उसी काल खण्ड में चरक संहिता लिखी गई। संहिता का एक तात्पर्य होता है विश्व कोष।
आज आयुर्वेद की औषधियों पर उस औषधि के योग के बारे में एक छोटा सा संकेत लिखा होता है कि यह चरक संहिता के किस भाग से लिया गया है।
योग तीन श्रेणी में बँटे होते हैं। प्रथम श्रेणी सांख्य योग जिसका अर्थ है सिद्धान्तों का योग। जैसे धैर्य एवं उत्साह का योग,निर्भयता एवं सावधानी का योग... इत्यादि।
द्वितीय श्रेणी का योग भेषज योग होता है। रसोईघर[यज्ञशाला] में मसालों का योग और औषधियों का योग और ऋतु चक्र में लिये जाने वाले खाद्य पदार्थों का योग इत्यादि।
तीसरी श्रेणी को आसन योग कहा जाता है।
प्रथम एवं सर्वोच्च श्रेणी का योग बौद्धिक योग है। द्वितीय एवं मध्यम श्रेणी के महत्व का योग है, भेषण योग जो पाचन तंत्र के लिए है। तीसरे वर्ग का आसन योग या योगासन सिर्फ़ मांसपेशियों के लिए है।
चरक संहिता भेषण योग का विश्व कोष है। आप किचन में मसालों का उपयोग या प्रयोग करते हैं वे इसी भेषण योग के आधार पर प्रचलित किये गये योग हैं।
इसी काल खण्ड में शल्य चिकित्सा का विश्वकोष सुश्रुत संहिता लिखी गई। सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा में लिए जाने वाली कैंचियों[सीज़र्स] की आकृतियाँ,चिमटों की आकृतियाँ और चाकुओं की आकृतियाँ शिकारी पक्षियों की चोंचों एवं पंजो से ली गई थी। सिलाई के लिए चींटे के मुख का उपयोग होता था जिसमें जीवणुनाशक रसायन यानी एण्टिसेप्टिक रसायन प्रकृति जनित होते हैं। जहाँ सिलाई करनी होती थी वहाँ चींटे को चेंटा देते थे और उसके पीछे के हिस्से को तोड़ देते थे। शल्य चिकित्सा के स्तर का आप इस तथ्य से भी आँकलन कर सकते हैं कि पहले दिन हताहत हुआ सैनिक दूसरे दिन पुनः युद्ध के मैदान में उतर जाता था।
इसी काल खण्ड में आर्यभट्ट जैसा गणितज्ञ होता है। आपको याद हो या नहीं हो जब मंगल पर पहला यान भेजा गया तो वह दूरी के आंकलन की त्रुटि के कारण मंगल पर उतर नहीं सका था। बाद में आर्यभट्ट की पुस्तक में लिखी दूरी को प्रमाणिक मान कर यान को सेट किया तो वह अभियान सफल रहा।
इसी काल खण्ड में भृगु संहिता को पुनः प्रकाशित किया गया। इस काल खण्ड में यांत्रिक यज्ञशालाएँ नहीं थी। न ही वैभवशाली अट्टालिकाओं वाले नगर थे। सभी को नष्ट कर दिया गया था या खण्डहर हो गये थे। लेकिन विज्ञान की सभी दिशाओं और सभी विषयों पर उच्चतम स्तर के शोध हुए थे। पूरा भारत वनों से आच्छादित हो गया था। वन भी उन वृक्षों के थे जो रसीले फल देते थे। वनों में ही उच्चस्तर की शैक्षणिक संस्थाएँ थीं। वनों में ही चिकित्सा के शोध केन्द्र थे। वनों में ही बड़े-बड़े आश्रम[आश्रय स्थल] थे जहाँ नर्सरीज थी। ये नर्सरीज बुद्ध महावीर की नसियों की प्रतिलिपियाँ नहीं थी बल्कि प्रजातियों की उच्चस्तर की संकर नस्लें तैयार करने वाली प्रयोगशालाएँ, पौधशालाएँ, पाठशालाएँ और जन्तुआलय थे।
आज भारत में वनस्पति और पालतू पशुओं की अथाह प्रजातियाँ, नस्लें, species हैं जो विक्रमादित्य काल की देन है।
बौद्ध एवं जैन भिक्षुक वे वनवासी थे जो अपने पूर्वाग्रहों में बँधे लीक पीट रहे थे। नगरीय सभ्यता और व्यापारिक जीवन शैली को पूरी तरह मिटा दिया गया था। उस काल के लेखन में कहीं भी बौद्ध-जैन वर्ग का वर्णन नहीं आता है।
उस समय के बारे में कहा जाता है कि न तो विदेश व्यापार किया गया था। यहाँ तक कि विदेश में जाना और विदेशी पर्यटकों को भारत की सीमा में आना भी वर्जित कर दिया था। लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है।
सच्चाई यह है कि विक्रम के कालखंड में ईसा यूराल पर्वत के मार्ग से भारत में कश्मीर तक आये थे और जब अशोक वाले भारत से विदेश व्यापार बंद हो गया था तब ईसा ने ही कश्मीर से भेड़ें ले जाकर वहाँ भेड़पालन को अर्थव्यवस्था का आधार बनाने को प्रेरित किया था और पशुपालन संस्कृति को कृष्ण धर्म नाम दिया था, जो उच्चारण दोष के कारण क्रिश्चियन धर्म बन गया।
उस समय के यूरोप में चमड़े के वस्त्रों के प्रचलन का उल्लेख मिलता है जो इस बात का प्रमाण है कि मांस और चमड़े की आपूर्ति हेतु भारत से वहाँ पशुओं का निर्यात भी होता था।
यदि सक्षिप्त शब्दों में कहें तो वह काल खण्ड बौद्धिक वर्ग का काल खण्ड था। कृषि-पशुपालक से उतना ही उत्पादन किया जाता था जितनी आवश्यकता होती थी और 90 % जनता उसी से जुड़ी थी। अतः अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए साल-भर का खाद्यान्न इकट्ठा करके बाक़ी के समय में उत्सव त्यौहार मनाते रहते थे।
एक वाक्य में कहे तो यह मात्र ब्राह्मण-क्षत्रिय[अध्यापक-किसान] समाज व्यवस्था थी जिसमें न तो यक्ष थे और न ही राक्षस और न ही भूत गण। राज्य एवं राजा नामक भी कोई वर्गीकरण नहीं था। एक मात्र जो था वह भारत था। सिर्फ राजा भोज की उज्जयनी नगरी का उल्लेख मिलता है जो ट्रेड सेण्टर नहीं था बल्कि बौद्धिक समागम का क्षेत्र था। उस नगरी के बसने के बाद तो भारत पुनः वाणिज्य संस्कृति में आने लगा था।
शक एवं हूण कहे जाने वाले दोनों वर्गों में भी सामवेद की ऋचाऐं गाई जाती थीं। उसी कालखण्ड में सामवेद की ऋचाओं से तीन संगीत धारायें निकलीं।
1. शास्त्रीय संगीत।
2. आरतियाँ-भक्ति संगीत।
3. लोक-संगीत।
उस काल खण्ड को इतिहास से न सिर्फ़ निकाला गया बल्कि उसकी अप्रतिष्ठा के लिए अनेक यूरोपियन इतिहासकारों ने यह अवश्य लिखा है कि वैदिक ऋचाऐं तो उस समय वनवासी गाया करते थे।
यहाँ सोचने की बात है कि जब उन्हें उस समय के अन्य पहलुओं का पता नहीं था तो फिर इस पहलू का पता कैसे लगा।
जब हमारा जीवन इतना सरल हो जाये कि गायें अपने आप चरकर आ रही हैं, आपको तो सिर्फ़ उन्हें दूहना है। वर्षाकाल में खाद्यान्न उत्पादन के लिए सामूहिक खेती की जा रही हो जिसमें विषेष श्रम नहीं करना पड़े और वह श्रम भी वर्ष के सिर्फ तीन-चार महीनों के लिए ही हो।वनों से मीठे फल और शहद उपलब्ध हो और साथ में हो गाय का दूध तो फिर अन्न की आवश्यकता बहुत कम रह जाती है।
तब फिर सत्व प्रधान सात्विक बुद्धि वाले समाज के व्यक्ति बोधिसत्व को प्राप्त प्रबुद्ध समाज में सत्य की खोज[वैज्ञानिक अनुसंधान],विश्व-शान्ति और अंतरिक्ष-शान्ति की बात की जाती है और सांसारिक-जीवन में तनाव पैदा करने वाली प्रतिस्पर्धाओं से मुक्त होकर आनन्दमय-जीवन हो जाता है।
इसके विपरीत जब शरीर में रज बढ़ जाता है और वह सत्व को आवृत्त कर देता है तब वह रजोगुणी समाज पहले तो प्रशासन अपने हाथ में लेकर अनुशासन के नियम गढ़ कर शासक बनता है फिर धन का दुरूपयोग करके दुर्योधन बन जाता और दुखदायी शासन देने वाला दुःशासन बन जाता है।
विक्रम ने भारत को भुखमरी से मुक्त ऋषियों-मुनियों यानी वैज्ञानिकों-दार्शनिकों यानी Researchers - philosophers का भारत बना दिया था।
इस काल खंड में शल्यचिकित्सा का विश्वकोश सुश्रुत संहिता लिखी गयी। औषधि व् जड़ी-बूटी चिकित्सा का विश्वकोष चरक संहिता लिखा गया। शून्य का आविष्कार करने वाले गणितज्ञ आर्यभट्ट भी इसी कालखंड की देन हैं। अंतरिक्ष विज्ञान Space Science,ज्योतिष विज्ञान Astrological sciences, नक्षत्र विज्ञान Satellite science ,Star-Planetary Sciences, भूगर्भ विज्ञान Geology इत्यादि अनेक वैज्ञानिक विषयों के अलावा जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य किया गया वह था मानसून को नियंत्रित करने वाले वैदिक यज्ञों पर अनेक अनुसंधान और शोध कार्यों का करना।
मैं जिस अक्ष सिचाई प्रणाली का बार-बार उल्लेख कर रहा हूँ वह प्रणाली विक्रम के काल का अविष्कार है।
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