वेदवाक्य :-"प्राणी अपनी प्रजाति( नस्ल) की संस्कृति के साथ ही पैदा होता है। " पशु-प्रजातियाँ देह की आकृति से वर्गीकृत होती हैं। जबकि मनुष्य-जाति देहाकृति में तो एक समान ॐ आकार की होती है लेकिन प्रजा के रूप में मानसिक-प्रजातियों में वर्गीकृत हो जाती हैं। शुरुआत में यह वर्गीकरण क्षेत्रीयता और रूप-रंग तक सीमित होता है,किन्तु कालांतर में सभ्यताओं के विकास के साथ विकसित होने वाले विविध प्रकार के रोज़गारों के कारण जाति(जॉब)धर्म की वृद्धि के परिप्रेक्ष में इन मानसिक प्रजातियों को वर्गीकृत किया जाता है।
vivarn
Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.
कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।
Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.
कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।
Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.
कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।
Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.
कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।
शनिवार, 21 जुलाई 2012
14. क्या अशोक एक महान सम्राट था !
13. चाणक्य का कालखंड !
* जो स्वर्ण राज्य कोष के भण्डारों में संग्रह किया जाता रहा है, उसे घर-घर में पहुंचा दिया। मंगल-सूत्र के नाम से तथा आभूषणों के रूप में सोने को घर-घर में इसलिए प्रचलित किया ताकि कोई भी विदेशी आक्रमणकारी राज्यकोष में एक स्थान पर संग्रहित सोने को सरलता से लूट कर न ले जा सके।
शुक्रवार, 20 जुलाई 2012
12. भारत वर्ष-भारत देश-भारत राष्ट्र !
तीन भारत के तीन तरह के पुरुषार्थ वाले तीन आदर्श पुरूषार्थी राम
तीन भारत के तीन तरह के त्याग के आदर्श-आचरण वाले तीन भरत
तीन भरत हैं जिनको त्याग के आदर्श तीन आदर्श आचरण कहा गया है,जिनके नाम पर भारत का नाम भारत पड़ा।भारत वर्ष
भारत देश
भारत राष्ट्र
11. सनातन धर्म का ज्ञानाधार अद्धैत !
ब्रह्म परम्परा है ब्रह्म में रमण करने की अर्थात् स्वाध्याय-चिन्तन-मनन करने की, जिसे अध्यापक, शिक्षक, आचार्य परम्परा कहा जाता है यानी शिक्षा-विभाग की परम्पराऐं।
इस तरह का एक शब्द है 'वेद' जिसका अर्थ होता है जानना। विद्[जानना] से वेद और विद्या बने हैं। वेद का अर्थ है वैदिक विद्याओं के पीछे छिपे विज्ञान के सिद्धान्त या प्रायोगिक कर्म की विधि को जानना। वेद शब्द द्वन्द्व समास से देव बन जाता है। देव वह व्यक्ति होता है जो वैदिक विद्याओं को जानता है अर्थात वेद का जानकार देव।
लेकिन 'ज्ञेय' का अर्थ भी जानना होता है। फिर दोनों जानने में फ़र्क क्या ! ज्ञेय से ज्ञान बना है। ज्ञेय का द्वन्द्व समास यज्ञे होता है जिसका अर्थ है सभी प्रकार के यज्ञ कर्मों की समसामयिक उपयोगिता को जानना, तथ्य या तात्पर्य जानना या तथ्य के पीछे छिपे सत्य को जानने वाला ज्ञानी।
ब्रह्म-परम्परा शिक्षा-संस्कार के माध्यम से ब्रह्म यानी सेन्स यानी बोध यानी चेतना को विकसित करने की परम्परा है ।
वेद-परम्परा उस शिक्षा परम्परा को जानने की परम्परा है जो बॉडी[देह] से सम्बन्ध रखती है और देह की एक आयु होती है अतः इसका नाम आयुर्वेद रखा गया है अर्थात् आयु बढ़ाने सम्बन्धी विज्ञान की जानकारी।
वेद-त्रयी वेद-विद्याओं वाला विद्वान देव तीन वर्गों में वर्गीकृत है।
दूसरी श्रेणी में आते हैं यजुर्वेद के जानकार यानि प्रणय एवं प्रसूति विज्ञान को जानने वाले,नर-मादा सन्तान और विशिष्ट योग्यता की सन्तान पैदा करने की विद्या से सम्बन्ध रखते हैं।
तीसरी श्रेणी में आते है संवेदी नृत्य संगीत,मनोरंजक विद्याओं के विद्वान जो तनाव को आनंद में बदल देने की विद्याएँ हैं।
जबकि ज्ञान वाला ज्ञानी ब्राह्मण कहलाता है जो भाषा का जानकार और आधारभूत गणित का ज्ञान रखने वाला स्वाध्याय यानी अध्ययन करने वाला अध्यापक होता है। जो प्रत्येक तथ्य के दो पक्षों की समानान्तर जानकारी रखता है। सत एवं असत को जानता है। जिस में कर्म-अकर्म का बोध, sense,ज्ञान होता है।
{इसी शीर्षक से प्रकाशित बात के अन्य पक्ष को नैतिक राज बनाम राजनीति नामक ब्लॉग में भी पढ़ें।}
वेदत्रयी के बाद चौथे वर्ग में अथर्ववेद आ जाता है जो अर्थशास्त्रीय विद्याओं का संग्रह है। जिसका सम्बन्ध वास्तु और वास्तु विद्याओं के जानने से है अर्थात् औद्योगिक निर्माण,विज्ञान की जानकारी। इसमें शस्त्र[tools & weapens] निर्माण की विद्याएँ भी आ जाती हैं यहीं से जगत के नाश की उल्टी गिनती शुरू होती है। क्योंकि यहाँ से आप द्वैत में चले जाते हैं। एक तरफ़ आपकी निजी महत्वाकांक्षा दूसरी तरफ़ यह पूरा जगत।
यहाँ से जानने के लिए एक शब्द संख्ये का भी उपयोग होता है। आप जब सूत्र,समीकरण और विशेषकर सांख्यिकी Statistics को जानने के लिए शब्द का उपयोग करते हैं तो संख्ये का उपयोग होगा।
यह वह स्थिति है, जिसके लिए कह सकते हैं कि दोनों ही दिशाओं में आसुरी यज्ञ हो रहे हैं जो सनातन धर्म चक्र में विकार पैदा कर रहे हैं। इसी मानसिक[बौद्धिक] विकास के परिणामस्वरूप ही आज हम इस प्रौद्योगिकी विज्ञान वाली आसुरी वैदिक सभ्यता और सामाजिक असभ्यता की एक ऐसी सीमा रेखा पर हैं जहां से एक महाविनाशक युद्ध की उलटी गिनती शुरू होती है।
10. प्राकृतधर्म सम्प्रदायों की मुख्य शाखायें !
एक है योगी सम्प्रदाय जो पशुपतिनाथ वाला नाथ सम्प्रदाय है जिस परम्परा में मछिन्द्रनाथ[मक्षइन्द्र] और गौरक्षनाथ इत्यादि हुए,जिन्होंने आठवीं शताब्दी में नाथ सम्प्रदाय का नवीनीकरण किया।
ये दोनों परम्पराएँ मूल परम्पराएँ हैं।
दत्तात्रेय ने गुरू-शिष्य[गुरु-चेला] वाला सन्यासी सम्प्रदाय चलाया। शिष्य को भी दत्तक पुत्र कहते हैं ये अत्रिय के दत्त बने अतः दत्तात्रेय कहलाये।
कालान्तर में इस सन्यासी सम्प्रदाय की अनेक शाखायें बनीं और बिगड़ीं, इनका वर्णन आगे आएगा।
जब विकास की परिभाषा इतनी भौतिक विज्ञान आधारित हो जाती है कि शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण ही विकास की परिभाषा बन जाती है तो यह आसुरी वैदिक-सम्प्रदाय बन जाता है जो सनातन धर्म[ईकोसिस्टम] को नष्ट करने लग जाता है। तब अर्थ-शास्त्र कामार्थ-शास्त्र बन जाता है यानि ईकोनोमिक सेटअप, काम एवं अर्थ वाला कोमर्सियल सेटअप बन जाता है। कॉमर्स शब्द कामार्थ का ही अपभ्रंष उच्चारण है।
सनातन धर्म का ज्ञानाधार
9. बुद्ध एवं महावीर ने किया सनातन धर्म का पुनरोत्थान !
'वसुधेव कुटुम्बकम्' यानी भावों के परस्पर सम आदान-प्रदान वाले चक्र ने वसुधा[सम्पूर्ण उपजाऊ धरती] को एक कुटुम्ब The Family with Households and Relatives बना रखा है, भगवान के बनाए इस वर्गीकृत जीवजगत साम्राज्य में कुटुम्ब-कबीले,Clan में विभिन्न प्रकार के परिवार रहते हैं। इस साम्राज्य को प्रकृति ने त्रिगुणात्मक Three times higher three properties बना रखा है। एक प्रकार के परिवार का उत्पादन करने पर दो का उत्पादन स्वतः होता है। इतनी लाभप्रद पारिस्थितिकी आधारित अर्थव्यवस्था Ecologically-oriented economy, Ecologically-operated economy को नकारना अधर्म और पाप कहा गया है,निसंदेह पाप का परिणाम नरक भोगना होता है।
Ecology यानी सनातन धर्म यानी भगवान की बनाई हुई अर्थव्यवस्था है। इस का शुभारम्भ प्लाण्ट किंगडम यानी वनस्पति साम्राज्य व एनीमल किंगडम यानी प्राणी साम्राज्य के बीच भावों के परस्पर सम आदान प्रदान से होता है।
नव बौद्धिक वर्ग ने जैन-बौद्ध धर्म को सनातन धर्म से अलग कर दिया जबकि सनातन धर्म की नींव ही बौद्ध-जैन सम्प्रदाय हैं। क्योंकि ईकोलोजी का मूल स्वरूप तो वन क्षेत्र में ही उभरता है और वनों की रक्षा के लिए बुद्ध एवं महावीर ने अपना राजकुमार जीवन त्याग कर कठोर जीवन अपनाया। पहले इस ईको सिस्टम को ब्राह्मणों ने समझा तत्पश्चात् इसको वनों में प्रत्यक्ष देखा,इसपर मनन किया और आत्म संयम की समाधि का प्रभाव शरीर व् बुद्धि पर महसूस किया तत्पश्चात इस की शिक्षा वनवासियों को दी।
यह बिना व्यवहार में लाये बिना यानी प्रेक्टिकल किये बिना, मात्र सुनी सुनाई बातों पर दर्शन के नाम पर की जाने वाली मानसिक ऐयाशी नहीं है।
गुरुवार, 19 जुलाई 2012
8. 2700 वर्ष पूर्व बुद्ध और महावीर ने प्राकृत धर्म की पुनःस्थापना की !
आज से लगभग 2700 वर्ष पूर्व बुद्ध और महावीर ने प्राकृत धर्म की पुनः स्थापना की क्योंकि आज से लगभग साढे तीन-चार हजार वर्षों पूर्व आज के ईराक-टर्की-इजिप्ट के बीच के क्षेत्र में एक बहुत परिष्कृत औद्योगिक नगरों का क्षेत्र फैला था। भारत में आज से पाँच हज़ार वर्ष पहले कंस,दुर्योधन इत्यादि द्वारा भारत की पश्चिमी दिशा के काल यवन एवं पूर्वी दिशा के जरासंध जैसे राष्ट्राध्यक्षों से आर्थिक संधि करके भारत में भी औद्योगिक-नगरों का विस्तार किया गया था।
कृष्ण ने कूटनीतिक चालों द्वारा एक युद्ध का आयोजन करवाया और इस भौतिकवाद से ग्रसित विकास को नष्ट किया था और रोक लगाई।
अधिकांशतः महाभारत तथा कृष्ण के परिपे्रक्ष्य में युद्ध और गीता का उपदेश ही प्रचलित जानकारियों का केन्द्र है। लेकिन असली काम तो युद्ध के बाद में कृष्ण ने किया था और वह काम था यक्षों को भारत से खदेड़ना।
वर्तमान की यह मानव सभ्यता वैदिक सभ्यता है किन्तु यह देवों के स्थान पर यक्ष एवं रक्षसों की सभ्यता है। यक्ष उस चरित्र का नाम है जो अनुबन्ध में बाँध कर शासन करते हैं और यदि अनुबन्ध का उल्लंघन होता है तो राक्षस सेना द्वारा बल प्रयोग करवा कर अनुबन्ध मानने को मजबूर किया जाता है।
कृष्ण ने रक्षसों को तो युद्ध में मरवा दिया और यक्षों को यह अल्टिमेटम दिया कि या तो आप भारत को छोड़ कर चले जाओ या फिर वित्त के माध्यम से आर्थिक शोषण को बन्द करके भारत में पशुपालन और कृषि की अर्थव्यवस्था वाली मुख्यधारा में आ जाओ अर्थात सनातन धर्म को अपना लो।
इस तरह भारत तो सुरक्षित हो गया लेकिन यरूशलम में यक्षों ने अपने कार्यालय स्थापित किये जो आर्थिक राजधानी बनी और अपने चारों तरफ के क्षेत्र जिसमें अफ्रीका के उत्तर पूर्व के समुद्रतट का क्षेत्र और पश्चिम एशिया के ईराक,टर्की,जोर्डन,सीरिया,इज़राईल के क्षेत्र में तथा ग्रीस के क्षेत्र में औद्योगिक अर्थव्यवस्था को तेज गति दी।
कृष्ण का जो माखन-चोर का चरित्र है,उसे जो लोग भक्ति-भाव के नाम पर आँख(दिमाग़) बंद करके स्वीकार कर रहे हैं वे भी उनके इस आचरण के पीछे छिपे मन्तव्यों से अनभिज्ञ हैं। और जो धर्म सम्प्रदाय जैसे शब्दों को अपने कुंठित विचारों में लादकर इसे एक काल्पनिक एवं मिथकीय कथा मात्र मान रहे हैं,वे भी सच्चाई से अनभिज्ञ हैं ।
गौपालक कृष्ण और हलधर बलराम दो नायकों के इर्द-गिर्द घूमती महाभारत कथा भारत के इतिहास की वह कथा है जो सनातन है। कृष्ण ने उस आर्थिक व्यवस्था का विरोध किया था जिसमें दूध,दही,मक्खन का उत्पादन तो गांवों में होता है लेकिन मुद्रा(करेंसी) के लालच में यह पौष्टिक आहार नगरों में चला जाता है और ग्रामीण जन आर्थिक एवं शारीरिक दोनों पक्षों में बलहीन होते जाते हैं ।
यहाँ जो प्रसंग चल रहा है,उसी के परिप्रेक्ष्य में पुनः ज़िक्र है कि जो औद्योगिक सभ्यता-संस्कृति पाँच हज़ार वर्ष पूर्व परवान पर चढ़ रही थी,जिसे माया सभ्यता भी कहा गया,जिसका एक रूप जो बौद्धिक राजधानी के रूप में था,ग्रीक तक फैल गया था,जहाँ से यूरोप में विस्तार हो रहा था; वह साढ़े तीन हज़ार वर्ष पूर्व ताश के पत्तों से बने महल की तरह ढह गई थी।
आपने ग़ौर किया होगा कि पारसी जिन्हें Indian Jewish भी कहा जाता है वे अग्नि की पूजा करते हैं, इनके धर्म स्थल अगियारी कहलाते हैं। यहूदी भी अग्नि की पूजा करने के साथ-साथ रोटी की भी पूजा करते हैं।
प्रथम वेद ऋक्-वेद के प्रथम छंद में कहा गया है ‘‘अग्नि मिळे पुरोहितम‘‘ अर्थात् वैदिक सभ्यता की शुरूआत में जिस अग्नि की पूजा की जाती है, वह अग्नि पुरोहित को यज्ञशाला (पाक शाला) में भोजन पकाना प्रारम्भ करने के लिए चाही गई।
लेकिन उसी अग्नि की जब औद्योगिक ईकाईयों में प्रोसेस के लिए बड़ी मात्रा में आवश्यकता होती है और ऊर्जा के नाम से उस अग्नि का अति-उत्पादन हो जाता है तो वही अग्नि वैदिक सभ्यता के अन्त का कारण बनती है। इसलिए प्राकृत धर्मानुयाई मुनि अग्नि का त्याग करते हैं।
साढे़ तीन हज़ार वर्ष पूर्व जब माया सभ्यता का विनाश हुआ तो यह क्षेत्र पूरी तरह वनस्पति विहीन और गर्म रेगिस्तान में बदल गया। क्योंकि सिन्धु नदी के उस पार से पूरे पश्चिम एशिया में फैले औद्योगिक नगर इस विनाश में नष्ट हुए। राजस्थान तक इसका प्रभाव पड़ा।
इस तरह वर्तमान में जिस सभ्यता-संस्कृति को हम तहस-नहस होते देख रहे हैं या कहें कि आज जिस असभ्यता और अपसंस्कृति का विकास हो रहा है वह इस बात का संकेत है कि मानवीय सभ्यता-संस्कृति का पुनः अन्तकाल आ गया है क्योंकि इसी विकास से विषमता बढ़ रही है। इस सभ्यता संस्कृति का आदिकाल आज से साढे़ तीन हज़ार वर्ष पूर्व माना जायेगा। लेकिन चुंकि हमें जिस इतिहास की जानकारी है वह 2700 वर्ष पूर्व से यानी बुद्ध एवं महावीर से शुरू होता है।
इस तरह इतिहास का एक बिन्दु है 'काल खण्ड' जो इस प्रकार है।
[1] बुद्ध महावीर काल लगभग 300 वर्ष तक चला और भारत वर्ष पुनः हरा-भरा हुआ,अथवा यदि हरा-भरा था और यवनों ने आकर यहाँ के की वनसंपदा को हानि पहुंचानी शुरू की तो उसकी सुरक्षा हुई और संवर्धन हुआ।
आज से 2700 वर्ष पूर्व, 700 वर्ष ईसापूर्व से
आज से 2600 वर्ष पूर्व, 600 वर्ष ईसापूर्व और
आज से 2500 वर्ष पूर्व, 500 वर्ष ईसापूर्व तक
[2] चाणक्य-चन्द्रगुप्त काल लगभग 100 वर्ष तक माना जाये तो भारतवर्ष पुनः राष्ट्र की अवधारणा में बंधा लेकिन वह वर्गीकृत था। चाणक्य के नेतृत्व में भारत राष्ट्र में औद्योगिक क्रान्ति और नगरीकरण हुआ।
आज से लगभग 2400 वर्ष पूर्व, 400 वर्ष ईसापूर्व
[3] अशोक काल लगभग 200 वर्ष तक चला उस समय भी भारतवर्ष और देश पर आज ही की तरह भारतराष्ट्र हावी हो गया था।
आज से 2300 वर्ष पूर्व,300 वर्ष ईसा पूर्व और
आज से 2200 वर्ष पूर्व, 200 वर्ष ईसा पूर्व
[4] विक्रमादित्य का कालखण्ड लगभग 300 से 400 वर्ष तक चला इसमें नगरीकरण,औद्योगिकीकरण और भौतिकवादी विकास वाले राष्ट्र की अवधारणा पूरी तरह नकार दी गयी लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में एक से बढ़ कर एक प्रतिभाएं विकसित हुईं। आज आप भारत के जितने भी वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक शोधों के बारे में पढ़ते सुनते हैं वे सभी विक्रमादित्य द्वारा स्थापित व्यवस्था के काल खंड में हुए।
आज से 2100 वर्ष पूर्व,100 वर्ष ईसा पूर्व से
आज से 2000 वर्ष पूर्व, 0 वर्ष ईसा विक्रम और
आज से 1900 वर्ष पूर्व, पहली सदी और
आज से 1800 वर्ष पूर्व, दूसरी सदी तक
[5] लगभग 300 वर्ष तक चले गुप्तकाल में पुनः वाणिज्य व्यापार चला और भारत सोने की चिड़िया बना लेकिन सभी वनखंड नष्ट हो गए और निर्माण और निर्यात की ऐसी आंधी आई की निर्माण से जुडी सभी जातियां पोष्टिक आहार की कमी और प्रदूषित वातावरण में रहने से छूत की बीमारियों से ग्रसित हो गयी और इन्सान ने इन्सान को अछूत बना दिया।
आज से 1700 वर्ष पूर्व, तीसरी सदी से
आज से 1600 वर्ष पूर्व, चौथी सदी और
आज से 1500 वर्ष पूर्व, पांचवी सदी तक
[6] हर्षवर्धन द्वारा प्रारम्भ राजपूतकाल और ब्राह्मण प्रशासनिक पद्धति का सांस्कृतिक काल जो सोलहवीं सदी तक चला।
आज से 1400 वर्ष पूर्व, छठी सदी से
आज से 1300 वर्ष पूर्व, सातवीं सदी
आज से 1200 वर्ष पूर्व, आठवीं सदी
आज से 1100 वर्ष पूर्व, नवीं सदी
आज से 1000 वर्ष पूर्व, दसवीं सदी
आज से 900 वर्ष पूर्व, ग्यारवीं सदी
आज से 800 वर्ष पूर्व, बाहरवीं सदी
आज से 700 वर्ष पूर्व, तेहरवीं सदी
आज से 600 वर्ष पूर्व, चौहदवीं सदी
आज से 500 वर्ष पूर्व, पन्द्रवीं सदी तक
[7] मुगलकाल तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनियों द्वारा आर्थिक शोषण काल
आज से 400 वर्ष पूर्व, सोहलवीं सदी
आज से 300 वर्ष पूर्व, सत्रहवीं सदी
आज से 200 वर्ष पूर्व, अट्ठारहवीं सदी
[8] आज से 150 वर्ष पूर्व 1857 के बाद की उन्नीसवीं सदी से ब्रिटिश शासन द्वारा आर्थिक शोषणकाल
[9] वर्तमान काल बीसवीं सदी का उत्तरार्ध अपनों ही द्वारा भारतीय सभ्यता संस्कृति के आत्मपतन का काल।
यह काल-खण्ड इस लिए दर्शाया गया है ताकि इसे ईसा पूर्व या ईस्वी संवत से समझना चाहें तो आप लगभग समझें। यहाँ मैं संस्कृति-सभ्यता का इतिहास एक विशेष उद्धेश्य से बता रहा हूँ। अतः इसे उसी दृष्टिकोण से समझने का कष्ट करें जो मेरा उद्धेश्य है। इसे किसी सत्ताधीश के सत्ता पर बैठने और उतरने तथा उसकी दिनांक और वर्ष जैसे क्षुद्र एवं महत्वहीन तथ्यों पर नहीं जायें।
इन ऐतिहासिक काल खण्डों में हुए परिवर्तन का जब हम सभ्यता-संस्कृति के दृष्टिकोण से अवलोकन कर रहे हैं तो इसमें सर्वाधिक घनत्व(डेनसिटी) वाले तथ्य धर्म एवं धार्मिक सम्प्रदायों के उत्थान पतन से जुड़े तथ्य और घटनाऐं ही होंगी।
इस भूमिका के माध्यम से जो मैं बताने जा रहा हूँ,उसमें सबसे बड़ी अड़चन कहें या रोचकता एक बिन्दु पर आएगी,वह है भाषा में शब्दों का उपयोग।