धर्म की सुस्पष्ट परिभाषा शिक्षा है।
जैसा कि ब्रह्म-परंपरा का सम्बन्ध बुद्धि से और वेद-परम्परा का सम्बन्ध शरीर विज्ञान से है जो कि एक दुसरे के पूरक हैं। उसी दृष्टिकोण से बुद्ध-महावीर की शिक्षाओं को वर्गीकृत करें।
सबसे पहले तो दोनों की शिक्षा यानी धर्म को एक बिंदु पर सम करें, वह बिंदु है "प्राकृतधर्म"। दोनों धर्म वर्षावनों की सुरक्षा,संरक्षण,संवर्धन के विषय से और वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था से सम्बन्ध रखते हैं।
बुद्ध और महावीर की शिक्षाओं पर ग़ौर करें कि उनके उपदेश जिस आचरण को धारण करने को कहते हैं उनमें निम्न बिंदु होते हैं.
1.) जीव-जंतुओं को और वनस्पति को किसी भी तरह की हानि न पहुँचाएँ.
2.) आत्म अनुशासित रहें.
3.) अग्नि का त्याग करें.
4.) अपरिग्रही रहें.
5.) वस्त्रों का भी त्याग करें.
1.) जीव-जंतुओं को और वनस्पति को किसी भी तरह की हानि नहीं पहुँचाएँ
भारतवर्ष की सीमाएं वहां तक मानी जाती है जहां तक वर्षावन फैले हैं. बुद्ध की शिक्षाओं का भारत की पूर्व दिशा में प्रभाव फैला जहाँ पहले से सघन वन थे और मांसाहार का प्रचलन आम था. बुद्ध ने कहा था कि आहार के लिए शिकार न करें क्योंकि इससे वन्यप्राणियों की कमी हो जायेगी और तब वनस्पति को खाद और कार्बन डाई ऑक्साईड नहीं मिलेगी तो सनातन धर्मचक्र बाधित होगा, इसके लिए प्रतीक रूप में चक्र भी हाथ में रखते थे.
एक बार उनके सामने घायल पक्षी आ गिरा तो उन्होंने उसे खाने में परहेज़ नहीं करने को कहा था,क्योंकि वह दुर्घटना में मरा था.
मैं 1973 के आस पास अरुणांचल प्रदेश में आर्मी सप्लाई कोर की खाद्य सामग्री को असम के न्युमिसामारी F.S.D. से अरुणांचल के दुहांग, बोम्ड़ील्ला, तवांग F.S.D.तक पहुंचाने के काम से अक्सर इस क्षेत्र में आता जाता था. वहां रहने वाले बौद्ध एक खड्डा खोद कर उसे झाड़ियों से ढक देते थे तत्पश्चात वे किसी पशु को घेर कर उधर खदेड़ते और तब वह जानवर खड्डे में गिर जाता,फिर उसके मरने का इन्तज़ार करते.इस तरह बुद्ध की अहिंसा शिक्षा का पालन किया जाता है.
महावीर का जैन धर्म भारत के पश्चिम में फैलाया गया जहां रेगिस्तान को बढ़ने से रोकना और वनों का विस्तार करना और साथ में जनसंख्या का विस्तार करना भी शामिल था. वहां उन्होंने हरी वनस्पति का उपयोग करने को भी मना किया था. पौधा जब अपनी आयु पूर्ण करके अपने आप सूख जाए तो उसके अवशेष का आहार में उपयोग कर सकते हो. चूँकि जमीकंद में बीज नहीं होते अतः जमीकंद खाने को मना किया ताकि उसके विस्तार में अड़चन न आये. चींटी तक को मारने का मना किया.
बौद्धों के चेत्यालय होते हैं क्योंकि बौद्धधर्म ब्रह्म परम्परा से है जिसमे चेतना,बोध,सेंस के स्तर को बढाने के मार्ग बताये गए हैं. जबकि जैनधर्म में जिनालय और नसियां होती है. जिनालय में जिनेन्द्र की जय की जाती है. ये दोनों शब्द जनन क्रिया और जनन इन्द्रियों से सम्बन्ध रखते हैं.
प्राकृत के नसियां से अंग्रेजी का नर्सरी शब्द बना है. नर्सरी पौधशाला को भी कहा जाता है,तो बच्चों की शिक्षण संस्था या कक्षा को भी कहा जाता है तो नर्सिंग होस्पिटल भी नसियां ही होता है. नसियां आजकल मृत देह को दफ़नाने के स्थान रह गए हैं. जिसका कारण यह रहा है कि समाधि लेने वालों को जिनालय के परिसर में ही दफ़नाया जाता था.
बौद्ध-जैन धर्म आदिनाथ से चला है जिसकी शिक्षा का तरीक़ा पूरी तरह से प्रेक्टिकल रहा है ताकि आदिवासियों के समझ में आ सके.
2.) आत्म अनुशासित रहें.
चूँकि यह धर्म वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था वाले जिस भारतवर्ष में प्रचलित होता है वहाँ शासन-प्रशासन प्रणाली और लिखित संविधान नहीं होता अतः बौद्ध-जैन धर्म में लिखित में न तो कोई साम्प्रदायिक पुस्तक है और न ही कोई केन्द्रीय पद होता है. सिर्फ़ आचार्य होते हैं जो अपने भौगोलिक क्षेत्र विशेष के अनुरूप सम्यक ज्ञान यानी सम सामयिक यथार्थ का ज्ञान देते हैं.
3.) अग्नि का त्याग करें.
चूँकि प्राकृत धर्म पूरी तरह प्राकृतिक जीवन शैली वाला होता है अतः उसमे न तो पुरोहित होता है और न ही भोजन पकाने की परम्परा होती है तो फिर वस्त्र बनाना तो दूर की बात है अतः परम्परा का सांकेतिक निर्वाह करने के लिए जैन मुनि नग्न रहते हैं.
4.) अपरिग्रही रहें.
जिस समय वन में जो और जितना मिल जाये उसी से संतुष्ट रहे,संग्रह न करें.
5.) वस्त्रों का भी त्याग करे.
वनों में जीवाणु पैदा होते हैं अतः और वस्त्रं को साफ़ करने के लिए रसायन का उपयोग भी नहीं करते और वस्त्र निर्माण करना एक तरह से कर्म का विस्तार भी होता है.चूँकि प्राकृत धर्म में विज्ञान के विषयों का अध्ययन भी चिंतन-मनन के माध्यम यानी दर्शन के माध्यम से किया जाता है और एक पहुँचे हुए दार्शनिक को नग्नता का भान ही कहाँ रहता है.
यह प्राकृत धर्म की मूल अवधारणा है. लेकिन इसके 200 वर्ष बाद चाणक्य के समय यह व्यापारियों का एक अलग तरह का अहिंसा धर्म बन गया था जिसका उपयोग मार्ग में लूटने वाले डाकुओं को अहिंसा धर्म में दीक्षित करने के लिए किया जाने लगा. इसके 300 वर्ष बाद आज से 2000 वर्ष पूर्व यह प्राकृत धर्म विक्रमादित्य के समय से पूर्व तक एक मूर्खतापूर्ण अवधारणा बन चुका था और अप्रासंगिक हो चुका था.
तीसरी सदी में गुप्त काल के प्रारम्भ में यह पुनः अपनी मूल अवधारणा के साथ विकसित हुआ जो गुप्त काल के अंत तक पुनः बाणियों के हाथ में आकर अप्रासंगिक रूप ले चुका था. छठी सदी में हर्षवर्धन के समय इसे पूरी तरह काल-कलवित कर दिया गया और सिर्फ कर्नाटक के धारवाड़ क्षेत्र में अपनी मूल अवधारणाओं के साथ एक क्षेत्र विशेष तक सीमित कर दिया गया. वर्तमान में जो जैन-बौद्ध धर्म है वह तो अकबर की कूटनीति के अंतर्गत पुनः उसी रूप में स्थापित किया गया जो रूप अशोक ने दिया था और जिसका उपयोग अपने सैन्य कर्मचारियों को एक अहिंसा धर्म में दीक्षित करने के लिए किया गया ताकि काम पूरा होने के बाद सैनिकों की छँटनी की जा सके.
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