vivarn

Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.



कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।

Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made ​​by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

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गुरुवार, 19 जुलाई 2012

8. 2700 वर्ष पूर्व बुद्ध और महावीर ने प्राकृत धर्म की पुनःस्थापना की !



     आज से लगभग 2700 वर्ष पूर्व बुद्ध और महावीर ने प्राकृत धर्म की पुनः स्थापना की क्योंकि आज से लगभग साढे तीन-चार हजार वर्षों पूर्व आज के ईराक-टर्की-इजिप्ट के बीच के क्षेत्र में एक बहुत परिष्कृत औद्योगिक नगरों का क्षेत्र फैला था। भारत में आज से पाँच हज़ार वर्ष पहले कंस,दुर्योधन इत्यादि द्वारा भारत की पश्चिमी दिशा के काल यवन एवं पूर्वी दिशा के जरासंध जैसे राष्ट्राध्यक्षों से आर्थिक संधि करके भारत में भी औद्योगिक-नगरों का विस्तार किया गया था। 
    कृष्ण ने कूटनीतिक चालों द्वारा एक युद्ध का आयोजन करवाया और इस भौतिकवाद से ग्रसित विकास को नष्ट किया था और रोक लगाई।
     अधिकांशतः महाभारत तथा कृष्ण के परिपे्रक्ष्य में युद्ध और गीता का उपदेश ही प्रचलित जानकारियों का केन्द्र है। लेकिन असली काम तो युद्ध के बाद में कृष्ण ने किया था और वह काम था यक्षों को भारत से खदेड़ना।  
   वर्तमान की यह मानव सभ्यता वैदिक सभ्यता है किन्तु यह देवों के स्थान पर यक्ष एवं रक्षसों की सभ्यता है। यक्ष उस चरित्र का नाम है जो अनुबन्ध में बाँध कर शासन करते हैं और यदि अनुबन्ध का उल्लंघन होता है तो राक्षस सेना द्वारा बल प्रयोग करवा कर अनुबन्ध मानने  को मजबूर किया जाता है।
   कृष्ण ने रक्षसों को तो युद्ध में मरवा दिया और यक्षों को यह अल्टिमेटम दिया कि या तो आप भारत को छोड़ कर चले जाओ या फिर वित्त के माध्यम से आर्थिक शोषण को बन्द करके भारत में पशुपालन और कृषि की अर्थव्यवस्था वाली मुख्यधारा में आ जाओ अर्थात सनातन धर्म को अपना लो।
      इस तरह भारत तो सुरक्षित हो गया लेकिन यरूशलम में यक्षों ने अपने कार्यालय स्थापित किये जो आर्थिक राजधानी बनी और अपने चारों तरफ के क्षेत्र जिसमें अफ्रीका के उत्तर पूर्व के समुद्रतट का क्षेत्र और पश्चिम एशिया के ईराक,टर्की,जोर्डन,सीरिया,इज़राईल के क्षेत्र में तथा ग्रीस के क्षेत्र में औद्योगिक अर्थव्यवस्था को तेज गति दी।
     कृष्ण का जो माखन-चोर का चरित्र है,उसे जो लोग भक्ति-भाव के नाम पर आँख(दिमाग़) बंद करके स्वीकार कर रहे हैं वे भी उनके इस आचरण के पीछे छिपे मन्तव्यों से अनभिज्ञ हैं। और जो धर्म सम्प्रदाय जैसे शब्दों को अपने कुंठित विचारों में लादकर इसे एक काल्पनिक एवं मिथकीय कथा मात्र मान रहे हैं,वे भी सच्चाई से अनभिज्ञ हैं ।
    गौपालक कृष्ण और हलधर बलराम दो नायकों के इर्द-गिर्द घूमती महाभारत कथा भारत के इतिहास की वह कथा है जो सनातन है। कृष्ण ने उस आर्थिक व्यवस्था का विरोध किया था जिसमें दूध,दही,मक्खन का उत्पादन तो गांवों में होता है लेकिन मुद्रा(करेंसी) के लालच में यह पौष्टिक आहार नगरों में चला जाता है और ग्रामीण जन आर्थिक एवं शारीरिक दोनों पक्षों में बलहीन होते जाते हैं ।
    यहाँ जो प्रसंग चल रहा है,उसी के परिप्रेक्ष्य में पुनः ज़िक्र है कि जो औद्योगिक सभ्यता-संस्कृति पाँच हज़ार वर्ष पूर्व परवान पर चढ़ रही थी,जिसे माया सभ्यता भी कहा गया,जिसका एक रूप जो बौद्धिक राजधानी के रूप में था,ग्रीक तक फैल गया था,जहाँ से यूरोप में विस्तार हो रहा था; वह साढ़े तीन हज़ार वर्ष पूर्व ताश के पत्तों से बने महल की तरह ढह गई थी।
    आपने ग़ौर किया होगा कि पारसी जिन्हें Indian Jewish भी कहा जाता है वे अग्नि की पूजा करते हैं, इनके धर्म स्थल अगियारी कहलाते हैं। यहूदी भी अग्नि की पूजा करने के साथ-साथ रोटी की भी पूजा करते हैं।
     प्रथम वेद ऋक्-वेद के प्रथम छंद में कहा गया है ‘‘अग्नि मिळे पुरोहितम‘‘ अर्थात् वैदिक सभ्यता की शुरूआत में जिस अग्नि की पूजा की जाती है, वह अग्नि पुरोहित को यज्ञशाला (पाक शाला) में भोजन पकाना प्रारम्भ करने के लिए चाही गई।
      लेकिन उसी अग्नि की जब औद्योगिक ईकाईयों में प्रोसेस के लिए बड़ी मात्रा में आवश्यकता होती है और ऊर्जा के नाम से उस अग्नि का अति-उत्पादन हो जाता है तो वही अग्नि वैदिक सभ्यता के अन्त का कारण बनती है। इसलिए प्राकृत धर्मानुयाई मुनि अग्नि का त्याग करते हैं।
      साढे़ तीन हज़ार वर्ष पूर्व जब माया सभ्यता का विनाश हुआ तो यह क्षेत्र पूरी तरह वनस्पति विहीन और गर्म रेगिस्तान में बदल गया। क्योंकि सिन्धु नदी के उस पार से पूरे पश्चिम एशिया में फैले औद्योगिक नगर इस विनाश में नष्ट हुए। राजस्थान तक इसका प्रभाव पड़ा।
     इस तरह वर्तमान में जिस सभ्यता-संस्कृति को हम तहस-नहस होते देख रहे हैं या कहें कि आज जिस असभ्यता और अपसंस्कृति का विकास हो रहा है वह इस बात का संकेत है कि मानवीय सभ्यता-संस्कृति का पुनः अन्तकाल आ गया है क्योंकि इसी विकास से विषमता बढ़ रही है। इस सभ्यता संस्कृति का आदिकाल आज से साढे़ तीन हज़ार वर्ष पूर्व माना जायेगा। लेकिन चुंकि हमें जिस इतिहास की जानकारी है वह 2700 वर्ष पूर्व से यानी बुद्ध एवं महावीर से शुरू होता है।
इस तरह इतिहास का एक बिन्दु है 'काल खण्ड' जो इस प्रकार है।
     [1] बुद्ध महावीर काल लगभग 300 वर्ष तक चला और भारत वर्ष पुनः हरा-भरा हुआ,अथवा यदि हरा-भरा था और यवनों ने आकर यहाँ के की वनसंपदा को हानि पहुंचानी शुरू की तो उसकी सुरक्षा हुई और संवर्धन हुआ।
आज से 2700 वर्ष पूर्व, 700 वर्ष ईसापूर्व से
आज से 2600 वर्ष पूर्व, 600 वर्ष ईसापूर्व और
आज से 2500 वर्ष पूर्व, 500 वर्ष ईसापूर्व तक
      [2] चाणक्य-चन्द्रगुप्त काल लगभग 100 वर्ष तक माना जाये तो भारतवर्ष पुनः राष्ट्र की अवधारणा में बंधा लेकिन वह वर्गीकृत था। चाणक्य के नेतृत्व में भारत राष्ट्र में औद्योगिक क्रान्ति और नगरीकरण हुआ।
आज से लगभग 2400 वर्ष पूर्व, 400 वर्ष ईसापूर्व
      [3] अशोक काल लगभग 200 वर्ष तक चला उस समय भी भारतवर्ष और देश पर आज ही की तरह भारतराष्ट्र हावी हो गया था।
आज से 2300 वर्ष पूर्व,300 वर्ष ईसा पूर्व और
आज से 2200 वर्ष पूर्व, 200 वर्ष ईसा पूर्व
      [4] विक्रमादित्य का कालखण्ड लगभग 300 से 400 वर्ष तक चला इसमें नगरीकरण,औद्योगिकीकरण और भौतिकवादी विकास वाले राष्ट्र की अवधारणा पूरी तरह नकार दी गयी लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में एक से बढ़ कर एक प्रतिभाएं विकसित हुईं। आज आप भारत के जितने भी वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक शोधों के बारे में पढ़ते सुनते हैं वे सभी विक्रमादित्य द्वारा स्थापित व्यवस्था के काल खंड में हुए।
आज से 2100 वर्ष पूर्व,100 वर्ष ईसा पूर्व से 
आज से 2000 वर्ष पूर्व, 0   वर्ष ईसा विक्रम और 
आज से 1900 वर्ष पूर्व, पहली सदी और 
आज से 1800 वर्ष पूर्व, दूसरी सदी तक 
     [5] लगभग 300 वर्ष तक चले गुप्तकाल में पुनः वाणिज्य व्यापार चला और भारत सोने की चिड़िया बना लेकिन सभी वनखंड नष्ट हो गए और निर्माण और निर्यात की ऐसी आंधी आई की निर्माण से जुडी सभी जातियां पोष्टिक आहार की कमी और प्रदूषित वातावरण में रहने से छूत की बीमारियों से ग्रसित हो गयी और इन्सान ने इन्सान को अछूत बना दिया।
आज से 1700 वर्ष पूर्व, तीसरी सदी से 
आज से 1600  वर्ष पूर्व, चौथी सदी और 
आज से 1500 वर्ष पूर्व, पांचवी सदी तक 
    [6] हर्षवर्धन द्वारा प्रारम्भ राजपूतकाल और ब्राह्मण प्रशासनिक पद्धति का सांस्कृतिक काल जो सोलहवीं सदी तक चला।
आज से 1400 वर्ष पूर्व, छठी सदी से 
आज से 1300 वर्ष पूर्व, सातवीं सदी
आज से 1200 वर्ष पूर्व, आठवीं सदी
आज से 1100 वर्ष पूर्व, नवीं सदी
आज से 1000 वर्ष पूर्व, दसवीं सदी
आज से   900 वर्ष पूर्व, ग्यारवीं सदी
आज से   800 वर्ष पूर्व, बाहरवीं सदी
आज से   700 वर्ष पूर्व, तेहरवीं सदी
आज से   600 वर्ष पूर्व, चौहदवीं सदी
आज से   500 वर्ष पूर्व, पन्द्रवीं सदी तक
    [7] मुगलकाल तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनियों द्वारा आर्थिक शोषण काल
आज से   400 वर्ष पूर्व, सोहलवीं सदी
आज से   300 वर्ष पूर्व, सत्रहवीं सदी
आज से   200 वर्ष पूर्व, अट्ठारहवीं सदी
   [8] आज से 150 वर्ष पूर्व 1857 के बाद की उन्नीसवीं सदी से ब्रिटिश शासन द्वारा आर्थिक शोषणकाल
   [9] वर्तमान काल बीसवीं सदी का उत्तरार्ध अपनों ही द्वारा भारतीय सभ्यता संस्कृति के आत्मपतन का काल।
    यह काल-खण्ड इस लिए दर्शाया गया है ताकि इसे ईसा पूर्व या ईस्वी संवत से समझना चाहें तो आप लगभग समझें। यहाँ मैं संस्कृति-सभ्यता का इतिहास एक विशेष उद्धेश्य से बता रहा हूँ। अतः इसे उसी दृष्टिकोण से समझने का कष्ट करें जो मेरा उद्धेश्य है। इसे किसी सत्ताधीश के सत्ता पर बैठने और उतरने तथा उसकी दिनांक और वर्ष जैसे क्षुद्र एवं महत्वहीन तथ्यों पर नहीं जायें।
     इन ऐतिहासिक काल खण्डों में हुए परिवर्तन का जब हम सभ्यता-संस्कृति के दृष्टिकोण से अवलोकन कर रहे हैं तो इसमें सर्वाधिक घनत्व(डेनसिटी) वाले तथ्य धर्म एवं धार्मिक सम्प्रदायों के उत्थान पतन से जुड़े तथ्य और घटनाऐं ही होंगी।
     इस भूमिका के माध्यम से जो मैं बताने जा रहा हूँ,उसमें सबसे बड़ी अड़चन कहें या रोचकता एक बिन्दु पर आएगी,वह है भाषा में शब्दों का उपयोग।

बुधवार, 23 मई 2012

3 : बुद्ध-महावीर की शिक्षाएं

        धर्म की सुस्पष्ट परिभाषा शिक्षा है 
जैसा कि ब्रह्म-परंपरा का सम्बन्ध बुद्धि से और वेद-परम्परा का सम्बन्ध शरीर विज्ञान से है जो कि एक दुसरे के पूरक हैं। उसी दृष्टिकोण से बुद्ध-महावीर की शिक्षाओं को वर्गीकृत करें।        
सबसे पहले तो दोनों की शिक्षा यानी धर्म को एक बिंदु पर सम करें, वह बिंदु है "प्राकृतधर्म"। दोनों धर्म वर्षावनों की सुरक्षा,संरक्षण,संवर्धन के विषय से और वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था से सम्बन्ध रखते हैं। 
     बुद्ध और महावीर की शिक्षाओं पर ग़ौर करें कि उनके उपदेश जिस आचरण को धारण करने को कहते हैं उनमें निम्न बिंदु होते हैं. 
1.) जीव-जंतुओं को और वनस्पति को किसी भी तरह की हानि न पहुँचाएँ.
2.) आत्म अनुशासित रहें. 
3.) अग्नि का त्याग करें.
4.) अपरिग्रही रहें.
5.) वस्त्रों का भी त्याग करें. 
     1.) जीव-जंतुओं को और वनस्पति को किसी भी तरह की हानि नहीं पहुँचाएँ 
  भारतवर्ष की सीमाएं वहां तक मानी जाती है जहां तक वर्षावन फैले हैं. बुद्ध की शिक्षाओं का भारत की पूर्व दिशा में प्रभाव फैला जहाँ पहले से सघन वन थे और मांसाहार का प्रचलन आम  था. बुद्ध ने कहा था कि आहार के लिए शिकार न करें क्योंकि इससे वन्यप्राणियों की कमी हो जायेगी और तब वनस्पति को खाद और कार्बन डाई ऑक्साईड नहीं मिलेगी तो सनातन धर्मचक्र बाधित होगा, इसके लिए प्रतीक रूप में चक्र भी हाथ में रखते थे.
  एक बार उनके सामने घायल पक्षी आ गिरा तो उन्होंने उसे खाने में परहेज़ नहीं करने को कहा था,क्योंकि वह दुर्घटना में मरा था.
  मैं 1973 के आस पास अरुणांचल प्रदेश में आर्मी सप्लाई कोर की खाद्य सामग्री को असम के न्युमिसामारी  F.S.D. से अरुणांचल के दुहांग, बोम्ड़ील्ला, तवांग F.S.D.तक पहुंचाने के काम से अक्सर इस क्षेत्र में आता जाता था. वहां रहने वाले बौद्ध एक खड्डा खोद कर उसे झाड़ियों से ढक देते थे तत्पश्चात वे किसी पशु को घेर कर उधर खदेड़ते और तब वह जानवर खड्डे में गिर जाता,फिर उसके मरने का इन्तज़ार करते.इस तरह बुद्ध की अहिंसा शिक्षा का पालन किया जाता है.
   महावीर का जैन धर्म भारत के पश्चिम में फैलाया गया जहां रेगिस्तान को बढ़ने से रोकना और वनों का विस्तार करना और साथ में जनसंख्या का विस्तार करना भी शामिल था. वहां उन्होंने हरी वनस्पति का उपयोग करने को भी मना किया था. पौधा जब अपनी आयु पूर्ण करके अपने आप सूख जाए तो उसके अवशेष का आहार में उपयोग कर सकते हो. चूँकि जमीकंद में बीज नहीं होते अतः जमीकंद खाने को मना किया ताकि उसके विस्तार में अड़चन न आये. चींटी तक को मारने का मना किया. 
    बौद्धों के चेत्यालय होते हैं क्योंकि बौद्धधर्म ब्रह्म परम्परा से है जिसमे चेतना,बोध,सेंस के स्तर को बढाने के मार्ग बताये गए हैं. जबकि जैनधर्म में जिनालय और नसियां होती है. जिनालय में जिनेन्द्र की जय की जाती है. ये दोनों शब्द जनन क्रिया और जनन इन्द्रियों से सम्बन्ध रखते हैं. 
   प्राकृत के नसियां से अंग्रेजी का नर्सरी शब्द बना है. नर्सरी पौधशाला को भी कहा जाता है,तो बच्चों की शिक्षण संस्था या कक्षा को भी कहा जाता है तो नर्सिंग होस्पिटल भी नसियां ही होता है. नसियां आजकल मृत देह को दफ़नाने के स्थान रह गए हैं. जिसका कारण यह रहा है कि समाधि लेने वालों को जिनालय के परिसर में ही दफ़नाया जाता था.
  बौद्ध-जैन धर्म आदिनाथ से चला है जिसकी शिक्षा का तरीक़ा पूरी तरह से प्रेक्टिकल रहा है ताकि आदिवासियों के समझ में आ सके.
   2.) आत्म अनुशासित रहें. 
      चूँकि यह धर्म वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था वाले जिस भारतवर्ष में प्रचलित होता है वहाँ शासन-प्रशासन प्रणाली और लिखित संविधान नहीं होता अतः बौद्ध-जैन धर्म में लिखित में न तो कोई साम्प्रदायिक पुस्तक है और न ही कोई केन्द्रीय पद होता है. सिर्फ़ आचार्य होते हैं जो अपने भौगोलिक क्षेत्र विशेष के अनुरूप सम्यक ज्ञान यानी सम सामयिक यथार्थ का ज्ञान देते हैं.
   3.) अग्नि का त्याग करें.
       चूँकि प्राकृत धर्म पूरी तरह प्राकृतिक जीवन शैली वाला होता है अतः उसमे न तो पुरोहित होता है और न ही भोजन पकाने की परम्परा होती है तो फिर वस्त्र बनाना तो दूर की बात है अतः परम्परा का सांकेतिक निर्वाह करने के लिए जैन मुनि नग्न रहते हैं.
  4.) अपरिग्रही रहें. 
 जिस समय वन में जो और जितना मिल जाये उसी से संतुष्ट रहे,संग्रह न करें.
   5.) वस्त्रों का भी त्याग करे. 
   वनों में जीवाणु पैदा होते हैं अतः और वस्त्रं को साफ़ करने के लिए रसायन का उपयोग भी नहीं करते और वस्त्र निर्माण करना एक तरह से कर्म का विस्तार भी होता है.चूँकि प्राकृत धर्म में विज्ञान के विषयों का अध्ययन भी चिंतन-मनन के माध्यम यानी दर्शन के माध्यम से किया जाता है और एक पहुँचे हुए दार्शनिक को नग्नता का भान ही कहाँ रहता है.
    यह प्राकृत धर्म की मूल अवधारणा है. लेकिन इसके 200 वर्ष बाद चाणक्य के समय यह व्यापारियों का एक अलग तरह का अहिंसा धर्म बन गया था जिसका उपयोग मार्ग में लूटने वाले डाकुओं को अहिंसा धर्म में दीक्षित करने के लिए किया जाने लगा. इसके 300 वर्ष बाद आज से 2000 वर्ष पूर्व यह प्राकृत धर्म विक्रमादित्य के समय से पूर्व तक एक मूर्खतापूर्ण अवधारणा बन चुका था और अप्रासंगिक हो चुका था.
      तीसरी सदी में गुप्त काल के प्रारम्भ में यह पुनः अपनी मूल अवधारणा के साथ विकसित हुआ जो गुप्त काल के अंत तक पुनः बाणियों के हाथ में आकर अप्रासंगिक रूप ले चुका था. छठी सदी में हर्षवर्धन के समय इसे पूरी तरह काल-कलवित कर दिया गया और सिर्फ कर्नाटक के धारवाड़ क्षेत्र में अपनी मूल अवधारणाओं के साथ एक क्षेत्र विशेष तक सीमित कर दिया गया. वर्तमान में जो जैन-बौद्ध धर्म है वह तो अकबर की कूटनीति के अंतर्गत पुनः उसी रूप में स्थापित किया गया जो रूप अशोक ने दिया था और जिसका उपयोग अपने सैन्य कर्मचारियों को एक अहिंसा धर्म में दीक्षित करने के लिए किया गया ताकि काम पूरा होने के बाद सैनिकों की छँटनी की जा सके.   


सोमवार, 21 मई 2012

2 ; बुद्ध का बोधिसत्व और महावीर का जिन

            जैसा कि नीतिराज या राजनीति में उल्लेख है कि अर्वाचीन ऋषि कश्यप प्रजापति के पुत्रों के रूप में (बारह) आदित्यों और (दो) दैत्यों के बीच जो नीतिगत मतभेद थे वे शुरू से ही हैं. दैत्यों के विकास की परिभाषा दैत्याकर नगर बसाने, दैत्याकार कारखाने लगाने और धन का दुरूपयोग दैत्याकार युद्धक यन्त्र बनाने में करना रहा है. यवन और कालान्तर में यहूदी नाम से जो जाने जाते हैं वे हिरण्यकशिपु की यक्ष परंपरा से हैं।     
     भारत में आते ही वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था वाले भारत में यवनों ने वनों को भयानक क्षति पहुँचानी शुरू कर दी थी, जैसी कि पूर्व में होलिका ने पहुँचाई थी और अभी-अभी यूरोपियन ईस्ट इंडिया कंपनियों ने पहुंचाई जिसके परिणामस्वरूप पृथ्वी का स्वर्ग भारत आज अभावग्रस्त नरक बन गया है। 
     बुद्ध-महावीर ने वनों की सुरक्षा के लिए तब अपना-अपना राज्यपद त्याग कर वनों की रक्षा करने हेतु अवधारणायें दी और धर्म का प्रचार किया था.
     बुद्ध ने जिस बोधिसत्व को प्राप्त करने की बात कही थी उसको त्रिगुणात्मक प्रकृति में सत्व-रज-तम में प्रथम क्रम में रखा गया है और साधारण भाषा में सात्विक बुद्धि कहा गया है। 
    सत का अर्थ है बाँधने वाला भाव/बल जिसे आकर्षण बल कहा जाता है। सत में आकर्षण-विकर्षण दोनों भाव होते हैं।    
   सत से दो शब्द बनते हैं सत्य और सत्व। सत्य निराकार होता है क्योंकि वह भाव /इवेंट है जबकि सत्व उस तत्व / एलिमेंट को कहा गया है जो सत की गुणधर्मिता रखता है। 
     सत्व भी दो वर्गों में वर्गीकृत होता है। एक सत्व जो कफ / श्वेतवसा / व्हाईट फ्लूड के नाम से भी जाना जाता है। इस सत्व की मात्रा पर ही आपमें बौद्धिक बल, चातुर्य, उचित-अनुचित का ज्ञान इत्यादि का स्तर निर्भर करता है। बुद्ध ने पाली भाषा में बोधिसत्त्व की प्राप्ति का तरीका बताया था।   
        सत्व का दूसरा रूप बीज होता है। आपने इसबगोल सत्व इत्यादि नाम तो सुन ही रखे होंगे. किसी भी बीज के छिलके के अन्दर जो पौष्टिक तत्व होते हैं उसको सत्व कहा गया है। वनस्पति का सत्व बीज होता है जिसमें वह अपने पूर्वजों के गुणसूत्र लेकर चलता है।उसी तरह प्राणियों के गुणसूत्र /क्रोमोज़ोम लेकर चलने वाले सत्व को वीर्य कहा गया है। वीर्यवान से महावीर्यवान बने महावीर ने जेनेटिक्स का ज्ञान वनों में रहने वाले आदिवासियों को दिया.     
     मह़ावीर ने प्राकृत भाषा में यह ज्ञान दिया था. प्राकृत और पाली भाषा से ही संस्कारित होकर संस्कृत विकसित हुई थी. संस्कृत का जीव व जनन शब्द जिन से बना है। जिन से लेटिन में जेनेटिक्स वाला जीन शब्द बना तो ग्रीक फ़िलोसोफ़ी में आत्मा का प्रतीक जिन्न शब्द बना।     
    बुद्ध -महावीर के प्राकृत धर्म और वर्षावनों / रेन-फोरेस्ट में वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था और शरीर में सत्व की मात्रा और जिन शब्द के विभिन्न अर्थों की जानकारी इत्यादि नहीं होने पर आप बौद्ध-जैन दर्शन के नाम पर जो मानसिक श्रम करते हैं वह एक तरह की मानसिक ऐयाशी मात्र है। 
     ऐहित्य 3 :     बुद्ध महावीर की शिक्षाएं     
धर्म की सुस्पष्ट परिभाषा शिक्षा है जैसा कि ब्रह्म-परंपरा का सम्बन्ध बुद्धि से और वेद-परम्परा का सम्बन्ध शरीर विज्ञान से है जो कि एक दुसरे के पूरक हैं। उसी दृष्टिकोण से बुद्ध-महावीर की शिक्षाओं को वर्गीकृत करें।        
सबसे पहले तो दोनों की शिक्षा यानी धर्म को एक बिंदु पर सम करें, वह बिंदु है "प्राकृतधर्म"। दोनों धर्म वर्षावनों की सुरक्षा,संरक्षण,संवर्धन के विषय से और वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था से सम्बन्ध रखते हैं। 

शुक्रवार, 18 मई 2012

1 बुद्ध-महावीर से 1947 तक का सामाजिक इतिहास

   आपने इतिहास पढ़ने के समय दो बातों पर ग़ौर किया या नहीं ?    
       एक तो यह कि बुद्ध एवं महावीर के पहले का इतिहास सिर्फ अनुमान अथवा रामायण-महाभारत कथाओं की पृष्टभूमि पर ही उपलब्ध है.
      दूसरा यह कि जिस विक्रमादित्य के नाम पर विक्रम संवत चलती है, उस के समय का तीन सौ वर्षों का इतिहास गधे के सर पर से सींग की तरह से ग़ायब कर दिया गया है. क्योंकि वह आपका गौरवशाली इतिहास है।  
        राम एवं कृष्ण तो सनातन चरित्र हैं. ये तो प्रत्येक काल-स्थान-परिस्थिति में, प्रत्येक व्यवस्था में, प्रत्येक संस्कृति-सभ्यता में उपस्थित रहते हैं. इनकी जन्मभूमि तो घर-घर में है। 
      क्या आज राजकीय सत्ता,राज्य का उत्तराधिकार, राष्ट्र की सीमाओं पर युद्ध इत्यादि नहीं होते? क्या सैनिक राम की भाँति अपने परिवार छोड़ कर सीमा पर लड़ने नहीं जाते ? जो आपको राम की जन्मभूमि के लिए लड़ने की ज़रूरत महसूस हो रही है ! 
    क्या आज गौपालन नहीं होता या कृषि नहीं होती ? जो आपको  कृष्ण-बलराम की जन्म भूमि पर राजनीति  करनी चाहिए! राम और कृष्ण तो सदैव वर्तमान हैं। यह तो आपकी कृपणता है कि आप गौपालक और किसान को कृष्ण-बलराम की श्रेणी में नहीं रख पा रहे हैं। वहीं गौपालकों एवं किसानों की हीनता है कि वे कृष्ण बलराम को आदर्श नहीं मान कर,आदरणीय और अनुकरणीय नहीं मान कर चित्र और प्रतिमा में मात्र पूजनीय मानते हैं.               
     संस्कृति के रूप में इतिहास तो जो विगत 2600 वर्षों का है और जिसकी प्रामाणिक जानकारियाँ है उन जानकारियों को प्रकाश में लाना ही पर्याप्त है। उन जानकारियों को झुठलाकर,ग़लत इतिहास पढ़ाया जाता है और यहाँ तक कि उस इतिहास को ग़ायब भी कर दिया जाता है जो इतिहास भारत को विश्व की अन्य सभ्यता-संस्कृतियों से अलग मौलिकता का भान कराता है।          
      आपको वैदिक इतिहास और सभ्यता के नाम  पर भ्रमित भी किया जाता रहा है. जबकि वैदिक सभ्यता तो बार-बार उत्थान और पतन को प्राप्त होती है. इसके विपरीत भारत में ब्राह्मण संस्कृति का  सनातन आचरण ही आपको विश्व में अलग प्रतिष्ठा दिलाता है। 
     लेकिन जिस तरह हरिजन शब्द जाति विशेष को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए दिया गया था जो आज पूर्वाग्रहों का शिकार हो गया है, इसी तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, देव,रक्षस,यक्ष,भूतगण इत्यादि अनेकानेक शब्द हैं ये सभी शब्द शरीर की प्रकृति और उसके प्रभाव से निर्मित प्रवृति के विषयान्तर्गत आने वाले वैज्ञानिक शब्दावली के शब्द हैं. ये शब्द भी पूर्वाग्रहों में बँध गए हैं.     
     आज मुझ ज्ञान के देवता देवर्षि नारद को आदरणीय-अनुकरणीय विद्वान के स्थान पर विदूषक बना दिया गया है. उसी तरह ब्राह्मण जो कभी समाज का ब्रेन हुआ करता था आज का ऐसा स्कूल टीचर हो गया है जो समाज में दोयम दर्ज़े का माना जाता है. आज का क्षत्रिय (प्राकृतिक उत्पादक वर्ग) इतना दीन-हीन हो गया है कि ग़रीबी की सीमा रेखा से नीचे आ गया है ।      
         एक तरफ समाज की यह स्थिति है,दूसरी तरफ आपकी फ़ितरत ही कुछ ऐसी हो गयी है कि इन शब्दों के साथ-साथ धार्मिक सम्प्रदायों के नाम और उन सम्प्रदायों के धर्मावलम्बियों द्वारा काम में लिए जाने वाले शब्दों के अर्थ जाने बिना ही उनको लेकर आपके दिमाग़ में तरह-तरह के फ़ितूर उठते रहते हैं और सामाजिक वैमनस्य फैलाते रहते हैं।
     क्योंकि आप ब्राह्मण बन कर ब्रह्म में रमण करने के स्थान पर भ्रम में भ्रमण करने वाली मानसिक ऐयाशी में फँस जाते हैं और पौराणिक व् परम्परागत जानकारियों के उटपटांग अर्थ निकालते रहते हैं और धार्मिक चर्चा के नाम पर भ्रामक अवधारणाओं में भ्रमण करते रहते हैं. 
     इस ब्लॉग में बुद्ध और महावीर के समय से लेकर तथा कथित स्वतंत्रता तक के कालखंड के भारत महाभारत के  सामाजिक इतिहास का अवलोकन करते हुए आप मानवों-महामानवों  की मानसिक प्रजातियों के पौराणिक नामों के साथ-साथ उनके स्थान पर जिन-जिन नए नामों का सृजन हुआ उस विषय का  अवलोकन समानांतर करते हैं।