vivarn

Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.



कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।

Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made ​​by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

सोमवार, 30 जुलाई 2012

45. शीतला माता !


   यह त्यौहार अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में अलग-अलग दिन मनाया जाता है जो इस बात पर निर्भर करता है कि कब वहाँ सर्दी समाप्त होकर गर्मी पड़ने लग जाती है।
शीतला, कुम्हारों की देवी हैं और इस दिन गधे की पूजा होती है। गधे के शरीर में शीतलता होती है। गर्मी में वात का प्रकोप होता है और वात जनित व्याधियों जैसे चेचक, बोदरी, Smallpox, cowpox, chickanpox तथा अन्य वे बीमारियाँ होती हैं जिनकी रामबाण दवा है पेनिसिलीन। यह औषधी जब बनी तो इसका टीका लगाने का प्रचलन भी हुआ और इसके इंजेक्शन भी बने। पेनीसिलीन फ़ंगस/फफूँद fungi से बनाई जाती है। गर्मी के मौसम में रोटी अचार इत्यादि पर सफेद-सफेद रूई जैसा दिखाई देता है वह fungi होता है।
शीतला के दिन ठण्डी रोटी अर्थात् एक दिन की बासी रोटी, खिचड़ी इत्यादि खाई जाती है। इस बासी भोजन में हल्का सा फ़ंगस पैदा हो जाता है जो आने वाले समय में Smallpox, cowpox,chikanpox  इत्यादि बीमारियों की अग्रिम रोकथाम करता है। जब किसी मां की गोद में दूध पीता शिशु  होता है तो उसे पहले दिन की रोटी दूसरे दिन खाने का क्रम कई दिनो तक निभाने को कहा जाता है।
पेनिसिलीन का अविष्कार तो एक शताब्दी पूर्व का है जबकि भारत में तो यह सदियों से चली आ रही प्रथा है।
{इन त्यौहारों की लम्बी सूची है लेकिन यहाँ इतना ही। इस विषय में अधिक जानकारी चाहिये तो गीता की व्याख्या करके लिखी गई पुस्तक ‘‘परमात्मा विज्ञानमय है‘‘ मंगवा कर पढ़ें।}
इन उदाहरणों के द्वारा मैं आपका ध्यान तीन बिन्दुओं पर खींचना चाहता हूँ (1) धर्म के ये सभी बिन्दु जगत के कल्याण के रूप में स्थापित किये गये थे जो ब्रह्म-परम्परा और वेद-परम्परा को अद्धैत करके बनाये गये अर्थात् विज्ञान को धर्म से जोड़ा गया। (2) इन त्योहारों पर वही प्रसाद या भोग चढ़ाया जाता है जिसका प्रावधान है, न कि बाजार से चाहे जैसी उलजुलूल मिठाई लाकर चढ़ाई जाये। ये प्रसाद स्वाद और मनपसन्द मिठाई के रूप में नहीं होने चाहिये बल्कि परम्परा में जो-जो भोग जिस-जिस क्षेत्र में प्रचलित है वही भोग देवता के चढ़ाया जाता है और हमें उसे प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिये । (3) ये देवी देवता हमारे शरीर के अन्दर चल रही यज्ञ-प्रक्रिया यानी रासायनिक गतिविधियों के रूप में होते हैं अतः इन्हें शरीर के अन्दर पुष्ट करने के दृष्टिकोण से लेना चाहिये। इस शरीर से बाहर किसी भी देवी-देवता,भगवान,GOD, अल्लाह का कहीं भी कोई अस्तित्व नहीं है।

44. कृष्ण जन्माष्टमी !


      गणेश चतुर्थी से कुछ समय पहले कृष्ण जन्मोत्सव मनाया जाता है। यह सर्वाधिक वर्षा का समय होता है। वर्षा में पित्त की वृद्धि होती है अतः पित्त विकार से होने वाली मुख्य बीमारी मलेरिया हो जाती है। यदि शरीर भी पित्त प्रकृति का हो और पित्त विकार की चिकित्सा नहीं की जाये तो यह पित्त विकार पित्ताशय, अग्न्याशय Gall bladder, pancreas के बाद लीवर को प्रभावित करता है और आगे जाकर पीलिया रोग  [jaundice] हो जाता है । इसी तरह यदि शरीर कफ प्रकृति का हो और पित्त में विकार हो और वह विकृत पित्त शरीर के बाहर नहीं निकले तो मौसम का तापक्रम कम होते ही कफ-पित्त जनित व्याधि टाईफाईड Typhoid हो जाती है। 
आप प्रतिवर्ष देखते हैं कि वर्षा शुरू होते ही सर्वप्रथम मलेरिया का प्रकोप होता है फिर वर्षा काल के अन्तिम चरण में पीलीया[jaundice] एवं टाईफाईड के मरीजों की संख्या बढ़ जाती है। इसका अग्रिम उपाय है पित्त के प्रकोप को शान्त किया जाये। कुपित पित्त को आयुर्वेद में राक्षस कहा जाता है जबकि पित्त  के शुद्ध होने पर वही पित्त राजस गुणों में, रक्त में वृद्धि करता है अतः पित्त  का अग्रिम इलाज वर्ष का सर्वाधिक महत्वपूर्ण इलाज होता है। 
पित्त विकार को शान्त करने, पित्त को शुद्ध करने और उस शुद्ध पित्त का पेन्क्रियाज/पित्ताशय/अग्न्याशय में संग्रह करने के लिए कृष्ण-जन्माष्टमी पर पंजीरी का भोग लगाया जाता है । जिसमें अजवायन, सौंठ, सूखा धनिया, घी और शर्करा का योग होता है। दिन भर खाली पेट रहने से पित्त को पचाने को कुछ नहीं मिलता। रात्री के बारह बजे और दूसरे दिन से, कई दिनों तक सुबह खाली पेट यह खाया जाता है। 
सोंठ पित्ताशय को उत्तेजित करती है। अजवायन पित्त को फाड़ कर उसे शुद्ध करती है। सूखा धनिया पित्त  को शान्त करता है और घी[दुग्ध वसा] तथा शर्करा उसके साथ यौगिक[कम्पाउण्ड] बना कर उसका संग्रह करते हैं जो सर्दी के मौसम में शरीर में ताप पैदा करके सर्दी से मुकाबला करने की ताकत देता है। 
यह प्रसाद लेने से पुण्य होता है अर्थात् मलेरिया, पीलीया, टाइफाईड जैसी बीमारियाँ नहीं होती है और न लेने पर पाप लगता है क्योंकि तब आप बीमार हो जाओगे।  
इस तरह पाप और पुण्य से जोड़ कर तथा मन्दिरों से वितरित करके इन औषधियों को प्रत्येक व्यक्ति की पहूँच में बनाया गया ताकि मौसमी बीमारियों का अग्रिम इलाज हो जाये और चिकित्सा से जुड़े ब्राह्मण वर्ग को सुकून मिले, उनका कार्यभार कम हो जाये।

43. गणेश - गण (समूह) के ईश !


    ये बुद्धि के देवता हैं क्योंकि देह में विद्यमान सभी अंगों का सामूहिक नेतृत्व बुद्धि ही करती है। गणेश उस वर्ग के देवता हैं जो एकाउण्ट और एकाउण्टेबिलिटी यानी लेखा-जोखा के माध्यम से अर्थव्यवस्था के उत्तरदायित्व से जुड़ा वर्ग है। अतः सर्वप्रथम पूजनीय देवता गणेश हैं। जो अर्थशास्त्र एवं लेखा की शिक्षण संस्था के यानी गुरूकुल के कुलपति की उपाधि भी होती थी।
    ये तैतीस करोड़ वैष्णव देवी-देवताओं के ईश हैं और खुद शैव सम्प्रदाय की ईष्ट महादेवी के पुत्र हैं। 
इनका जन्म-दिन तब आता है जब गर्मी समाप्त हो रही होती है और सर्दी का प्रारम्भ होने जा रहा होता है। गणेश को मोदक लड्डू प्रिय होता है; जो लड्डू मैदा,घी एवं शक्कर से बना होता है उसे मोदक कहते हैं।
बुद्धि का स्तर बढ़ाने के लिए सत्व की आवश्यकता होती है। स्टार्च-वसा एवं शर्करा से सत्व की वृद्धि होती है। 
वर्षा काल में पित्त की वृद्धि होती है और सर्दी में कफ की वृद्धि होती है। वर्षाकाल में बढ़ा हुआ पित्त जठराग्नि को तेज़ करता है अतः एक पंथ दो काज हो जाते हैं अर्थात पित्त की अधिकता से पेट की अग्नि बढ़ती है और पाचन शक्ति तेज़ होती है उस वर्षाकाल में जब मोदक का सेवन किया जाये तो उसमें स्टार्च (मेदा) वसा और शर्करा के योग से सत्व का निर्माण होता है यही सत्व, बुद्धि का बोधिसत्व कहलाता है। इसी बोधिसत्व की प्राप्ति के लिए बुद्ध ने प्रेरित किया था और इसी बोधिसत्व को बढ़ाने के लिए सर्दी के मौसम में हम तेलीय वसा से बनी मिठाईयाँ खाते हैं। सर्दी में हमारे शरीर की पाचन क्रिया भी तेज़ हो जाती है। इसी बोधिसत्व के लिए बुद्धि के देवता गणेश की पूजा-अर्चना की जाती है।
सर्दी में कफ का प्रकोप होता है जो सत्व का विकार है। लेकिन सर्दी आने के पूर्व ही यदि मोदक का सेवन कर लिया जाये तो कफ जनित बीमारियों के प्रति शरीर में रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।
गणेश चतुर्थी का त्यौहार दस बारह दिनों तक चलता है। इन दस-बारह दिनों में गणेश के मोदक का भोग लगाया जाता है तत्पश्चात् भक्त उसको प्रसाद के रूप में श्रद्धा भाव से ग्रहण करते हैं। यहाँ वाक्य की भाषा पर ध्यान दें कि भोग तो देवता के लगाया जाता है और प्रसाद भक्त ग्रहण करता है। तात्पर्य है कि यह आहार भोग के रूप में नहीं बल्कि सन्तुलित मात्रा में लिया जाना चाहिये। स्वाद के लालच में नहीं स्वास्थ्य के हेतु लिया जाये। जो इस प्रसाद को लेता है उसे पुण्य प्राप्त होता है अर्थात् शरीर में पुण्य का संचय होता है और जो इन देवताओं का प्रसाद नहीं लेता उसे पाप लगता है अर्थात् वह अस्वस्थ, बीमार हो सकता है। प्रसाद लेने पर गुण बढ़ता है और विकार से लड़ने की शक्ति यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है जबकि प्रसाद नहीं लेने से वर्षा काल में पैदा हुआ अतिरिक्त पित्त शरीर में विकार[पाप] पैदा करेगा।
    गणेश का वाहन मूषक है जो धान के गोदामों में रहना पसंद करता है और कहने की आवश्यकता नहीं है कि जहाँ धन-धान्य है वहाँ रिद्धि-सिद्धि [समृद्धि] है।

42. वैष्णव सम्प्रदाय या वैश्यधर्म !


     वैष्णव सम्प्रदाय वैश्य वर्ग के विकल्प के रूप में तथा वैश्य वर्ग के धर्म के रूप में आरम्भ किया गया। 
छठी शताब्दी से पूर्व में गुप्तकाल में जब शासक भी वैश्य और बौद्ध-जैन (विशेषकर जैन) वैष्य वर्ग, जो ब्याज और वाणिज्य का काम करता था, वह धन लोलुप और आर्थिक शोषण करने वाला हो गया था, तब वैष्णव सम्प्रदाय का विकास वैश्य वर्ग के विकल्प के रूप में किया गया था। बौद्ध-जैन की चैत्यालय-जिनालय की व्यवस्थाऐं अपना मूल स्वरूप खो चुकी थीं और बौद्ध-जैन वैश्य वर्ग के केन्द्र मन्दिरों का रूप ले चुके थे, जिनमें प्रतिमाऐं स्थापित होती थीं (वर्तमान की ही तरह) और उनमें व्यभिचार होता था अर्थात् वे नर्सरी के स्थान पर स्त्री वैश्यालय और पुरूष वैश्यालय का रूप ले चुके थे जहाँ भोग के सारे सामान उपलब्ध थे। वातावरण को उत्तेजक बनाने के लिए सम्भोगरत प्रतिमाऐं दीवारों पर कुरेद दी गईं। संयम की परीक्षा के नाम पर इनकी मान्यताऐं स्थापित की गईं। स्थिति ऐसी हो गई थी कि विवाह और परिवार पद्धति समाप्त प्रायः हो गई थी। एक तरफ धनाढ्य जैनियों-बौद्धों के भवनों में बड़ी संख्या में सेविकाऐं रखी जातीं दूसरी तरफ एक बड़ा पुरूष वर्ग भिक्षुक बन गया था। भिक्षुक को भिक्षा तभी मिलती जब वह इन मन्दिरों में रहकर संयम की परीक्षा में खरे उतरते।
जब ब्राह्मण गवर्नमेण्ट की स्थापना का आन्दोलन चला तो बौद्ध-जैन सम्प्रदायों के भिक्षुओं और हस्त उद्योगों से जुड़े श्रमिकों की समस्याओं को लेकर एक तीर से तीन निशाने साधे गये।
    1. जहाँ-जहाँ श्रमिकों की सघन बस्तियाँ थीं वहाँ के प्रदूषित वातावरण से उन्हें हटाना था।
    2. उनके स्वास्थ को ठीक करना था और
    3. उन्हें कृषि-पशुपालन की मुख्यधारा में लाना था।
इसके लिए नई वैष्णव बस्तियाँ बसाई गईं जिनके बीच में वैष्णव मन्दिर बनाये गये। इससे पहले सनातन-धर्म में प्रतिमाओं की पूजा का प्रचलन नहीं था। वैष्णव मन्दिरों में अनेक देवी-देवताओं के अलग-अलग मन्दिर बनाये गये । 
ये मन्दिर ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के मुख्यालय थे, जिनकी अर्थ-व्यवस्था को चलाने के लिए आय के दो मार्ग थे। एक तो उनके स्वामित्व में बड़े-बड़े चारागाह बनाये गये जिनमें गौपालन होता था अतः इनका एक उपनाम गोस्वामी भी था। इन गायों का दुग्ध इनकी पौष्टिक आहार की आपूर्ति का माध्यम था। दूसरा आय का माध्यम दान था। प्रत्येक ग्रामीण अपने उत्पादन एवं निर्माण का पहला और सर्वोत्तम गुणवत्ता  वाला भाग मन्दिर में चढ़ाता था। 
इन मन्दिरों के माध्यम से चार कार्य होते थे -
     1. निःशुल्क विद्यादान [गृह उद्योग निर्माण या कहें हस्तकला Handicraft सम्बन्धी ]
     2. निःशुल्क भोजन
     3. निःशुल्क मनोचिकित्सा (भजन-कीर्तन-गायन संगीत)
     4. निःशुल्क कायचिकित्सा
      प्रत्येक मन्दिर में तैतीस करोड़ देवी-देवताओं में से किसी न किसी एक देवी या देवता की अथवा  कृष्ण बलराम की प्रतिमा होती थी। लेकिन पति-पत्नी तो सिर्फ शंकर-पार्वती ही होते थे। जो शैव सम्प्रदाय के महादेवता थे। राम एवं सीता के मन्दिर कहीं नहीं थे ये सभी मन्दिर गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित्-मानस से लेखन-प्रकाशन के बाद बने हैं । राम एवं सीता चुंकि साम्राज्य के आदर्श हैं अतः ये राजपूतों तक सीमित थे, बाद में शक्ति की उपासना के नाम पर जब बलि-प्रथा चली तो राम एवं सीता भी कोने में हो गये। 
     वैष्णव मन्दिर का विशिष्ट देवता उस जाति विशेष का देवता होता था, जिस जाति के विशेष जॉब की विद्याऐं, निर्माण-उत्पादन की टेक्नोलोजी विद्यार्थी सीखता था। प्रत्येक देवता का प्रसाद शरीर के उस विशेष अंग को पुष्ट करने वाला होता था, जो उस जाति विशेष को आवश्यकता होती थी इसलिए प्रत्येक देवता का भोग (परसाद-भोजन) भी अलग-अलग होता था अर्थात् उस मन्दिर के लंगर में आयुर्वेदिक नियमानुसार वह भोजन बनता था जो उस जाति के अनुकूल होता था । 
    इसी तरह से उस देवता को जो कि शरीर में होता है और वह व्यक्ति में विशेष चारित्रिक गुणधर्मिता, आचरण, शारीरिक-मानसिक-बल पैदा करता है उस देवता को उसकी स्तुति करके उसे प्रसन्न किया जाता था ताकि वह उस जाति के लोगों पर कृपा करे और उन्हें भी अपने जैसा बनाये अर्थात् वह देवता उस जातिविशेष के लोगों का आदर्श होता था अर्थात वे उस देवता के आचरण को अपने आचरण में स्थापित करने का प्रयास करते, यह स्तुति आरतियों और भजनों के माध्यम से होती थी।
    शिक्षा, भोजन और भजन-कीर्तन द्वारा मनोरंजन और मानसिक चिकित्सा के बाद भी यदि बीमार हो जाता तो उस व्यक्ति के लिए उन मन्दिरों में निःशुल्क चिकित्सा की व्यवस्था भी रहती थी। 
   अब जब चिकित्सक वर्ग निःशुल्क चिकित्सा करेगा तो स्वाभाविक है वह कामार्थ[कॉमर्शियल] भावना से चिकित्सा नहीं करेगा कि लोग अधिक से अधिक बीमार हो और उनकी प्रेक्टिस अच्छी चले। अतः चिकित्सक वर्ग चाहता था कि लोग कम से कम बीमार हों। 
     विशेष चिकित्सा तो विशेष जॉब से जुड़ी जाति की विशेष बीमारी से सम्बन्ध रखती है लेकिन भारत में तीन मौसम और छः ऋतुओं के परिवर्तन से होने वाली बीमारी सभी वर्गों को समान रूप में चपेट में लेती है अतः इस समस्या के समाधान के लिए पूर्व में सावधान Precautionary चिकित्सा पद्धति का उपयोग होता था।
     प्रत्येक देवता का एक जन्म दिन मनाया जाता था। व्यक्तिगत जन्म दिन मनाने का प्रावधान नहीं था।यहाँ तक कि जन्म दिन याद रखके आयु गिनने को भी बुरा माना जाता था लेकिन अजर-अमर देवताओं का जन्म दिन मनाया जाता था जो कि सामुहिक मनाया जाता था। जन्म-दिन उस विशेष देवता के मन्दिर या देवालय में ही नहीं मनाया जाता था बल्कि सभी मन्दिरों में मनाया जाता था और उस देवता को एक विशेष प्रसाद चढ़ाया जाता था जो सभी मंदिरों में समान रूप से वितरित किया जाता था। यह प्रसाद आने वाले मौसम परिवर्तन में होने वाली बीमारियों की अग्रिम रोकथाम के लिए दिया जाने वाला औषधीय योग होता था; जो अंग को पुष्ट करके उसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करता और गुणों में वृद्धि करता और विकार को बाहर निकालता था। ये कुल तैतीस देवी-देवता होते हैं जो करोड़ों ऊत्तकीय कोशिकाओं में विभाजित होते हैं अतः तैतीस करोड़ देवी देवता कहे गये हैं। क्या हम अब भी यह सब मंदिरों के माध्यम से नहीं कर सकते या इसके लिए भी सरकार या प्रशासन का मुंह देखने की आवश्यकता है !

41. ब्राह्मण सत्ता का उत्थान पतन !


यह व्यवस्था छठी शताब्दी के समाप्त होने और सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ होने तक स्थापित हो चुकी थी और तेरहवीं शताब्दी तक न सिर्फ बिना किसी अवरोध के चलती रही बल्कि अपने लक्ष्यों को विस्तार भी देती रही। लेकिन पृथ्वीराज चौहान के मोहम्मद गौरी से हारने के बाद विश्व में यह सन्देश गया कि भारत की सीमा अब उतनी सुदृढ़ नहीं रही। तब भारत की इस सांस्कृतिक व्यवस्था पर तीन तरफ से हमले होने लगे।
एक तो स्थल मार्ग से होने वाले हमले थे, जिनमें पश्चिम एवं मध्य एशिया से होने वाले मुस्लिम जातियों के हमले थे। दूसरे समुद्र मार्ग से होने वाले हमले थे। समुद्र मार्ग से होने वाले हमलों में हमलावर जातियाँ लड़ाकू और व्यापारिक जातियाँ तो थीं ही साथ ही साथ बड़ी संख्या में शरण लेने वाली जातियाँ भी थीं; जो लम्बे समय से आती रही हैं। इन सभी जातियों की विशेषतायें थीं कि ये भारत के स्थाई निवासी होते गये जबकि स्थल मार्ग से आने वाली जातियाँ कुछ दिन शासन करके पुनः अपने देशों में चली जाती थीं क्योंकि वे प्रशासक और शासक लोग नहीं थे अतः उनको शासन-प्रशासन की ज़िम्मेदारी निभाने से अच्छा यही लगता अतः वे सोना लूट कर ले जाते। इन दो कारणों से भारतीय जातियाँ विस्थापित होने लगी।
इस विस्थापन का एक तीसरा कारण जो था वह भारत के अन्दर का हमला था। आपने यह एक मानसिकता बना ली है कि किसानों पर या अन्य प्रजा पर राजाओं ने अत्याचार किये, लेकिन ये अत्याचार तो सोलहवीं शताब्दी के बाद धीरे-धीरे होने लगे थे, जो अठारहवीं शताब्दी तक अपनी पराकाष्ठा तक पहुँचे।
   जबकि उससे पूर्व तो यह स्थिति थी कि राजा लोग अपनी प्रजा से डरते थे क्योंकि यदि उनके प्रशासन में कमी होती तो आम जनता वहाँ से विस्थापित होकर अन्य राज्यों में स्थापित हो जाती थी। अब यदि राज्य शासन उन्हें अपने राज्य की सीमा से बाहर जाने से रोकता तो उनके पास एक बहाना, एक विकल्प था और वह यह कि वे तीर्थाटन के नाम पर निकल जाते थे और पुनः नहीं आते थे। मार्ग में पड़ने वाले राज्य में स्थापित हो जाते थे।
इन तीनों कारणों से होने वाले विस्थापन से विशेष कुछ फ़र्क नहीं पड़ा जिसे हम भारत की सांस्कृतिक व्यवस्था का नुकसान कहें। सिर्फ इतना फ़र्क पड़ा कि शिक्षा व्यवस्था गड़बड़ा गई क्योंकि नई जगह स्थापित होने में एक पीढ़ी तो लग ही जाती है और उस समय शिक्षक वर्ग अर्थात् ब्राह्मण वर्ग की अगली पीढ़ी तैयार होने से वंचित रह जाती परिणाम यह हुआ कि उनकी अयोग्य सन्तानें भी ब्राह्मण नाम से स्थापित होने लगीं।
इससे भी ज्यादा नुक़सानदायक बात यह रही कि विस्थापन से होने वाले भौगोलिक वातावरण के परिवर्तन और संक्रमण से बाल मृत्युदर अचानक बढ़ गई। अतः एक तरफ ब्राह्मणों की सन्तानें शिक्षा से वंचित रहने लगीं, दूसरी तरफ वे अधिक संख्या में सन्तान पैदा करने लगे कि कोई मरेगा तो कोई तो बचेगा। 
इससे भी ऐसा कुछ नुकसान नहीं हुआ जो स्थाई नुकसान कहलाता लेकिन 1857 के बाद जब यूरोपियन कम्पनियों को हटाकर ब्रिटेन ने अपनी सीधी सत्ता स्थापित की, तब उसने एक चाल चली कि भारत का ब्रेन कैसे खत्म किया जाये और उन्होने भारतीयों को ब्रिटेन में शिक्षा लेकर भारत में नागरिक प्रशासन के लिए प्रशासक बनने का प्रलोभन दिया और भारत के ब्रेन को अपने प्रभाव में लेना शुरू किया। 
इसके विरोध में बुजु़र्ग ब्राह्मणों ने नियम भी बनाये कि जो कोई समुद्रपार करके जायेगा, तो वापस आने पर उसे ब्राह्मण जाति से निष्कासित कर दिया जायेगा फिर भी नव-युवाओं का आकर्षण कम नहीं हुआ और भारत के ब्रेन को साईकोथेरेपी करके अंग्रेज़ी ब्रेन में बदल दिया गया और तब एक नवबौद्धिक वर्ग पैदा हुआ जिसने अपनी संस्कृति के पैरों पर कुल्हाड़ियाँ चलानी शुरू कर दी।
तथाकथित आजादी के बाद तो कुछ ऐसी उच्छ्रंखलता फैली कि ब्राह्मण का अभिप्राय कर्म-काण्ड, पूजा- पाठ, मूर्ति-पूजा, ज्योतिष इत्यादि का काम करने वालों से हो गया है। ब्राह्मण शब्द पर पण्डे-पुजारियों ने अतिक्रमण कर लिया है। आज यदि किसी को कहा जाये कि ब्राह्मण का अर्थ अध्यापक या शिक्षक होता है तो उन्हें अटपटे के साथ-साथ आश्चर्यजनक भी लगता है। 
      ब्राह्मण शब्द के आगे सम्प्रदाय नहीं लगता बल्कि परम्परा शब्द का उपयोग होता है। ब्राह्मण परम्परा का अर्थ है शिक्षित-संस्कारित करना। कर्तव्य एवं अधिकार दोनों बताना। ब्राह्मण शब्द के आगे सभ्यता भी नहीं लगता क्योंकि ब्राह्मण संस्कृति है। कुलीन ब्राह्मण जो अपनी संतान का खु़द ही शिक्षक होता है अर्थात् जो सन्तान परम्परा और शिष्य परम्परा दोनों परम्पराओं की पुत्र परम्परा की पालना करने की पात्रता रखता है, उन्हें विप्र ब्राह्मण कहा जाता है। वहीँ जो सन्तान किसी अन्य की लेकिन शिष्य किसी अन्य का वह द्विज माना जाता है।
ब्राह्मण चाहे विप्र हो या द्विज वह प्रतिमा की पूजा-उपासना नहीं करता, सूर्य की उपासना करता है। मंत्र रूप में सिर्फ ब्रह्म गायत्री का मानसिक जप करता है, मंत्र का उच्चारण नहीं करता बल्कि कल्पना में सूर्य से प्रार्थना करता है या कहता है कि -
ऊँ भू भुव स्वः तत् सवितुः वरेण्यम् भर्गो देवस्य धी मही धियो योनः प्रचोदयात्...
ऊँ आकार की भू (भौतिक देह) रूपी भुवन में स्वः संचालित/प्रकाशित यज्ञ में माध्यम से तत् (वह तत्व) जो सवितुः (सविता/फोटोन/प्रकाषकणों) से पैदा हुए वरेण्यम् (वर्णों, रंगो का वरण करके) भर्गो देवस्य (देव योनी के मनुष्य) की धी (बुद्धि) में मही (वसा एवं शर्करा युक्त सत्व) के माध्यम से धियो (बोध/सेन्स पैदा करने की सामर्थ भरता है) वह योनः (मुझे भी देवयोनी) को प्रचोद (बलपूर्वक दबाव डाल कर) यात् प्राप्त करवाये।
अर्थात वह जो स्व प्रकाशित है,जो सभी योनियों में वर्णों का, चेतना का, बुद्धि में सत्व का जनक और विस्तार करने वाला है वह ॐ आकार की मेरी भौतिक देह में भी बलपूर्वक इनका विस्तार करे।
शिक्षा का सम्बन्ध बौद्धिक विकास से होता है। आचरण के विकास से होता है। ज्ञान एवं विद्या के विकास से होता है। एक ऐसे वर्ग के विकास से होता है जो सर्वहारा वर्ग के जीवन की समस्याओं को सुलझाये और जब समाज में विषमताऐं नामक समस्या नहीं रहे तो सर्वहारा वर्ग के सुखों का विस्तार करे। लेकिन आज शिक्षा भी एक वस्तु हो गई है, जिसका व्यापार किया जाता है। 
शिक्षा का विकास, औद्योगिक-विकास, शहरी-विकास, सरकारी विभागों का विकास, सरकार में आय को बढ़ाने के उपायों का विकास नामक न जाने कितने विकास हो रहे हैं और इसके साथ ही व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन में विषमताओं का विकास और सुख का विनाश तथा परम अर्थ में लें तो सनातन धर्म (प्रकृति जनित पारिस्थितिकी ) का विनाश और अनावश्यक संघर्ष का विकास हो रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करें कि व्यवस्थाऐं कैसी-कैसी थीं और उनकी क्या स्थिति है।  इसे साम्प्रदायिकता नामक पूर्वाग्रह से मुक्त होकर समझने की चेष्टा करें। क्योंकि इन शब्दों के साथ ही एक पूर्वाग्रह जुड़ गया है लेकिन जो शब्द और विषय हैं इनसे द्वैष करने से काम नहीं चलेगा। इन्हें समझना आवश्यक है कि जब ये व्यवस्थाएँ बनी थीं तब इन व्यवस्थाओं के मूल में क्या था; और आज क्या है ?

40. ब्राह्मण गवर्नमेंट का ढांचा !


      भारत की सांस्कृतिक जीवन शैली के पतन का एक मात्र कारण रहा है कि ब्राह्मण की पहचान आचरण से नहीं होकर वंशानुगत जाति के रूप से होने  लगी। यह ठीक ऐसा ही है जैसे कि एक अध्यापक के निरक्षर चरित्रहीन अनपढ़ गंवार और असंस्कारित बेटे को भी अध्यापक के रूप में समाज पर थोपा जाए। इस से शिक्षा व्यवस्था का क्या हाल होगा ! वही हाल ब्राह्मण परम्परा का हुआ है। 
    जब आज की तरह के पूंजीपतियों की सत्ता वाले गुप्तकाल का पतन हुआ और प्रशासन का काम अध्यापक,शिक्षक,गुरु,आचार्य इत्यादि ब्राह्मणों के हाथ में देने के लिए प्रशासनिक ढांचा बनाया गया तब वह कुछ इस तरह था।
ब्राह्मण गवर्नमेण्ट का ढाँचा:-
      पंच गौड़ ब्राह्मण -
गौड़ शब्द का अभिप्रायः गुरू होता है यानी गुरु का पर्यायवाची शब्द है। 
    आदि-गौड़ के दो तात्पर्य निकलते हैं। एक तो यह कि आदिकाल या कल्प के आदि से या सभ्यता-संस्कृति के आदि (प्रारम्भ) से ही गुरू हैं। 
आदि का दूसरा तात्पर्य जीवनकाल के आदि से अर्थात् बचपन से या प्रारम्भिक शिक्षा से है।
आदि-गौड़ ब्राह्मण जाति सभी ब्राह्मणों की गुरू के रूप में प्रतिष्ठित की गई। जानकारी या शिक्षा के सभी विषयों की मूल (जड़) या नींव दो ही विषय होते हैं- 1.भाषा  2.गणित।  इसके बाद के सभी उनकी मुट्ठी में आ जाते हैं।
आदि-गौड़ ब्राह्मण प्रत्येक जातीय वर्ग या सम्प्रदाय के व्यक्ति के प्रारम्भिक या प्राथमिक शिक्षा के शिक्षक थे जो भाषा और गणित के आधारभूत तथ्यों को स्पष्ट करते थे। इस दरमियान वे शिष्य की रूचि और प्रतिभा का आंकलन भी कर लेते थे और फिर से आगे की शिक्षा के परिप्रेक्ष में मार्ग दर्शन भी करते थे। 
ये अपनी जीवन-शैली में अपरिग्रह और पवित्रता का ध्यान रखते थे। इनका आवास ही गुरूकुल होता था। जोड़ा धोती रखने के अलावा कुछ नहीं रखते थे यही स्थिति उनकी पत्नी की होती थी। महिला की धोती (साड़ी) आकार में लम्बी होती थी ताकि देह का उपरी भाग भी ढका जा सके, लेकिन वे एक वस्त्र को धारण करते थे। 
    इस तरह ये एकात्म परम्परा की पालना करते थे अतः अनेक गाँवों के मध्य किसी एक गांव के उत्तर पूर्व में ऊंचे भू-भाग पर एकान्त स्थान पर अपना आवास बनाते थे। एक पत्नी और एक सन्तान परम्परा का निर्वाह करते थे।
अपनी सन्तान को चार वर्ष की आयु तक की आचरण की शिक्षा माँ देती फिर अधिकतम बारह वर्ष की आयु तक वह पिता के संरक्षण में रहता था। उसके बाद वह स्वतन्त्र और आत्म-निर्भर हो जाता था और स्वाध्याय करने लग जाता था।
    इनके नीचे चार गौड़-ब्राह्मण स्थापित किये गये जिनके शिक्षा के विषय निर्धारित थे जो वैदिक विषय थे। 
       1. वनस्पति शास्त्र यानी वनौषधीय पौधों के गुणधर्मों की जानकारी के साथ-साथ कृषिविज्ञान  सम्बन्धी साहित्य (शास्त्र)  इनके पास होते थे। वैद्य और पुरोहितों के काम आने वाले शास्त्रीय साहित्य का ये संरक्षण संवर्धन करते थे। ये ऋग्वेदीय ब्राह्मण कहलाये।
       2. प्राणी शास्त्र यानी वैटरनरी डाक्टर अर्थात पशु चिकित्सा से जुड़े सभी वैज्ञानिक-साहित्य यानी शास्त्र इनके पास होते थे। जिसमें गाय की नस्लों के साथ सभी पालतू और जंगली पशुओं का साहित्य इनके संरक्षण में था। ये सन्तति विस्तार विज्ञान से जुड़े होने के कारण ये यजुर्वेदीय ब्राह्मण कहलाये।
       3. सामवेदीय शास्त्र अर्थात् नृत्य,संगीत,भजन-कीर्तन से मानव मनोविज्ञान के साथ-साथ जीव-नस्लों पर होने वाले प्रभाव का साहित्य इनके पास था । ज्योतिष,हस्तरेखा,स्वप्न विज्ञान इत्यादि प्रत्येक वह साहित्य जो मनोविज्ञान से सम्बन्ध रखता था उसका संरक्षण सवंर्धन यही करते थे।
       4. अर्थशास्त्र से लेकर शस्त्र निर्माण से जुड़ा पूरा अथर्ववेद साहित्य इनके पास था ।
इन सब के अलावा एक विषेष महत्वपूर्ण विषय था, वन संरक्षण और मानसून से जुड़े विषय, भूगोल और पर्यावरण यानी सनातन धर्म का केन्द्रीय विषय, इनके संरक्षण में था लेकिन इसमें साहित्य बहुत कम या नहीं के बराबर था। योग (प्रेक्टिकल) का विषय अधिक था । जिसे आप गोंड आदिवासियों का विषय भी कह सकते हैं। यह परशुराम परम्परा के ब्राह्मणों का विषय था।
पंच गौड़ों की व्यवस्था जैसी ही पंच द्रविड़ों की व्यवस्था थी। इन दोनों को अलग-अलग इसलिए किया गया कि इन दोनों की संस्कृत के उच्चारण में अन्तर था। गौड़ों की संस्कृत शुक्लवेदीय कही गई। द्रविड़ों की संस्कृत कृष्णवेदीय कही गई।  इसके बाद आर्थिक विषय आ जाता है।  पंचगौड़ गौपालन के अर्थशास्त्र पर चलते थे जबकि द्रविड़ संस्कृति का अर्थशास्त्र द्रव[समुद्री जल] में पैदा होने वाले आहार और रत्नों पर आश्रित था।
ये पाँच-पाँच ब्राह्मण जातियाँ गुरूकुल चलाती थीं। इन गुरूकुलों में एक समान शिक्षा पद्धतियाँ थीं। आदि गौडों के गुरूकुलों में पुस्तकें यानी शास्त्र नहीं होते थे। क्योंकि ये अपरिग्रही के साथ-साथ स्मृति परम्परा से जुड़े थे अतः उन्हें लिखित साहित्य की आवश्यकता नहीं थी। बाक़ी गौड़ों के गुरूकुलों की व्यवस्था जैसी थी उससे मिलती-जुलती ही व्यवस्था को पुनः शुरू करने की कल्पना नई बनने वाली शिक्षा परीक्षा पद्धति में कर रहा हूँ।
गुरूकुल एक विशाल पुस्तकालय होता था, जिसमें पुरानी पाण्डुलिपियाँ भी होती थी और नई पाण्डुलिपियाँ भी तैयार होती थीं। प्रत्येक गुरूकुल में सिर्फ एक शिक्षक होता था बाकी सभी जूनियर छात्र अपने सीनियर से पढ़ते थे। इसमें रटन्त विद्या नहीं थी, स्वाध्याय करके प्रयोग पर आधारित रह कर संयम की परीक्षा में खरे उतरना ही विद्यार्थियों के स्तर का आंकलन या मापदण्ड होता था। 
जब ब्राह्मण गवर्नमेण्ट की स्थापना हुई तो साथ ही साथ जातीय धर्म की भी हुई। गुरुकुल, जो देवालय भी थे, में जो शिक्षा ग्रहण की जाती थी वह अपनी-अपनी जाति के जॉब से जुड़ी व्यावहारिक, प्रायोगिक, Practical, Experimental, उपयोगी, Workable, Useful, Applied होती थी; आज की तरह बछड़े को गधा बनाने जैसी नहीं थी। 
आदि गौड़ ब्राह्मणों के छोटे-छोटे गुरूकुल ग्रामीण क्षेत्रों में सर्वत्र अनगिनत संख्या में फैले थे जहाँ किसी भी जाति का बालक भाषा और गणित की शिक्षा ले सकता था। फिर उसमें योग्यता होती तो वह अपनी जाति के जॉब से जुड़ा एक शास्त्र स्वयं तैयार करता था जिसके लिए वह अन्य चारों गुरूकुलों में जा सकता था। यह बालक युवा होते-होते अपनी जाति का ब्राह्मण घोषित कर दिया जाता था। वह अपनी जाति के जॉब  से जुड़ी सभी समस्याओं का समाधान, निर्माण उत्पादन की विधियों से लेकर अपनी जाति में होने वाली आधि-व्याधि यानी मानसिक शारीरिक बीमारियों का जानकार भी हो जाता था।
इस व्यवस्था में एक नियम था कि उसकी सन्तान योग्य होने पर ही ब्राह्मण पद पर प्रतिष्ठित होती थी अन्यथा वह पुनः अपनी जाति का साधारण व्यक्ति हो जाता था और शिक्षक के स्थान पर निर्माण एवं उत्पादन में लग जाता था।
इस व्यवस्था में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यही था कि जो भी बालक नवयुवा होने तक आत्मसंयम योग पर योगारूढ़ हो जाता वही ब्राह्मण पद पर प्रतिष्ठित हो सकता था वर्ना नहीं। वैसे अधिकांशतः गुरुकुल में रहने और सत्व प्रधान आहार लेने तथा निष्काम कर्म में लगे रहने से वह योगारूढ़ हो ही जाता था।
    आत्म-संयम पर योगारूढ़ होना इसलिए आवश्यक था ताकि उसमें समभाव पैदा हो जाये। अपनी सन्तान के प्रति मोहग्रस्त न हो और अपने जातीय-कुटुम्ब की समस्याओं को स्वार्थ जनित दृष्टिकोण से नहीं देखे; उसमें परमार्थ जनित दृष्टिकोण पैदा हो जाये। प्रत्येक व्यक्ति की समस्या को समुदाय की समस्या  समझे।
चारों गौड़ों तथा अन्य सभी ब्राह्मणों को जब भी किसी समस्या से सामना करना करना पड़ता या जब वो शास्त्रीय भाषा को नहीं समझ पाते या शब्द ब्रह्म का अर्थ स्पष्ट नहीं होता तो वे आदि गौड़ ब्राह्मण के पास जाते जो कि निकट ही कहीं न कहीं मिल ही जाते थे।
आदि गौड़ ब्राह्मणों के सिवाय सभी ब्राह्मण जब तक आत्म-संयम योग के लिए समाधि की अवस्था को प्राप्त नहीं हो जाते, तब तक तो ब्रह्मचर्य का पालन करते थे, लेकिन बाद में एक पत्नी धर्म की पालना करना उनके लिए कठोर नियम नहीं था क्योंकि कोई भी नारी एक अच्छी सन्तान के लिए उनसे आग्रह कर सकती थी और उनका यह धर्म होता था कि वे उसके आग्रह को स्वीकार करें और उसके गर्भ से अपनी संतान पैदा करें यानी पुत्र दान करें। यह प्रथा इसलिए बनाई गई ताकि नस्ल-सुधार का कार्यक्रम भी समानान्तर चलता रहे क्योंकि गुप्त शासन काल में नगरों में रहने, पौष्टिक-आहार की कमी से और व्यभिचार के कारण मानव नस्ल भी कमज़ोर हो गई थी जबकि इस नव-निर्मित सभ्यता-संस्कृति में सभी वर्गों को ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था में स्थापित करना था जहाँ वे दुर्बल साबित हो रहे थे। दूसरा तथ्य यह भी था कि उस समय स्त्री-पुरूष का अनुपात भी बिगड़ गया था। पुरूषों की संख्या भी कम हो गई थी ओर उनमें नपुंसकता भी आ गई थी। { यदि इसी तरह से शहरीकरण होता रहा तो यह समस्या निकट भविष्य में पुनः आने वाली है।} 
ये सभी ब्राह्मण जातियाँ जो अपनी जाति के गुरू के रूप में विकसित हुई थीं; द्विज कहलाती थीं। अर्थात् वे पहली बार सन्तान के रूप में पुत्र माता-पिता के पुत्र होते थे और फिर ये गुरूकुल में जाकर शिष्य पुत्र के रूप में दुबारा जन्म लेते थे तब यज्ञोपवीत संस्कार होता था।
     इस व्यवस्था का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि किसी भी कारण से यदि कोई युवक-युवती अपना जाति-धर्म बदलना चाहता तो बदल सकता था। जैसे अलग-अलग जाति के युवा में प्रेम हो गया अथवा अपना रोजगार अप्रिय लगा अथवा एक विषय के रोजगार सृजन के अनुपात में संख्या बढ़ गई और किसी अन्य में इसके विपरीत हो गया तो जाति धर्म बदला जा सकता था लेकिन एक सरत शर्त के साथ कि उनको आहार,वेशभूषा और जीवन शैली [दैनिकचर्या] भी बदलनी पड़ती थी।
    अब आप इस जाति व्यवस्था की इसके आज के खण्डहर से तुलना कर सकते हैं।
    यह व्यवस्था छठी शताब्दी के समाप्त होने और सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ होने तक स्थापित हो चुकी थी और तेरहवीं शताब्दी तक न सिर्फ बिना किसी अवरोध के चलती रही बल्कि अपने लक्ष्यों को विस्तार भी देती रही। लेकिन पृथ्वीराज चैहान के मोहम्मद गौरी से हारने के बाद विश्व में यह सन्देश गया कि भारत की सीमा अब उतनी सुदृढ़ नहीं रही। तब भारत की इस सांस्कृतिक व्यवस्था पर तीन तरफ से हमले होने लगे। 

रविवार, 29 जुलाई 2012

39. ब्रह्मविद्या का उपयोग करके ही छठी शताब्दी में एक सनातन समाज व्यवस्था बनाई

      गुप्तों के शासन का पतन जिस कारण हुआ था उसकी तुलना आज की स्थिति से की जा सकती है। जैसे कि एक तरफ विश्व  के सभी राष्ट्र भयानक ऋण में डूबे हैं और जिनके हाथ में अर्थ[धन-धान्य] पैदा करने की सत्ता हैं वे गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं।
     दूसरी तरफ आप युवा वर्ग अच्छी वित्तीय स्थिति[अच्छे वेतनमान] को प्राप्त करने के लिए उन व्यापारिक घरानों-प्रतिष्ठानों के नौकर बनकर उनके लिए दिन रात मेहनत करके उन्हें राष्ट्रों को खरीदने की क्षमता रखने वाले वित्तेश बनाने को आतुर हो रहे हैं। ये वित्तेश अपने भवनों को राष्ट्रपति भवन जैसा बनाने में सक्षम हो रहे हैं। ऐसा क्यों है और इससे पूर्व भी ऐसा बार-बार क्यों होता आया है ?
क्योंकि देव, रक्षस, यक्ष इन तीन वैदिक सत्ताओं के पीछे जो तीन स्वभावों की सत्ताऐं हैं उसके ऊपर एक सत्ता है जिसे आत्म-भाव यानी आत्म-अनुशासन की सत्ता कहा जाता है इसे ब्राह्मण-धर्म की सत्ता कहा जाता है। वह सत्तावर्ग आज हाशिये पर आ गया है। ब्राह्मण[अध्यायक] को शूद्र[नौकर,तनख्वाह लेने वाला तनखैया,वेतन लेने वाला वृत्तिधारी,प्रशासन का गुलाम] बना दिया है,ऐसी स्थिति में योग्य[योगी]तो ब्राह्मण बनना भी नहीं चाहेगा।
प्रत्येक वर्गीकृत सत्ता की तरह ब्राह्मण सत्ता में भी दो वर्ग तो होते ही है, एक शासक दूसरा शासित(जन साधारण प्राकृतिक उत्पादक)। 
जब तीनों वैदिक सत्ताओं के स्वभाव में विकार आ जाता है तो प्रथम स्तर पर वे अपने द्वारा शासित वर्ग के शोषक बन जाते है तत्पश्चात् वे अन्य दोनों वर्गों को भी शासित करना शुरू कर देते हैं और उनके भी शोषक बन जाते हैं। क्योंकि इन सभी प्रकार के वर्गो के मनोविज्ञान में मूल मनोविकार एक ही होता है और वह है असन्तुष्टि। उस असन्तुष्टि के कारण पैदा होता है राग एवं द्वैष नामक अभाव। अभाव के कारण तृष्णा बनी रहती है.
जबकि यदि शासक वर्ग शिक्षित ब्राह्मण अध्यापक है और आत्म-अनुशासन में आत्म-भाव में, आत्म-विश्वास में रहता है और अपनी प्रकृति, प्रवृति, स्वभाव, अध्यात्म, नेचर, आदत, फ़ितरत को अपने वश  में करने का मानसिक सामर्थ रखता है तत्पश्चात् जो शासित वर्ग है उसको अपने-अपने स्वभाव के स्वाभाविक स्तर अर्थात् अपने-अपने आध्यात्मिक स्तर का, अपनी रूचि एवं क्षमता के अनुरूप काम (Job) मिल जाता है तो उसे कार्य सन्तुष्टि Job satisfaction रहती है तब उस व्यवस्था को ब्राह्मण धर्म आधारित व्यवस्था कहा जाता है। वह सनातन बनी रहती है। 
       लेकिन यह संभव तभी हो पाता है जब शासित होने के पीछें आर्थिक मजबूरी नहीं हों। सभी को प्रकृति प्रदत अर्थशास्त्र का ज्ञान हो।
इस ब्रह्मविद्या का उपयोग करके ही छठी शताब्दी में एक सनातन समाज व्यवस्था बनाई थी। लेकिन सोलहवी शताब्दी में इस व्यवस्था पर चारों तरफ से आघात हुए लेकिन इसको जड़ से उखाड़ कर फेंका इस संस्कृति की अपनी ही सन्तानो ने । 
छठी शताब्दी से पूर्व तक और बुद्ध-महावीर से पूर्व, कृष्ण-बलराम से पूर्व कष्यप ऋषि से पूर्व यहाँ तक कि आदि पुरूष शंकर से भी पूर्व की परम्परा है ब्राह्मण परम्परा। 
श्रीमद्भगवद् गीता सहित सभी वर्गों के धार्मिक ऐहित्य (पौराणिक  साहित्य) में उल्लेख आता है कि सभी पुरूष प्रधान सभ्यता संस्कृतियों के आदि के संस्कारित पुरूष सप्त-ब्रह्मण कहे गये हैं। वैदिक साहित्य में उन्हें सप्त-ऋषि कहा गया । 
एक इस बिन्दु पर भी ग़ौर करें कि शंकर को इस पृथ्वी का पहला नर पुरूष बताया गया है और प्रजापति कष्यप को भी कल्प का आदि पुरूष बताया गया है लेकिन शक्ति पार्वती को भी और कष्यप की पत्नियों को भी दक्ष प्रजापति की कन्याऐं बताया गया है । 
इस विषय के सभी पहलुओं को स्पष्ट करने के लिए अलग से लेखन होगा लेकिन यहाँ इतना ही समझना पर्याप्त है कि ब्राह्मण-सत्ता की परम्परा शरीर की वंश (Hereditary,Genetic) परम्परा नहीं है जो शुक्राणुओं के गुणसूत्रों के सहारे चलती है बल्कि यह तो वह परम्परा है जो सुर्य के चुम्बकीय क्षेत्र से जुड़ी है। 
प्रकृति और पुरूष अर्थात् गुरूत्वाकर्षण बल और पदार्थ (ईथर) अजर-अमर है। इसी को गीता में देही और शरीर कहा गया है जो कि न मरता है न पैदा होता है। न जलाया जा सकता है इत्यादि - इत्यादि । लेकिन ब्रह्मा की आयु होती है जो कि हज़ारों युगों की होती है । 
ब्रह्मा के दिन के समय पृथ्वी पर जीव-जगत व्यक्त होता है और रात्रि के समय अव्यक्त में चला जाता है । यह गीता सहित अनेक उपनिषदों में कहा गया  है । 
इसका तात्पर्य है जब सूर्य में हाइड्रोजन के आणविक विस्फोट से उर्जा बनती है तो वह ब्रह्मा के दिन का काल-खण्ड होता है। सभी वनस्पति जीव सूर्य की ऊर्जा से चेतना ग्रहण करते हैं और वैदिक परम्परा का, बोडी की परम्परा का निर्वाह होता है जिसके मूल सिद्धान्त दो है -
     (1) जीव ही जीवन का भोजन है ।
     (2) जीव से जीव की उत्पति होती है । 
तात्पर्य यह कि जैविक-विकास तो सूर्य (ब्रह्मा) के प्रकाशित होने के बाद होता है जबकि सूर्य जब ठण्डा गोला होता है और पृथ्वी बर्फ का गोला होती है, तब भी सूर्य का चुम्बकीय क्षेत्र या चुम्बकीय बल रेखायें बनी रहती है। 
वैदिक-ज्ञान यानी विज्ञान का ज्ञान तो तब शुरू होता है जब मानव देह का विकास हो चुका होता है,वह शारीरिक,मानसिक रूप से कमजोर हो चूका होता है तब उसे वैदिकज्ञान [विज्ञान] की आवश्यकता होती है और जब नस्ल कमजोर हो जाती है तो वह आत्म-अनुशासित भी नहीं रह सकती तब उसे वैदिक-प्रशासन प्रणाली की आवश्यकता होती है।   
   जबकि ब्रह्म (चेतना) की परम्परा तो तभी पुनः शुरू हो जाती है जब ब्रह्मा के दिन के समय के प्रारम्भ में पृथ्वी पर पुनः रासायनिक योगिक (मोलिक्यूल) का रूप लेती है और एमीनो एसिड (प्रोटीन) के मुदगलों में जीव (चेतना) का विकास होने लगता है । 
बीच में इस विषय को लाने का अभिप्राय यह है कि ब्रह्म परम्परा को लेकर कोई अतिशियोक्ति या अतिवादी विचार न माने बल्कि यथार्थ धरातल पर सोचे कि पृथ्वी के नष्ट होने या 2020 तक सभी कुछ नष्ट होने इत्यादि की प्राकृतिक दुर्घटना से डरने के स्थान पर यह सोचे कि हम अगर अव्यय जीवआत्मा बन कर ब्रह्म के चुम्बकीय क्षेत्र में अपने भाव से भावित रह कर अमर हो जाते हैं तो हम काल से अतीत हो जाते हैं।  लेकिन अभी हमें यह सोचना है कि हम जिस विकास की तरफ जा रहे हैं वह हमारा वर्तमान का जीवन ही नरक बना रहा है, उस  स्थिति में आगामी जीवन की कोन सोचेगा। हमें इस यथार्थ को समझना है कि जो काम हमारे बलबूते का है, उसे हम कैसे कर सकते हैं और हमने खुद ने आपस में राग-द्वेष पालकर राग-द्वैष जनित प्रतिस्पर्धा को जीवन की सच्चाई मान ली है उससे मुक्त होकर हम वर्तमान में क्या कर सकते हैं! एक सुन्दर भविष्य कैसे बना सकते हैं! 
अतः यहाँ मैं उस ब्रह्म परम्परा की बात कर रहा हूँ जो न तो साक्षरता से सम्बन्ध रखती है और न ही सभ्यता से और न ही प्राकृत स्थिति से उसमे रूकावट आती है। 
ब्रह्म-परम्परा तो वह स्मृति परम्परा है जो संस्कार बन कर जन्म-जन्मान्तर के लिए साथ चलती है और आगामी जीवन में पुनः उन्हीं भावों-अभावों को विकसित करती है। अब यह निर्णय आपका है कि आप भाव में भावित रह कर यह कलेवर (देह का ढ़ाचा) छोड़ कर जाना चाहते हैं या अभाव ग्रस्त होकर। 
जब तक अभावों से मुक्त नहीं होंते, भाव में भावित नहीं हो सकते, अतः इस लेखन को समझने के लिए इसमें उपयोग में लिए जा रहे, वैज्ञानिक-शब्दों को विज्ञान एवं दर्शन के शब्दकोष के रूप में समझें। इनके प्रति पूर्वाग्रहों को समाप्त करने के लिए ही मैं ब्रह्म,वेद शब्दों का बार-बार उपयोग कर रहा हूँ। फिर यह तथ्य भी है कि जहाँ विज्ञान के शब्द हैं वहाँ उनके स्थान पर कथा साहित्य के शब्दों का उपयोग करना सम्भव भी नहीं है। अतः ब्रह्म, ब्रह्मणी स्थिति, ब्रह्मण परम्परा, ब्राह्मण-धर्म शब्दों को उसी परिप्रेक्ष में समझने की चेष्टा करे जिस परिप्रेक्ष में, जिस प्रसंग में, जिस तात्पर्य से इनका उपयोग किया जा रहा है। क्योंकि मजबूरी यह है कि इन संस्कृत शब्दों के भावार्थ तो सभी भाषा में मिल सकते है लेकिन इसके शब्दार्थ और तत्वार्थ समझे बिना भावार्थ से भ्रामक धारणाये विकसित हो गई हैं। उन्हीं भ्रामक धारणाओं के कारण आपके मन में इन शब्दों के प्रति पूर्वाग्रह बन गये हैं जैसे कि ये ब्रह्मणवाद या साम्प्रदायिकता फैलाने वाले शब्द हैं। जबकि आप युवा पीढी को तो इन शब्दों के मूल अर्थो को जानना चाहिये । 
आप कल्पना करें कि वर्तमान का सभी प्रकार का विकास समाप्त हो जाये तब भी मानव जाति समूल नष्ट तो हो नहीं सकती। बची हुई जनसंख्या में कुछ शिक्षित लोग भी बचेंगे। उनमें इतनी समझ तो होगी ही होगी कि वो बचे हुए वर्ग को आदिम स्थिति में नहीं जाने देंगे। उनका बौद्धिक नेतृत्व करेंगे और स्वयं पीछे की घटनाओं और भविष्य की सम्भावनाओं पर चिन्तन करेंगे। यहीं से ब्राह्मण-परम्परा शुरू हो जाती है क्योंकि वह व्यक्ति ब्रह्म में रमण करने वाला दार्शनिक बन कर जब विज्ञान के इस विकास के सकारात्मक-नकारात्मक पक्ष पर चिन्तन करेगा यहीं से ब्राह्मण परम्परा शुरू हो जाती हैं। इस घटना क्रम में यह महत्वहीन हो जाता है कि वह किस जातीय सम्प्रदाय का था । 
जितने भी वैज्ञानिक आविष्कार और अनुसंधान हुए हैं, उनके जनक दार्शनिक रहे हैं। जिस वैज्ञानिक शोधकर्ता में दार्शनिक चरित्र जितना अधिक होता है वह उस शोध की निर्णायक स्थिति तक उतना ही जल्दी पहुँचता है । 
यह मनीषी परम्परा सिर्फ शुक्राणुओं, गुण-सूत्रों पर नहीं चलती अतः सभी-कुछ नष्ट होने पर भी पुनः जीवित हो उठती है लेकिन इसके विकास के हेतु संस्कार हैं। संस्कार के हेतु माता-पिता होते हैं अतः यह एक पितृकुल और दो गुरूकुल तीनों कुलों के सति होने से अर्थात् तीनों कुलों के माध्यमों को सेतु बना कर अपने आप में विकसित होती है। अर्थात् जिसे माता-पिता और परिजनों से बना परिवेस ब्रह्म में रमण करने वाला मिलता है, वह ब्राह्मण कहलाने वाली मानसिक प्रजाति का बन जाता है। इसके लिए उसे आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक इत्यादि सेतुओं की आवष्यकता नहीं होती अतः सभ्यता-संस्कृतियों के पतन और उत्थान से अविचलित यह परम्परा भारत में सदा बनी रहती है। 
भारत में इसलिए कि भारत वर्ष ही इस पृथ्वी का जैवविविधता वाला एक मात्र स्थान बचा हुआ है जहाँ सभी प्रकार के पौष्टिक आहार वर्षा के वार्षिक चक्र से स्वतः प्रक्रिया से उत्पादित होते रहते हैं । विश्व  के अन्य किसी भी भाग में इतनी अधिक वनस्पतियाँ एवं प्राणियों की प्रजातियाँ नहीं है और इस नस्ल की गायें भी नहीं है जो वनों में चरकर स्वतः अपने खूंटे पर पहूँच जाती हों । 
छठी शताब्दी में जब राजपूतों की उत्पत्ति हुई थी तो उनके शारीरिक बल को और मांसपेसियों की लचक को विशिष्ट बनाने के लिए वैदिक यज्ञों को माध्यम बनाया और उनके गुण सुत्रों (जीन्स) में एक विषेष कोड  विकसित कर दिया था लेकिन साथ ही साथ उनमें संस्कार भी विकसित किये थे और वे संस्कार थे गाय, ब्राह्मण एवं स्त्री की रक्षा करना। 
गुप्त शासकों के पतन के समय भी यह ब्राह्मण जाति दूरदराज़ के गांवों में, एकान्त में व्यापारिक, राजनैतिक, प्रतिस्पर्धाओं से मुक्त, दृढ़ता से जमी हुई थी। आज भी है, भविष्य में भी बनी रहेगी। यही ब्राह्मण जाति भारत में ज्ञान-विज्ञान को समूल नष्ट नहीं होने देती । 
छठी शताब्दि में जो क्रान्ति हुई उसमें सम्पूर्ण भारत वर्ष को ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के माध्यम से एक सूत्र में बाँध दिया गया था। जबकि राजाओं की सत्ता अपने छोटे-छोटे राज्यों तक सीमित थी और वे कृषि उत्पादक क्षत्रिय वर्ग की सुरक्षा के साथ-साथ ब्राह्मण सत्ता  को स्थापित करने और संरक्षण करने में भी मुख्य भूमिका में थे।