नाम से बँधे हैं। उस बन्धन में भी इतनी गाँठें हैं कि हम न तो उन बन्धनों से मुक्त हो पा रहे हैं और न ही उनके पीछे-छिपे मन्तव्यों को समझ पा रहे हैं। समझ इसलिए नहीं पा रहे हैं कि हम उन विषयों को ही अछूत समझ रहे हैं अतः उन पर चर्चा भी नहीं कर पा रहे हैं। 
      इस भूमिका में (1) ऐतिहासिक काल खण्ड (2) धर्म एवं विज्ञान के सम्बन्ध एवं (3) जातीय समाज व्यवस्था इन तीनों के बाद चौथा विषय है (4) वर्तमान की भौतिकवादी विकास यात्रा के प्रति विरोधाभासी मानसिकता। 
      इन चारों तथ्यों को लेकर लिखी जाने वाली इस भूमिका के माध्यम से मैं आपके ध्यान को इस बिन्दु पर केन्द्रित करना चाहता हूँ कि यदि हमें एक सुन्दर मानवीय समाज व्यवस्था बनानी है तो हमें एक ऐसा परिवर्तन लाना होगा जिसमें सब कुछ बदलना होगा। 

सत्ताओं के तीन वर्ग ! 

 तीन तरह की सत्ताऐं होती हैं:
(अ) बौद्धिक सत्ता 
(ब) राजनैतिक सत्ता 
(स) आर्थिक सत्ता 
इनको हम:- 
(अ) शैक्षणिक यानी अध्यापकों के वर्चस्व वाली 
(ब) प्रशासनिक यानी सरकारी मशीनरी के वर्चस्व वाली 
(स) वित्तीय या वैतनिक यानी पूँजीपतियों के वर्चस्व वाली सत्ताएँ भी कह सकते हैं। 
इनको  हमः-  
(अ) धार्मिक सत्ता  
(ब) राष्ट्रीय राजनैतिक या राजाओं की सत्ता  
(स) व्यापारिक प्रतिष्ठानिक सत्ता (कम्पनी सत्ता) भी कह सकते हैं । 
इन्हें हमः- सनातन परम्परा के शब्दों में 
(अ) ब्राह्मण सत्ता  
(ब) क्षत्रिय सत्ता 
(स) वैश्य सत्ता  भी कह सकते हैं।  
 वैदिक शब्दावली में:-  
(अ) देव सत्ता 
(ब) रक्षस सत्ता  
(स) यक्ष सत्ता भी कह सकते हैं। 
      अब यदि हमें इन शब्दों के प्रति पूर्वाग्रह है तो हम नये शब्द गढ़ सकते हैं। अर्थात् हमें चाहे शब्द रचना बदलनी पड़े लेकिन हम एक भ्रष्टाचारमुक्त नैतिक समाज की स्थापना तभी कर सकेंगे जब इन तीनों सत्ताओं की व्यवस्था पद्धतियाँ बदलेंगे और तीनों सत्ताओं को स्वतन्त्र सत्ताऐं बनायेंगे। ताकि कोई भी सत्ता एक-दूसरी सत्ता पर अतिक्रमण नहीं करे। अतिक्रमण का परिणाम अव्यवस्था होता है। 
      भारत में धार्मिक सत्ता,राजनैतिक सत्ता[राज्य सत्ता] और आर्थिक सत्ता तीनों अपने-अपने कार्य क्षेत्र में स्वतन्त्र काम करती रही हैं। 
      भारत की इस 2700 वर्ष की ऐतिहासिक स्थिति का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि बीसवीं शताब्दी से पूर्व के भारत में ये तीनों सत्ताऐं-जब जब अपने-अपने दायरे में रही भारत स्वर्ग रहा और जब जब कभी कोई एक वर्ग सत्ता रहा,भारत भयानक विषमता की चपेट में आया। 
      प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व जो भारतीय अपनी क्षेत्रीय भौगोलिक-राजनैतिक स्थिति की जानकारी तक सीमित थे वे अचानक अन्र्तराष्ट्रीय, भौगोलिक-राजनैतिक स्थिति को जानने लग गये। 
      इसके समानान्तर एक नव-बौद्धिक, नव-धनाढ्य और नव-धार्मिक वर्ग उभरा जिसने भारत का बण्टाधार कर दिया। आज़ादी के बाद इस नव वर्ग के हाथ में सत्ता आई है तो भारत नये राजाओं[राजनीतिज्ञों] की फ़ौज पैदा करने वाली नर्सरी के रूप में उभरा है और तीनों नव-आचरण वालों के हथियार और ढाल बन कर राजनेताओं ने उस भारत को एक शर्मनाक स्थिति में ला खड़ा कर दिया है जो कभी विश्व गुरू था और सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में जिस भारतवर्ष और भारतदेश ने यूरोपीय राष्ट्रों को ऐश्वर्यशाली समृद्धि दी एवज में ख़ुद धृतराष्ट्र बन कर अभावग्रस्त हो गया। 
      अब इसे एक वाक्य में कहें तो भारत की बौद्धिक,राजनैतिक और आर्थिक सत्ताऐं अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय सत्ताओं द्वारा संचालित होने लगी हैं। इसकी पृष्ठभूमि में सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से आज तक की विभिन्न सत्ताओं की कहानियाँ हैं। घटनाक्रम को गम्भीरता से लिये बिना आप निकट भविष्य में बनने वाली प्रतिकूल एवं विषम स्थिति को गम्भीरता से नहीं ले पायेंगे। 
      इसी तरह सोलहवीं शताब्दी से पूर्व के भारत की स्थिति को जाने बिना आप सोलहवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुए घटनाक्रम को भी गम्भीरता से नहीं ले सकेंगे।
      अतः आइये बुद्ध-महावीर से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी के भारत को समग्र दृष्टिकोणों से,नई दृष्टि से देखें। 
कई बार ऐसा भी हो जाता है कि पुरानी किन्तु ऑरिजिनल चीज़ नई कही जाने लगती है। यह दृष्टिकोण भी ऐसा ही नया दृष्टिकोण है जो कि मूल दृष्टिकोण है। 
      ऐसा भी हो सकता है कि जो लोग तथ्य के परम्-अर्थ की अवहेलना करके स्व-अर्थ से विश्लेषण करेंगे। उन्हें इसमें किन्तु-परन्तु लगेगा लेकिन सर्वकल्याणकारी अर्थ तभी कहा जाता है जब उसका अर्थ स्वार्थ से मुक्त होकर परमार्थ यानी उस गहरे अर्थ तक लिया जाये जो अर्थ सभी पर समान अर्थ में लागू हो,सभी के स्वार्थ की एक समान आपूर्ति करे। 
पौराणिक भारत/समग्र भारत का मूल स्वरूप 
     भारत का नाम कभी आर्यावर्त भी था। उससे पहले इसे जम्बुद्वीप नाम से भी जाना जाता था। भारत का नाम भारत कब पड़ा अभी यहाँ इस प्रसंग में नहीं जाकर इतना ही समझें कि तीन प्रकार के भारत हैं। 
तीनों प्रकार के भारत के तीन-तीन आदर्श हैं। तीनों प्रकार के भारत के तीन राम हैं जो कि तीन प्रकार का पुरूषार्थ करने वाले तीन आदर्श पुरूष हैं और तीन भरत हैं जिनको तीन आदर्श आचरण कहा गया है जिनके नाम पर भारत का नाम भारत पड़ा। 
     जब हम भारत माता या जय भारती कहते हैं तो उसका तात्पर्य नौ प्रकार की अग्नियों में से उस अग्नि से होता है जिसका नाम भारती है।