हमारे शरीर रूपी संयत्र में जठराग्नि के माध्यम से यज्ञ का संचालन होता है। इस यज्ञ में तीन तरह के तत्वों[एलीमेण्टस] का निर्माण होता है और इन उत्पादनों के लिए जो कच्चा माल[raw material] होता है वह होता है हमारा आहार।
इस आहार का आमाशय[पेट] नामक भट्टी में प्रसंस्करण होता है और इस प्रोसेस में जो तीन तरह के उत्पाद होते हैं,वे इस शरीर रूपी यंत्र में चलने वाले तीन तंत्रों को ऊर्जा देते हैं, उनकी क्षतिपूर्ति करते हैं और उनका संचालन भी यही तीन तरह के उत्पाद करते हैं। ये तीन तंत्र[सिस्टम] हैं:-
1. तंत्रिका तंत्र (नर्वस् सिस्टम)
2. रक्त परिवहन तंत्र (ब्लड सर्कुलेशन सिस्टम)
3. मांसपेशी तंत्र (मस्कुलर सिस्टम)
इन तीन तत्रों को संचालित करने के लिए जो तीन तत्व बनते हैं उन्हें शरीर की तीन प्रकार की प्रकृति भी कहा जाता है।
1. कफ प्रकृति
2. पित्त प्रकृति
3. वात प्रकृति
इन तीनों से तीन प्रकार के भाव पैदा होते हैं -
1. सत्व
2. रज
3. तम
इन तीनों के संचालन केन्द्र होते हैं।
1. मस्तिष्क
2. हृदय
3. नाभि
शरीर का कुल प्रतिशत 100 माना जाये तो ये 33-33-33 प्रतिशत होते हैं। इसे सम स्थिति कहा जाता है।
सत्व का निर्माण एवं उत्पादन स्टार्च वसा एवं शर्करा अन्न(दूध,घी-चीनी) से होता है या मीठे फलों या शहद से होता है।
रज का निर्माण एवं उत्पादन प्रोटीन से होता है।
तम का विटामिन एवं मिनरल से होता है।
तीनों सम होने से सन्तुलित कहा जाता है जबकि एक की अधिकता से वह विषिष्ट वर्ग में आ जाता है।
तंत्रिका तंत्र,रक्त परिवहन तंत्र एवं मांसपेशी तंत्र तीनों आपस में गुँथे हुए से पूरी देह में फैले होते हैं।
रज-तम को आवृत्त करके सत्व बढ़ता है।
सत्व-तम को आवृत्त करके रज बढ़ता है।
सत्व-रज को आवृत्त करके तम बढ़ता है ।
ये तीनों विकार सहित गुण कहे गये हैं। लेकिन सत्व के विकार में दोष नहीं होता।
(1) सत्व की अधिकता वाला ब्रह्म के भाव से भावित रहता है और रचनात्मक कार्यों में रूचि रखता है (2) रज की अधिकता वाला ईश्वर भाव से भावित रहता है अतः संरक्षक बनना चाहता है और राज करना चाहता है। (3) तम की अधिकता वाला सेवा कार्य एवं दया भाव से भावित रहता है अतः सभी वर्गों को आवश्यक सामग्री की आपूर्ति करना चाहता है और व्यापार करना चाहता है।
सत्व का विकार व्यक्ति को सात्विक बना देता है तब वह निष्क्रिय और उदासीन होकर अपनी रचनाधर्मिता के आचरण का त्याग कर देता है। इससे समाज को लाभ नहीं मिलता तो समाज को नुकसान भी नहीं होता।
रज के विकार से व्यक्ति राजसी हो जाता है तब वह ऐश्वर्य भोगने की कामना वाला हो जाता है और उस की कामना में अवरोध आने पर वह क्रोधित होकर आक्रामक हो जाता है।
तम के विकार से वह तामसी हो जाता है और कंजूस,अंधानुयायी और अंधभक्त हो जाता है।
बुद्ध ने देखा कि एक वर्ग जो मादक पदार्थों के सेवन और अत्यधिक प्रोटीनयुक्त आहार(मांसाहार) से राजसी प्रवृति का राक्षस हो गया है और उनके आडम्बरपूर्ण कर्मकाण्डों से प्रभावित हुआ एक वर्ग उनका अन्धानुयाई हो गया है और कुपोषण का शिकार होकर दीन-हीन हो गया है। तब उन्होंने कहा उस सत्व की वृद्धि करो जो तुम्हारे अन्दर यह बोध(सेन्स) पैदा करे कि तुम्हें क्या करना व क्या नहीं करना है !
उन्होंने कहा तुम वन्य प्राणियों का शिकार करते हो यह गलत है क्योंकि इससे सनातन धर्म चक्र (ईकोचैनल) टूट जाता है। तुम सत्व प्रधान आहार से बोध पैदा करने वाले सत्व को प्राप्त करो।
बुद्ध ने बोध(सेन्स) को पैदा करने और बढ़ाने का मार्ग बताया। वन्य प्राणियों की रक्षा और ईकोसेटअप (सनातन धर्म) की रक्षा तथा सनातन धर्म का संवर्धन एवं विस्तार करने के लिए प्रेरित किया। प्रेरणा देने के लिए स्वयं ने राजपद त्याग कर शिक्षा के विस्तार के काम हाथ में लिए जो शिक्षा साक्षरता नहीं थी बल्कि बोध को विकसित करने की विद्याऐं थीं।
यह ब्रह्म-परम्परा का मार्ग था। यहाँ ब्रह्म का तात्पर्य ब्रेन(तंत्रिका तंत्र) में सत्व की मात्रा बढ़ाने से भी है तो ब्रह्म का एक पयार्यवाची शब्द चेतना भी होता है।
वनस्पति में ब्रेन(तंत्रिका तंत्र) नहीं होता फिर भी उसमें चेतना तो होती ही है। इसे हम अवचेतन मन भी कहते हैं अतः बौद्ध-सम्प्रदाय के मुख्यालय चैत्यालय भी कहे जाते हैं।
संस्कृत के शास्त्र शब्द से ग्रीक में सेन्स शब्द बना तो लेटिन में साईन्स शब्द बना।
बुद्ध ने सेंस को विकसित करने के प्रेक्टिकल उपाय बताये तो महावीर ने शरीर एवं संतति विस्तार की साईन्स बताई।
महावीर का सम्प्रदाय जैन सम्प्रदाय कहा जाता है। जैन अर्थात् जो जिन[गुण सूत्रों] को तत्व से जानता हो।Knowledge of chromosomal elements. जिन से तीन शब्द विकसित हुए।
- संस्कृत में जीव या जीव-आत्मा।
- लेटिन में जेनेटिक्स वाला जीन यानी शुक्राणुओं में पाये जाने वाले गुण-सूत्र।
- ग्रीक में यह आत्मा का पर्यायवाची शब्द जिन्न बना।
आत्मा से एटम atoms, मुदगल् से मोलिक्यूल molecules बना।
एक इन्द्रिय जीव यानी एक कोषीय जीव से पंच इन्द्रिय की क्रमिक विकास यात्रा साईंस का विषय है।
आयुर्वेद की वैज्ञानिक शब्दावली में सत्व शब्द अनेक रूपों में उपयोग होता है। जैसे कि आप कब्ज को हटाने के लिए सत्व-ईसबगोल काम में लेते है। यानी बीज या बीज के छिलके के अन्दर के तत्व सत्व कहे गये है। नीम्बू के सत्व से अर्थ है किसी भी तत्व का सांध्रित (concentrated) रूप।
इसी तरह वीर्य को भी सत्व कहा जाता है और तंत्रिका तंत्र की तंत्रिकाओं के माध्यम से पूरे शरीर में फैला व्हाईट फ्ल्युड (कफ) तो मूल रूप से सत्व होता ही है।
बुद्ध ने जहाँ बह्मचर्य की पालना करके सत्व से बोधिसत्व को प्राप्त करने की बात कही वहीं महावीर ने वीर्यवान वीर से भी आगे बढ़कर महावीर्यवान यानी महावीर बनने को प्रेरित किया। जितेन्द्रिय बनने के लिये कहा।
जनसंख्या की वृद्धि के लिए महावीर ने जिनालय और नसियाँ विकसित कीं। आपने जैन सम्प्रदाय की नसियाँ देखी-सुनी होंगी।
नसियां शब्द से नर्सरी शब्द बना। नर्सरी शब्द का आप तीन जगह उपयोग करते हैं।
1. प्लाण्ट नर्सरी(पौधशाला)
2. नर्सिंग होम(सन्तान पैदा करने का स्थान)
3. नर्सरी कक्षा(बच्चों को स्वप्रेरणा से स्वाध्याय करने की सुविधा देने वाला स्थान)
जैन सम्प्रदाय के लोग जब अभिवादन करते हैं तो बोलते हैं जय जिनेन्द्र। जिसका अर्थ होता है जननेन्द्रियों की जय। उसके लिए आत्म-कल्याण की तरफ प्रेरित होकर पहले अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाले आत्म-संयम योग पर आरूढ़ होना पड़ता है। तब वह अपनी इन्दियों को जीत लेता है तब वह जितेन्द्रिय कहलाने लग जाता है।
जितेन्द्रिय वह है जिसके लिए जनन-इन्द्रियाँ सिर्फ़ सन्तानोत्पादन के लिए होती है न कि ईश्वर के बनाये शरीर को भोगने के लिए यानी ईश्वर भोगी बनने के लिए नहीं होती हैं।
बुद्ध को सनातन धर्म की सुरक्षा के लिए चलाने वाले आन्दोलनकारी के रूप में विष्णु के नौवें अवतार के रूप में मान्यता दी गई।
जब कि महावीर को शैव सम्प्रदाय के नाथ एवं स्वामी सम्प्रदाय में मान्यता देकर उन्हें पच्चीसवाँ तीर्थंकर घोषित किया गया।
आदिनाथ और पशुपतिनाथ नाम की दोनों परम्परायें शैव सम्प्रदाय की परम्परायें मानी गई हैं। दोनों में फर्क इतना ही है कि पशुपतिनाथ सम्प्रदाय वाले वनों की सुरक्षा के लिए हथियार उठाने को भी सक्षम एवं स्वतन्त्र होते हैं जबकि बौद्ध एवं जैन ऐसा नहीं करने को पाबन्द होते हैं।
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