vivarn

Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.



कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।

Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made ​​by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

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रविवार, 29 जुलाई 2012

38.वित्त की रचना प्रकृति ने नहीं की है यह मानवीय धूर्त बुद्धि की खोज है !

      जब संसद में सभी सांसद बैठते है तो वहाँ हम का भाव होना चाहिये कि हमें मिल-जुलकर एक-एक निर्णय पर इस तरीके से विचार-विमर्श करना चाहिये कि उस बिल में ऐसा कोई नकारात्मक पक्ष न रहे जो लाभ से अधिक हानि कर दे| वहाँ तो सभी अपने अपने अहम् में आ जाते हैं और अपने विचार को, अपने प्रश्न को अपनी शंका को इस तरह आवेशित होकर व्यक्त करते है जैसे कि यह एक बिन्दु समस्या का सम्पूर्ण पक्ष है और प्रश्न का उत्तर देने वाला या अपने बिल का समर्थन करने वाला इस तरीके से उत्तर देता है कि उसका अहम् भाव उस प्रश्न और प्रश्नकर्ता को महत्वहीन बना देता है। लेकिन उसी सांसद या मन्त्री को जब 'हम' के विपरीत 'अहम्' भाव में आकर स्वविवेक से सोचने की स्थिति में होना चाहिये कि मुझे जनता ने अपना प्रतिनिधि चुना है अतः मैं अपने बलबूते पर क्षेत्र और राष्ट्र की जनता के लिए क्या कर सकता हूँ; तब वह अपनी पार्टी, अपने कार्यकर्ता अपने अनुयाई अपने हाईकमान तथा अपने परिजनों को ख़ुश रखने की तिकड़म के बारे में सोचने लग जाता है।
सच्चाई तो यह है कि जिसमें सच्चा अहम् भाव होता है और अहम के ऊपर सिर्फ परम को मानता है किसी अन्य व्यक्ति को नहीं, वही परम के यथार्थ(यथा-अर्थ) को समझ कर परमार्थ भाव से सर्व-कल्याणकारी व्यवस्था कर सकता है। 
यहाँ अहम शब्द का तात्पर्य आत्म से होता है तो परम का तात्पर्य परम्-आत्म[परमात्मा] से हो जायेगा और अहम् का तात्पर्य स्वयं से होता है तो परम् का तात्पर्य प्रत्येक से या सर्व से हो जाता है। जो अहम् का सच्चा भाव रखने वाला ब्रह्मणि स्थिति में रहता है, वही व्यक्ति वैदिक-धर्म में आने पर जगत की प्रत्येक रचना और समाज के प्रत्येक व्यक्ति के हित के बारे में सोचता है और सार्वजनिक जीवन में हम का भाव रख सकता है। स्वार्थ से परमार्थ पर आ जाता है।
ब्रह्मपुत्र घाटी क्षेत्र को आप असम कहते हैं जबकि इसका मूल नाम अहम है और भाषा अहमिया भाषा कही जाती है। आप जब सामूहिक बन्द का आयोजन करते हैं तो कितना कुछ करते हैं, फिर भी पूर्ण बन्द नहीं रख पाते जबकि असम में जब बन्द का आह्वान होता है तो वह जनता कर्फ्यू बन जाता है क्योंकि अहम् भाव वाला आत्म-अनुशासित होता है अतः बन्द के आह्वान मात्र से सभी अपने आप ही बन्द को अनुशासित तरीक़े से अन्जाम देते हैं। यह एक उदाहरण है, जिससे आप मेरी बात को अतिवादी नहीं समझें कि ब्रह्म-परम्परा कोई यथार्थ से दूर भ्रामक या विभ्रम की अवधारणा हैं।
सच्चाई तो यह है कि बालक जब अबोध होता है तब उसमें वे सभी गुण होते हैं जो एक आत्म-संयम योग पर योगरूढ़ योगी में होते हैं लेकिन ज्यों-ज्यों वह बुद्धिमान होता है, उसमें भ्रामक अवधारणाएँ पनपने लग जाती हैं, इसे संग दोष कहा जाता है।
वर्तमान में हम जिस भ्रष्टाचार की बातें करते हैं, वह संग-दोष का ही परिणाम है। यदि हम यह चाहते हैं कि भारत एक भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र बने तो इसका एक मात्र रास्ता है एक ऐसा वर्गीकृत ढ़ाँचा बनाया जाये जहाँ एक वर्ग, अपने वर्ग की जीवन-शैली सिद्धान्तों एवं मान्यता को सभी वर्गों पर समान रूप से थोपने की कोशिश न करे।
जो आचरण एक वर्ग के लिए मान्य होता है, वही आचरण दूसरे वर्ग के लिए अमान्य हो सकता है, अतः वह भ्रष्ट-आचरण कहलाता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आचरण के अनेक पहलू होते हैं जबकि आप सिर्फ वित्तीय घोटालों को ही भ्रष्टाचार कहते हैं। वित्त की रचना प्रकृति ने नहीं की है यह मानवीय धूर्त बुद्धि की खोज है अतः जहाँ वित्त का प्रचलन होगा वहाँ हेराफेरी होगी ही। वित्त को अर्थ[धन-धान्य] पर हावी करने से आज भारत एक शर्मनाक स्थिति में पहुँच गया है जबकि दूसरी तरफ भारत इतनी तरह की संस्कृतियों और भौगोलिक भागों में बंटा रहने के बाद भी, इतना वित्तीय भ्रष्टाचार होने के बाद भी राजनीति में और संसद में इतने अधिक आपराधिक प्रवृति के लोग होने के बाद भी आश्चर्यजनक रूप से प्रजातान्त्रिक राष्ट्र बना हुआ है।
        क्यों!क्योंकि भारत की मूल संस्कृति ब्राह्मण संस्कृति है अर्थात् आत्म-संयम की संस्कृति है अतः कुछ मूर्ख अनुयाइयों के सिवा कोई भी भारतीय वर्ग-संघर्ष की सीमा तक नहीं जाता है।
वैदिक संस्कृति के आदर्श पुरूष राम ब्राह्मण संस्कृति से जुड़े होने के कारण ही सनातन धर्म की रक्षा करते हैं, जबकि रावण ब्राह्मण होते हुए भी वैदिक-सभ्यता संस्कृति के आसुरी पक्ष का विस्तार करता है और सनातन धर्म को नष्ट करता है क्योंकि वह ऋषि की सन्तान होने से ब्राह्मण कहलाया जबकि ब्राह्मण का तात्पर्य आचरण से होता है, आत्म-संयम से होता है, विषमता को सम में बदलने की प्रतिभा से होता है।रज और तम सत्व को आवृत्त कर देते हैं अतः व्यक्ति ब्राह्मणत्व से गिर जाता है।
    भारत की सांस्कृतिक जीवन शैली के पतन का एक मात्र कारण रहा है कि ब्राह्मण की पहचान आचरण से नहीं होकर वंशानुगत जाति के रूप से होने लगी। यह ठीक ऐसा ही है जैसे कि एक अध्यापक के निरक्षर चरित्रहीन अनपढ़ गंवार और असंस्कारित बेटे को भी अध्यापक के रूप में समाज पर थोपा जाए । इस से शिक्षा व्यवस्था का क्या हाल होगा ? यही हाल ब्राह्मण परम्परा का हुआ है।
     इससे भी गहरी बात यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये चार समसामयिक-धर्म Contemporary-righteousness,समयानुकूल कर्त्तव्य और अधिकार होते हैं। जाति तो वह होती है जो आपके रोजगार का विषय होता है।

शनिवार, 28 जुलाई 2012

31. वैदिक गवर्नमेण्ट व्यवस्था vs ब्राह्मण गवर्नमेण्ट व्यवस्था !

यहाँ आप वैदिक गवर्नमेण्ट व्यवस्था और ब्राह्मण गवर्नमेण्ट व्यवस्था के मूल बिन्दुओं को तुलनात्मक तरीके़ से समझें।
    वैदिक सत्ता[प्रशासनिक व्यवस्था] में देव, यक्ष, राक्षस तीन प्रशासक होते हैं वहीं ब्राह्मणी सत्ता में ब्राह्मण,वैष्णव,शैव तीन संरक्षक गुरु होते हैं।
वैदिक-सत्ता जहाँ टैक्स, कर, लगान,शुल्क इत्यादि से चलती है वहीं ब्राह्मण-सत्ता दान-दक्षिणा-भेंट-उपहार-वस्तु-विनिमय,श्रम-सहयोग से चलती हैं। कर या लगान में गणितीय आंकलन होता है जबकि दान में ऐसा नहीं है। एक कंजूस व दीन-हीन-कृपण आजीवन निःशुल्क लाभ उठा सकता है तो एक उदार व्यक्ति अपनी पूरी की पूरी संपत्ति दान में दे सकता है। जबकि टैक्स,लगान इत्यादि कम देने पर चोरी मानी जाती है और अधिक देने पर देने वाले के प्रति शंका पैदा होती है।
वैदिक-सत्ता में प्रोटोकॉल होता है। एक के ऊपर एक पद होते हैं और छोटे-बड़े का क्रम होता है। एक संस्था दूसरी संस्था को अनुशासित करती है। नीचे से ऊपर तक सजदा करने,नमस्कार,प्रणाम,अभिवादन करने की मानव निर्मित नियमानुसार एक प्रक्रिया होती है।
     जबकि ब्राह्मण-सत्ता में कोई प्रोटोकॉल नहीं होता। एक होता है स्वयं-आत्म जो कि स्वतन्त्र, स्वाधीन आत्म-अनुशासित एक व्यक्ति का 'मैं' होता है जो उभयपक्षी होता है जिसका एक पक्ष परम गति वाले ब्रह्म का अहँकार होता है जिसके आयतन के विस्तार की सीमा को नापा नहीं जा सकता; दूसरा पक्ष स्वाभिमान का घनत्व इतना अधिक होता है कि प्रोटोकोल में उसके आत्म के ऊपर कोई नहीं होता सिर्फ परम्-आत्म [परमात्मा] होता है। किसी को भी सजदा करना उसकी मजबूरी नहीं होती, उसका स्वविवेक होता है।
वैदिक-सत्ता में नीति का तात्पर्य पॉलिसी और संवैधानिक नियम होते हैं जबकि ब्राह्मण-सत्ता में नीति का तात्पर्य नैतिकता और काम करने की नीयत होती है। संविधान के स्थान पर स्वविवेक होता है।
वैदिक-सत्ता सभ्यता और असभ्यता के मापदण्डों पर चलती है जबकि ब्राह्मण-सत्ता स्मृति-संस्कारों पर आधारित होती है यानी अवचेतन में संस्कारों को आधार बना कर स्वाधीन होकर स्वतन्त्र चलती है।
वैदिक-सत्ता का शासन वेतनभोगी कर्मचारियों द्वारा आगे से आगे बढ़ता है जबकि ब्राह्मण परम्परा तीन तरह की पुत्र परम्परा है।
  आप सन्तान और पुत्र को एक ही मानते हैं जबकि इन दोनों शब्दों में अन्तर है। पुत्र शब्द का अर्थ है परम्पराओं की पालना करने की पात्रता रखने वाला। परम्पराऐं तीन प्रकार की होती हैं अतः पुत्र भी तीन प्रकार के होते हैं।
जो सन्तति परम्परा की पालना करने की पात्रता रखता है उसे सन्तान रूपी पुत्र कहा जाता है। यदि संतान अविवाहित रहता है तो वह मात्र सन्तान ही कहा जायेगा, पुत्र नहीं।
जो गुरू-शिष्य यानी गुरूकुल परम्परा की पालना करने की पात्रता रखता है वह शिष्य रूपी पुत्र होता है।यह अध्यापक परम्परा है।
जो गुरूसेवक परम्परा की पालना करने की पात्रता रखता है वह सेवक रूपी पुत्र होता है। यह चिकित्सा परम्परा से जुड़ी अनेक समसामयिक परम्परायें हैं।
वैष्णव एवं शैव परम्परा प्रारम्भ में गुरू-चेला परम्परा थी क्योंकि किसी भी अस्वस्थ, अनाथ, अपाहिज, असामान्य मनोस्थिति वाले अबोध के भोजन, आवास और चिकित्सा में सेवा भावना की आवश्यकता होती है। आजकल ये सेवा करते नहीं बल्कि करवाते हैं। ईसाई मिशनरी इसे सेवा के स्थान पर सर्विस कह देते हैं।
     इन उदाहरणों की लम्बी सूची बनाई जा सकती है लेकिन चूँकि इन प्रारम्भिक संदेशों में संक्षिप्त में संकेत रूप में ही बताया जा रहा है फिर जब आपकी जिज्ञासा होगी तो एक-एक बिंदु पर विस्तार से भी कहा जा सकता है। लेकिन मैं जहाँ तक सोचता हूँ कि सनातन धर्म के दो पक्ष और तीन आधारों को स्पष्ट करने का मेरा प्रयास सही दिशा में चल रहा है।
वैदिक-सत्ता सब्जेक्टस यानी विषय के भोगों को लेकर विस्तार लेती है जबकि ब्राह्मण परम्परा ऑब्जेक्ट यानी उद्देश्य को केन्द्र में लेकर विस्तार लेती है।
भारत में ब्राह्मण परम्परा सदा जीवित रहती है। आज भी भारत की केन्द्रीय सरकार एवं सभी राज्य सरकारें जितने टैक्स का संग्रह करती हैं, उस राशि से कई गुना अधिक राशि भारतीय लोग दान में दे देते हैं। उस का अधिकांश भाग सीधा दान में दिया जाता है जबकि मन्दिरों में दिया हुआ दान उसका थोड़ा सा अंश होता है। भारतीयों की अर्थव्यवस्था की सनातन स्थिति बनी रहने के लिऐ दो ही बिन्दु पर्याप्त हैं। 
एक बिन्दु है ग्रीष्म ऋतु में वर्षा के वार्षिक चक्र का आना और धन धान्य का उपजना और दूसरा बिन्दु है दान देने की प्रथा में श्रद्धा और विश्वास से जुड़े रहना। इसी का नतीजा है कि इतनी आर्थिक विषमता के बाद भी भारत में भूख से मरने वाली घटनाऐं अपवाद स्वरूप ही होती हैं।
जब कभी भी पृथ्वी पर कोई ऐसी घटना घटती है जिसके परिणामस्वरूप सभी सभ्यता संस्कृतियाँ नष्ट हो जाती हैं और साथ ही पृथ्वी के अधिकांश भू-भाग पर मानव-प्रजातियाँ अर्थात् मनुष्य की मानसिक-प्रजातियाँ नष्ट हो जाती हैं या विलुप्त हो जाती है तब भी भारत में मनीषी[मनुष्य] प्रजाति या ब्राह्मण प्रजाति या कहें कि कुलीन-योगियों के कुल की प्रजाति बची हुई रहती है और उसी मनुष्य प्रजाति से मानव-प्रजातियाँ पुनः पृथ्वी के भू-भाग पर फैलती है।
इस ब्राह्मण जाति का मूल उत्पत्ति स्थान है ब्रह्मपुत्री क्षेत्र जिसे ब्रह्मपुत्र घाटी कहा जा सकता है। 
ब्रह्मपुत्र नदी तीन प्रकार के भूभागों में विभाजित है। एक भाग दक्ष प्रजापति का क्षेत्र है जो हिमालय का वह क्षेत्र है जहाँ नदी हिमालय पर ही चलती रहती है। दूसरा क्षेत्र जो तिब्बत का पठार है,जहाँ से नदी हिमालय से उतरती है और ढलान में घाटी में बहती है तथा तीसरा वह क्षेत्र जहाँ नदी समुद्र के मुहाने पर समतल भूमि पर आती है। 
जहाँ घाटी और पहाड़ी क्षेत्र है वह दक्ष प्रजापति की कन्याओं का क्षेत्र है अर्थात् वहाँ मातृ-सत्तात्मक संस्कृति रही है। घाटी के तीनों तरफ की पहाड़ियों के बाहर का क्षेत्र जो वर्तमान में पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश और म्याँमार[पूर्व का बर्मा] है ये पूरा क्षेत्र ब्रह्म देश कहलाता था। 
विश्व  की सर्वप्रथम लिपी यहीं से विकसित हुई जिसे ब्राह्मी लिपी कहा जाता है। विश्व  की विभिन्न प्रकार की लिपियाँ इसी से प्रेरित हैं। ब्राह्मी लिपी और ब्रह्मणी भाषा में व्याकरण का उपयोग नहीं होता। अतः शब्द ही बोले जाते हैं, शब्द ही ब्रह्म रूप हैं और व्याकरण न होने से शब्द स्त्रिलिंग पुल्र्लिग नहीं होते, बहुवचन भी नहीं होता शब्दों के द्वन्द्व समास से भावाभिव्यक्ति होती है। 
संस्कृत, हिन्दी, नेपाली, मराठी इत्यादि भाषाऐं देव-नागरी लिपी में लिखी जाती है। नगरों में रहने वाले देवों[विद्वानों] ने इसकी रचना की अतः यह देव नागरी लिपी कहलाती है। 
वैदिक-भाषा संस्कृत-भाषा में शब्द की उत्पत्ति धातु से होती है और धातुओं की संख्याएँ मुश्किल से चार-पाँच सौ होगी अतः कह सकते हैं कि विश्व की सभी धार्मिक वैज्ञानिक भाषाओं के असंख्य शब्दों की जननी संस्कृत के सिर्फ चार-पांच सौ शब्द ही हैं। वर्तमान की संस्कृत में अनेक शब्द वैदिक संस्कृत से, तो अनेक शब्द ब्रह्मणी एवं प्राकृत भाषाओं के हैं। 
इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसी मानव प्रजाति नहीं है जो ब्रह्मपुत्री क्षेत्र में नहीं हो अर्थात् विश्व की सभी मानव प्रजातियां ब्रह्मपुत्री क्षेत्र में हैं बल्कि ऐसी अनेक प्रजातियाँ भी ब्रह्मपुत्री क्षेत्र में मिलेगी जो पृथ्वी के किसी भी अन्य भू-भाग में नहीं मिलतीं। 
  आज जब हम नारी के उत्थान और महिला अधिकारों की बात करते हैं तो इस परिप्रेक्ष्य में इससे अधिक विडम्बना, इससे बड़ा अधर्म और भ्रष्टाचार क्या हो सकता है! कि ये महिला-कल्याण संगठन और तथाकथित नारी स्वतन्त्रता की बातें करने वाले पुरूष संगठन, विश्व की एक मात्र मातृ-सत्तात्मक संस्कृति के बचे हुए क्षेत्र पर भी पुरूष सत्ता के अतिक्रमण का विरोध नहीं कर रहे हैं। पृथ्वी के एक मात्र भू-भाग पर, जहाँ जीव-ब्रह्म का अस्तित्व बना रहता है, उस पर भी वित्त की सत्ता के माध्यम से भौतिक-विकास के नाम पर वनों को नष्ट करके वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था वाली उस भूमि पर किये जा रहे अतिक्रमण की तरफ से आँखें मूँद रखी हैं। यही वह भू-भाग है जो धरती पर सनातन धर्म के अस्तित्व को बचाए रखता है यानी ईको-चैनल को पुनः विस्तार देने के लिए वनस्पति,प्राणी और मानव साम्राज्य की विभिन्न प्रजाओं [प्रजातियों,नस्लों] को एक साथ संरक्षित करके रखता है।
इसलिए आज की आवश्यकता है, हम इस सभ्यता और विकास के बहाव को रोकें जो कि ग़लत दिशा  में बह रहा है। निःसन्देह बहाव कभी भी रोका नहीं जा सकता उसकी सिर्फ़ दिशा बदली जा सकती है। पानी का एक बहाव भूमि का कटाव करके उपजाऊ भूमि को बंजर बना देता है तो दूसरी तरफ़ पानी के उसी बहाव को व्यवस्थित तरीके से उपयोग में लिया जाये तो फसलें उपजाने के काम आता है। 
जहाँ सभी कुछ वित्तीय सत्ता के बहाव में बहा जा रहा है वहाँ दो-चार पत्थर अवरोध रूप में व्यवस्थित करने से क्या भ्रष्टाचार का बहाव रूक सकता है ? आज की आवश्यकता है एक वर्गीकृत ढांचा बनाने की जिसमें हम करेंसी की लिक्विडिटी का पूरा उपयोग कर सकें,साथ ही साथ यह तरल मुद्रा शोषक-शोषित वर्ग पैदा न कर सके इसके लिए वर्गीकृत व्यवस्था अर्थात सर्वकल्याणकारी व्यवस्था पद्धति को स्थापित एवं प्रतिष्ठित कर सकें, न कि इस लिक्विडिटी के बहाव में बहते रहें। 

37. भारत वर्ष को पुनः ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के माध्यम से एक सूत्र में बाँधना होगा !

      गुप्तों के शासन का पतन जिस कारण हुआ था उसकी तुलना आज की स्थिति से की जा सकती है। जैसे कि एक तरफ विश्व के सभी राष्ट्र भयानक ऋण में डूबे हैं और जिनके हाथ में अर्थ (धन-धान्य) पैदा करने की सत्ता है वे गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं। 
     दूसरी तरफ आप युवा वर्ग अच्छी वित्तीय स्थिति (अच्छे वेतनमान) को प्राप्त करने के लिए उन व्यापारिक घरानों-प्रतिष्ठानों के नौकर बनकर उनके लिए दिन-रात मेहनत करके उन्हें राष्ट्रों को खरीदने की क्षमता रखने वाले वित्तेष बनाने को आतुर हो रहे हैं। ये वित्तेश अपने भवनों को राष्ट्रपति भवन जैसा बनाने में सक्षम हो रहे हैं। ऐसा क्यों है ? और इससे पूर्व भी ऐसा बार-बार क्यों होता आया है ?
क्योंकि इन तीन वैदिक सत्ताओं के पीछे जो तीन स्वभावों की सत्ताऐं हैं उसके उपर एक सत्ता है जिसे आत्म-भाव यानी आत्म-अनुशासन की सत्ता कहा जाता है। इसे ब्राह्मण-धर्म की सत्ता कहा जाता है। वह सत्ता वर्ग हाशिये पर आ गया है। ब्राह्मण[अध्यायक] को शूद्र[नौकर,तनख्वाह लेने वाला तनखैया,वेतन लेने वाला वृतिधारी,प्रशासन का गुलाम] बना दिया है,ऐसी स्थिति में योग्य[योगी]तो ब्राह्मण बनना भी नहीं चाहेगा।
जब तीनों वैदिक सत्ताओं के स्वभाव में विकार आ जाता है तो प्रथम स्तर पर वे अपने द्वारा शासित वर्ग के शोषक बन जाते हैं तत्पश्चात् वे अन्य दोनों वर्गों को भी शासित करना शुरू कर देते हैं और उनके भी शोषक बन जाते हैं। क्योंकि इन सभी प्रकार के वर्गों के मनोविज्ञान में मूल मनोविकार एक ही होता है और वह है असन्तुष्टि। उस असन्तुष्टि के कारण पैदा होता है राग एवं द्वैष नामक अभाव।
जबकि प्रत्येक वर्गीकृत सत्ता की तरह ब्राह्मण सत्ता में भी दो वर्ग तो होते ही हैं। एक शासक, दूसरा शासित[जन साधारण प्राकृतिक उत्पादक]। यदि शासक वर्ग शिक्षित ब्राह्मण अध्यापक है और आत्म-अनुशासन में, आत्म-भाव में, आत्म-विश्वास में रहता है और अपनी प्रकृति, प्रवृत्ति, स्वभाव, अध्यात्म, नेचर, आदत, फ़ितरत को अपने वश में करने का मानसिक सामर्थ्य रखता है और जो शासित वर्ग है उसको अपने-अपने स्वभाव के स्वाभाविक स्तर अर्थात् अपने-अपने आध्यात्मिक स्तर का, अपनी रूचि एवं क्षमता के अनुरूप काम[Job] मिल जाने के कारण कार्य सन्तुष्टि[Job satisfaction] रहती है तब उस व्यवस्था को ब्राह्मण धर्म आधारित व्यवस्था कहा जाता है। वह सनातन बनी रहती है। 
इस ब्रह्म विद्या का उपयोग करके ही छठी शताब्दी में एक सनातन समाज व्यवस्था बनाई थी। लेकिन सोलहवीं शताब्दी में इस व्यवस्था पर चारों तरफ से आघात हुए लेकिन अंततः इसको जड़ से उखाड़ कर फेंका इस संस्कृति की अपनी ही सन्तानो ने। 
छठी शताब्दी से पूर्व तक और बुद्ध-महावीर से पूर्व, कृष्ण-बलराम से पूर्व कश्यप ऋषि से पूर्व, यहाँ तक कि आदि पुरूष शंकर से भी पूर्व की परम्परा है दक्ष ब्राह्मण परम्परा।
श्रीमद्भगवद् गीता सहित सभी वर्गों के धार्मिक ऐहित्य[ऐतिहासिक साहित्य] में उल्लेख आता है कि सभी पुरूष प्रधान सभ्यता-संस्कृतियों के आदि के संस्कारित पुरूष सप्त-ब्रह्मण कहे गये हैं। वैदिक साहित्य में उन्हें सप्त-ऋषि कहा गया।
एक इस बिन्दु पर भी ग़ौर करें कि शंकर को इस पृथ्वी का पहला नर पुरूष बताया गया है और प्रजापति कश्यप को भी कल्प का आदि पुरूष बताया गया है लेकिन पार्वती को भी और कश्यप की पत्नियों को भी दक्ष प्रजापति की कन्याऐं बताया गया है।
इस विषय के सभी पहलुओं को स्पष्ट करने के लिए अलग से लेखन होगा लेकिन यहाँ इतना ही समझना पर्याप्त है कि ब्राह्मण-सत्ता की परम्परा शरीर की वंश (Hereditary,Genetic) परम्परा नहीं है जो शुक्राणुओं के गुणसूत्रों के सहारे चलती है बल्कि यह तो वह परम्परा है जो सूर्य के चुम्बकीय क्षेत्र से जुड़ी है। 
प्रकृति और पुरूष अर्थात् गुरूत्वाकर्षण बल और पदार्थ (ईथर) अजर-अमर हैं। इसी को गीता में देही और शरीर कहा गया है जो कि न मरता है न पैदा होता है, न जलाया जा सकता है इत्यादि- इत्यादि । लेकिन ब्रह्मा की आयु होती है जो कि हज़ारों युगों की होती है।
ब्रह्मा के दिन के समय पृथ्वी पर जीव-जगत व्यक्त होता है और रात्रि के समय अव्यक्त में चला जाता है। यह गीता सहित अनेक उपनिषदों में कहा गया है।
इसका तात्पर्य है जब सूर्य में हाइड्रोजन के आणविक विस्फोट से ऊर्जा बनती है तो वह ब्रह्मा के दिन का काल-खण्ड होता है। सभी वनस्पति जीव सूर्य की ऊर्जा से चेतना ग्रहण करते हैं और वैदिक परम्परा का, बौडी की परम्परा का निर्वाह होता है जिसके मूल सिद्धान्त दो हैं -
     (1) जीव ही जीवन का भोजन है।
     (2) जीव से जीव की उत्पति होती है। 
तात्पर्य यह कि जैविक-विकास तो सूर्य (ब्रह्मा) के प्रकाशित होने के बाद होता है जबकि सूर्य जब ठण्डा गोला होता है और पृथ्वी बर्फ का गोला होती है, तब भी सूर्य का चुम्बकीय क्षेत्र या चुम्बकीय बल रेखायें बनी रहती है अर्थात् ब्रह्म में सत का भाव बना रहता है।
वैदिक-ज्ञान यानी विज्ञान का ज्ञान तो तब शुरू होता है जब मानव देह का विकास हो चुका होता है।जबकि ब्रह्म (चेतना) की परम्परा तो तभी पुनः शुरू हो जाती है जब ब्रह्मा के दिन के समय के प्रारम्भ में पृथ्वी पर पुनः रासायनिक योगिक (मोलिक्यूल) का रूप लेती है और एमीनो एसिड (प्रोटीन) के मुदगलों में जीव (चेतना) का विकास होने लगता है।
बीच में इस विषय को लाने का अभिप्राय यह है कि ब्रह्म परम्परा को लेकर कोई अतिशयोक्ति या अतिवादी विचार न मानें बल्कि यथार्थ धरातल पर सोचें। पृथ्वी के नष्ट होने या 2020 तक सभी कुछ नष्ट होने इत्यादि की प्राकृतिक दुर्घटना से डरने के स्थान पर यह सोचें कि हम अगर अव्यय जीव-आत्मा बन कर ब्रह्म के चुम्बकीय क्षेत्र में अपने भाव भावित हो कर अमर हो जाते हैं तो हम काल से अतीत हो जाते हैं।लेकिन अभी हमें यह सोचना है कि हम जिस विकास की तरफ जा रहे हैं वह हमारा वर्तमान का जीवन नरक बना रहा है। हमें इस यथार्थ को समझना है कि जो काम हमारे बलबूते का है, उसे हम कैसे कर सकते हैं और हमने खुद आपस में राग-द्वेष पालकर जिस राग-द्वेष जनित प्रतिस्पर्धा को जीवन की सच्चाई मान ली है, उससे मुक्त होकर हम वर्तमान में क्या कर सकते हैं! एक सुन्दर भविष्य कैसे बना सकते हैं !
अतः यहाँ मैं उस ब्रह्म परम्परा की बात कर रहा हूँ जो न तो साक्षरता से सम्बन्ध रखती है और न ही सभ्यता से और न ही उसमें प्राकृत स्थिति से रूकावट आती है।
ब्रह्म-परम्परा तो वह स्मृति परम्परा है जो संस्कार बन कर जन्म-जन्मान्तर के लिए साथ चलती है और आगामी जीवन में पुनः उन्हीं भावों-अभावों को विकसित करती है। अब यह निर्णय आपका है कि आप भाव में भावित रह कर यह कलेवर(देह का ढांचा) छोड़ कर जाना चाहते हैं या अभावग्रस्त होकर।
जब तक अभावों से मुक्त नहीं होते, भाव में भावित नहीं हो सकते। अतः इस लेखन को समझने के लिए इसमें उपयोग में लिए जा रहे वैज्ञानिक-शब्दों को विज्ञान एवं दर्शन के शब्दकोष के रूप में समझें। इनके प्रति पूर्वाग्रहों को समाप्त करने के लिए ही मैं इनका बार-बार उपयोग कर रहा हूँ। फिर यह तथ्य भी है कि जहाँ विज्ञान के शब्द हैं वहाँ उनके स्थान पर कथा साहित्य के शब्दों का उपयोग करना सम्भव भी नहीं है।अतः ब्रह्म, ब्रह्मणी स्थिति, ब्रह्मण परम्परा, ब्राह्मण-धर्म शब्दों को उसी परिप्रेक्ष में समझने की चेष्टा करे जिस परिप्रेक्ष में जिस प्रसंग में जिस तात्पर्य से इनका उपयोग किया जा रहा है। क्योंकि मजबूरी यह है कि इन संस्कृत शब्दों के भावार्थ तो सभी भाषा में मिल सकते है इसके शब्दार्थ और तत्वार्थ समझे बिना भावार्थ से भ्रामक धारणाये विकसित हो गई हैं। उन्हीं भ्रामक धारणाओं के कारण आपके मन में इन शब्दों के प्रति पूर्वाग्रह बन गये हैं जैसे कि ये साम्प्रदायिकता फैलाने वाले शब्द हैं। लेकिन आप युवा पीढी को तो इन शब्दों के मूल अर्थों को जानना चाहिये।
आप कल्पना करें कि वर्तमान का सभी प्रकार का विकास समाप्त हो जाये तब भी मानव जाति समूल नष्ट तो हो नहीं सकती। बची हुई जनसंख्या में कुछ शिक्षित लोग भी बचेंगे। उनमें इतनी समझ तो होगी ही होगी कि वो बचे हुए वर्ग को आदिम स्थिति में नहीं जाने देंगे। उनका बौद्धिक नेतृत्व करेंगे और स्वयं पीछे की घटनाओं और भविष्य की सम्भावनाओं पर चिन्तन करेंगे। यहीं से ब्राह्मण-परम्परा शुरू हो जाती है क्योंकि वह व्यक्ति ब्रह्म में रमण करने वाला दार्शनिक बन कर विज्ञान के सकारात्मक-नकारात्मक पक्ष पर चिन्तन करेगा। तो बस यहीं से ब्राह्मण परम्परा शुरू हो जाती है। इस घटना क्रम में यह महत्वहीन हो जाता है कि वह शरीर से किस जातीय सम्प्रदाय का था।
जितने भी वैज्ञानिक आविष्कार और अनुसंधान हुए हैं, उनके जनक दार्शनिक रहे हैं। जिस वैज्ञानिक शोधकर्ता में दार्शनिक चरित्र जितना अधिक होता है वह उस शोध की निर्णायक स्थिति तक उतना ही जल्दी पहुँचता है।
यह मनीषी परम्परा सिर्फ शुक्राणुओं, गुणसूत्रों पर नहीं चलती अतः सभी  कुछ नष्ट होने पर भी पुनः जीवित हो उठती है लेकिन इसके विकास के हेतु संस्कार हैं। संस्कार के हेतु माता-पिता होते हैं अतः यह पितृकुल और गुरूकुल तीनों कुलों के सति होने से अर्थात् तीनों कुलों के माध्यमों को सेतु बना कर अपने आप में विकसित होती हैं। अर्थात् जिसे माता-पिता और परिजनों से बना परिवेश ब्रह्म में रमण करने वाला मिलता है,वह ब्राह्मण कहलाने वाली मानसिक प्रजाति का बन जाता है। इसके लिए उसे आर्थिक,सामाजिकराजनैतिक इत्यादि सेतुओं की आवश्यकता नहीं होती अतः सभ्यता-संस्कृतियों के पतन और उत्थान से अविचलित यह परम्परा भारत में सदा बनी रहती है।
भारत में इसलिए कि भारत वर्ष ही इस पृथ्वी का जैव-विविधता वाला एक मात्र स्थान बचा हुआ है जहाँ सभी प्रकार के पौष्टिक आहार वर्षा के वार्षिक चक्र से स्वतः प्रक्रिया से उत्पादित होते रहते हैं। विश्व के अन्य किसी भी भाग में इतनी अधिक वनस्पतियाँ एवं प्राणियों की प्रजातियाँ नहीं हैं और इस नस्ल की गायें भी नहीं हैं जो वनों में चरकर स्वतः अपने खूंटे पर पहुँच जाती हों।
छठी शताब्दी में जब राजपूतों की उत्पत्ति हुई थी तो उनके शारीरिक बल को और मांसपेशियों की लचक को विशिष्ट बनाने के लिए वैदिक यज्ञों को माध्यम बनाया और उनके गुणसुत्रों[जीन्स] में एक विशेष कोड  विकसित कर दिया था लेकिन साथ ही साथ उनमें संस्कार भी विकसित किये थे और वे संस्कार थे गाय, ब्राह्मण एवं स्त्री की रक्षा करना।
गुप्त शासकों के पतन के समय भी यह ब्राह्मण जाति दूरदराज़ के गांवों में, एकान्त में व्यापारिक, राजनैतिक, प्रतिस्पर्धाओं से मुक्त, दृढ़ता से जमी हुई थी। आज भी है, भविष्य में भी बनी रहेगी। यही ब्राह्मण जाति भारत में ज्ञान-विज्ञान को समूल नष्ट नहीं होने देती।
छठी शताब्दि में जो क्रान्ति हुई उसमें सम्पूर्ण भारत वर्ष को ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के माध्यम से एक सूत्र में बाँध दिया गया था। जबकि राजाओं की सत्ता अपने छोटे-छोटे राज्यों तक सीमित थी और वे कृषि उत्पादक क्षत्रिय वर्ग की सुरक्षा के साथ-साथ ब्राह्मण सत्ता को स्थापित करने और संरक्षण करने में भी मुख्य भूमिका में थे।

34. चार ब्रह्म सूत्र



  वह परम-गति वाला सभी के अन्दर सभी के बाहर सब से अन्तःस्थ तथा सब से दूरस्थ, समान भाव से सर्वत्र व्याप्त, सर्वत्र स्थिर-स्थित एक ही है फिर भी उसकी विषेषता यह है कि वह सब में विषिष्ट दृष्टिगोचर होता है । (अर्थात् देखने में सब में विषिष्ट या असमान लगता है) 
इसको शब्द में भी परिभाषित किया गया है जो शब्द है ‘‘वसुघैव कुटुम्बकम्‘‘ अर्थात् पृथ्वी पर विद्यमान जगत का प्रत्येक जीव ब्रह्म की तंरगों से बँधा एक ही कुटुम्ब, कम्यून, कम्युनिटी का हिस्सा है ।
ब्रह्मपरम्परा का ज्ञान सिर्फ चार सूत्रों में सिमटा हुआ है । 

1- ‘‘ब्रह्म जगदोद्भव कारणम्‘‘

ब्रह्म ही जगत के उद्भव का कारण है‘‘
अर्थात् इस निर्जीव सृष्टि में जो जीव-सृष्टि यानी जगत है उसके उद्भव (उपजने, उत्पन्न होकर वृद्धि करने) के पीछे जो कारण और कारक Causes and Factors  है वह ब्रह्म ही है।

2- ब्रह्म-सत्य जगंमित्थ्या 

अर्थात् ब्रह्म जो है वह सत्य है जबकि जगत का यह भौतिक-रूप एक मिथक की तरह बनावटी है । यहाँ जगत से तात्पर्य यदि मानव निर्मित समाज व्यवस्था से हो तो वह तो बनती बिगड़ती रहती है जबकि इस व्यवस्था के बनने बिगड़ने के पीछे ब्रह्म का वह रूप है जिसे हम मनो-विज्ञान के नाम से जानते है । 
एक मुनि-ऋषि यानी मनीषी यानी मनुष्य अपने ब्रेन का उपयोग करके मान्यताऐं, विधि-विधान, संविधान बनाता है जिसे मानव का स्वनिर्मित धर्म कहा गया है वह धर्म जब मान्यता प्राप्त कर लेता है तो फिर एक मानव अपनी मानसिकता उसी तरह की बना लेता है और उस पर चलता रहता है । इसे ब्राह्मण संस्कृति की समाज व्यवस्था कहते हैं। ये मान्यताऐं जब अज्ञान जनित पूर्वाग्रहों का रूप धारण कर लेती हैं तो पुनः कोई मनीषी वर्ग अपने ब्रह्मसत्य का उपयोग करके काल-स्थान परिस्थिति के अनुरूप नई मान्यताऐं बनाता है, नये मिथक गढ़ता है, एक नई मैथोलोजी पनपती है अतः जगत का यह रूप मित्थ्या (बनावटी) अवधारणाओं पर चलता है । जैसे कि अनेक देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के रूप में जो मिथक गढे गये, उनसे भारतीय समाज का अनुशासन बना हुआ था और कमोबेस आज भी है । लेकिन इन सभी मिथको पर भारी पड़ने वाला एक मिथक गढ्ढा गया जिसका नाम करेंसी नोट है । इसे वित्त के नाम से, पुंजी के नाम से जनमानस में स्थापित कर दिया गया है यह सभी मिथको पर भारी पड़ रहा है। 

3- एको ब्रह्म द्वितियो नास्ति ।

ब्रह्म सर्वत्र एक ही है अतः इस में प्रथम द्वितीय का प्रोटोकोल नहीं होता है । कुछ भी नीच और सर्वोच्च नहीं होता, तुलनात्मक आंकलन नहीं होता क्योंकि प्रत्येक जीव-पिण्ड अपने आप में विषिष्ट होता है  ।
अब आप वैदिक-जगत की ईश्वर प्रणीत देह में आते हैं तो पहला भेद नर-मादा का होता है। पुरूष सत्तात्मक समाज व्यवस्था में पति प्रथम और पत्नी द्वितीय स्थान पर होती है और मातृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था में पत्नी प्रथम व पति द्वितीय स्थान पर होता  है । 
इसी तरह बड़ा भाई, छोटा भाई प्रथम-द्वितीय होता है। संस्था में अध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष इत्यादि का प्रोटोकोल होता है। राजकीय विभाग में ग्रेड होते हैं इत्यादि । 
जबकि ब्राह्मण संस्कृति में गणितीय सांख्य शून्य एवं एक पर चलता है। शुन्य जो कि indefinite  है और मैं डेफिनेट Definitely हूँ। परम्ब्रह्म इनडेफिनेट indefinite है जबकि मैं Definitely हूँ। 
     अहम् और परम् के बीच मे यह मिथकीय जगत फ़ैला है| जब एक ही ब्रह्म सर्वत्र स्थिर स्थित है लेकिन प्रत्तेक 'मैं' में विषिष्ट होता है तो सबसे पहला धर्म और कर्म यह होना चाहिए की मैं अपने आप को पहचानू,आत्म साक्षात्कार Self-interviewing करूँ दूसरों से, द्वितीय पक्ष से अपनी तुलना और प्रतिस्पर्धा क्यों ?     

4- अहं ब्रह्मास्मि ।

मैं ब्रह्म हूँ। हमारे स्वयं के शरीर के विभिन्न नाम हैं । हम अपने पालतू पशुओं का भी नाम रखते हैं । नामकरण संस्कार करते है और अपने बच्चो का एक नाम रखते हैं, जो उसकी देह का नाम होता है । जबकि ब्रह्म के रूप को हम सभी एक ही नाम से पुकारते हैं अर्थात् ‘‘मैं‘‘ नाम से पुकारते हे । संस्कृत के अहम का तात्पर्य है कि हम के विपरीत जो होता है वह अहम ही ब्रह्म रूप है क्योंकि मैं जो अपने आप के बारे में महसूस करता हूँ वही सत्य । 
यही अहं जब हम हो जाता है तब वह हमारा रूप वैदिक-धर्म का रूप हो जाता है क्योंकि हम सभी मानव सभी जीव वेद (बॉडी के विज्ञान) से एक दूसरे से बंधे है। हमारी अपनी सभी प्रकार की अवष्यकताऐं एक दूसरे से पूरी होती हैं। हम सभी मिलकर सभी प्रकार की व्यवस्थाऐं बनाते हे ताकि हम अनुशासित रहते हुए जीवन को सुखपूर्वक जियें । 
अब खुद सोचो कि यह कैसी विडम्बना है कि जहाँ आपको हम होना चाहिये वहाँ आपका अहम् जाग जाता है और जहाँ अहम् जागना चाहिये वहाँ अहम् सो जाता है और धर्म के नाम पर आप हम में शामिल हो जाते हैं और किसी न किसी विषय में या अनेक विषयों में अपना गुरु ढूंढते फिरते हैं.। 
जहां हमें आपस में मिल-बैठ कर एक सर्वकल्याणकारी व्यवस्था पद्धति के बारे में विचार-विमर्श  करना चाहिये वहाँ तो हमारा अहम् जाग जाता है और कहने लग जाते है कि मैं जो कर रहा हूँ वह तो उचित आचरण है और दूसरे जो कर रहे हैं, वह भ्रष्टाचार है । 
इसके विपरीत जब आप में अहम् भाव होना चाहिये तथा एकान्त सेवन करना चाहिये वहा आप अपने अहं को नष्ट करके दीन-हीन कृपण बन के आत्म-कल्याण का मार्ग तलाशने उस बाजार में निकल जाते हैं जहाँ पाखण्डी पण्डितों ने तथा विशेष आडम्बरपूर्ण वेशभूषा धारण किये बाबाओं, धर्मगुरूओं, आध्यात्मिक गुरूओं ने दुकानें सजा रखी हैं । 
जब संसद में सभी सांसद बैठते है तो वहाँ हम का भाव होना चाहिये कि हमें मिल-जुलकर एक-एक निर्णय पर इस तरीके से विचार-विमर्श  करना चाहिये कि उस बिल में ऐसा कोई नकारात्मक पक्ष न रहे जो लाभ से अधिक हानि कर दे, वहाँ तो सभी अपने अपने अहम् में आ जाते है और अपने विचार को, अपने प्रश्न को अपनी शंका को इस तरह आवेशित होकर व्यक्त करते है जैसे कि यह एक बिन्दु समस्या का सम्पूर्ण पक्ष है और प्रश्न  का उत्तर देने वाला या अपने बिल का समर्थन करने वाला इस तरीके से उत्तर देता है कि उसका अहम् भाव उस प्रश्न  और प्रश्न कर्ता दोनों को ही महत्वहीन बना देता है । 
   लेकिन वही सांसद या मन्त्री जब हम के विपरीत अहम् भाव में होकर सोचने की स्थिति में होना चाहिये कि मुझे जनता ने अपना प्रतिनिधि चुना है और मैं अपने बलबूते पर क्षेत्र और राष्ट्र की जनता के लिए क्या कर सकता हूँ तब वह अपनी पार्टी, अपने कार्यकर्ता अपने अनुयाई तथा अपने परिजनों को ख़ुश रखने की तिकड़म के बारे में सोचता है और अपने हाईकमान द्वारा संचालित होता है.

32. सांख्य का अर्थ होता है सिद्धान्तों का ज्ञान !

      सांख्य का अर्थ होता है सिद्धान्तों का ज्ञान। प्रिंसिपल्स एवं थ्योरीज़ की जानकारी। 
यही सांख्य (Mental Status) जब सांख्यिकी (Statistics) बन जाता है तो यह वैदिक-धर्म का आधार हो जाता है क्योंकि विज्ञान एवं टेक्नोलोजी की प्रत्येक जानकारी पदार्थ[मेटर] से शुरू होती है, तत्व (एलीमेण्ट) से शुरू होती है जिसमें संख्याओं का उपयोग होता है। अंको का उपयोग होता है। सांख्यिकी को ही वैदिक-सांख्य कहा गया है।
एक लेखा विभाग[एकाउन्ट] का व्यक्ति कैशबुक से लेकर बेलेन्सशीट तक दोनों पक्षों के अंको के योग को जब समान अंको में ले आता है तब उसे सांख्यिकी कहते हैं।
एक समाज-वैज्ञानिक और अर्थ-शास्त्री के लिए सांख्य का अर्थ है आँकड़े बनाना ताकि सभी को समान साधन-सुविधायें वितरित की जा सकें। बराबर की संख्या में विभाजित किया जा सके।
एक भौतिक-वैज्ञानिक की सांख्यिकी कहती है कि इस सम्पूर्ण सृष्टि में पदार्थ और ऊर्जा की कुल मात्रा का अनुपात हमेशा बराबर बना रहता है और जितना पदार्थ सृष्टि में है उतना ही बना रहता है। 
एक रसायन-वैज्ञानिक के लिए सांख्य का अर्थ है पदार्थ की अविनाशिता का नियम अर्थात् एक तत्व दूसरे तत्व से मिलकर जब तीसरा या अन्य अनेक तत्वों[एलीमेण्टस] का निर्माण करते हैं तब भी उन तत्वों में विद्यमान परमाणुओं की कुल संख्या समान अंको में रहती है। 
यही सांख्य जब जीवो-जीवस्य भोजनम के सिद्धान्त पर आकर ब्राह्मण-परम्परा से जुड़े विज्ञान अर्थात् जीव-विज्ञान में आता है तो इसे पूर्णता का सिद्धान्त कहा जाता है।
पूर्ण इदम् पूर्ण तदम...
‘‘यह भी पूर्ण है वह भी पूर्ण है । पूर्ण को पूर्ण में मिला देते हैं तो दोनों के मिलने से जो बनता है वह भी पूर्ण है। पूर्ण को पूर्ण में से निकाल लेते हैं तो जो निकला है वह भी पूर्ण है और शेष बचा है वह भी पूर्ण ही कहा जाता है ।‘‘
अर्थात् परमाणु भी पूर्ण है उनके योग से बना अणु[Molecule -मुद्गल्] भी पूर्ण है। उन अणुओं-योगिकों Compounds से बनी जीव-कोषिका भी पूर्ण है और एक ही जैसी जीव कोषिकाओं के समूह के रूप में बना ऊत्तक (Tissue) भी पूर्ण संरचना है और उन ऊत्तकों से बना अंगविशेष भी पूर्ण संरचना है और विभिन्न अंगों से बनी जीव की देह भी पूर्ण संरचना है। अब यदि एक जीव, दूसरे जीव को भोजन रूप में ग्रहण करता है और वह भोजन शरीर में जाकर भोग Decomposition,अपघटन  होता है तब भी विघटित होकर बने विभिन्न योगिकों में से प्रत्येक कम्पाउण्ड पूर्ण है और उसका एक पार्ट शरीर में जुड़ जाता है वह भी पूर्ण है और बचा हुआ पार्ट मलमूत्र शरीर से विरेचन excretion की क्रिया से बाहर निकल जाता है उनमें भी पूर्ण संरचना है। खाद है तब भी कृत्स्नं है और खाद्य सामग्री है तब भी कृत्स्न [कार्बनिक योगिक Organic compounds] पूर्ण है अर्थात प्रत्येक संरचना अपने आप में पूर्ण है कम्पलीट है,कोई संरचना अधूरी नहीं है। 
इसलिए ब्राह्मण-परम्परा कहती है कि आप इसकी संख्या के चक्कर में क्यों पड़ते हो, अंको की गणित में क्यों उलझते हो ? जो भी संरचना है वह अपने आप में पूर्ण है। देह के मरने के बाद भी उसकी प्रत्येक कोषिका चाहे वह सड़े-गले शरीर के रूप में है फिर भी पूर्ण है। अब जब सभी कुछ पूर्ण है तो उसके प्रति भाव एवं अभाव में क्यों उलझते हो ? आप को चाहिये इस पूर्ण जगत की प्रत्येक संरचना से अपना ध्यान हटाकर अपना ध्यान अपने आप पर केन्द्रित करो और शम से सम्बन्ध बनाने वाले समाधि-योग का अभ्यास करो तब आप को उस पूर्ण का भी दर्शन हो जायेगा जो सभी पूर्ण[कम्पलीट] संरचनाओं में समान भाव से स्थिर-स्थिर है अतः वह पूर्ण कहा गया है। सम्पूर्ण[Whole] तो एक ही है जिसे ब्रह्म कहा गया है क्योंकि वह अखण्ड है,अखंडित है फिर भी प्रतेक पिण्ड,खण्ड,जैविक संरचना में विशिष्ट दृष्टिगोचर होता है।

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

30. तीन भागों में विभाजित ब्राह्मण-सत्ता !

      हर्षवर्धन की क्रान्ति में यह ब्राह्मण-सत्ता तीन भागों में विभाजित करके स्थापित की गई। 
      1. एक भाग उत्तर भारत में पंच-गौड़ ब्राह्मण और दक्षिण-भारत में पंच-द्रविड़ ब्राह्मण नाम का था। 
      2. दूसरा-भाग उन अध्यापकों या वैदिक देवों का भाग था जो अपने-अपने जातीय समुदाय के रोज़गार के विषयान्तर्गत शास्त्र रखते थे और अपनी जाति विशेष की प्रत्येक समस्या को सुलझाते थे। जनसंख्या की दृष्टि से भले ही सभी ब्राह्मण मिलाकर भी उतनी संख्या में नहीं होंगे लेकिन भारत में अन्य जितनी जातियाँ हैं उतनी की उतनी ब्राह्मण जातियाँ हैं अर्थात् प्रत्येक जाति का गुरू, अध्यापक, ब्राह्मण अलग बनाया गया। जो अपनी ही जाति से विकसित हो कर बनते थे। 
      3. तीसरा भाग उन साम्प्रदायिक गुरूओं का था जो सेवा परम्परा अर्थात् स्वास्थ एवं चिकित्सा परम्परा से जुड़े थे। गृह त्याग कर चुके होते थे। ये विशिष्ट विषय के गुरु द्विज होते हैं। इनमें सन्तान परम्परा नहीं होती,शिष्य परम्परा होती है। इन्हें प्रथम दो वर्गों में विभाजित किया गया जिन्हें वैष्णव एवं शैव नाम दिया गया। वैष्णव पीले वस्त्र धारण करते थे और शैव भगवाँ वस्त्र। 
वैष्णव सम्प्रदाय वाले अपने नाम के पीछे दास लगाते हैं और नाम के आगे संत लगाते हैं। इनको वैष्णव मन्दिरों के मुखिया के रूप में महन्त कहा जाता है। मन्दिरों की भूमिका ब्राह्मण-गवर्नमेन्ट प्रशासनिक कार्यालयों के समकक्ष रखी जा सकती है। इन्हें सतनामी भी कहा जाता है क्योंकि ये पुनः सात ज़िम्मेदारियों में विभाजित हो जाते हैं। 
मन्दिरों के माध्यम से निःशुल्क उपलब्ध होने वाली सुविधायें थीं; भोजन, विश्राम-स्थल, औषधियाँ इत्यादि और भजन कीर्तन के माध्यम से हारमोनी[सम] में रखने इत्यादि के साथ-साथ निःशुल्क शिक्षण संस्थान चलाना। या कहें सभी प्रकार की नैसर्गिक, मौलिक एवं आधारभूत भौतिक सुख-सुविधाऐं निःशुल्क उपलब्ध कराना।
शैव सम्प्रदाय चार भागों में विभाजित किया गया है।
1. संन्यासी[स्वामी और दसनामी के नाम से जाने जाते हैं],
     2.  नाथ,
     3.  वैरागी और
     4.  उदासीन।
वैरागी एवं उदासीन सम्प्रदाय मनोचिकित्सा के दो विभाग थे तथा
     स्वामी और नाथ शरीर चिकित्सा-विभाग के दो सम्प्रदाय थे।
दसनामी संन्यासी अपने नाम के आगे स्वामी लगाते हैं और नाम के पीछे दस में से कोई एक नाम। संन्यासी वनों के ट्रस्टी बनाये गये और जड़ी-बूटी चिकित्सा यानी वनोंषधि चिकित्सा उनका विषय था। इनकी दसनामी जातियों का काम भी विभागीय बँटवारा था। जैसे कि...
     पुरी उन्हें कहा गया जो पुर[घिरे हुए स्थान] में होने वाली व्याधियों के चिकित्सक थे।
     गिरी वे थे जो पहाड़ों पर होने वाली बीमारियों के चिकित्सक थे।
     तीर्थ वे थे जो तीर्थाटन पर आने वाले विभिन्न वर्गों के सम्पर्क से होने वाली संक्रामक बीमारियों के चिकित्सक थे।
     सागर वे कहलाये जो मछुआरों की बीमारियों की चिकित्सा करते थे। सरस्वती वे कहलाये जो नृत्य एवं संगीत से जुड़े वर्ग की बीमारियों की चिकित्सा करते थे इत्यादि। 
नाथ सम्प्रदाय वाले अपने नाम के आगे योगी, जो अपभ्रंश होकर जोगी बन गया, लगाते थे और नाम के पीछे नाथ। यह वर्ग प्राणियों के शरीर के अवषेष से चिकित्सा करता था और आयुर्वेद की विष चिकित्सा तथा यौन रोग चिकित्सा इनका विषय था। चर्म विकार और छूत की बीमारियों की चिकित्सा करते थे। यूनानी चिकित्सा पद्धति इसी शाखा से ली गई है।
अभी जितने भी धर्म और सम्प्रदाय वैश्वीकरण में फैले हुए हैं वे मुख्यतः वैष्णव समप्रदाय के ही आदर्शों पर फैले हैं। वैष्णवों का सन्त शब्द ईसाईयों में सेण्ट बन गया।
इन विषयों पर अधिक विस्तार एवं गहराई में जाना चाहते हैं तो आप स्वयं भी इनका अध्ययन कर सकते हैं और पकी-पकाई चाहते हैं तो जिज्ञासायें कर सकते हैं। लेकिन हमारे इस लेखन-पठन का उद्देश्य होना चाहिए भारतीय सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक व जातीय सम्प्रदाय की व्यवस्था के मूल-मूल बिन्दुओं को समझना ताकि हम भारत में सर्वकल्याणकारी समाज व्यवस्था की स्थापना के लिए डिज़ाइन (ढाँचा) बना सकें।

29. छठी शताब्दी की हर्षवर्धन क्रान्ति के गांवों का वास्तुशास्त्र !

जैसा कि मैं बार-बार दोहरा रहा हूँ कि जब अर्थव्यवस्था कामार्थ Commercial पद्धति हो जाती है और फिर वह कामार्थ पद्धति वित्त के इर्द-गिर्द घूमने लग जाती है तो प्रत्येक ज्ञान-विज्ञान का केन्द्र अपने मूल केन्द्र मानसिक-शारीरिक स्वास्थ्य[सुख] से कट कर वित्त पर केन्द्रित हो जाता है। कमाई नहीं होने पर भी वास्तु दोष देखा जाता है, और तो और कमरे के सामान को इधर-उधर करना भी वास्तु-विज्ञान बन गया है। लेकिन जब नये नगर अथवा कॉलोनी का नक्शा,मास्टर प्लानिंग ही वास्तु आधारित नहीं होगी तो एक भवन अथवा उसमें का एक कमरा वास्तुदोष से मुक्त कैसे रह सकता है।
     दूसरा तथ्य यह है कि वास्तु का जो सम्बन्ध 1.चार दिशाओं से,2.चार कोणों [कोनों] से तथा 3.भूमि की सतह से है; वह 1.पवन के बहने की दिशा यानि श्वसन क्रिया के लिए शुद्ध वायु और सूर्य-प्रकाश के घर में प्रवेश से, 2.पृथ्वी की धुरी के दोनों ध्रुवों के उभयपक्षी चुम्बकीय बल रेखाओं के मस्तिष्क पर होने वाले प्रभाव से और 3.भूमि के नीचे की नमी और कठोरता से भवन निर्माण की तकनीक से सम्बन्ध रखते हैं। जब कि इसका वाणिज्यिक उपयोग करने के लिए इसे आमदनी से जोड़ दिया गया है।
छठी शताब्दी का क्रान्तिकारी आन्दोलन जब चला तो गाँवों को एक नया और पूर्ण स्वराज्य रूप दिया गया। गाँव की बसावट वास्तु आधारित थी।
प्रत्येक गाँव में बहुसंख्यक वर्ग तो प्राकृतिक उत्पादक ही था बाक़ी सभी जातियों के एक-एक परिवार या कुटुम्ब होते थे। पूरा गाँव मिला कर एक परिवार होता। गृह उद्योग निर्माण से जुडी हुई जातियाँ उतना ही निर्माण-उत्पादन करतीं, जितनी गाँव की आवश्यकता होती। वर्षा काल में निर्माण कार्य रोक दिया जाता, सभी कृषि में लग जाते। 
गाँव की डिज़ाईन मास्टर प्लानिंग से बनाई जाती थी। जनसंख्या बढ़ने पर भी गाँव की मास्टर प्लानिंग में बदलाव नहीं किया जाता था अर्थात् ऐसा नहीं था कि जिसकी जहाँ मर्ज़ी हुई मकान बना लिया।जनसंख्या बढ़ने पर एक और नया गाँवों बसा लिया जाता था। उसमें भी वही परम्परागत मास्टर प्लानिंग होती थी।
सब से पहले तो भूमि की सतह को देखा जाता था। जो भूमि उत्तर की तरफ से ऊँची और दक्षिण की तरफ से नीची होती उस भूमि को चुना जाता था। 
गाँव के केन्द्र में एक पीपल का पेड़ लगाया जाता और वह सभी प्रकार के जीव जन्तुओं से लेकर ग्रामीणों तक का केन्द्रीय कार्यालय(मिलन स्थल) होता था।
पश्चिम की तरफ़ प्राकृतिक उत्पादन से जुड़ी बहुसंख्यक जाति के मकान होते थे और गाँव से पश्चिम की तरफ निकलते ही एक जल संग्रह केन्द्र, बावड़ी, तालाब, सरोवर इत्यादि बनाया जाता था। जिसमें उत्तर दिशा से बह कर आने वाला पानी संग्रहित होता था। उस सरोवर के बीच में एक घिरा हुआ स्थान अलग से बनाया जाता था। जिसके मध्य में कुँआ होता जिसमें पीने योग्य पानी स्वतः फिल्टर होकर कुए में इकट्ठा होता था उससे आगे पश्चिम की तरफ ही कृषि भूमि होती थी। इसके वैज्ञानिक आधार हैं। 
हवा हमेशा सूर्य की तरफ बहती है क्योंकि सूर्य जहाँ क्षितिज पर होता है वहाँ सूर्य की किरणें सीधी भूमि पर गिरती हैं अतः वहाँ की वायु गर्म होकर ऊपर उठती है और वहाँ वायुदाब कम हो जाता है। उसे भरने के लिए पूर्व और पश्चिम की हवा उस तरफ आती है। इस कारण प्रातः की हवा पश्चिम से पूर्व में चलती है। इस तरह प्रातःकाल में पश्चिम के खेतों से शुद्ध वायु गाँव में आती थी। 
सुबह किसान जब पश्चिम की तरफ मुँह करके खेतों में जाता तो सूर्य उसकी पीठ की तरफ होता और शाम को आता था तब भी सूर्य पीठ की तरफ होता इससे उसकी आँखों पर सूर्य की रोशनी नहीं पड़ती और वह दूर-दूर तक देख भी सकता था। 
गाँव में घुसने से पहले ही उसे अपने पशुओं के लिए पानी मिलता और सुबह गाँव से निकलते ही पशुओं को पीने के लिए पानी मिल जाता।
तालाब के बीच में किनारे पर जो अलग से कुँए का निर्माण किया जाता उस में पीने का पानी होता जो स्वतः फिल्टर होकर आता अतः उस तालाब में पशुओं के पानी पीने पर भी ग्रामीणों के पीने योग्य पानी में शुद्धता एवं पवित्रता बनी रहती।
पूर्व दिशा की तरफ प्रातः की दैनिक-चर्या के लिए स्थान छोड़ा होता था। अतः प्रातः की हवा की दिशा से मल-मूत्र के कारण हुई अशुद्ध वायु गाँव के बाहर चली जाती।
पूर्व की तरफ का जंगल उजाड़ छोड़ा जाता था। जहाँ से जलाने योग्य लकड़ी भी मिल जाती है और अर्ध-जंगली पशु भी वहाँ विचरण कर सकते थे। 
गाँव की पूर्व दिशा में एक शिवालय स्थापित किया जाता था जिसके अनेक उपयोग होते थे। शिवालय हमेशा गाँव की सीमा के बाहर अथवा वनों से गुज़रने वाले मार्गों के आस पास स्थापित किये जाते थे । 
शिवालय का एक उपयोग तो यह था कि प्रातः दैनिकचर्या से निवृत होकर आते समय वह पवित्र होने का स्थान था। शिव को अभिषेक पसन्द होता है अतः वहाँ स्नान करके पवित्र होते थे। जहाँ भी शिवालय होता है वहाँ पानी के लिए छोटा सरोवर, कुँआ अथवा भूमिगत टेंक होना आवश्यक होता है।
गाँव के दक्षिण-पूर्व में श्मशान भूमि छोड़ी जाती थी। श्मशान के पास के उजाड़ जंगल से दाह संस्कार करके आने वाले लोग शिवालय में पवित्र होकर आते थे। दाह संस्कार के समय हवा की दिशा कहीं भी हो दक्षिण पूर्व कोण पर होने पर दूषित वायु गाँव में नहीं आती थी।
शिवालय में शिवलिंग पर पाँच थम्बों वाला यानी पाँच दरवाज़ों वाला गुंबज बनाया जाता है। शिवालय में दरवाज़े नहीं होते अतः उसे मन्दिर नहीं कहा जाता और ना ही शिवलिंग पर अभिषेक करने, परसाद चढ़ाने और पूजा करने का कोई सुनिश्चित समय निर्धारित होता है। शिवालय या शिवलिंग पर किसी भी प्रकार की मानव निर्मित मिठाई, खाद्य सामग्री नहीं चढ़ाई जाती सिर्फ फल-पुष्प, पत्ते(पत्र), कन्द-मूल चढ़ाये जाते हैं और उनमें भी वे फल नहीं चढ़ाये जाते जो अन्दर से खण्डित होते हैं जैसे कि अनार, नीम्बू, सन्तरे, मौसमी इत्यादि। [Note -इस विषय के विज्ञान सहित सभी विज्ञान विषय वेदव्यास के ब्लॉग्स में मिलेंगे यहाँ सांस्कृतिक-आर्थिक इतिहास का विषय चल रहा है]
चुंकि शिवालय चारों तरफ से खुला होता था अतः कभी भी कोई भक्त वहाँ कुछ भी चढ़ा सकता था और कोई भी भक्त उस चढ़ावे को परसाद बोल कर स्वतः उठाकर ग्रहण कर सकता था। पशु-पक्षी तो खाते ही थे। इस तरह यह शैव सम्प्रदाय के दान की अर्थव्यवस्था चलती थी।
शिवालय के आस-पास के उजाड़ जंगल में गोचर भूमि भी होती थी और शिवालय में आज की तरह पत्थर का नन्दी नहीं सचमुच के नन्दी पाले जाते थे। शिवलिंग पर चढ़ा हुआ अधिकाँश चढ़ावा नन्दियों के लिए ही होता था।
सन्यासियों और यात्रियों के लिए शिवालय एक विश्राम स्थल भी होता था जहाँ सन्यासी को धुणी मिल जाती थी और यात्रियों को निःशुल्क भोजन-पानी-आवास भी मिल जाता था। 
गाँव का बहुसंख्यक वर्ग तो कृषि उत्पादक ही होता था बाकी वे सभी जातियाँ जो निर्माण से जुड़ी होती थीं उनके सिर्फ एक-एक परिवार होते थे। जहाँ गाँव की आबादी कम होती थी वहाँ कई गाँवों के बीच एक परिवार होता था।
गाँव की दक्षिण दिशा में इन सभी जातियों को क्रमशः बसाया जाता था या वे स्वतः ही क्रमशः बस जाते थे। यह क्रम इस बिन्दु पर निर्भर होता था कि उनके निर्माण कार्यों में प्रदूषण का स्तर क्या है ?
जैसे कि गाँव की दक्षिणी सीमा पर सबसे पहले लकड़ी का काम करने वाले, फिर लोहे का काम करने वाले फिर जुलाहे और उसके बाद एक तालाब होता था जिसमें ये जुलाहे कपड़े की धुलाई वगैरह यानी वीविंग के बाद का प्रोसेस करते थे। 
उसके बाद चमड़े का काम करने वालों का परिवार होता जो चमड़े की प्रोसेसिंग से लेकर चमड़े के विभिन्न सामान बनाने का काम करते थे और अंत में वह परिवार होता जो मरे हुए पशु  की चमड़ी को उधेड़ते थे।
कुम्हार का मकान पश्चिम में बने तालाब के आस-पास कहीं भी हो सकता था क्योंकि उस कार्य में प्रदुषण सिर्फ बर्तन पकाने के लिए होता है और अग्नि तो पवित्र करने वाली भी तो होती है।
गाँव के उत्तर में गाँव के चौधरी या मुखिया का घर होता था। 
    गाँव के बीच में एक परिवार बणिये का होता। गाँव की उपज में से गाँव के सभी लोग अपनी-अपनी वर्ष भर की आवश्यकता के जितना संग्रह कर लेते थे और जो अतिरिक्त उपज होती वह गांव का सेठ/वैश्य अन्य स्थान पर ले जाता था उसके बदले वह उस सामग्री को लेकर आता था जो उस क्षेत्र में नहीं उपजती थी। 
इसी में से शिवालयों और देवालयों[वैष्णव मंदिरों] में भी चढ़ाया जाता।
अतिरिक्त उपज को तथा अतिरिक्त बैलों या अन्य पशुओं को ले जाने के लिए वह वैश्य उन बिणजारों [वनचर जातियों] से सहयोग लेता था जिनके पास ऊंट, घोड़े, गधे, बैल  इत्यादि होते थे। 
गाँव वालों को वर्ष पर्यन्त चल जाये उतनी ही सामग्री से मतलब होता था। अतिरिक्त सामग्री को बेचकर उसके बदले जो सामग्री खरीदी जाती उसमें जो भी लाभ होता वह सेठ के यहाँ संग्रहित होता।
इस तरह गाँव में कहीं भी मुद्रा का प्रचलन नहीं था सारा काम वस्तु-विनियम से होता था और वर्षा काल में सभी निर्माण कार्य के गृह उद्योग बन्द होते थे अतः गांव की सभी जातियाँ कृषक वर्ग को सहयोग देती थीं। सभी एक साथ एक परिवार की तरह रहते थे और सामूहिक खेती करते थे। भूमि का बंटवारा नहीं था।
भारत में आज भी दूरदराज के क्षेत्रों में विशेषकर पहाड़ी और अर्धपहाड़ी क्षेत्रों में सामूहिक खेती होती है और एक गाँव एक परिवार की प्रथा बनी हुई है।
चुंकि ब्राह्मणों में परिवार प्रथा नहीं थी। अतः गांवों के समूहों के अरण्य क्षेत्र में एक पूरा परिवार नहीं सिर्फ एक ब्राह्मण-जोड़ा रहता था जो उस प्रत्येक बच्चे को पढ़ाता था जो पढ़ने में रूचि रखता। यह कार्य भी निःशुल्क होता था क्योंकि उस गुरूकुल में जो भी खाद्य सामग्री या अन्य वस्तुऐं जितनी मात्रा में आवश्यक होती उसे ग्रामीण लोग स्वतः पहुंचा देते थे।
ये वे ब्राह्मण होते थे जो मनीषी[मुनि-ऋषि} होते थे। प्रथम स्तर पर इनका काम सिर्फ सुन्दर हस्तलिपि और साक्षर बना देना होता था। दूसरे स्तर पर अक्षरों के समास से शब्द की रचना,शब्दों के संधि विच्छेद और शब्द रचना में धातु का महत्व इत्यादि होता था अर्थात् शब्द-ब्रह्म की जानकारी होती शब्दकोष[स्मृति परीक्षा] तो तीसरे स्तर पर आता था और व्याकरण चौथे स्तर पर होता था जिसे वे महत्वपूर्ण नहीं मानते थे। उनकी पहली प्राथमिकता अक्षर और शब्द रचना थी तथा दूसरी प्राथमिकता शब्द के शब्दार्थ, तत्वार्थ (तात्पर्य) और भावार्थ (अभिप्राय) को जानने की संवेदनशीलता पैदा करना होता था। [जबकि आजकल भाषा को ही महत्वहीन बना दिया गया है। शब्द जो ब्रह्म के समकक्ष माना जाता है उसे तो बिलकुल ही महत्वहीन बना दिया गया है। भाषा में भी व्याकरण को ही महत्वपूर्ण बना दिया जाता है। आज अधिकांश  धार्मिक वैज्ञानिक शब्दों के अर्थों को अन्यार्थ (Otherwise meaning ) में लिया जाता है।] 
     इस मनीषी ब्राह्मण जाति को सर्वोच्च माना जाता था क्योंकि सभी तरह की जिज्ञासाओं का समाधान इनके ब्रह्म में होता था.शास्त्रों का संस्कृत से क्षेत्रीय, प्राकृत भाषाओँ में अनुवाद करने की योग्यता के चलते एक तरफ वे स्थानीय देशी समुदाय के लिए माननीय, मान्यवर होते थे तो दूसरी तरफ भारत वर्ष की राष्ट्र-भाषा संस्कृत के कारण वे ईरान से कम्बोडिया, इण्डोनेशिया तक फैले भारत वर्ष में शिक्षा क्षेत्र में भी उसी समान, उसी तरह मान्यवर होते थे।
     हर्षवर्धन काल के उस समय के भारत में घुमंतू पशुपालक जातियाँ, जो विक्रमादित्य काल में शक संवत या राष्ट्रीय शाके वाले शक थे वे विक्रमकाल में तौला नही जा सके उतना सोना शरीर पर आभूषणों के रूप में लादे फिरते थे, वे जातियाँ पुनः उसी स्तर के समकक्ष आ गई थीं लेकिन अब वे अपनी देह पर सोने के स्थान पर चाँदी और बड़ी तादाद में पशुधन और पशुओं की देहों पर बेशकीमती वनौषधियाँ लाद कर चलते थे और जाट किसान जो कृषि-पशुपालन एक साथ करते थे वे देशी भारत के चौधरी, पटेल, सरदार, मुखिया इत्यादि नाम वाले, भारत के अन्नदाता के रूप में पूजे जाने लगे थे। उधर वैष्णवों ने गुप्तकाल के गुप्ता,वैश्य वर्ग से व्यापार छीन लिया था या कहें वैश्य वर्ग की ज्यादतियों के कारण मुद्रा का प्रचलन बंद कर दिया और अन्न-जल, औषधि,विद्या और गाय को बेचना पाप घोषित कर दिया। इस तरह आर्थिक सत्ता जो वित्तेशों के हाथ में थी वह देवालयों के हाथ में दे दी गई। अतः भव्य निजी भवन खंडहर हो रहे थे और विशाल प्रांगण वाले मन्दिर साधन सम्पन हो गये थे। अर्थात आज जो गरीबी की सीमा से नीचे हैं वे सभी समुदाय समृद्धि की सीमा के ऊपर थे तब भी ब्राह्मण साधन के स्थान पर साधना को सर्वोच्च स्थान देते थे।अतः अपरिग्रही थे। एक जोड़ा धोती के अलावा अन्य वस्त्र नहीं और दिन में एक समय शर्करा-वसा युक्त भोजन करते थे और अगले दिन की खाद्य सामग्री को घर में रखना अनावश्यक मानते थे।
     इस तरह सभी लोग निष्काम कर्म करते हुए त्योहारों, उत्सवों का पुनः विक्रमकाल की तरह आनंद लेने लगे थे।
    एक यूरोपियन पोर्ट-पोर्ट प Port to Port घूमते हुए पुर्तगाली Portuguese [वास्को डी गामा] ने भारत को पुनः खोज लिया तब से भारत को राहू-केतू एक साथ लग गया। लेकिन धरती है, देवराज इन्द्र [मानसून] की कृपा है, विभिन्न प्रजातियों के पालतू पशुओं के साथ गायों की विभिन्न देशी प्रजातियाँ हैं, हज़ारों किस्म के चावल और सैंकड़ों किस्म के फल-फूल, अनाज, दालें, वनौषधियाँ और न जाने क्या-क्या प्रकृति जनित उत्पादन भारत में होता है ! हम पुनः समृद्ध होते चले जा सकते हैं; बशर्ते 1. भूमि को हरा-भरा कर दें और प्राकृतिक उत्पादक वर्ग को, प्राकृतिक उत्पादक क्षेत्र को सुरक्षित संरक्षित कर लें और वहाँ की आय को बाहर न जाने देकर वहीं पर पुनर्निवेश करते रहें तो भारत पुनः समृद्धि का सर्वोच्च स्तर स्वतः प्राप्त करता चला जायेगा।

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

28. भूमि का पट्टा या रजिस्ट्री से ही मेरी भूमि उसकी भूमि का झगड़ा शुरू होता है !

       राष्ट्र शब्द का शब्दार्थ होता है वह भूमि जिसकी सीमा का निर्धारण राजनैतिक व्यवस्था के लिए राजा द्वारा किया जाता है। राष्ट्र शब्द में अक्षरों के द्वन्द्व समास से स्टोर शब्द भी बनता है।
जिस तरह छोटे-छोटे भौगोलिक क्षेत्र, जिनकी सीमा का निर्धारण प्रकृति द्वारा किया जाता है, वहाँ देश शब्द का उपयोग होता है। जैसे कि पंजाब,मारवाड़,मेवाड़,काठियावाड़,मराठवाड़ा इत्यादि देश कहलाते हैं और हिमालय,ब्रह्मपुत्रघाटी,सिन्धु घाटी और समुद्र चारों दिशाओं से घिरा भारतीय भू भाग भारत देश कहलाता है। 
ठीक इसी तरह भारत जहाँ तक वर्षा का वार्षिक चक्र बना रहता है वह भारत वर्ष। जब आर्यावर्त,आर्यन जो आज ईरान नाम से जाना जाता है वहाँ परमाणु युद्धों के परिणाम स्वरूप रेगिस्तान हो गया तब इस भू भाग का नाम कारण भारत वर्ष हुआ और इसका क्षेत्र हिन्दू कुश पर्वत से लेकर इंडोनेशिया तक माना गया।
    राष्ट्र का अर्थ है भारत की राजनैतिक सीमा रेखा। आपके मकान का प्लाट जिसकी रजिस्ट्री आपके नाम हो गई, वह आपका निजी राष्ट्र कहलायेगा। 
भूमि का पट्टा या रजिस्ट्री से ही मेरी भूमि उसकी भूमि का झगड़ा शुरू होता है।
1498 में पुर्तगाली ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना हुई। 1600 में अंग्रेज़, 1602 में डच, 1606 डेनिस, 1664 में फ्राँसिसी और 1731 में स्वीडिश कम्पनी की स्थापना हुई थी। इन कम्पनियों ने अपने-अपने राष्ट्र की समृद्धि के लिए भारत का आर्थिक शोषण करने की नीयत से यहाँ कार्यालय खोले थे। क्योंकि इनको भूमि का आवंटन हुआ था।
इन सभी कम्पनियों को भूमि का पट्टा देकर उसकी रजिस्ट्री कराने के बाद ये कम्पनियाँ उस ज़मीन की मालिक हो गईं वहीं से भारत को भी राष्ट्र नामक अवधारणा के मनोविकार से ग्रसित होने का रोग लगा था और भारत ने अपने पैरों पर ख़ुद कुल्हाड़ी चलाई।
इधर अकबर ने भारत को एक राष्ट्र में बाँधने के नाम पर युद्ध अभियान चला ही रखा था। 
कहने को तो अकबर राजा,सम्राट,बादशाह था और यूरोपियन लोग व्यापारी थे लेकिन दोनों ही यक्ष की श्रेणी में आते हैं जो अनुबन्ध में बाँध कर शासन करते हैं।
महाभारत ग्रन्थ सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान का विश्वकोष है और श्रीमद्भगवद्गीता उसका सारांश है। उस गीता का प्रारम्भ धृतराष्ट्र उवाच से होता है। यानी उस व्यक्ति के कारण महाभारत युद्ध होता है जो आँखों से ही अंधा नहीं था बल्कि उसकी धृति राष्ट्र से बँधी थी। इस तरह वह राष्ट्र के नाम बँधी धृति[बौद्धिक धारणा] से भी यानी बुद्धि से भी अंधा था।
दूसरी तरफ देखें तो भीष्म,द्रोण,कृप जैसे ज्ञानी और विद्वान अनुबन्ध में बँधे थे क्योंकि वे राष्ट्र के वेतन भोगी कर्मचारी भी थे और उन्होंने अपने आप को वचन में भी बाँध रखा था। अतः अपना नाश सामने देख कर भी युद्ध में दुर्योधन के पक्ष में लड़ रहे थे।
आज हम सभी प्रकृति के नियमों के विरूद्ध राजनैतिक सीमा रेखा में बँधे भौगोलिक क्षेत्र को राष्ट्र का नाम देकर आपस में लड़ने-मरने को तैयार बैठे है।
आज हमने एक ही तरह के भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले एक ही तरफ की भाषा बोलने वाले और एक ही तरह की सभ्यता संस्कृति वाले जनसमुदायों को प्रकृति के नियमों के विरूद्ध बने राष्ट्रों की सीमा में विभाजित कर दिया है।
भरण-पोषण के लिए अमृत पैदा करने वाली भूमि को अनुबन्ध के माध्यम से ख़रीद कर उनमें उद्योग के नाम से आसुरी यज्ञों को करते हैं और उनसे विष[विषाक्त जल, विषाक्त वायु] पैदा करते है। क्यों ?
क्योंकि हम यक्षों द्वारा संचालित उस व्यवस्था में अनुबन्धों के सहारे कर्मबन्धनों में बँध गये हैं जिन्होंने वित्तीय सत्ता के माध्यम से हमारी बौद्धिक,राजनैतिक,आर्थिक सत्ता को पंगु बना रखा है।
यहाँ मैं उन नवयुवाओं से यह कहना चाहता हूँ कि आप अपना कैरियर बनाने के लिए दौड़ तो रहे हैं लेकिन आप वेतन के रूप में जिस अच्छे-खासे वित्त की कल्पना करते हैं और उस वित्त से जिस सुख को प्राप्त करना चाहते हैं वह सम्भव नहीं है। क्यों ?
क्योंकि इस वित्तीय सत्ता का एक सान्ध्रित बिन्दु Concentrated point आ गया है और जब इन वित्तीय सत्ताओं के महल ताश के पत्तों से बने महल की तरह ढहने लगेंगे तो इनकी मनोस्थिति यह होगी कि ‘‘हम तो डूबे ही सनम तुमको भी ले डूबेंगे‘‘। यह मनोस्थिति कब बन जाये और कब तीसरा विश्वयुद्ध छिड़ जाये और कब आप परमाणु बमों की रेडियोधर्मी किरणों और परमाणु रियेक्टरों के तहस-नहस होने से निकले रेडियोधर्मी तत्वों के प्रभाव से रिस-रिस कर मरने तो मजबूर हो जायेंगे, कह नहीं सकते।
अतः आप नव युवाओं से आह्वान है सनातन धर्म की रक्षा के लिए उत्तिष्ठ भारत !
हे भारतीय युवाओं ! सर्वकल्याणकारी व्यवस्था पद्धति को स्थापित करने के लिए खड़े हो जाओ !

27. छठी शताब्दी से चली यह व्यवस्था सोलहवीं शताब्दी तक अक्षुण्ण चलती रही।

     इस बीच बारहवीं शताब्दी के बाद इस्लामिक मूवमेन्ट का आक्रमण होने लगा था लेकिन वे सभी  घटनाएँ अस्थाई थीं क्योंकि वे लूटपाट करके चले जाते थे और इनके युद्धों का प्रभाव उत्तर-पश्चिम भारत तक सीमित था वह भी सिर्फ़ साम्राज्य और राजाओं तक; जबकि गणराज्य सुरक्षित थे क्योंकि ये शासक या आक्रमणकारी इतने मूर्ख नहीं थे कि कृषि उपज क्षेत्र को नुकसान पहुँचाते। यह काम तो यूरोपियन यक्षों ने किया जिस को उनके नवविकसित भारतीय शिष्यों ने इस अंजाम तक पहुँचा दिया है जिसे हम देख ही रहे हैं।
  मोहम्मद गजनी का आक्रमण सोमनाथ मन्दिर में लूट से अधिक कुछ नहीं था और मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को मारकर भारत में हिन्दू सम्राट को यानी राजपूत सम्राट को मार दिया था। उसके बाद भी अनेक मुस्लिम बादशाह आये और गये लेकिन भारतीय गणराज्यों पर सिर्फ इतना ही प्रभाव पड़ा कि उनकी उपज का एक एक भाग उन्हें देना पड़ता था बस इससे अधिक कुछ नहीं।
जनजीवन में कहावत बन गई थी...
कोई नृपु होय हमें का हानी। 
देव राज  की  कृपा महानी। 
अर्थात् हमारे ऊपर तो देवताओं के राजा इन्द्र[मानसून] की महान कृपा है अतः जब तक वर्षा का वार्षिक चक्र चलता है हमें किसी भी नृपु के राजसिंहासन पर बैठने से क्या हानि हो सकती है। अधिक से अधिक यही होगा कि वह हमारा लगान बढ़ा देगा। 
इस तरह अर्थव्यवस्था देवों के राजा इन्द्र द्वारा संचालित थी और बाक़ी की सभी व्यवस्थायें जिनमें शिक्षा,चिकित्सा,परिवार,समाज,राजनीति से सम्बन्धित सभी व्यवस्थाऐं देवस्थानों,मन्दिरों,शिवालयों नामक कार्यालयों द्वारा नियन्त्रित ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के हाथों में थीं और ब्राह्मण गवर्नमेण्ट व्यवस्था[गुरू व्यवस्था] राजाओं पर भारी पड़ती थी। 
बारहवीं सदी में पश्चिम भारतीय जनसमूह कहीं न कहीं विस्थापित होने लगा था। आप सभी के विचारों में एक तथ्य भ्रामक है कि राजा लोग प्रजा पर अत्याचार करते थे। जबकि बारहवीं से सोलहवीं शताब्दी तक यह स्थिति थी कि राजघराने प्रजा से भयभीत रहने लगे थे। क्योंकि उस समय जब कभी भी किसी भी राज्य में जनता असुरक्षा महसूस करती तो वह दूसरे राज्यों में विस्थापित हो जाती। उन्हें रोकने का प्रयास बलपूर्वक किया जाता तो वे तीर्थाटन के बहाने राज्य की सीमा से बाहर निकल जाते। लेकिन मुग़ल साम्राज्य और ब्रिटिश साम्राज्य के समय जब राजाओं ने देखा कि अब उनकी सत्ता प्रजा की भावनाओं और समर्थन की मोहताज नहीं रही है बल्कि बादशाहों तथा बाद में ब्रिटिश सरकार की मेहरबानी पर टिकी है तब उन्होंने प्रजा पर अत्याचार शुरू कर दिया। उनकी एक मजबूरी यह भी थी कि उन्हें आगे भी नजराना और टेक्स देना पड़ता था। लेकिन फिर भी कृषक और पशुपालक वर्ग तथा वनवासी वर्ग सोलहवीं सदी तक ब्राह्मण व्यवस्था के अधीन रहा और देवालयों की छत्रछाया में सुरक्षित रहा।
ब्राह्मण व्यवस्था की नींव पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त और सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हिलने लगी थी। क्योंकि उस समय उस पर तीन तरफ़ से आक्रमण हुआ। [इस बिन्दु पर अगले क्रम में बात की जाएगी; अभी भूमि व्यवस्था और वैदिक गवर्नमेण्ट का प्रसंग चल रहा है।]
जब सर्वे भूमि गौपाल की तथा कोई नृपु होय हमें का हानि की मान्यता जन मानस में चल रही थी तब मनीषियों ने एक मान्यता यह भी जन-मानस में प्रतिष्ठित कर रखी थी कि जिस भूमि पर आप खेती कर रहे हैं उस भूमि को नापना और अपने पशुधन की गिरनी करना अशुभ होता है।
मनीषी जब मान्यताऐं एवं मिथक बनाते हैं तो उनका उद्धेश्य इस एक बिन्दु पर ही केन्द्रित रहता है कि गणित में उलझकर कोई भी अपनी हारमोनी,सुर,सम स्थिति को डिस्टर्ब न करे। क्योंकि ब्राह्मण गवर्नमेण्ट एकाउण्ट के स्थान पर एकाउण्टिबिलीटी[जिम्मेदारी] को धर्म कह कर स्थापित करती है ताकि व्यक्ति आत्म-अनुशासित रहे और उसे वैदिक शासन-प्रशासन पद्धति की आवश्यकता ही नहीं रहे।
शेरशाह सुरी ने भारत में पहली बार भूमि को नापने की तथा भूमि को कृषि कार्य के लिए आवंटित करने की तथा भूमि के क्षेत्रफल के आधार पर जोत[लगान] लेने की व्यवस्था बनाई। 
अकबर के नवरत्नों में एक जाट महाराजा भी था जिसने भूमि के पट्टे बनाने की व्यवस्था बनवाई। यह कार्य-व्यवस्था बनाई तो थी भूमि सुधार के नाम से लेकिन इसका लाभ मिला युरोपियन ईस्ट-इण्डिया कम्पनियों को जो भारत के लिए दुर्भाग्यशाली साबित हुई। क्योंकि यहाँ से भारत वर्ष और भारत देश दोनों गौण हो गये और भारत राष्ट्र का उदय हुआ।



26. रजपुत्रों की शासन पद्धति

        छठी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के छ सौ वर्षों तक भारत की वैदिक गवर्नमेण्ट राजपुत्रों के शासन-अनुशासन से निर्विध्न चलती रही। सोलहवीं सदी तक ये अनेक बाधाओं के साथ चलती रही उसके बाद संगदोष के कारण रजपुत्रों में रज का विकार आने लग गया और वे ईश्वर भाव से च्युत्त होकर ईश्वर भोगी होने लगे।
    कहने को तो छठी शताब्दी से राजपूत साम्राज्य का विस्तार पूरे भारत में था और उनका सम्राट अजयमेरू पर रहता था लेकिन भारत के इस साम्राज्य की परम्परा राम राज्य की परम्परा थी। रक्षक व्यवस्था थी,राक्षस व्यवस्था नहीं थी अर्थात् सभी राज्य स्वाधीन थे।
नगर एवं कस्बे समाप्त कर दिये गये या स्वतः समाप्त हो गये क्योंकि प्रत्येक गाँव में या दो चार गाँवों के एक केन्द्र में या दस बीस बस्तियों-ढाणियों के समूहों के बीच में एक किसान मुखिया होता था जो गणराज्य का चौधरी,पटेल इत्यादि कहलाता। आज की भाषा में सरपंच कह सकते हैं। आर्थिक राजनैतिक व्यवस्था कुछ ऐसी कर दी गई थी कि चौधरी ही सर्वेसर्वा होता था और प्रत्येक गण राज्य या कहें गाँव अपने आप में एक पूर्ण स्वतन्त्र और स्वाधीन इकाई बना दिया गया था। इन ग्राम समूहों को उनकी भौगोलिक, पर्यावर्णिक स्थिति के अनुरूप यानी विशेष भौगोलिक सीमाओं के बीच बसे गावों के समूहों को देश कहा जाता था। प्रत्येक देश में दस बीस राजपूत योद्धाओं के साथ एक प्रमुख रहता था जिनका एक मात्र काम था हिंसक वन्य प्राणियों से गाँवों की रक्षा करना। इस कार्य के एवज में उन योद्धाओं के लिए आवश्यक खाद्य सामग्री और अन्य आवश्यक सामान की व्यवस्था वे गावों के समूह करते थे।
इन छोटे-छोटे गण-राज्यों यानी देशों के समूहों का एक राजा यानी राजघराना होता था जिनके पास अपनी स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था के लिए भूमि होती थी और उस भूमि पर उनकी अर्थव्यवस्था चलती थी इनका सम्राट अजमेर में बैठता था जिसकी अर्थव्यवस्था भी अपनी स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था थी अर्थात किसी प्रकार का कोई राजस्व या राज्य कर नहीं था । 
इन गण राज्यों में स्थान-स्थान पर साप्ताहिक,पाक्षिक,मासिक,त्रैमासिक,अर्धवार्षिक,वार्षिक,हाट बाज़ार या मेले लगते थे। उन मेलों में उस खाद्य सामग्री और पशुओं का आदान-प्रदान यानी वस्तु-विनिमय होता था जो उत्पादन उनकी वार्षिक आवश्यकता के जितना संग्रह करने के बाद अतिरिक्त बच जाता था।
चूँकि एक भौगोलिक क्षेत्र में सभी आवश्यक चीजें तो उपलब्ध हो नहीं सकती थीं,उपज नहीं सकती थी अतः अपने क्षेत्र की अतिरिक्त उपज को अन्य क्षेत्रों की उस उपज से अदला-बदली कर लेते थे जो उनके क्षेत्र में नहीं उपजती थी। इन मेलों के आयोजन में जो लाभ होता था उसका हिसाब राव या राय रखते थे जो बाद में कायस्थ कहलाये और यह लाभ राजपूतों का वह अतिरिक्त लाभ होता था जिसका वे संग्रह करते थे और ये लाभ आपातकाल में काम आता था। आपातकाल से तात्पर्य है प्राकृतिक आपदा के समय। चुंकि प्राकृतिक आपदाओं में अतिवृष्टि ही मुख्य समस्या थी जो वर्षा के वार्षिक चक्र से आती थी अतः राजपूतों की सैनिक छावनीयाँ ऊँचे स्थानों पर बनाई जाती थीं।
इस व्यवस्था में सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह था कि ‘‘सर्वेभूमि गोपाल की‘‘ का सिद्धान्त लागू था कहीं भी किसी भी भूमि पर किसी का मालिकाना हक नहीं था।
[‘‘सर्वे भूमि गोपाल की‘‘ का सीधा सा अर्थ न लेकर आज कल का बौद्धिक वर्ग इसका अनावश्यक अनुवाद करके इसके अर्थ का अनर्थ कर रहा है। गोपाल शब्द की जगह ईश्वर या भगवान का उपयोग कर जाते हैं।]
   बारहवीं सदी के बाद जब इस्लामी आक्रमण तेज हो गये थे तब भी कृषि भूमि और वनों को तो वे भी हानि नहीं पहुँचाते थे उनके युद्धों का प्रभाव उत्तर-पश्चिम भारत तक सीमित था वह भी सिर्फ साम्राज्य और राजाओं तक सीमित था,जबकि गणराज्य पूर्ण सुरक्षित थे। उन आक्रमणकारियों को सिर्फ़ सोना चाहिए था जो उन्हें देवालयों में राजाओं से भी अधिक मिलता था। लेकिन आज हमारे ही लोग जब सनातन धर्म को नहीं समझ पा रहे हैं तो क्या किया जा सकता है। इसका एक ही उपाय है सनातन धर्म को पुनः अर्थ[Earth, धन, Meaning , sense] से जोड़ा जाये।


25. वेदत्रयी से चाहे जैसी मानव नस्ल तैयार की जा सकती है !


     वेदत्रयी वैदिक यज्ञ एवं वेदत्रयी के बारे में संक्षिप्त में पुनः जान लें। क्योंकि जब छठी शताब्दी में आमूलचूल परिवर्तन का क्रमबद्ध कार्यक्रम चला तो वैदिक साहित्य को भूमिगत कर दिया गया था और वैदिक साहित्य के सभी शब्दों का मानवीकरण करके उन्हें पौराणिक साहित्य में रूपान्तरित कर दिया गया ताकि श्रुति परम्परा से यह ज्ञान जीवित भी रहे और असुरों के हाथ भी न पड़े। छठी सदी में इस विषय को इतना भूमिगत कर दिया गया कि भारतीय लोगों ने वेद शब्द को पहली बार अठारहवीं सदी में अंग्रेज़ी पत्रकारिता के माध्यम से और दयानन्द सरस्वती के मुख से सुना। तब से लेकर आज तक यह शब्द एक विभ्रम बन कर जनमानस में तैर रहा है।
     अभी कुछ वर्षों पहले मेरे चाचा ने मुझ से पूछा कि 'मेरे दिमाग़ में एक जिज्ञासा लम्बे समय से है कि आखिर वेदों में लिखा क्या है ! तुम ने गीता की व्याख्या की है और इस विषय में तुम गहराई तक उतर चुके हो इसलिए मैं काफी दिनों से सोच रहा था अब की बार तुमसे मिलूँगा तो तुम से पूछूँगा।' 
मुझे उनके प्रश्न  पर हँसी आ गई और मैंने कहा कि 'यह कैसी विडम्बना है कि आप ख़ुद वैद्य हैं और आयुर्वेद को गहराई से जानते हैं। आपके कहने पर ही मैंने आयुर्वेद की आपकी पुस्तकों को पढ़ा और अब आप ही मुझे से पूछ रहे हैं कि वेदों में क्या लिखा है! जो आप पहले से जानते हैं वही वेदों में है!' 
वेदो के विषय में जो विभ्रम[भ्रामक धारणाऐं] फैली हुई हैं उनके बारे में भी यहाँ लिखना प्रासंगिक होगा। क्योंकि इस लेखन के माध्यम से मैं तीन अंको का मान दे रहा हूँ। 
   1. सभ्यता-संस्कृतियों तथा आर्थिक स्थितियों के उत्थान-पतन के इतिहास का वह पक्ष जो आपके मस्तिष्क में मानवीय आचार संहिता को स्पष्ट करेगा कि शिष्टाचार और भ्रष्टाचार की सीमा रेखायें कहाँ से शुरू होकर कहाँ समाप्त होती हैं। [भूतकाल] 
   2. वर्त्तमान की समस्याओं को स्वनिर्धारित अर्थ से न जान कर उसे समग्र दृष्टिकोण के परम अर्थ से देखें। इसी को स्वार्थ जनित मानसिकता और परमार्थ जनित दृष्टिकोण कहा गया है। [वर्त्तमानकाल]
   3. धर्म के दोनों पक्षों की जानकारी जिसे विज्ञान एवं दर्शन कहा गया है जिनके गुरूओं को आप ऋषि-मुनि नाम से जानते तो हैं लेकिन वह जानकारी इन शब्दों के साथ जुड़ी भ्रामक धारणाओं तक सीमित है। यहाँ हमें अपनी अवधारणाएं सुस्पष्ट करनी है और पुर्वाग्रहों से मुक्त होकर सोचना है। [सम्यक ज्ञान]
    4. इस तरह जब आपके पास तीन अंक होते हैं तो चौथे अंक का मान आप सरलता से निकाल सकते हैं। यह चौथा अंक है।[भविष्य निर्माण] 
     हमें कैसी व्यवस्था पद्धति को प्रतिष्ठित करना है जिसके माध्यम से इस भारतीय भू भाग[भारत वर्ष] को ही नहीं बल्कि नर्क बनती जा रही पूरी पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाया जा सके।
अब यहाँ से उपर्युक्त तीनों बिन्दु एक साथ गड्डमड्ड(मिश्रित)हो कर चलेंगे,आपको अपने दिमाग में सम्पादित करना है।  

    वेदों को चार वेद कहा गया है। दरअसल ये दो भागों में विभाजित है। इस वर्ग को वेदत्रयी कहा गया है जिसमें ऋक्-वेद (ऋग्वेद), यजु-वेद(युजुर्वेद) तथा सामवेद आते हैं।
दूसरा वर्ग अथर्व-वेद है।
वेदत्रयी मूल वेद हैं जो उस समय से हैं जब से वर्त्तमान कल्प का प्रारम्भ हुआ। अर्थात् अर्वाचीन ऋषि कश्यप इसके प्रणेता हैं जिन्होंने दक्ष प्रजापति की कन्याओं से विवाह किया था जिनकी संख्या कहीं नौ बताई गई तो कहीं तेरह। जबकि अथर्ववेद महाभारत काल की रचना है जो अर्थविज्ञान यानी पदार्थ विज्ञान के सभी विषयों का वेद है।
वेदत्रयी के माध्यम से दो तरह की मानव नस्लें विकसित की गईं। दिति के गर्भ से हिरण्य-अक्ष[सुनहरी आँखों वाले] तथा हिरण्य कशिपु[सुनहरे बालों वाले] दो नर-सन्तानें हुईं। दिति से होलिका भी पैदा हुई। अदिति के गर्भ से बारह आदित्य हुए। ये दो मानसिक प्रजातियाँ थीं।
हिरण्य-अक्ष और हिरण्य-कशिपु दोनों के वंशज कालान्तर में क्रमशः  रक्षस एवं यक्ष कहलाये तथा बारह आदित्यों के वंशज देव कहलाये। 
देव सत्व प्रधान थे। रक्षस रज प्रधान थे और यक्ष तम प्रधान थे। इन्हीं से वैदिक सभ्यता संस्कृति का विकास हुआ था। 
दक्ष की अन्य कन्याओं के गर्भ से सिर्फ़ लड़कियाँ ही हुई जो जलचर,स्थलचर,नभचर,उभयचर इत्यादि प्राणियों की तथा विभिन्न वनस्पतियों की माताऐं कहलाईं क्योंकि कश्यप ने इन्हीं वैदिक यज्ञों से लुप्त-विलुप्त हो चुकी अनेक प्रजातियों का संरक्षण-संवर्धन किया और अपनी अन्य पत्नियों को इन विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण का कार्य सौंपा।
इसी वैदिक यज्ञ प्रक्रिया से पुष्कर में तीन प्रजातियों का विकास हुआ।
ऋक्-वेद में देवताओं का आह्वान किया जाता है। प्रत्येक वैदिक-ऋचा का एक ऋषि होता है और एक देवता होता है। ऋषि उस वैज्ञानिक को कहा गया है जिसने रिसर्च की ओर देवता उस भाव को कहा गया है,जिस पर रिसर्च हुआ है। ऋचा को साहित्य की भाषा में छन्द कहा गया है।
ऋग्वेद की पहली ऋचा का पहला पार्ट है । अग्नी मिळे पुरोहितम् ।
पुरोहित का अर्थ है जो पुर[नव द्वारों वाली देह] का हित करने वाला हो।
[पुरोहित और ब्राह्मण में भेद होता है ब्राह्मण का अर्थ होता है जो ब्रह्म में रमण करने वाला चिन्तन मनन, अध्ययन-अध्यापन करने वाला हो। ध्यान रहे ब्रह्म से ब्रेन शब्द बना है।]
पुरोहित को जब अग्नि मिलेगी तब वह औषधीय गुणों वाले पौष्टिक खाद्य पदार्थ को पकायेगा । खाद्य पदार्थों के रासायनिक तत्वों से यज्ञ-मान[यजमान] के ब्रेन में अमृत[हारमोन्स] का स्राव होगा वही विशिष्ट अमृत तत्व विशेष देवता को शरीर में पुष्ट करेगा और वही विशेष देवता शरीर में विशिष्ट अंगों को,उत्तकों को,Tissues को पुष्ट करेगा। 
जब वयस्क नर-नारी के लिए ऋग्वेद की ऋचाओं के गायन के साथ औषधीय तत्वों वाला पौष्टिक भोजन पकाया जायेगा तो उन खाद्य द्रव्यों की जीवित कोषिकाओं में एक विषेष भाव पैदा होगा और उससे विशेष अमृत का विशेष स्राव होगा जो शरीर में विशेष गुणधर्मिता को विकसित करेगा। 
जब शरीर में देवता, देवी सम्पदा के रूप में पुष्ट हो जाता है तब फिर यजुर्वेद का नम्बर आता है। 
यजुर्वेद के नियमानुसार विशेष काल स्थान परिवेश में देव यज्ञ करवाया जाता है अर्थात् देवता को गर्भ में प्रतिष्ठित कराया जाता है। प्रणय कराया जाता है।
  उसके बाद सामवेद का नम्बर आता है। अर्थात् उस विशिष्ट देवता की विशिष्ट चारित्रिक गुणधर्मिता की स्तुति की जाती है। स्तुति से देवता में उस चारित्रिक गुणधर्मिता के भाव,संवेदना,Sense,sensation पैदा होते हैं।
जब एक देवी सम्पदा वाला यानी एक विशेष चारीत्रिक गुणधर्मिता के भाव से भावित होकर गर्भ से शिशु बाहर निकलता है तब भी सामवेद की स्तुतियाँ चलती रहती हैं और ऋग्वेद का अमृत पदार्थ भी चलता रहता है। यह क्रम कुल सात पीढ़ियों तक चलता है।
यदि पितृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था के लिए नरों को विकसित करना होता है तो यह वैदिक यज्ञ नर सन्तानों के रूप में चलता है जबकि यदि मातृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था के लिए नारियों को विकसित करना हो तो यह प्राकृतिक यज्ञ नारी सन्तानों में स्वतः ही चलता है।