vivarn

Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.



कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।

Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made ​​by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

सोमवार, 30 जुलाई 2012

49. दशनामी शैव सम्प्रदाय की शाखायें !


   शैव सम्प्रदायों की आगे से आगे अनेक शाखायें है तथा इन्हीं के समानान्तर शाक्त सम्प्रदाय की शाखायें हैं। ये सभी शाखाएँ फोरेस्ट ईकोलोजी से जुड़ी शाखायें है। लेकिन इनमें एक व्यवस्था रही है कि जो गृहस्थ बनना चाहे वह परिवार बसा सकता है लेकिन इनको इस एक नियम का कठोरता से पालन करना होता था कि ये गृहस्थियों की बस्तियों में प्रवेश नहीं करेंगे।
जो मूल ब्राह्मण जाति जिसे आदि-ब्राह्मण या आदि गौड़ ब्राह्मण कहा जाता था, स्वभावतः ही उनका आचरण तो यह था कि वे तो एकान्त में स्थापित अपनी कुटिया से या गुरूकुल से बाहर जाते ही नहीं थे और ना ही उनमें संयुक्त परिवार होते थे। सात वर्ष और अधिकतम बारह वर्ष की सन्तान ही उनके साथ रह पाती थी । तत्पश्चात् उनके बालक भी गुरूकुल के अन्य छात्रों की तरह ही रहते थे। वे बालकों के अलावा अन्य किसी भी वर्ग से सीधा सम्पर्क नहीं रखते थे फिर भी पूरा समाज उनके बताये मार्ग पर चलता था। जब भी साम्प्रदायिक समुदायों में वैमनस्य फैलता और नई मान्यताओं के साथ नई समाज व्यवस्था करनी होती थी तभी इनकी भूमिका शुरू होती थी बाक़ी ये ब्रह्म में रमण करने वाली ब्राह्मणी स्थिति को प्राप्त हुए रहते थे।
     ब्राह्मण गृहस्थ जीवन की सांसारिक उठापटक से मुक्त निर्विकार निर्लिप्त रहने वाले स्वाभाविक आचरण वाले ब्रह्म-जीवी थे। इन्हें विप्र कहा जाता है। जिनको भी मिलना होता इनके घर आते थे।
दूसरे ब्राह्मण जिन्हें द्विज या साम्प्रदायिक ब्राह्मण कहा जाता था उनके लिए यह छूट थी कि ये गृहस्थ के घर में प्रवेश कर सकते थे लेकिन इनका आसन अलग होता था। ये द्विज ब्राह्मण अपनी शिष्य जातियों के घरों में ही प्रवेश करते थे। इनके जाने के बाद गृहणी इनके आसन को घर के बाहर ले जाकर झाड़ती और फिर समेट कर रख देती थी। ये द्विज ब्राह्मण अपनी शिष्य जाति के घरों में ही जन्मे होते थे और यदि इनकी सन्तानों का आचरण असंयमित होता या वे अविद्वान होते तो उन्हें अपनी शिष्य जाति की लड़की से विवाह करके पुनः अपनी मूल जाति में आना होता था और पुनः निर्माण अथवा उत्पादन में लग जाते। ऐसा इसलिये था जिससे अयोग्य शिक्षक वर्ग की संख्या असीमित नहीं हो ताकि निर्माता एवं उत्पादक वर्ग पर भी अनावश्यक बोझ नहीं पड़े। 
वैष्णव सम्प्रदाय में नियम था कि जो महंत होगा वह तो अविवाहित होगा ही होगा अन्य लोग चाहें तो अविवाहित भी रह सकते थे और विवाह भी कर सकते थे लेकिन सन्तानों की संख्या अधिक होने पर उस नई पीढ़ी को किसी न किसी निर्माण एवं उत्पादन से जुड़ी जाति में विलीन होना पड़ता था।  ये वैष्णव गांव में प्रवेश कर सकते थे लेकिन किसी के घर में प्रवेश  करना इनके लिए वर्जित था।  इनको सिर्फ़ मन्दिर तथा गौचर भूमि तक जाने की छूट थी।
शैव सम्प्रदाय की सभी जातियों के लिए नियम थे कि वे गाँव, बस्ती में प्रवेश नहीं करते थे। शैव सम्प्रदाय की सभी शाखायें वनौषधियों की जानकार होती थीं, यह उनका कर्तव्य कर्म था। वर्षा ऋतु में जब एक तरफ तो आवागमन के सभी मार्ग अस्त-व्यस्त हो जाते दूसरी तरफ मौसमी बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता तब ये लोग गांव के बाहर शिवालय में या उसके पास अपनी धूणी जमाते थे। लोग इस धूणी की भभूति[राख] लेने आते। एक तरफ श्रद्धा भाव, दूसरी तरफ औषधियों का प्रभाव ग्रामीण लोग उस भभूति को ग्रहण करके स्वस्थ हो जाते। विशेष बीमारी होने पर विशेष औषधि दे देते। 
वनौषधियों के जानकारों की तीन शाखायें थी।
     जैनाचार्य सूखी हुई जड़ी-बूटियों का उपयोग करते थे।
     संन्यासी हरी एवं ताज़ा जड़ी-बूटियों का प्रयोग करते थे तथा
     नाथ लोग प्राणियों के अंगों एवं विषों का उपयोग करते थे।
     उदासीन और वैरागी सम्प्रदाय वाले भूतविद्या[साईको-थेरेपी] से होने वाली चिकित्सा से जुड़े ओझा यानी झाड़ फूँक करने वाले होते।
आचार्य शंकर ने संन्यासी सम्प्रदाय को काल-स्थान-परिस्थिति के अनुरूप एक नई दशनामी व्यवस्था दी और इनको दस वर्गों में विभाजित किया तथा प्रत्येक वर्ग विशेषज्ञ चिकित्सक की तरह काम करता था। ये दस नाम इस प्रकार हैं:-
(1) तीर्थ (2) आश्रम (3) सरस्वती (4) भारती (5) वन (6) अरण्य (7) पर्वत (8) सागर (9) गिरि (10) पुरी
इनमें अलखनामी और दण्डी दो विशेष सम्मानित शाखाये थीं। दण्डी वे सन्यासी होते थे जो ब्राह्मण से संन्यासी बनते थे। इनके हाथ में दण्ड[डण्डा] होता था। ये आत्म-अनुशासित थे लेकिन इनका काम नवयुवा सन्यासियों को पढ़ाने[साक्षर करने] का था और उच्श्रृंखल नवयुवाओं को दण्ड देने का अधिकार सिर्फ इनके पास ही था। चुंकि सन्यास परम्परा गुरू चेला परम्परा होती है अर्थात् गुरू अपने सेवक[चेले] को प्रेक्टिकल जानकारी देता है अतः वह उसे दण्डित भी कर सकता है। अतः यह व्यवस्था बनाई गई कि दण्ड देने का अधिकार सिर्फ दण्डी स्वामी को ही होता था जो गुरूकुल चलाते थे। ये दण्डी, स्वामी-पुरी शाखा के अन्तर्गत ही रखे गये थे क्योंकि पुरी ही पुर अर्थात् परकोटे के अन्दर जा सकते थे।
दस प्रकार के रोगों और उनसे जुड़े दस प्रकार की औषधियों की जानकारी के परिप्रेक्ष्य में दसनामी सम्प्रदाय को समझना चाहिये।
   1 पुरी -   जो पुर अर्थात् परकोटे यानी घिरे हुए क्षेत्र में रहने वाले बड़े गाँवों में होने वाली बीमारियों का निदान एवं चिकित्सा करते थे। 
   2 तीर्थ -   तीर्थाटन पर आने वाले लोग विभिन्न क्षेत्र, जातीय और आर्थिक वर्गों के होते हैं। उनमें संक्रमण से होने वाले रोग होने की सम्भावना बढ़ जाती है। उनका निदान एवं चिकित्सा का विषय तीर्थ सन्यासियों का था।
   3 आश्रम - आश्रम उस स्थान को कहा जाता है जहाँ अनाथों से लेकर शोधकर्ताओं तक को आश्रय दिया जाता है। इस आश्रमों को रेज़ीडेन्शियल हॉस्पिटल भी कहा जा सकता है। यहाँ असाध्य रोगों का निदान एवं चिकित्सा होती थी।
   4 सरस्वती -  जो वर्ग नृत्य, संगीत एवं वाद्य यंत्रों को बजाने वाले तथा गायक होते हैं उनमें जोड़ों एवं मांसपेशी तंत्र के रोग होते है। उनका उपचार करना इनका विषय था।
   5 भारती =  जो लोग आहार की कमी यानी कुपोषण के शिकार होते हैं उन्हें आहार में पौष्टिक तत्वों को दिये जाने की जानकारी देने वाले भारती भ्रमणशील सन्यासी होते थे। ये लोग स्वर्ण निर्माण की विद्या भी जानते थे इस विद्या का उपयोग वहाँ करते थे जहाँ पूरे क्षेत्र में अकाल पड़ जाता था।
   6  वन =  जहाँ रेन फोरेस्ट होता है वहाँ अत्यधिक नमी के कारण पित्त के विकार से होने वाले रोग होते हैं वहाँ के लोगों के रोगों का निदान एवं चिकित्सा का काम वन करते थे।
   7 अरण्य =  जहाँ रेन फोरेस्ट के साथ-साथ चारागाह भी होते हैं और मांसाहारी तथा हिंसक पशु भी रहते हैं वह क्षेत्र अरण्य कहा जाता है। ऐसे स्थानों पर मूत्र रोग तथा डिहाईड्रेशन से सम्बन्धित रोग अधिक होते हैं उनका निदान एवं चिकित्सा करना इनका विषय होता है।
   8 पर्वत =  पहाड़, गिर, मेरू  इत्यादि नाम पर्यायवाची शब्द हैं। लेकिन पर्वत उन पहाड़ों को कहा जाता है जिनकी चोटियाँ ऊँची तथा पथरीली, पठारी होती है।
   9 गिरि = गिर उन पहाड़ों का कहा जाता है जो कम ऊँचे तथा हरियाली से अच्छादित होते हैं।
   10 सागर = जो वर्ग सागर किनारे रहने वाला तथा समुद्री जीवों को पकड़ कर आजीविका चलाने वाली जातीय समूहों के होते हैं उनमें कुछ विशेष प्रकार के त्वचा रोग होते हैं । उनका निदान एवं चिकित्सा इनका विषय रहा है।
     अब जब हमारा मुख्य मुद्दा भारत को भ्रष्टाचार मुक्त करने का है तो फिर हमें सबसे पहले इस धार्मिक वर्ग के बारे में सोचना चाहिये जिनका धर्म वनौषधीय चिकित्सा का कर्तव्य कर्म है। इनका कर्म गृहस्थियों तथा श्रम एवं उत्पादन से जुड़े समुदायों की सेवा करना रहा हैं न कि आस्थावान गृहस्थियों के श्रद्धा और विश्वास को माध्यम बना कर उनका भावनात्मक एवं आर्थिक दोहन करना रहा है, ना ही धर्म के नाम पर आपसी सम्बन्धों में वैमनस्य पैदा करना रहा है।
     आज जब फोरेस्ट ईकोलोजी नष्ट हो रही है तो सर्वाधिक और सर्वोच्च ज़िम्मेदारी इसी वर्ग की बनती है लेकिन आज यह वर्ग नगरों में रहने वाला ईश्वर भोगी वर्ग बन गया है। आज इस वर्ग में से उन गिने-चुने लोगों को हटा दिया जाये जो वयोवृद्ध हो चुके हैं तो बाक़ी बचे लोगों में से शायद ही कोई जानता होगा कि उनकी परम्परा कितनी कठोर तप की परम्परा रही हैं। बचपन से गुरू की सेवा करते हुए वनों में घूमना और औषधीय पौधों की प्रेक्टिकल जानकारी लेना और इसके साथ-साथ सेवा भाव बनाये रखना।
     आज सेवा का तात्पर्य बदल गया है। आज तो ये लोग कहते है कि हमारी सेवा करना गृहस्थों का धर्म है न कि हम सेवा करने वाले है। जबकि संन्यास की दीक्षा तभी दी जाती थी जब गुरू इस विषय के परिप्रेक्ष में आश्वस्त हो जाता था कि व्यक्ति में गृहस्थ की सेवा करने की भावना है। सेवा के बिन्दु पर आज भी ये लोग अपनी पैनी नज़र रखते हैं कि उनका शिष्य उनकी सेवा करता है या नहीं। लेकिन जब सेवा का सम्बन्ध गुरू की सेवा तक ही सीमित होकर रह जाता है तो फिर वह शिष्य भी कालान्तर में गुरू बन कर अपनी सेवा करायेगा।
    इस बिन्दु पर ईसाई मिशनरीज़ अधिक ईमानदार हैं जो आज भी इस परम्परा को सर्विस कहते हैं और निःशुल्क शिक्षण संस्थाऐं और चिकित्सालय चलाते हैं। लेकिन समस्या की जड़ यह है कि आज की मानव सभ्यता आध्यात्मिक पतन के निम्नतम स्तर पर इसलिए है कि व्यवस्था पद्धति का प्रत्येक लेन-देन काम एवं अर्थ आधारित यानी वाणिज्य आधारित हो गया है। प्रत्येक कार्य का मिशन पक्ष समाप्त हो गया है और प्रोफेशनल पक्ष हावी हो गया है।

48. ब्राह्मण सम्प्रदाय एवं शैव सम्प्रदाय !


      वैष्णव सम्प्रदाय सनातन धर्म की तीन शाखाओं में से एक है। ब्राह्मण संम्प्रदाय अध्यापकों, गुरूओं, शिक्षकों, ज्ञानियों, धर्मगुरूओं, आचार्यों इत्यादि वर्गों का सम्प्रदाय है तो शैव सम्प्रदाय क्षत्रियों, कृषि उत्पादकों, प्राकृतिक उत्पादकों, वनवासियों, श्रमजीवियों इत्यादि वर्गों का सम्प्रदाय है । 
   ब्राह्मण परम्परा ब्रह्म-भाव को विकसित करने के कर्तव्य कर्म की  परम्परा है, जबकि शैव-सम्प्रदाय ईश्वर-भाव को विकसित करने के कर्तव्य कर्म की परम्परा है । इन दोनों सम्प्रदायों को शिक्षा एवं स्वास्थ्य के परिप्रेक्ष में समझना  चाहिये । 
    जब सांस्कृतिक सभ्यताऐं पूरी तरह फोरेस्ट ईकोलोजी और एग्रीकल्चर ईकोलोजी से सीधा सम्बन्ध रखने वाली होती है, तब ज्ञान-विज्ञान की दिशा अव्यक्त की सच्चाई जानने की दिशा में जिज्ञासु होती है। ऐसी स्थिति में ब्राह्मण एवं शैव क्रमषः ब्रह्म और ईश्वर को जानने लग जाते हैं तब प्रकृति को माया अथवा योग माया कह कर मिथ्या (बनावटी) कह कर इसके अध्ययन को तुच्छ और सांसारिक कहते है । 
      लेकिन जब बाह्मण-क्षत्रिय आधारित सांस्कृतिक सभ्यता में व्यापार और वाणिज्य करने वाला वर्ग पैदा होता है तो ब्रह्म एवं ईश्वर भाव के विपरीत एक अभाव ग्रस्त वर्ग विकसित होने लगता है यानी उपजने लगता है। 
      चुंकि यह वर्ग मानसिक एवं शारीरिक दोनों आयामों से दुर्बल होता है अतः अभाव ग्रस्त होता है । इसी वर्ग को धर्म धारण करवाने का काम वैष्णव सम्प्रदाय का है । 
    कृष्ण ने वैष्णव सम्प्रदाय की स्थापना की। क्योंकि उस समय व्यापारी वर्ग के रूप में विदेशी  यक्षों ने अपनी वित्तीय सत्ता स्थापित कर ली थी। वही वैष्णव धर्म, जो कालकलवित हो गया था, उसे छठी शताब्दी में काल-स्थान-परिस्थिति के यथार्थ अनुरूप में पुनः स्थापित किया गया। अर्थात् वैष्णव मन्दिर अर्थव्यवस्था के केन्द्रीय कार्यालय या मुख्यालय थे और सनातन-धर्म या ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के प्रशासनिक स्थान थे। 
      ग्रामीण समुदाय अपनी वर्ष भर की आवष्यकताओं के जितना संग्रह करके बचे हुए अतिरिक्त उत्पादन को मन्दिर में चढ़ा देते थे। 
      गुप्त काल में जो भव्य अट्टालिकाऐं व्यक्तिगत हुआ करती थी उनका स्थान भव्य मन्दिरों ने लेना शुरू कर दिया । धीरे-धीरे नगर भी नष्ट हो गये और सनातन धर्म का वैभव लौटने लगा था। 
    वैष्णव मन्दिर एवं शैव मन्दिरों की संख्या गुप्तकाल में भी कम नहीं थी लेकिन उस समय ये दो सम्प्रदायों के रूप में वैमनस्य फैलाने वाले केन्द्र थे जबकि हर्षवर्धन के आन्दोलन में इन्हे निःशुल्क शिक्षा, आहार, भजन कीर्तन एवं चिकित्सा केन्द्र के रूप में विकसित किया गया । इन मन्दिरों की विपुल सम्पतियाँ, विष्णु एवं लक्ष्मी के श्रृंगार के स्वर्ग आभूषण इत्यादि ब्राह्मण गवर्नमेन्ट के एक तरह के राज्य कॉष का हिस्सा थे। 
    ये मन्दिर तीर्थ यात्रियों के विश्राम स्थल, तीर्थाटन के केन्द्र और उत्सवों त्यौहारों के केन्द्र तो थे ही थे लेकिन इनकी विषेष भूमिका तब बनती थी जब अकाल पड़ जाता था। इसी तरह की भूमिका के रूप में ईसाईयों के चर्च एवं इस्लामिक सम्प्रदाय की मस्ज़िदों का विकास हुआ। चर्चों एवं मस्ज़िदों में तथा वैष्णव मन्दिरों में एक फर्क अवष्य रहा। वह था देवी-देवताओं के विभागों के रूप में वैष्णव मन्दिर जाति आधारित थे । कालान्तर में मस्ज़िदें एवं चर्च भी साम्प्रदायिक विभाजन को स्वीकार करने लग गये। 
    राग एवं द्वैष जनित जातीय वैमनस्य जैसा आज हम देख रहे हैं वैसा कभी नहीं रहा। सभी जातियाँ एक दूसरे के जॉब के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास रखने वाले रहे हैं क्योंकि सभी जातियाँ एक दूसरे की पूरक होती हैं, आवष्यक वस्तुओं की आपूर्ति परस्पर होती है, यह समझ हमारे पूर्वजों में रही है । 
   सभी देवी-देवता किसी न किसी जाति विशेष के देवता होते थे लेकिन वर्ष में एक दिन ऐसा भी आता था जब ये सभी मन्दिर एक साथ एक समान सभी जातियों के उत्सव का केन्द्र होते थे। वर्ष का वह एक दिन वह दिन होता था जो उस देवता का जन्म दिन होता था तथा विशेष उत्सव एवं त्यौहार के नाम से जाना जाता था । उस दिन वहाँ  मेला लगता और प्रसाद वितरित होता था । वितरित किया जाने वाला प्रसाद निकट भविष्य में होने वाली मौसमी बीमारियों की अग्रिम चिकित्सा के रूप में औषधि होती थी । 
शैव एवं शाक्त सम्प्रदाय 
संख्या बल से देखा जाये तो ब्राह्मण सम्प्रदाय का अनुपात न्यूनतम रहा है । एक-दो प्रतिशत। वैष्णव सम्प्रदाय का प्रतिषत भी पाच दस से ऊपर नहीं रहा। वैष्णव सम्प्रदाय में वैष्य वर्ग के साथ-साथ निर्माण से जुड़ी जातियों को भी शामिल किया जाता है। क्योंकि इन्हें ही तो प्रकृति के महत्व को समझाया जाता है। ये सभी मिलाकर भी दस-पन्द्रह प्रतिषत से अधिक नहीं रहे। जबकि नब्बे प्रतिषत जातियां शैव सम्प्रदाय में आती हैं। 
वे सभी जातियां जो किसी न किसी प्राकृतिक उत्पादन से जुड़ी होती हैं वे शैव सम्प्रदाय में आती हैं । इन्हीं प्राकृतिक उत्पादक जातियों में विषेषकर फारेस्ट ईकोलोजी यानी, वनोत्पादन की अर्थ व्यवस्था से जुड़ी जो जातियाँ हैं उनमें मातृ सत्तात्मक परिवार या समाज से जुड़ी जातियाँ शाक्त सम्प्रदाय में आती हैं। जैन एवं बौद्ध सम्प्रदाय की शाखायें भी पितृ एवं मातृ सत्तात्मक भागों में विभाजित हैं। विषेषकर दिगम्बर जैन और बौद्धों में झेन सम्प्रदाय। झेन शब्द जैन का ही अपभ्रंष उच्चारण है । 
शैव सम्प्रदाय में शाखायें इस प्रकार हैं:-
    1. पशुपतिनाथ सम्प्रदाय 
नाथ
स्वामी
भैरव 
    2. परशुराम सम्प्रदाय
        क ब्राह्मण 
        ख वैरागी
        ग उदासीन
    3. आदिनाथ सम्प्रदाय 
नाथ
ख    स्वामी
  भैरव
   4. दत्तात्रैय द्वारा प्रचलित गुरू-शिष्य परम्परा 
दत्त सम्प्रदाय


47. वैष्णव धर्म बनाम वैश्य वर्ग !


   जैसा कि धर्म की मूल परिभाषा में धर्म के तीनों आधारों (1) मनोवैज्ञानिक पक्ष, शिक्षा (2) शरीर वैज्ञानिक पक्ष, आयुर्वेद तथा (3) समाज वैज्ञानिक पक्ष, अर्थ-व्यवस्था का उल्लेख बार-बार आता है। इस विषय में यह समझना महत्वपूर्ण है कि जब अर्थव्यवस्था वानिकीय पारिस्थितिकी Forest Ecology  पर सुचारू रूप से चल रही होती है तो धर्म का तीसरा अर्थशास्त्रीय आधार महत्वहीन हो जाता है। तब धर्म के दो ही आधार बचते हैं, शिक्षा और स्वास्थ।
शिक्षा का आधार ब्रह्म होता है जो कि हमारे ब्रेन से निकलने वाला चुम्बकीय क्षेत्र होता है। स्वास्थ का आधार ईश्वर होता है जो हमारे शरीर में विद्यमान अपरिमेय[असंख्य] परमाणुओं को अनुशासित रखने वाला ईथर होता है।
ब्रह्म-परम्परा के साहित्य को ब्रह्म-सूत्र वेदान्त और उपनिषद कहा गया है और परम्परा को स्मृति-परम्परा कहा गया है। वेद-परम्परा के साहित्य को वैदिक-ऋचाएँ, छन्द, सिद्धान्त और पुराण कहा गया है तथा परम्परा को श्रुति-परम्परा[लेखन भी इसी का भाग है] कहा गया है।
  इन दोनों परम्पराओं में धर्म शब्द का उपयोग अनुशासन के लिए नहीं होता। वैदिक परम्परा में धर्म का अर्थ हो जाता है तत्व की गुण-धर्मिता वहीं ब्राह्मण परम्परा में धर्म का अर्थ आत्म अनुशासित आचरण या प्रवृति हो जाता है। लेकिन जब अर्थव्यवस्था का आधार वानिकीय पारिस्थितिकी Forest Ecology नहीं होकर वस्तुओं के आदान-प्रदान वाली, श्रम एवं उत्पादन वाली अर्थात् मानव निर्मित अर्थव्यवस्था होती है तो वहाँ अनुशासित रहने के लिए एक मानवीय धर्म की आवश्यकता होती है। अनुशासित रहने के लिए कुछ मान्यताओं की आवश्यकता होती है। अनुशासन तोड़ने पर दण्ड के प्रारूप की आवश्यकता होती है। कुल मिलाकर एक धर्म की आवश्यकता होती है। नियम, संविधान, क़ानून-कायदों की आवश्यकता होती है।
गुप्त-काल में जब आर्थिक, सामाजिक, भावनात्मक तीनों स्तरों पर शोषक एवं शोषित वर्ग बन गये तो वैष्णव सम्प्रदाय नाम से एक सम्प्रदाय बनाया गया।
भारत में शोषित-वर्ग की दुर्दशा देख कर और अपने क्षेत्र में वैसी ही स्थिति देख कर पैग़म्बर मोहम्मद ने तो अपने अनुयाईयों से कहा कि, कोई किसी के सामने सजदा नहीं करें; यहाँ तक कहा कि प्रतिमाओं की भी पूजा न करें। क्योंकि यहाँ बौद्ध-जैन मन्दिरों में प्रतिमा पूजा और अरब क़बीलों में ओझाओं एवं कबीले के देवता की पूजा का प्रचलन था। अतः पैग़म्बर का यह मार्ग बहाव को रोकने जैसा था जो कालान्तर में दरगाहों में पूजा के रूप में फैला क्योंकि बहाव रूकता नहीं दिशा चाहता है जबकि भारत में उस प्रतिमा पूजा को एक अलग मन्तव्य से, अर्थव्यवस्था के केन्द्र के रूप में, एक सत्ता के केन्द्र के रूप में स्थापित किया गया था। यह एक तीर से अनेक निशाने जैसी व्यवस्था थी। इस व्यवस्था में इन बिन्दुओं पर निशाना साधा गया था।
   1- इन मन्दिरों से जुड़े विद्यालयों में विद्याएँ सिखाई जाती थीं, गुरूओं द्वारा गुर सिखाये जाते थे जिनसे निर्माण कार्य करके शिष्य जीविकोपार्जन कर सके। इस कार्य के लिए पैसा नहीं लिया जाता था और यह मान्यता भी प्रचारित-प्रसारित करके स्थापित की कि विद्याऐं बेचना घोर दुराचार माना जायेगा। कोई अपनी सुख-सुविधाओं के लिए अपनी पुत्री को बेचता है तो वह जितना दुराचारी माना जाता है उतना ही दुराचारी उस देव[विद्वान-ब्राह्मण] को माना जायेगा जो अपनी विद्या बेचता है।
    जबकि आज के गुरूओं के पास तो खुद के पास भी विद्याऐं नहीं अतः वे धूर्त बुद्धि का उपयोग करके गृहस्थियों की जेब से पैसे निकलवाकर खुद ऐश कर रहे हैं और जहाँ तक पाठ्य पुस्तकों में लिखा रटवाने वाले गुरू हैं वे पैसा लेकर क्या सिखाते हैं यह बात आप खुद शान्ति से सोचें। 
    2- विद्या की ही तरह मनोरंजन भी निःशुल्क था। अपने देवता की स्तुतियाँ गाना, नृत्य, संगीत, गायन, वादन से मन को अनुरंजित करने के काम का टिकिट नहीं लगता था। प्रेम-प्रसंग और परिणय-सम्बन्धों पर गीत, संगीत, नाटिकाऐं, नृत्य इत्यादि विषय पर रचने वाले रचनाकारों के लिए कृष्ण को एक महानायक का रूप दे दिया गया जिस पर वे कुछ भी रच सकते थे, सभी कुछ मान्य था। क्योंकि वह नायक भगवान का रूप था जिसके हजारों नाम थे जो नाम आप विष्णु सहस्त्र नाम में से चुन सकते थे। 
    3- इन दो मौलिक आवश्यकताओं के साथ-साथ नैसर्गिक आवश्यकताएँ भी होती हैं क्योंकि भूखे भजन न होय गोपाला। इन मन्दिरों में आहार और चिकित्सा भी निःशुल्क थी तथा भोज्य पदार्थ और औषधि को बेचने को तो इतना भयानक दुराचार कहा गया कि यह तो अपनी मां को बेचने जैसा दुराचार है।
अब जब आप भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो आज तो सबसे बड़े व्यापार ही ये ही हैं। Restaurant, hotel, hostel, hospitals, nursing home एवं स्कूलें खोलना ही समाज में सबसे प्रतिष्ठित धन्धे हैं बाकी सभी धन्धों में उधार देना पड़ता है इनमें नगद और एडवांस मिलता है। अब जब आपका अर्थ-शास्त्र ही काम एवं अर्थ (कामार्थ) वाली वाणिज्य पद्धति पर है तो आप भ्रष्टाचार मुक्त समाज वाली बेतुकी कल्पना को साकार रूप कैसे दे सकते हैं! इसके लिए एक सम्पूर्ण क्रान्ति आवश्यक है । उस क्रान्ति के क्रमबद्ध कार्यक्रमों को शुरू करने से पहले आवश्यकता है, एक वैचारिक आन्दोलन की, कि क्या हम एक सुखी मानव समाज की स्थापना के लिए तैयार तो हैं या खाली और खोखली बातें ही कर रहे हैं ?  

46. प्रतिमा की पूजा का विज्ञान !


     अर्जुन को आचार्य द्रोण नामक देव[द्विज ब्राह्मण] ने धनुर्विद्या स्वयं सिखाई थी लेकिन वह अर्जुन उस एकलव्य से धनुर्विद्या में बहुत पीछे था जिसने द्रोण की प्रतिमा के सामने विद्या सीखी थी। ऐसा इसलिए हुआ कि गीता का एक सिद्धान्त है ‘‘जो देवों का यजन करता है वह देवों को प्राप्त होता है और जो मेरा यजन करता है वो मुझे प्राप्त होता है। जो देवों का यजन करता है, मैं उसे उसी देव के प्रति श्रद्धा में बाँधता हूँ लेकिन वो लोग मूर्ख हैं जो मुझ पूर्ण से विमुख होते हैं और अपूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं।
अर्थात् अर्जुन ने आचार्य द्रोण नामक देव का यजन किया था अतः जितना आचार्य द्रोण जानते थे उतना ही या उससे कम ही अर्जुन जान पाया लेकिन एकलव्य ने द्रोण की प्रतिमा के सम्मुख आत्म-विश्वास से उस परमात्मा का यजन किया जो सभी के शरीर में शरीर की प्रकृति के रूप में 'मैं' या 'अहम्' रूप में विद्यमान है अर्थात् आत्म-विश्वास में आकर अपने चित्त को अपने आप में एकाग्र करके जब एकलव्य ने यजन[यज्ञ कर्म] किया, अभ्यास किया तो वह उस विद्या में परिपूर्ण हुआ,पूर्ण पारंगत हुआ, उस विद्या के प्रत्येक आयाम का विद्वान हो गया अर्थात् आप जब प्रतिमा विशेष के सामने जाकर दीन-हीन-कृपण बनते हैं तो आप के अन्दर का वह देवता-विशेष  भी दीन-हीन-कृपण हो जाता है जबकि प्रतिमा को उस देवता का प्रतीक मान कर उस देवता को अपना आदर्श मान कर उस देवता के चरित्र को अपने अन्दर विकसित करने का प्रयास या अभ्यास करते हैं तो आपके अन्दर उस विषय में पूर्णता विकसित हो जाती है। यह तो हुआ आत्म-कल्याण का यानी अपने शरीर-विज्ञान के धर्म का पक्ष।
  दूसरा है सामूहिक धर्म[अर्थशास्त्र] का पक्ष कि एक वर्ग जो सम्पन्न है, वह इस ब्राह्मण गवर्नमेन्ट के कार्यालय में प्रसाद चढ़ाता है तो दूसरा एक वर्ग जो विपन्न है उसे इस केन्द्र से पौष्टिक आहार के रूप में समान मात्रा में प्रसाद मिल जाता है।
आज अब हम इस बिन्दु पर भ्रष्टाचार की बात करें तो इन मन्दिरों में दिया गया दान पुजारियों का अभाव ही दूर नहीं कर सकता तो जनता में क्या वितरण होगा। यह ठीक वैसे ही है कि सरकार को दिया हुआ टैक्स सरकारी कर्मचारियों के वेतन में ही पूरा नहीं होता तो सरकार जन कल्याण में क्या कर पायेगी ?
सरकारी कर्मचारी,नौकरशाह, शाही-नौकर जो अपने नाम के आगे अधिकारी लगाना पसन्द करते हैं जिन्हें कर्मचारी शब्द ही पसन्द नहीं है, वे क्या कर्म कर पायेंगे! उनसे कर्म कराने के लिए घूस देनी पड़ती है। उसी तरह प्रतिमाओं को भगवान बना कर पुजारी लोग आप से चढ़ावा तो चढ़वाते हैं लेकिन वापस उसका वितरण नहीं करते। अब आप सोचें कि जब धर्म के नाम पर ही इतना अधर्म और अज्ञान है तो अन्य सांसारिक जीवन के पक्षों पर सदाचार कहाँ से आयेगा! क्योंकि आज प्रत्येक बिन्दु कॉमर्शियल हो गया है,  काम एवं अर्थ की गणित में उलझा है। अतः यदि एक ऐसे समाज की रचना करनी हो जहाँ भ्रष्टाचार नहीं हो तो पहली आवश्यकता है, सभी के अभावों को दूर किया जाये, तब उनमें भाव स्वतः पैदा होगा वे सदाचारी बने रहेंगे।
प्रतिमा की पूजा के परिप्रेक्ष्य में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचना चाहिये कि यह व्यवस्था सभी इन्सानों को एक जैसा मानने के आदर्श बौद्धिक स्तर के लिए बनायी गयी है ताकि व्यक्ति द्वारा व्यक्ति का भावनात्मक शोषण न होने पाये।
जिस व्यक्ति ने बोधिसत्व प्राप्त कर लिया, जिसका सत्व ऊर्ध्वगामी है, जिसके आहार में लिए गये वसा-शर्करा-स्टार्च के तत्व तंत्रिका तंत्र में पहुंच कर सत्व में बदल जाते हैं अर्थात् हार्मोंस का स्राव अमृत-तत्व (सत्व) के रूप में होता है उसे अपने अन्दर भाव पैदा करने के लिए किसी सहारे, माध्यम, प्रतीक या मिथक की आवश्यकता नहीं होती है।
जिस व्यक्ति में रज का प्रभाव अधिक होता है और रज के साथ सत्व की पर्याप्त मात्रा भी हो तो व्यक्ति में भाव पैदा होता है। और यह तभी होता है, जब किसी लक्ष्य को प्राप्त करने का उचित मन्तव्य उसकी मानसिकता में भरा जाये। तब वह कर्म करने का पराक्रम दिखा सकता है।
इसी तरह जब व्यक्ति में तम का प्रभाव हो, उस के आहार की वसा व शर्करा सत्व में नहीं बदल पाती हो, शरीर से कच्ची शर्करा मलमूत्र द्वार से बाहर निकलने लगती हो, जब उसमें भय, आंशका, प्रतिस्पर्धा, अविश्वास इत्यादि अभाव पैदा हो जाते हैं ऐसे व्यक्ति को अभावों से मुक्त होने और सकारात्मकता यानी आस्था के भाव पैदा करने के लिए मिथक Mythology,प्रतीक symbol भ्रम-विभ्रम Fallacies - hallucinations मान्यताऐं Recognition इत्यादि मेथोलोजी के सहारे की आवश्यकता होती है और उनके लिए सर्वसुलभ सहारा होता है प्रस्तर-प्रतिमा।
निःसंदेह मैं यह लेखन उस बौद्धिक वर्ग के लिए कर रहा हूँ जो उपरोक्त 98 % प्रतिशत वर्ग में आने वाले उस अभावग्रस्त जनसमूह के लिए काम करने के लिए आगे आयेंगे जो सहारा ढूँढ रहा है। भले ही आप के और उसके मत (वोट) का भाव (वेल्यु) एक समान है लेकिन उसका मत लोगों की सह-मति से पड़ता है और आपका मत स्व-मति से पड़ता है। अतः यहाँ जो प्रसंग प्रतिमा, मन्दिर इत्यादि का चल रहा है, उसमें इस तथ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि ये प्रथाऐं जो परम्परा का रूप ले चुकी हैं इन प्रथाओं के दो पक्ष हैं। एक पक्ष है आप लोगों के लिए जो इस लेखन को पढ़-समझ सकते हैं और दूसरा पक्ष उन लोगों के लिए है, जिनके कल्याण के लिए आपको आगे आना है। तात्पर्य है आपको इन मन्दिरों की व्यवस्था में हस्तक्षेप करना है और इनको पुनः उसी रूप में रूपान्तरित करना है जिसके पीछे एक विशेष मन्तव्य था। 
मन्दिरों को सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षणिक व्यवस्थाओं का केन्द्र बनाकर आत्म-कल्याण की ब्राह्मण परम्परा और जगत के कल्याण की वेद परम्परा (दोनों) का योग करके एक अद्धैत परम्परा बनाई गई। आपको वहाँ ब्राह्मण की भूमिका निभानी है क्योंकि ब्रह्मा का मानस पुत्र ब्राह्मण[पत्रकार] तो देवों[विद्वानों] में भी ऋषि[समाज वैज्ञानिक] कहा गया है, जिसे गीता में भगवान की विभूति का दर्ज़ा [स्तर] दिया गया है। आप में से जो व्यक्ति राजनीति के माध्यम से संसद में जाने वाले मार्ग का प्रहरी है वह ध्यान रखेगा कि निर्दलीय संसद में जाने वाला सांसद अभावग्रस्त नहीं हो, भाव से भावित रहे। ऐसा प्रहरी हो जो चहुँ ओर अपनी ज्ञानेद्रियाँ सजग रखने वाला ब्रह्मा रूप स्वतः ही हो गया हो।

33. ब्रह्म vs ईश्वर

      ब्रह्म को लेटिन में ब्रेन कहा गया है लेकिन इसका हिन्दी में शब्दार्थ बनता है चेतना। इसको विज्ञान की भाषा में समझना चाहे तो यह एक चुम्बकीय बल रेखाओं का क्षेत्र है।
सदैव जागृत रहकर गतिशील रहने वाले जगत की प्रत्येक जीवित कोशिका Cell  में एक विशिष्ट चुम्बकीय बल रेखाओं वाला क्षेत्र होता है। उसी चुम्बकीय क्षेत्र या बल-रेखाओं को पहचान कर एक ही जाति-प्रजाति की कोशिकाएं एक समूह में इकट्ठी होती हैं। कोशिकाओं के उस समूह को ऊत्तक[Tissue] कहा जाता है। उस Tissue की चुम्बकीय बल रेखाऐं उसी अनुपात में अधिक बल[फोर्स] पैदा करती है। क्योंकि यह अपना क्षेत्र बनाकर उसमें स्थिर-स्थित रहकर स्पन्दन करती रहती हैं वही स्पन्दन उसका बल[फोर्स] कहलाता है।
यही बल-रेखाऐं आपस में धक्का-मुक्की करके यह निर्णय करती है कि किस अंग[Organ] का विस्तार कितना करना है और इसके विस्तार की सीमा रेखा क्या होनी चाहिये ताकि देह की संरचना (डिजाईन) वैसी ही बन जाये, जैसी उस जीव प्रजाति की देह परम्परा से चली आ रही है । देह की इस डिजाइन का अंकन (प्रिण्ट) वंशानुगत,आनुवंशिक गुणसूत्रों [genetic-code] में रहता है । 
ब्रह्म द्वारा संचालित इस प्रक्रिया (रासायनिक क्रिया) को अधियज्ञ कहा गया है। इस अधियज्ञ क्रिया में असंख्य परमाणु योग (Composition,combination) और भोग ( decomposition) की प्रक्रिया से गुजरते हैं अधिक विस्तार में न जाकर सिर्फ इतना ही समझना पर्याप्त है कि इस उठा-पटक में अणुओं-परमाणुओं को अनुशासित रखने का कार्यभार ईश्वर सम्भालता है जिसका अपभ्रंष उच्चारण लेटिन में ईथर हो जाता है अर्थात् ब्रह्म की कल्पना को ईश्वर साकार,आकारसहित बनाता है । 
प्रत्येक जीव कोशिका या जीव कोशिकाओं से बने देह,अंग,ऊत्तक [Tissue] रूपी पिण्ड की चुम्बकीय बल रेखाओं को बल देने वाला परम्ब्रह्म वह विशाल चुम्बकीय क्षेत्र है, जो सम्पूर्ण सृष्टि में फैला है। उस ब्रह्म की व्याख्या या चरित्र-चित्रण या परिभाषा जो कही गई है उसे चुम्बकीय क्षेत्र के चरित्र यानी गुणधर्मिता के समकक्ष रख कर समझने का प्रयास करे । 
'वह परम-गति वाला सभी के अन्दर सभी के बाहर सब से अन्तःस्थ तथा सब से दूरस्थ, समान भाव से सर्वत्र व्याप्त, सर्वत्र स्थिर-स्थित एक ही है फिर भी उसकी विशेषता यह है कि वह सब में विशिष्ट दृष्टिगोचर होता है'। (अर्थात् देखने में सब में विषिष्ट या असमान लगता है) 
    समझने का रोचक बिंदु यह है कि ब्रह्म सर्वत्र एक ही चुम्बकीय बल रेखाओं,परमगति वाला एक ही है लेकिन सभी में विशिष्टता देने वाला,वर्गीकृत करने वाला और जीवकोशिका को,जीव को,जीव के आत्मभाव [आत्मा] को अलग-अलग स्वतन्त्र,स्वाधीन,आत्म नियंत्रित रहने का बल देने वाला और अमरता देने वाला है. लेकिन फिर भी वह एक ही है 'एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति'।
     जब कि ईश्वर का मामला इससे विपरीत है.ईश्वर प्रतेक मूर्ति [मूर्त रूप] का, देह का अलग-अलग होता है क्योंकि प्रतेक संरचना के अणु परमाणु को अनुशासित रख कर उसके अस्तित्व को पूर्णता देता है। ईश्वर के कारण ही यह वह सब पूर्ण है अतः 'जीवो जीवस्य भोजनम्' मे भोजन,भोग भी वही है और भोग् कर्ता,भोक्ता भी वही है.अतः प्रतेक जीव-संरचना को अलग अलग संरक्षण देने वाला,अलग अलग ऐश्वर्य देने वाला और अलग अलग अस्तित्व बना कर उस अस्तित्व की अलग अलग रक्षा करने वाला ईश्वर सर्वत्र अलग अलग, ऊर्जा के बण्डल के रूप मे अलग अलग इकाई Unit मे बन्टा हुआ है फ़िर् भी सभी जीव पिण्डों के साथ एक समान सम भाव में रहता है कही भी विशिष्ट व्यवहार नहीं करता।
       इस तरह ईश्वर सभी का अपना होता है फिर भी एक समान गुणधर्मिता को धारण किये रहता है जबकि ब्रह्म एक ही है इकाइयों में बँटा हुआ नहीं है फिर भी ईश्वर निर्मित प्रतेक इकाई को विशिष्ट चेतना दे कर सभी को विशिष्ट बनाता है।      
इस को एक शब्द में भी परिभाषित किया गया है जो शब्द है ‘‘वसुघैव-कुटुम्बकम्‘‘ अर्थात् पृथ्वी पर विद्यमान जगत का प्रत्येक जीव ब्रह्म की तंरगों से बँधा एक ही कुटुम्ब, कम्यून, कम्युनिटी का हिस्सा है ।
ब्रह्मपरम्परा का ज्ञान सिर्फ चार सूत्रों में सिमटा हुआ है। 
     सामाजिक पत्रकारिता में इस विषय की विवेचना करने का अभिप्राय यह बताना है कि ब्रह्म की आवश्यकताएँ [शिक्षा,क्रीडा,मनोरंजन]  हमेशा अपनी अपनी मौलिक होती है जो अपने अपने मूल,जड़,root से निकलती है यह जड़ हमारी उर्ध्मूलाकार [The shape of the root upwards] शारीरिक संरचना में ऊपर अपनी-अपनी खोपड़ी में अपनी अपनी मौलिक बन कर पनपती है।
      जबकि ईश्वर निर्मित विभिन्न प्रकार के शरीर नैसर्गिक आवश्यकताएँ [आह़ार निन्द्रा विरेचन] सभी की एक सामान होती है.
       हमें एक ऐसा भारत बनाना है जिसमे सभी को ब्रह्म प्रदत अपनी अपनी मौलिक आवश्कताएँ पूरी करने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता हो, ईश्वर प्रदत नैसर्गिक आवश्यकताएं [आहार,निंद्रा,विरेचन] पूरी करने की सभी को निष्पक्ष एक समान सार्वजनिक सुविधा हों और बेसिक आवश्यकताएँ [आवास,वस्त्र,वाहन] काल-स्थान-परिस्थिति के अनुरूप समसामयिक यथार्थ के अनुरूप पूरी हों।
      यह तभी सम्भव होगा जब आप अप्राकृतिक वर्ग भेद को मिटा कर प्रकृति द्वारा वर्गिकृत स्वभाव के अनुरूप वर्गीकृत व्यवस्था करेंगे।

45. शीतला माता !


   यह त्यौहार अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में अलग-अलग दिन मनाया जाता है जो इस बात पर निर्भर करता है कि कब वहाँ सर्दी समाप्त होकर गर्मी पड़ने लग जाती है।
शीतला, कुम्हारों की देवी हैं और इस दिन गधे की पूजा होती है। गधे के शरीर में शीतलता होती है। गर्मी में वात का प्रकोप होता है और वात जनित व्याधियों जैसे चेचक, बोदरी, Smallpox, cowpox, chickanpox तथा अन्य वे बीमारियाँ होती हैं जिनकी रामबाण दवा है पेनिसिलीन। यह औषधी जब बनी तो इसका टीका लगाने का प्रचलन भी हुआ और इसके इंजेक्शन भी बने। पेनीसिलीन फ़ंगस/फफूँद fungi से बनाई जाती है। गर्मी के मौसम में रोटी अचार इत्यादि पर सफेद-सफेद रूई जैसा दिखाई देता है वह fungi होता है।
शीतला के दिन ठण्डी रोटी अर्थात् एक दिन की बासी रोटी, खिचड़ी इत्यादि खाई जाती है। इस बासी भोजन में हल्का सा फ़ंगस पैदा हो जाता है जो आने वाले समय में Smallpox, cowpox,chikanpox  इत्यादि बीमारियों की अग्रिम रोकथाम करता है। जब किसी मां की गोद में दूध पीता शिशु  होता है तो उसे पहले दिन की रोटी दूसरे दिन खाने का क्रम कई दिनो तक निभाने को कहा जाता है।
पेनिसिलीन का अविष्कार तो एक शताब्दी पूर्व का है जबकि भारत में तो यह सदियों से चली आ रही प्रथा है।
{इन त्यौहारों की लम्बी सूची है लेकिन यहाँ इतना ही। इस विषय में अधिक जानकारी चाहिये तो गीता की व्याख्या करके लिखी गई पुस्तक ‘‘परमात्मा विज्ञानमय है‘‘ मंगवा कर पढ़ें।}
इन उदाहरणों के द्वारा मैं आपका ध्यान तीन बिन्दुओं पर खींचना चाहता हूँ (1) धर्म के ये सभी बिन्दु जगत के कल्याण के रूप में स्थापित किये गये थे जो ब्रह्म-परम्परा और वेद-परम्परा को अद्धैत करके बनाये गये अर्थात् विज्ञान को धर्म से जोड़ा गया। (2) इन त्योहारों पर वही प्रसाद या भोग चढ़ाया जाता है जिसका प्रावधान है, न कि बाजार से चाहे जैसी उलजुलूल मिठाई लाकर चढ़ाई जाये। ये प्रसाद स्वाद और मनपसन्द मिठाई के रूप में नहीं होने चाहिये बल्कि परम्परा में जो-जो भोग जिस-जिस क्षेत्र में प्रचलित है वही भोग देवता के चढ़ाया जाता है और हमें उसे प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिये । (3) ये देवी देवता हमारे शरीर के अन्दर चल रही यज्ञ-प्रक्रिया यानी रासायनिक गतिविधियों के रूप में होते हैं अतः इन्हें शरीर के अन्दर पुष्ट करने के दृष्टिकोण से लेना चाहिये। इस शरीर से बाहर किसी भी देवी-देवता,भगवान,GOD, अल्लाह का कहीं भी कोई अस्तित्व नहीं है।

44. कृष्ण जन्माष्टमी !


      गणेश चतुर्थी से कुछ समय पहले कृष्ण जन्मोत्सव मनाया जाता है। यह सर्वाधिक वर्षा का समय होता है। वर्षा में पित्त की वृद्धि होती है अतः पित्त विकार से होने वाली मुख्य बीमारी मलेरिया हो जाती है। यदि शरीर भी पित्त प्रकृति का हो और पित्त विकार की चिकित्सा नहीं की जाये तो यह पित्त विकार पित्ताशय, अग्न्याशय Gall bladder, pancreas के बाद लीवर को प्रभावित करता है और आगे जाकर पीलिया रोग  [jaundice] हो जाता है । इसी तरह यदि शरीर कफ प्रकृति का हो और पित्त में विकार हो और वह विकृत पित्त शरीर के बाहर नहीं निकले तो मौसम का तापक्रम कम होते ही कफ-पित्त जनित व्याधि टाईफाईड Typhoid हो जाती है। 
आप प्रतिवर्ष देखते हैं कि वर्षा शुरू होते ही सर्वप्रथम मलेरिया का प्रकोप होता है फिर वर्षा काल के अन्तिम चरण में पीलीया[jaundice] एवं टाईफाईड के मरीजों की संख्या बढ़ जाती है। इसका अग्रिम उपाय है पित्त के प्रकोप को शान्त किया जाये। कुपित पित्त को आयुर्वेद में राक्षस कहा जाता है जबकि पित्त  के शुद्ध होने पर वही पित्त राजस गुणों में, रक्त में वृद्धि करता है अतः पित्त  का अग्रिम इलाज वर्ष का सर्वाधिक महत्वपूर्ण इलाज होता है। 
पित्त विकार को शान्त करने, पित्त को शुद्ध करने और उस शुद्ध पित्त का पेन्क्रियाज/पित्ताशय/अग्न्याशय में संग्रह करने के लिए कृष्ण-जन्माष्टमी पर पंजीरी का भोग लगाया जाता है । जिसमें अजवायन, सौंठ, सूखा धनिया, घी और शर्करा का योग होता है। दिन भर खाली पेट रहने से पित्त को पचाने को कुछ नहीं मिलता। रात्री के बारह बजे और दूसरे दिन से, कई दिनों तक सुबह खाली पेट यह खाया जाता है। 
सोंठ पित्ताशय को उत्तेजित करती है। अजवायन पित्त को फाड़ कर उसे शुद्ध करती है। सूखा धनिया पित्त  को शान्त करता है और घी[दुग्ध वसा] तथा शर्करा उसके साथ यौगिक[कम्पाउण्ड] बना कर उसका संग्रह करते हैं जो सर्दी के मौसम में शरीर में ताप पैदा करके सर्दी से मुकाबला करने की ताकत देता है। 
यह प्रसाद लेने से पुण्य होता है अर्थात् मलेरिया, पीलीया, टाइफाईड जैसी बीमारियाँ नहीं होती है और न लेने पर पाप लगता है क्योंकि तब आप बीमार हो जाओगे।  
इस तरह पाप और पुण्य से जोड़ कर तथा मन्दिरों से वितरित करके इन औषधियों को प्रत्येक व्यक्ति की पहूँच में बनाया गया ताकि मौसमी बीमारियों का अग्रिम इलाज हो जाये और चिकित्सा से जुड़े ब्राह्मण वर्ग को सुकून मिले, उनका कार्यभार कम हो जाये।