vivarn

Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.



कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।

Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made ​​by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

शनिवार, 21 जुलाई 2012

14. क्या अशोक एक महान सम्राट था !

      चाणक्य का राष्ट्र बौद्धिक वर्ग के अधीन अखण्ड भारत बना। चाणक्य, चन्द्रगुप्त का सहारा लेकर यह सब कर पाया। लेकिन उस चन्द्रगुप्त के वंशज अशोक ने एक ऐसे भारत का सम्राट बनने की महत्वाकांक्षा पाली जिसका वह एकछत्र शासक बने। 
उसने यह काम कर भी दिखाया। उसे महान शब्द से विभूषित किया गया। क्योंकि इतिहास लेखक तो उसके वेतनभोगी कर्मचारी थे। अशोक,अकबर ये दो महान सम्राट हुए। क्योंकि इनको महान बनाने वाले इतिहास लेखक उनके चाटुकार थे। लेकिन सिर्फ़ यही एकमात्र कारण नहीं है। महान कहे जाने का एक कारण यह भी है कि जनता को एक अलग प्रकार की स्वतन्त्रता का अहसास हुआ था और एक अलग प्रकार की सम्पन्नता जनसाधारण को देखने को मिली थी। 
   कहते हैं कि अशोक ने कलिंग विजय के बाद जब वहाँ नरसंहार देखा तो उसका हृदय परिवर्तन हो गया। तो ज़रा सोचिये क्या हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिराने के बाद किसी का भी हृदय परिवर्तन हुआ,जो अशोक का होता! बात दरअसल यह है कि भारत विजय के बाद उनके सामने सारा मैदान साफ़ था तब उन्हें अपने सैन्य बलों की आवश्यकता नहीं रह गई थी। अब यदि सैन्य बलों को बनाये रखा जाये तो दो समस्याऐं आती हैं। 
   एक समस्या तो यह कि सेना को बिना किसी कार्य के वेतन दिया जाये। दूसरी यह कि सैन्य टुकडियों के नायक विद्रोह कर सकते हैं या अपनी समानान्तर सरकार बना सकते हैं और आज नहीं तो अगली पीढ़ी के लोग केन्द्रीय प्रशासन की अवहेलना कर सकते हैं। अतः क्यों नहीं इन सैनिकों से पीछा ही छुड़ा लिया जाये। 
  इसी विचार से यह कूटनीति खेली गई कि सम्राट का हृदय परिवर्तन हो गया है अब वे हिंसा का मार्ग त्याग कर अहिंसा धर्म को अपना रहे हैं अतः बौद्ध धर्म अपना रहे हैं। उधर जैन साहित्य के अनुसार अशोक ने जैन धर्म में दीक्षा ले ली थी। 
   अशोक की इस करतूत ने चन्द्रगुप्त और चाणक्य द्वारा बनाये गये भारत को तोड़-मरोड़ कर रख दिया। क्योंकि इस घटना के कुछ नकारात्मक परिणाम निकले। 
     अहिंसा शब्द अपनी गहराई से उखड़ कर सतही शब्द हो गया। 
   भारत की भौगोलिक-पर्यावरणिक स्थिति ऐसी है कि सनातन-धर्म की रक्षा और विस्तार के लिए अनेक शाखायें बनाना आवश्यक होता है। उन शाखाओं को संप्रदाय कहते हैं, जिनकी अपनी अपनी मान्याताऐं होती हैं। फिर यह भी होता है कि क्षेत्रीय सांस्कृतिक सभ्यताओं की मान्यताऐं भले ही एक ही लक्ष्य को लेकर चल रही होती है लेकिन सतही तौर पर मान्यताओं में भेद नजर आता हैं जैसे कि एक ही जीव-विज्ञान Biology  की शाखाएँ ईकोलोजी, फ़ीजियोलोजी, साइकोलोजी, मेथोलोजी, पेथोलोजी, एंटोमोलोजी, ज़ूलोजी जैसी अनेक शाखायें बन जाती हैं। अध्ययन में भी ऐसा लगता है जैसे इनकी दिशायें अलग-अलग हैं। इसी तरह प्रत्येक मान्यता के पीछे कुछ न कुछ तर्क यानी लॉजिक होता है। इस तथ्य को ध्यान में रख कर हिंसा-अहिंसा का अर्थ निकाला जाना चाहिये।
    हिंसा का अर्थ है अपनी मान्यताओं के अलावा जो दूसरी मान्यताऐं है, उनको अमान्य करना। इसके लिए उसमें दोष निकालना। अहिंसा का अर्थ है सभी प्रकार की मान्यताओं को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करते हुए अपनी मान्यताओं के आचरण पर चलते रहना। 
एक तरफ़ तो यह कहा गया कि मैं ब्रह्म रूप में रचना करता हूँ और रूद्र रूप में जगत का नाश करता हूँ। तो दूसरी तरफ़ रूद्र का धर्म बताया गया है अहिंसा। 
मानव का सत्वगुणी ब्राह्मण स्वभाव मान्याताऐं बनाता है। मानव का रजोगुणी विष्णु स्वभाव उन मान्यताओं पर चलते हुए समाज का नेतृत्व करता है और व्यवस्था का संचालन करता है। मानव का तमोगुणी स्वभाव उन मान्याताओं का अनुयायी बनता है। अतः उसे चाहिये कि वह अपने से भिन्न दिखने वाली मान्यताओं के अनुयायियों के प्रति भी श्रद्धाभाव रखे। हिंसा भाव रखकर उनमें दोष न देखे। लेकिन मानव का यही तमोगुणी स्वभाव जब शोषित होकर विद्रोह कर देता है तो फिर अपनी या सामूहिक समाज व्यवस्था को नष्ट कर देता है। ऐसा न हो इसलिए उसका धर्म अहिंसा है। 
    अशोक जब सम्राट बना था तब तक वन संरक्षण वाला बुद्ध-महावीर का आन्दोलन अपने लक्ष्य को प्राप्त करके वनों में स्थापित तो हो चुका था लेकिन साथ ही व्यापारी वर्ग ने उस धर्म को अहिंसा धर्म नाम देकर और अहिंसा को भी एक संकीर्ण दायरे में बाँध कर उसका उपयोग सिर्फ़ उस बिन्दु पर करना शुरू कर दिया था जो कि लड़ाई-झगड़े, मारपीट या जीव को मारने नहीं मारने तक सीमित था। क्योंकि उस समय विदेश  व्यापार तक होने लगा था और सामग्री ले जाने वाला मार्ग अनेक प्रकार के स्थानों से गुज़रता था। वहाँ उन पर आक्रमण भी हो सकते थे। अतः व्यापारी वर्ग का अहिंसा धर्म बुद्ध-महावीर का वह प्राकृत धर्म नहीं रहा जो सनातन धर्म की रक्षा के लिए बना था। 
     एक व्यापारी के पास सीधा सा तर्क होता है, यह वनोत्पादन सूखा हुआ सामान है इसको हरा उखाड़ने वाला पाप का भागीदार बनेगा मैंने तो इसे उखाड़ा नहीं। 
     बुद्ध ने कहा था जो वन्य प्राणी किसी दुर्घटनावश मर जाये या शिकारी पशु का शिकार बन मर जाये तो उसे खाने में हर्ज़ नहीं है। इसका एक विकृत अर्थ निकाल कर इसका उपयोग करने की मान्यता का रूप बताना प्रासंगिक लग रहा है।
    मैं 1973-75 के दो-तीन वर्ष स्थल सेना के आर्मी सप्लाई कोर की खाद्य सामग्री को आसाम की न्युमीसामारी F.S.D. से अरूणाचल की दुहांग तवांग F.S.D. तक माल ट्रांसपोर्टेशन करने के कार्य में वहाँ रहा था और एलोंग भी रहा था। वहाँ बौद्ध धर्म को मानने वाली अनेक जातियाँ हैं जिनमें भोटिया और मोंपा जातियाँ प्रमुख हैं।
   वहाँ मैंने सुना कि ये लोग ज़मीन में एक खड्डा खोद कर उस पर घास-फूस बाँस इत्यादि डाल कर उसे ढक देते हैं। फिर किसी वन्य प्राणी को घेर कर उधर लाते हैं और वह दौड़ता हुआ खड्डे से अनजान उस खड्डे में गिर जाता है। फिर या तो कुछ ही समय में मर जाता है या एक-दो दिनों में मर जाता है तब वे उसे खा लेते है। इस तरह ये पशु को अपने हाथों से मारने का पाप नहीं करके मरे हुए को खाना मानते हैं। 
यह मनोविज्ञान अशोक के समय ही विकसित हो गया था। 
    अशोक ने जब अपनी सेना से छुटकारा पाने के लिए एक कूटनीति अपनाई तो उस कूटनीति के तहत वह ख़ुद भी बौद्ध-जैन बन गया था और अपने सैन्य कर्मचारियों को अहिंसा धर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया। इसके लिए अनुदान वगैरह देकर और कर में छूट देकर इनको व्यापार में लगा दिया। अब जब एक रजोगुणी को व्यापार में लगायेगे तो वह व्यापार से भी राज भोगने का उपाय ढूँढेगा। 
       इस तरह अशोक के कलिंग विजय के बाद के दो सौ वर्षो में भारत की यह स्थिति हो गई थी कि एक तरफ तो बौद्ध जैन व्यापारियों के आर्थिक साम्राज्य, उस समय के राजाओं के साम्राज्यों से भी बड़े हो गये और भव्य-अट्टालिकाऐं बन गई थीं तो दूसरी तरफ़ खाद्य सामग्री की भी कमी थी। 
    यानी आधे लोग तो जैन-बौद्ध हो गये थे जो कृषि कर्म और पशुपालन जैसे कार्य को भी जीव-हिंसा मानते थे क्योंकि इसमें सूक्ष्य जीव मरते हैं। 
    आधे लोग उद्योगों के संचालक और श्रमिक हो गये थे जो अपने आपको वैदिक कह कर गौरवान्वित होते थे। अब खेती कौन करे! एक तरफ़ तो कृषि और पशु-पालन में भी हिंसा देखी जा रही थी, दूसरी तरफ़ जंगल के जंगल बेच खाये। यही स्थिति आज वापस आने वाली है।
   जिस समय बुद्ध एवं महावीर के रूप में सनातन धर्म की रक्षा के लिए भगवान ने अपने आप का सृजन किया था उस समय भी इतने बुरे हालात नहीं थे जितने उनके 500 वर्ष बाद हुए। क्योंकि उस समय जनसंख्या का धनत्व भी अधिक था और सभी लोग व्यापारी वर्ग में आ गये थे, जैसे आज हो रहा है।

13. चाणक्य का कालखंड !

      चाणक्य ने जिस पुस्तक की रचना की उसमें राजनीति एवं लोक-प्रशासन से जुड़े सभी विषय थे लेकिन पुस्तक का नाम पड़ा अर्थशास्त्र। चाणक्य एक उच्चस्तर का कूटनीतिज्ञ था अतः वह पुस्तक कौटिल्य के अर्थशास्त्र के नाम से पहचानी गई।
      वर्त्तमान के यूरोपीय यक्षों ने जब इतिहास का अर्थ ही यक्ष एवं राक्षसों के इतिहास से जोड़ दिया था और सिकन्दर को विश्व विजेता के रूप में वे जानने लगे तथा उस समय भारत में आये विदेशी पर्यटकों की डायरियों को खोजा तब उन्होंने भारत की पाठ्यपुस्तकों में भी अपने तरीक़े से इतिहास लिखवाया,तब भारतीय लोग भी चन्द्रगुप्त मौर्य,उनके समकालीन शासकों एवं अशोक को जानने लगे थे जबकि चाणक्य को प्रायः सभी जानते थे।
      भारत में इतिहास को ऐहित्य कहा जाता था। यह ऐहित्य पुस्तकों के माध्यम से नहीं चलता था।पुस्तकों के माध्यम से तो वही सैद्धान्तिक ज्ञान चलता था जो सनातन होता है अर्थात् मनोविज्ञान एवं शरीर विज्ञान से जुड़े वे तथ्य जो प्रत्येक काल-स्थान परिस्थिति में एक समान उपयोगी होते हैं।
       जो ऐहित्य राजाओं एवं सम्राटों से जुड़ा होता था वह ऐहित्य श्रुति से चलता था। अतः जो राजा या सम्राट उदार पराक्रमी होता था और अपने शासन काल में सनातन धर्म से जुड़े कार्य करता था उनको वे श्रुति के माध्यम से जीवित रखते थे। श्रुति परम्परा का तात्पर्य होता है पीढ़ी दर पीढ़ी कहानियों के माध्यम से चलने वाली जानकारियाँ।
        जो राजा क्रूर एवं अत्याचारी होता था उसे भारतीय जनमानस यह कह कर भुला देता था कि ‘‘बीती ताहि बिसारिये आगे कि सुध लेय‘‘ 
      चाणक्य ने जो काम किये उसमें कूटनीति की कुटिलता थी अतः वह कौटिल्य अवश्य कहलाया लेकिन अपनी लिखी पुस्तक के कारण ही वह जीवित ही नहीं रहा बल्कि उसने अपने समय में अर्थशास्त्र के सभी बिन्दुओं को सन्तुलित आयाम दिये।
      चाणक्य ने जो किया उनमें महत्वपूर्ण है:-
* चाणक्य ने प्रत्येक परिवार एवं कुटुम्ब की स्वयं अपनी सुनिश्चित आर्थिक सत्ता बनाये रखने की परम्परा को पुनः विकसित किया। यह परम्परा कृष्ण बना कर गये थे।
      प्रत्येक घर में गायें होनी चाहिये ताकि न सिर्फ उनको पौष्टिक आहार मिलता रहे बल्कि यदि उन्हें विस्थापित भी होना पड़े तो अपनी दुग्ध उत्पादक इण्डस्ट्रियल इकाईयों को अपने साथ ले सकें। इस प्रथा को धर्म से जोड़ दिया।
 *   जो स्वर्ण राज्य कोष के भण्डारों में संग्रह किया जाता रहा है, उसे घर-घर में पहुंचा दिया। मंगल-सूत्र के नाम से तथा आभूषणों के रूप में सोने को घर-घर में इसलिए प्रचलित किया ताकि कोई भी विदेशी  आक्रमणकारी राज्यकोष में एक स्थान पर संग्रहित सोने को सरलता से लूट कर न ले जा सके।
          [भारत जब 1947 में आजाद हुआ था उससे पहले 200 वर्षो तक पुर्तगालियों से लेकर सभी यूरोपियनों ने भारत के सोने को जहाज़ों में भर-भर कर अपने-अपने राष्ट्रों में भेजा था फिर भी आज़ादी के समय भारत सरकार तो अवश्य गरीब थी लेकिन सोना भारत के घर-घर में था और गायें भी थी अतः कुटुम्ब सम्पन्न थे। आज सरकार अमीर है लेकिन जनसाधारण गरीबी की सीमा से भी नीचे है।] 
* चाणक्य ने शिक्षण संस्थान खोले। अतः भारत विश्वगुरू बना। लेकिन इन शिक्षण संस्थानों के माध्यम से बिना सैन्य शस्त्रों का प्रयोग किये ही भारत को एक राष्ट्र के रूप में स्थापित कर दिया और भारत पर वास्तविक बौद्धिक स्तर के लोगों की सत्ता को स्थापित कर दिया।
* चन्द्रगुप्त को सम्राट की उपाधि दिलाकर बाक़ी के गणराज्यों को जनपद नाम दिया और उनको स्वतन्त्र प्रशासकीय व्यवस्था बनाने के लिये स्वतन्त्र कर दिया लेकिन जनसाधारण में सत्ता के केन्द्र के रूप में गुरूकुलों का विस्तार किया।
* वैदिक साहित्य को, महाभारत के ग्रंथों को तथा उपनिषदों को पुनः प्रकाशित कराया। शिक्षा की सर्वोच्च डिग्री आचार्य को प्राप्त करने के बाद गीता का अध्ययन करना आवश्यक किया। बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाय की प्रेक्टिकल जीवनशैली होती है अतः बुद्ध एवं महावीर की शिक्षाऐं आचार्यों द्वारा मौखिक ही दी जाती हैं लेकिन चाणक्य ने इन शिक्षाओं को भी लिपिबद्ध कराया जो आगम-निगम कहलाये। जिसे सनातन परम्परा में प्रवृत्ति-निवृति मार्ग कहा जाता है।
* जिस समय विश्व की सभ्यता-संस्कृतियाँ नष्ट होने के बाद अपनी आदम स्थिति से भी बाहर नहीं निकल पाई थीं उस समय चाणक्य ने औद्योगिक नगरों की स्थापना एवं विस्तार किया। यानी वैदिक साहित्य के भौतिक-विज्ञान पक्ष को समझ लिया था। चाणक्य ने औद्योगिक इकाईयों के श्रमिकों को सुरक्षा देने के लिए नियम बनाया था कि यदि किसी ने इनको हानि पहुँचाई तो उसे कठोर दण्ड दिया जायेगा।
* आयुर्वेद का विकास किया और वनौषधियों का अध्ययन करने के लिए तथा वनौषधियों का संग्रह करने के लिए वनों में गुरूकुल स्थापित किये जिन गुरूकुलों के कुलगुरूओं को धनवन्तरी की उपाधि दी।
* ग्रामीण गण-राज्यों को ग्रामीण जनपद नाम दिया। जनपदों में जहाँ -
    1. ब्राह्मण [अध्यापक]
    2. क्षत्रिय [कृषि उत्पादक]
    3. वैश्य [अतिरिक्त उत्पादन को ख़रीद कर जहाँ उस खाद्य सामग्री की आवश्यकता होती है वहां आपूर्ति करने वाले]
    तीनों ही सत्वगुणी होते थे अथवा होते हैं वहाँ शूद्र का अर्थ छोटे बच्चे या बाल बुद्धि वाले सेवक या कर्मचारी से है।
       लेकिन जब वैदिक सभ्यता आ जाती है तो देव-रक्षस-यक्ष तो औद्योगिक इकाईयों के क्रमशः  तकनीशियन, सुरक्षा सैनिक एवं लेखा विभाग के कर्मचारी होते हैं, वहाँ के श्रमिकों को भूत-गण कहा जाता है। क्योंकि वे अपनी भौतिक देह से जितना श्रम करते हैं, उन्हें उतना ही पारिश्रमिक मिलता है।
        [देव-रक्षस-यक्ष-भूतगण ये चारों नाम वैदिक शब्दावली के हैं। जब छठी शताब्दी में हर्षवर्धन के शुरू किये आन्दोलन में वैदिक साहित्य को भूमिगत कर दिया गया, वेद शब्द को भी आयुर्वेद शब्द में आवृत्त कर दिया गया था। कालान्तर में ये चारों शब्द जब श्रुति परम्परा में गये तो इनके मनगढ़न्त अर्थ निकाले जाने लगे। भारत में वेद या वैदिक सभ्यता या वैदिक यज्ञ इत्यादि शब्द यूरोपियन लोगों ने पुनः बाहर निकाले।]
*  चाणक्य ने जिन औद्योगिक नगरों का विस्तार किया था वे एक बड़े चबूतरे पर बसाये जाते थे ताकि वहाँ किसी भी प्रकार का प्रदुषण न हो और नालियों से दुषित पानी तुरन्त बाहर निकल जाये।
*  उन औद्योगिक इकाईयों में विशेषकर कपड़े, बर्तन और वाहन निर्माण का कार्य होता था। विदेश व्यापार को विशेष महत्व दिया गया। यह विदेश व्यापार चीन से और भारत के पूर्वी देशों तथा उत्तर से भी होता था।उस समय तक पश्चिम एशिया के समुद्र तटीय क्षेत्रों को छोड़ कर पूरा मध्य एशिया जनशून्य था। जिन देशों से व्यापार होता था उन देशों की भाषाएँ एवं लिपियाँ भी नालन्दा एवं तक्षशिला में पढ़ाई जाती थी और धर्म एवं विज्ञान की जानकारी भी दी जाती थी। अतः भारत विश्व-गुरू भी कहलाने लगा। 
* वेद-परम्परा यानी विज्ञान एवं तकनीक परम्परा की जानकारी की सीमा नहीं है क्योंकि यह प्रकृति के असंख्य नियमों का अध्ययन है और प्रकृति को माया भी कहा गया है। जबकि ब्रह्म परम्परा के कुल चार ही सूत्र है जिन पर पूरी ब्राह्मण शिक्षा टिकी है।
इन चार सूत्रों में एक सूत्र है:-
‘‘एको ब्रह्य द्वितीयो नास्ति।‘‘
      इस वाक्य के अनेक वाक्य बनते हैं। अभी जो प्रसंग चल रहा है उसमें इसका वाक्य बनता है ‘‘ब्राह्मण तो एक ही भला‘‘ यानी ब्राह्मण यदि एक ही होता है तब भी वह सबका भला कर देता है या ब्राह्मण तो एक ही भला होता है ब्राह्मण एक से अधिक नहीं होने चाहिये क्योंकि तब उनमें मतभेद हो सकता है।
मैं जो बात कह रहा हूँ, उसमें यह दोहा भी उपयुक्त बैठता है...
                   सिहों के नहीं लैहड़े, हंसो की नहीं पांत।
                   पण्डितों के नहीं संघ होत, साधु न चले जमात।
सिर्फ़ एक ब्राह्मण ने भारत को किस स्थिति से निकाल कर किस ऊँचाई तक पहुँचा दिया था। जबकि वर्तमान की यथार्थ समस्या यह कि नव बौद्धिक वर्ग अज्ञान से ग्रसित है फिर भी अपने आप को प्रकाण्ड पण्डित मानता है क्योंकि अज्ञान की यह विशेषता होती है कि स्वतः उपजने वाले ज्ञान को आवृत कर देता है या कहें नव बौद्धिक वर्ग ने अपने ज्ञान को अज्ञान से आवृत कर लिया है।
   अनेक नव बौद्धिक वर्ग के लोगों के मुँह से सुना है कि भारत पहले देशी रियासतों में बिखरा था, अंग्रेज़ों ने इसे राष्ट्र के रूप में बाँधा या अकबर ने इसे राष्ट्र के रूप में बाँधा। जब कि सच्चाई यह है कि भारत; धर्म के माध्यम से बौद्धिक वर्ग द्वारा एक छत्र संचालित था,अखण्ड था।

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

12. भारत वर्ष-भारत देश-भारत राष्ट्र !

    भारत का नाम कभी आर्यावर्त भी था। उससे पहले इसे जम्बुद्वीप नाम से भी जाना जाता था। भारत का नाम भारत कब पड़ा अभी इस प्रसंग में नहीं जाकर इतना ही समझें कि तीन प्रकार के भारत हैं। 

तीन भारत के तीन तरह के पुरुषार्थ वाले तीन आदर्श पुरूषार्थी राम  

    तीनों प्रकार के भारत के तीन-तीन आदर्श हैं। तीनों प्रकार के भारत के तीन राम हैं जो कि तीन प्रकार का पुरूषार्थ करने वाले तीन आदर्श पुरूष हैं।

तीन भारत के तीन तरह के त्याग के आदर्श-आचरण वाले तीन भरत 

     तीन भरत हैं जिनको त्याग के आदर्श तीन आदर्श आचरण कहा गया है,जिनके नाम पर भारत का नाम भारत पड़ा।

भारत वर्ष

      एक भारत,वह भारत है जिसे भारत वर्ष कहा गया है। यह भारत वनों से आच्छादित भू-भाग है, जहाँ से प्राकृत धर्म शुरू होता है। इस भारत का नाम जिस भरत पर पड़ा वे ऋषभदेव के पुत्र एवं बाहुबली के छोटे भाई भरत थे। उन्होंने अपने बड़े भाई बाहुबली को मल्ल युद्ध के लिए ललकारा। लेकिन बाहुबली के बिना मल्लयुद्ध किये ही सत्ता छोड़ कर चले जाने पर भरत ने प्राकृत भारत में सत्ता परम्परा को समाप्त करके कहा कि प्राकृत भारतवर्ष में आत्म-अनुशासन की परम्परा लागू की जाये न कि प्रशासन व्यवस्था। यह आदर्श आचरण माना गया।
      आदर्श संस्कृत का शब्द है जिसका एक पर्यायवाची शब्द मिरर(दर्पण) भी है। किसी को आदर्श मानने का अर्थ है,हम उस व्यक्ति में अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं और वैसा ही बनने का प्रयास करते हैं। उनके आदर्शों का अनुसरण करते हैं।
      बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाय इन्हीं के आदर्शों पर चलकर अहिंसा एवं आत्म-अनुशासन के आचरण के मूलमन्त्र की परम्परा के वाहक हैं।
     प्राकृत भारत के आदर्श पुरूष वे राम हैं जिसके हाथ में परसा[फरसा] रहता है अतः उन्हें परशुराम कहा गया है।
     परशुराम परम्परा उस आदर्श पुरूषार्थ की परम्परा है जो भारतवर्ष यानी प्राकृत भारत यानी वन्य क्षेत्र धर्म क्षेत्र वाले भारत के सुरक्षा के लिए पुरूषार्थ करते हैं।
    परशुराम शान्ति काल में अपने फरसे से देवी सम्पदा युक्त वनस्पतियों एवं प्राणियों की सुरक्षा करते हैं और आसुरी सम्पदायुक्त प्राणियों एवं वनस्पतियों को नियन्त्रण में रखते हैं।
    जब भारत वर्ष की भूमि पर भारत राष्ट्र अथवा भारत देश के क्षत्रिय अतिक्रमण करते हैं तो उनको मार भगाते हैं।
    भारत वर्ष की अर्थव्यवस्था उस वनोत्पादन पर चलती है जो वर्षा के वार्षिक चक्र से स्वतः उत्पादित होता है,जिसे हम रेन फोरेस्ट कहते हैं।
    यदि आज हम भारत वर्ष की सीमा का निर्धारण करें तो दक्षिण-पूर्व एशिया का पूरा भाग भारत वर्ष में आता है। जिसका क्षेत्र कभी अफ़ग़ानिस्तान से लेकर मलेशिया,वियतनाम एवं दक्षिणी चीन तक का भू-भाग हुआ करता था।

भारत देश 

    देश की सीमा का निर्धारण भौगोलिक स्थिति से होता है। भारत देश  की अर्थव्यवस्था कृषि एवं पशु पालन पर चलती है। भारतीय गणराज्य इसी भारत का नाम है। 
     भारत देश का नाम उस भरत पर पड़ा जो दुष्यन्त एवं शकुन्तला के पुत्र थे। उनका आदर्श आचरण यह था कि उनकी सन्तान पुत्र रूप में होते हुए भी उन्होंने उसे अपना उत्तराधिकारी नहीं बना कर उत्तराधिकारी का चुनाव कराया था और यह परम्परा डाली कि गणराज्य के शासक को चुना जाये न कि पुत्र को प्रजा पर थोपा जाये।
     भारत देश का आदर्श पुरूष वह पुरूषार्थी राम हैं जिनका हथियार हल है अर्थात हलधर बलराम। जो अपने छोटे भाई गौपालक कृष्ण के सुरक्षा कवच या प्रहरी भी होते हैं।

भारत राष्ट्र

     तीसरा भारत है भारतराष्ट्र, जिसका आदर्श आचरण श्रीराम के छोटे भाई भरत हैं जो बड़े भाई के उत्तराधिकारी बनने की परम्परा के निर्वाह के लिए सत्ता के अधिकारी की अनुपस्थिति में भी उसी तरह कार्यभार सम्भालते हैं जैसे कि नराधीश की उपस्थिति में सम्भालते हैं, इस प्रकार के त्याग भी कर देते हैं और उसके आदर्श पुरूष वह श्रीराम हैं जो राष्ट्र की सीमा एवं साम्राज्य की रक्षा के लिए भारतीय सभ्यता-संस्कृति की रक्षा के लिए मूल वनवासियों[बन्दर,भालू वनवासियों] को युद्ध विशारद बनाने का पुरूषार्थ करते हैं और उस आसुरी साम्राज्य को नष्ट करने का पुरुषार्थ करते हैं जिसने आणविक उर्जा का विकास किया था और वर्त्तमान की तरह की भोगवादी सभ्यता का विकास किया था।
      भारत वर्ष, भारत देश  एवं भारत राष्ट्र इन तीनों परम्पराओं को अपनी-अपनी सीमा का निर्धारण करके जिस व्यवस्था पद्धति को लागू किया जाता है वही पद्धति सनातन बनी रह सकती है वर्ना परस्पर वर्ग संघर्ष में सभ्यताओं का उत्थान एवं पतन यानी आदिकाल एवं अन्तकाल छोटे-छोटे काल खण्डों के हो जाते हैं।
     रामायण और महाभारत दो ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं की कथाऐं है जो इतिहास बार-बार दोहराया जाता है। रामायण एवं महाभारत नामक काव्य,पुस्तक,शास्त्र,इतिहास इत्यादि अनेक बार लिखे जाते रहे हैं जिनमें उनके मुख्य नायक श्रीराम एवं श्रीकृष्ण समसामयिक अर्थों के पुरूषार्थी आचरण में होते हैं।
     जब जिस काल खण्ड में जिस तरह के आदर्श की आवश्यकता होती है वे उसी तरह के आचरण के साथ अवतरित हो जाते हैं। कभी पुस्तक के माध्यम से भी आवतरित हो जाते हैं तो कभी व्यक्ति के रूप में भी।
      अभी-अभी सोलहवीं सदी में श्रीराम के एक आदर्श चरित्र को तुलसीदास ने अपनी रामचरितमानस नामक रचना के माध्यम से उतारा, अवतरित किया।
    चूँकि यह राम के मानसिक चरित्र को जनसाधारण के मानस में स्थापित करने हेतु था अतः उसे राम चरित मानस कहा गया।
    राम चरित मानस देखने में एक ऐसी पुस्तक है जिसकी भाषा को साहित्य के दृष्टिकोण से स्तरीय भाषा नहीं माना जाता। अतः प्रारम्भ में तुलसी ने सभी देवी-देवताओं की स्तुति करने के बाद दुष्टों की स्तुति भी की है और सबसे पहले उन दुष्ट भाषा-विद्वानों की स्तुति की है जो उनकी रचना में शब्द रचना और व्याकरण की त्रुटि निकाल सकते हैं।
    लेकिन दूसरी तरफ यह एक प्रामाणिक तथ्य है कि रामचरितमानस को सस्वर गाया जाये तो गाने और सुनने वाले दोनों ही अपनी हारमोनी में आ जाते है।
   जब सूरदास को पूछा गया कि आप में और तुलसी में बड़ा साहित्यकार कौन है तो सूरदास ने उत्तर दिया साहित्यकार तो मैं ही बड़ा हूँ। क्योंकि तुलसी ने जो लिखा है वह साहित्य नहीं है बल्कि मंत्र हैं जिनका उच्चारण करना ही कल्याणकारी है।
   यहाँ कहने का तात्पर्य है कि श्रीराम ने भले ही पुस्तक के माध्यम से अभी-अभी अवतार लिया हो लेकिन उनके चरित्र ने करोड़ों भारतीयों को अनुशासित रखा क्योंकि श्री राम ने सोलहवीं शताब्दी में जब अवतार लिया तब चारों तरफ श्री कृष्ण का ही बोल-बाला था।
   आप इस बिन्दु पर ध्यान दें कि तुलसी ही एक मात्र राम भक्त थे जबकि उनके समकालीन जितने भी भक्त थे सभी कृष्ण भक्त थे। उस काल-खण्ड को भक्तिकाल भी कहा जाता है। उस समय भारत के सभी क्षेत्रों एवं संस्कृतियों में कृष्ण ही लोकप्रिय थे और सभी जातियों में भक्त पैदा हुए जो कृष्ण भक्त थे।
   यह वह समय था जब एक नवबौद्धिक वर्ग द्वारा कृष्ण के लीला चरित्र को अन्यथा अर्थ[अदरवाईज़ मीनिंग] में लेकर प्रेम को एक घटिया खेल समझ लिया गया। तब राम के आचरण को आदर्श के रूप में अवतार लेना समय की माँग थी और उस माँग को पूरा करने के लिए श्री राम के एक पत्नीव्रत धर्म के आदर्श आचरण को जन मानस में उतारा तुलसी ने।
     तुलसी ने अपने बारे में कहा है: 'मैं तो भाँग था, राम भक्ति ने मुझे तुलसी बना दिया'।
     लेकिन बाल्मीकि के राम भगवान नहीं बल्कि एक राजा हैं जिनका पुरूषार्थ अद्वितीय ही नहीं बल्कि अकल्पनीय है क्योंकि उस समय किसी ने कल्पना नहीं की होगी कि राम इतना कठोर पुरूषार्थ करने में सफल हो पायेंगे।
     इण्डोनोशिया, मलेशिया,फिलिपीन्स,कम्बोडिया,थाईलैण्ड,वियतनाम,बर्मा,ताइवान और दक्षिण चीन तक की सभी संस्कृतियों में रामायण कुछ रूपान्तरण के साथ आज भी लोककथाओं में जीवित है। 
     घटना का प्रारम्भ होता है तीस हज़ार वर्ष पूर्व रावण एवं दशरथ के बीच के युद्ध से और युद्ध जैसी स्थिति बनने की कहानी शुरू होती है सभ्यता-संस्कृति के टकराव से और सभ्यता-संस्कृति की या कहें जीवनशैली की दो धाराऐं बनती हैं एक लाख दस हज़ार वर्ष पूर्व के कल्प के प्रारम्भ से। 
    कल्प का प्रारम्भ होता है प्रजापति वैदिक ऋषि कष्यप से।
   वेद शब्द का अर्थ होता है विज्ञान एवं विद्याऐं जिसे हम साईंस एण्ड टेक्नोलोजी भी कहते हैं।
   ऋषि शब्द का अर्थ होता है रिसर्च करने वाला वैज्ञानिक।
   प्रजापति का अर्थ होता है जीव प्रजातियों के संरक्षण कार्य का कल्प के आदि में संचालन करने वाला। 
    इस विषय को नैतिक राज बनाम राजनीति में पढ़ें!



11. सनातन धर्म का ज्ञानाधार अद्धैत !

    जानने के दो मूलाधार कहे गये हैं अर्थात् जानकारियाँ दो जड़ों वाला वृक्ष है और इसकी दो ही मुख्य शाखायें होती हैं।
     इन्हें दो परम्पराएँ कहा गया है। एक परम्परा को ब्रह्म परम्परा और दूसरी परम्परा को वेद परम्परा कहा गया है। संस्कृत के ब्रह्म शब्द से लेटिन का ब्रेन शब्द बना और वेद से बॉडी। 
     ब्रह्म परम्परा है ब्रह्म में रमण करने की अर्थात् स्वाध्याय-चिन्तन-मनन करने की, जिसे अध्यापक, शिक्षक, आचार्य परम्परा कहा जाता है यानी शिक्षा-विभाग की परम्पराऐं। 
     संस्कृत में एक द्वन्द्व समास होता है। जब हम किसी शब्द रचना में अक्षरों व मात्राओं को आगे पीछे कर देते हैं अथवा दो शब्दों को आगे पीछे करके उनका समास कर देते हैं तो उनके अर्थ के बदलने का कोई निश्चित नियम नहीं होता उसमें द्वन्द्व या अंतर्द्वंद्व बना रहता है। 
    जैसे कि 'गुरूकुल' संस्थावाचक है तो 'कुलगुरू' पदवाचक। 'आचार्यशंकर' व्यक्तिवाचक है तो 'शंकराचार्य' पदवाचक है।
     इस तरह का एक शब्द है 'वेद' जिसका अर्थ होता है जानना। विद्[जानना] से वेद और विद्या बने हैं। वेद का अर्थ है वैदिक विद्याओं के पीछे छिपे विज्ञान के सिद्धान्त या प्रायोगिक कर्म की विधि को जानना। वेद शब्द द्वन्द्व समास से देव बन जाता है। देव वह व्यक्ति होता है जो वैदिक विद्याओं को जानता है अर्थात वेद का जानकार देव।
    लेकिन 'ज्ञेय' का अर्थ भी जानना होता है। फिर दोनों जानने में फ़र्क क्या ! ज्ञेय से ज्ञान बना है। ज्ञेय का  द्वन्द्व समास यज्ञे होता है जिसका अर्थ है सभी प्रकार के यज्ञ कर्मों की समसामयिक उपयोगिता को जानना, तथ्य या तात्पर्य जानना या तथ्य के पीछे छिपे सत्य को जानने वाला ज्ञानी।
ब्रह्म-परम्परा शिक्षा-संस्कार के माध्यम से ब्रह्म यानी सेन्स यानी बोध यानी चेतना को विकसित करने की परम्परा है ।

वेद-परम्परा उस शिक्षा परम्परा को जानने की परम्परा है जो बॉडी[देह] से सम्बन्ध रखती है और देह की एक आयु होती है अतः इसका नाम आयुर्वेद रखा गया है अर्थात् आयु बढ़ाने सम्बन्धी विज्ञान की जानकारी।

     मैने अनेक तथाकथित धर्माचार्यों से यह कहते सुना है,वेद का अर्थ है ज्ञान! वेद के लिए जानना शब्द का उपयोग तो कर सकते हैं लेकिन ज्ञान शब्द का नहीं।
     यह उनका अज्ञान[ग़लत,खोटा त्रुटिपूर्ण या विपरीत ज्ञान] है। क्योंकि आज की शिक्षा पद्धति में शब्द ब्रह्म की जानकारी नहीं दी जाती है बल्कि व्याकरण को महत्व दिया जाता है अतः उनका भी दोष नहीं है।
     वेद के जानकार को विद्वान वैद्य,विद्वान पंडित कहा जा सकता है। वेद श्रुति परम्परा है जबकि ज्ञान स्मृति परम्परा है। स्वतःस्फूर्त संवेदनशीलता Awareness से जो ज्ञान पैदा होता है,उसको जानने वाला ज्ञानी।
 वेद-त्रयी वेद-विद्याओं वाला विद्वान देव तीन वर्गों में वर्गीकृत है। 
      प्रथम श्रेणी में आते हैं ऋग्वेद के जानकर वैद्य यानी चिकित्सक तथा पुरोहित यानी यज्ञ-शाला[पाक-शाला] में भोजन पकाने की विद्याऐं जानने वाला,जो शरीर में सत्व की वृद्धि करने से सम्बन्ध रखते हैं।   
    दूसरी श्रेणी में आते हैं यजुर्वेद के जानकार यानि प्रणय एवं प्रसूति विज्ञान को जानने वाले,नर-मादा सन्तान और विशिष्ट योग्यता की सन्तान पैदा करने की विद्या से सम्बन्ध रखते हैं।
     तीसरी श्रेणी में आते है संवेदी नृत्य संगीत,मनोरंजक विद्याओं के विद्वान जो तनाव को आनंद में बदल देने की विद्याएँ हैं।
     जबकि ज्ञान वाला ज्ञानी ब्राह्मण कहलाता है जो भाषा का जानकार और आधारभूत गणित का ज्ञान रखने वाला स्वाध्याय यानी अध्ययन करने वाला अध्यापक होता है। जो प्रत्येक तथ्य के दो पक्षों की समानान्तर जानकारी रखता है। सत एवं असत को जानता है। जिस में कर्म-अकर्म का बोध, sense,ज्ञान होता है।
    ब्रेन एवं बॉडी जिस तरह अलग-अलग होते हुए भी अलग-अलग नहीं होती उसी तरह ब्रह्म-परम्परा और वेद-परम्परा दोनों अलग-अलग होते हुए भी अद्वैत हैं।
    सेन्स एवं साईन्स को जानने की दोनों परम्पराऐं एक ही सिक्के के दो पहलू हैं अतः ये अद्धैत हैं। जब तक ये अद्धैत रहते हैं तब तक सभ्यता-संस्कृतियाँ सनातन बनी रहती हैं। लेकिन ज्योंहि ये धर्म एवं विज्ञान नाम से दो अलग-अलग खण्डो में बँट जाती हैं, सनातन सभ्यता खण्डित हो जाती है। लेकिन चूँकि यह सनातन है, अखण्ड के आचरण वाली है अतः कालान्तर में पुनः विकसित हो जाती है। लेकिन जो मानव सभ्यता द्वैत का आचरण रखती है उसे पुनः पुनः आदि एवं अन्त में दोलन swinging नहीं करना पड़ता। क्योंकि उस कल्प का कालखंड भी काल बन कर बार-बार सामने नहीं आता क्योंकि तब वह काल से अतीत होकर सनातन समय का यायावर पथिक,मार्गी,राही बन जाता है।यानी... 
    {इसी शीर्षक से प्रकाशित बात के अन्य पक्ष को नैतिक राज बनाम राजनीति नामक ब्लॉग में भी पढ़ें।}
     वेदत्रयी के बाद चौथे वर्ग में अथर्ववेद आ जाता है जो अर्थशास्त्रीय विद्याओं का संग्रह है। जिसका सम्बन्ध वास्तु और वास्तु विद्याओं के जानने से है अर्थात् औद्योगिक निर्माण,विज्ञान की जानकारी। इसमें शस्त्र[tools & weapens] निर्माण की विद्याएँ भी आ जाती हैं यहीं से जगत के नाश की उल्टी गिनती शुरू होती है। क्योंकि यहाँ से आप द्वैत में चले जाते हैं। एक तरफ़ आपकी निजी महत्वाकांक्षा दूसरी तरफ़ यह पूरा जगत।
    यहाँ से जानने के लिए एक शब्द संख्ये का भी उपयोग होता है। आप जब सूत्र,समीकरण और विशेषकर सांख्यिकी Statistics को जानने के लिए शब्द का उपयोग करते हैं तो संख्ये का उपयोग होगा।
    अब पुनः एक बार समझ लें कि जब आप किसी ऐसी सभ्यता और जीवन शैली को विकसित कर लेते हैं जब आप शहरों में रहकर ऑक्सीजन को तरसते हैं और अपने ही मलमूत्र की दुर्गन्ध में जीते हैं और दूसरी तरफ़ पौधे खाद एवं कार्बन डाई आक्साईड को तरसते हैं लेकिन आप का दिमाग़ सिर्फ़ विकास की संख्या और सांख्यिकी में,गणनाओं में लगा रहता है तो इसका अर्थ है आप अज्ञान से ग्रसित हैं। आपको इतना सा भी ज्ञान नहीं है कि आप इस असभ्य जीवन शैली को अपना कर सनातन धर्म चक्र में अवरोध पैदा कर रहे हैं। तब मुद्राओं की गणना और विकास के सारे आँकड़े धरे रह जाते है और आप अपनी प्रजाति को विलुप्ति की तरफ़ धकेल रहे होते हैं। 
    ध्यान रहें सनातन धर्म परम्परा में इकोलोजीकल सिस्टम के साथ-साथ आपका ख़ुद का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी शामिल होता है।
    इस द्विआयामी स्वास्थ्य में विकार ही भ्रष्टाचार की जड़ है।
    एक तरफ़ वे औद्योगिक इकाईयाँ जिन्हें नेहरू ने भी आधुनिक यज्ञशालायें नाम दिया था उनके अनुशासनहीन,अनियन्त्रित एवं अव्यवस्थित विस्तार से जल-वायु प्रदूषण फैल रहा है दूसरी तरफ़ शहरों में अपने ही मल-मूत्र से जल एवं वायु प्रदूषण फैल रहा है तीसरी ओर सर्वाधिक घातक स्थिति जो हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही है वो है शराब एवं दर्दनिवारक ड्रग्स का सेवन और व्यापारिक यज्ञशालाओं [होटलों के किचन्स] में आयुर्वेद के सिद्धान्तों के विपरीत सिर्फ़ जीभ के स्वाद के लिए भोजन बनाया जाना।
    यह वह स्थिति है, जिसके लिए कह सकते हैं कि दोनों ही दिशाओं में आसुरी यज्ञ हो रहे हैं जो सनातन धर्म चक्र में विकार पैदा कर रहे हैं। इसी मानसिक[बौद्धिक] विकास के परिणामस्वरूप ही आज हम इस प्रौद्योगिकी विज्ञान वाली आसुरी वैदिक सभ्यता और सामाजिक सभ्यता की एक ऐसी सीमा रेखा पर हैं जहां से एक महाविनाशक युद्ध की उलटी गिनती शुरू होती है।

10. प्राकृतधर्म सम्प्रदायों की मुख्य शाखायें !


  प्राकृतधर्म सम्प्रदायों की मुख्य शाखायें इस तरह हैं...
        एक है भिक्षु सम्प्रदाय जो आदिनाथ वाला नाथ सम्प्रदाय कहा जाता है, जिस परम्परा में 24 जैन तीर्थंकर हुए हैं। 
      एक है योगी सम्प्रदाय जो पशुपतिनाथ वाला नाथ सम्प्रदाय है जिस परम्परा में मछिन्द्रनाथ[मक्षइन्द्र] और गौरक्षनाथ इत्यादि हुए,जिन्होंने आठवीं शताब्दी में नाथ सम्प्रदाय का नवीनीकरण किया।
     ये दोनों परम्पराएँ मूल परम्पराएँ हैं।
    कालान्तर में दो सम्प्रदाय और बने जिनके प्रवर्तक परशुराम एवं दत्तात्रेय हुए थे। परशुराम ने एकात्म परम्परा का ‘‘एकला चलो‘‘ का सिद्धान्त अपनाया। अतः वे ब्राह्यण कहलाये। 
    दत्तात्रेय ने गुरू-शिष्य[गुरु-चेला] वाला सन्यासी सम्प्रदाय चलाया। शिष्य को भी दत्तक पुत्र कहते हैं ये अत्रिय के दत्त बने अतः दत्तात्रेय कहलाये।
    कालान्तर में इस सन्यासी सम्प्रदाय की अनेक शाखायें बनीं और बिगड़ीं, इनका वर्णन आगे आएगा।
    ये सभी गुरू वर्ग यानी गवर्नर वर्ग में आते हैं। यह वनवासियों को गवर्न करने, उनको सनातन धर्म का ज्ञान देने की गुरू-चेला या गुरू-सेवा परम्परा है जिसमें न तो साक्षरता आवश्यक होती है और न ही पाठ्य पुस्तकों में बँधे पाठ्यक्रम की आवश्यकता होती है क्योंकि यह प्रेक्टिकल ज्ञान से जुड़ा विषय है और वन क्षेत्र एक बहुत बड़ा ज़ूलोजिकल एवं बोटेनिकल गार्डन होता यानी जीव-विज्ञान की जीती-जागती प्रयोगशाला होती है।
    इन सभी गुरूओं यानी गवर्नर्स का उत्तरदायित्व होता है कि वे ऐसी शिक्षा व्यवस्था करे,आचरण सिखाये ताकि सभी प्रकार की वनस्पति पशु एवं मानव प्रजातियों के रूप में फैली प्रजा में भावों का परस्पर आदान-प्रदान सम बना रहे और किसी भी प्रकार की विषमता न फैले।
   जीव-आत्मा और परम्-आत्मा के बीच के सम्बन्ध को वही समझ सकता है जो जीव के विज्ञान/जीव-विज्ञान को समझ पाता है। 
    जब वन क्षेत्र में मानव प्रजाति संख्या में विस्तार लेने लगती है तो वह अर्धवनीय अरण्य क्षेत्र में आती है। अर्थात् शुद्ध वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था से निकलकर गौपालन(पशुपालन) की अर्थव्यवस्था में आती है। तत्पश्चात् जब भाषा(साक्षरता) तथा ज्ञान की विविध धारा वाली परम्परा में आती है तब वह ब्राह्यण धर्म में आती है। 
     तत्पश्चात् वह कृषि कार्य एवं अन्न उत्पादन को भी पशुपालन के साथ अपनाने लग जाती है तब वह मानव प्रजाति वैदिक धर्म में प्रवेश करती है। जब तक ज्ञान एवं विद्याऐं तथा बुद्धि भी आयुर्वेद के विकास तक सीमित रहती है तब तक वह सनातन धर्म के ही तीन आधारभूत सम्प्रदायों वाली सभ्यता-संस्कृति मानी जाती है। 
   प्राकृत धर्म सम्प्रदाय, ब्राह्मण धर्म सम्प्रदाय और वैदिक धर्म सम्प्रदाय तीनों की जीवन शैली एवं समाज व्यवस्था सनातन धर्म की समर्थक होती है क्योंकि इनकी अर्थव्यवस्था/इकोनोमिक्स जो होती है वह ईकोसिस्टम पर निर्भर करती है। 
   प्रथमतः फ़ॉरेस्ट ईकोलोजी तत्पश्चात् एग्रीकल्चर ईकोलोजी। एग्रीकल्चर ईकोलोजी अपनाने वाले कल्चर्ड कहलाने लग जाते हैं। 
   लेकिन जब तक वैदिक-विकास जीव-विज्ञान,जिसमें आयुर्वेद के आठों अंग(अष्टांग आयुर्वेद) भी आ जाता है, तक सीमित रहता है तब तक सनातन-धर्म की हानि नहीं होती लेकिन ज्योंहि वैदिक विकास भौतिक-विज्ञान में प्रवेश  करता है,जो कि आवश्यक भी है क्योंकि कपड़ा-मकान भौतिक विज्ञान में आ जाता है, तब एक सम्भावना बन जाती है कि कालांतर में यह विकास आसुरी विस्तार ले ले।
   जब विकास की परिभाषा इतनी भौतिक विज्ञान आधारित हो जाती है कि शहरीकरण एवं औद्योगिकीकरण ही विकास की परिभाषा बन जाती है तो यह आसुरी वैदिक-सम्प्रदाय बन जाता है जो सनातन धर्म[ईकोसिस्टम] को नष्ट करने लग जाता है। तब अर्थ-शास्त्र कामार्थ-शास्त्र बन जाता है यानि ईकोनोमिक सेटअप, काम एवं अर्थ वाला कोमर्सियल सेटअप बन जाता है। कॉमर्स शब्द कामार्थ का ही अपभ्रंष उच्चारण है।
     इसी तरह जब वैदिक-विकास आयुर्वेद के विष-चिकित्सा अंग को विस्तार देकर ड्रग्स का विकास करता है और अपने शरीर में कामोत्तेजना पैदा करने के लिए अपने अग्न्याशय यानी पित्ताशय यानी पेन्क्रियाज़ को अति सक्रिय कर लेता है तब उसे बहुत सारा भोग और बहुत सारा काम चाहिये।
  तब वह आखेट करना,पशुबली देना,ड्रग्स का सेवन करना,बहुत सारा आहार लेना और दिन-रात काम भोग में लगा रहना शुरू कर देता है। जब इनकी संख्या बढ़ जाती है तो फिर शाकाहारी वन्य पशुओं का वध होता है और उन्हें पकाया जाता है। बचे हुए अंग जब मासांहारी पशुओं को सुगमता से सुलभ होने लग जाते हैं तो मांसाहारी पशुओं की संख्या भी बढ़ जाती है। इस तरह यह आसुरी वैदिक विकास का दूसरा पक्ष है जिसे कर्मकाण्ड,हवन इत्यादि नाम देकर तथा नशे की स्थिति के रूप को समाधि बता देकर और मरने के बाद के काल्पनिक स्वर्ग का लालच देकर इस आसुरी वैदिक विकास का विस्तार किया जाता है।
    यह भी सनातन धर्म[ईकोसिस्टम] को नष्ट करने वाला विकास है। औद्योगिक इकाईयों एवं कर्मकाण्डों में चलने वाले दोनों यज्ञ अग्नि के द्वारा किये जाने वाले आसुरी वैदिक यज्ञ हैं। जबकि प्राणी की जठराग्नि से चलने वाली पाचन क्रिया वाले यज्ञ और वनस्पति में प्रकाश-संश्लेषण क्रिया वाले यज्ञ सनातन धर्मी यज्ञ होते हैं।

सनातन धर्म का ज्ञानाधार

9. बुद्ध एवं महावीर ने किया सनातन धर्म का पुनरोत्थान !

      जैसा कि नाम से ही परिभाषित है कि सनातन धर्म परम्परा चुंकि सनातन Eternal, unalterable,Nondiscontinuous होती है यानी इनकी निरंतरता Continuity कभी भी अवरुद्ध Blocked नहीं होती अर्थात् Un-blocking रहती है अतः भारत पुनः पुनः रेगिस्तान से उबर कर बाहर आता रहा है। 
      सनातन धर्म शब्द को लेकर सर्वत्र भ्रांति फैली हुई है। सनातन धर्म नाम पर कुछ साम्प्रदायिक लोगों ने पेटेण्ट करा लिया और इसकी उलजुलूल व्याख्या करके इसको एक सम्प्रदाय विशेष बना दिया। जबकि जितने भी धार्मिक सम्प्रदाय बने हैं उन सभी का उद्धेश्य सनातन धर्म की रक्षा करना रहा है लेकिन आज सनातन धर्म को हिन्दू धर्म की शाखा माना जाता है जबकि हिन्दू शब्द भी अपने आप में कुछ स्पष्ट नहीं करता है।
      जिसे लेटिन में ईकोलोजीकल साईकिल कहते हैं,हिन्दी में पारिस्थितिकी जैविक चक्र कहते हैं,उसी को संस्कृत में सनातन धर्म चक्र कहा गया है। प्रकृति के प्रतीक चार हाथों वाले कृष्ण और विष्णु के हाथ में यही चक्र है। जो प्राकृतिक सम्पदा का नाश करके इस साईकिल में अवरोध पैदा करते हैं,उन असुरों का नाश करने के लिए भगवान् का यह चक्र कोई भी रूप धारण कर सकता है जैसे वातचक्र[चक्रवात]।यही वातचक्र[वायुचक्र] जब समुद्र के अन्दर होता है तो सुनामी आती है,पृथ्वी के गर्भ में होता है तो ज्वालामुखी फूटती है और भूमि कम्पन होता है।
      बुद्ध एवं महावीर के एक हज़ार वर्ष पूर्व जब पृथ्वी की सभी सभ्यता संस्कृतियाँ नष्ट हो चुकी थी और आसुरी विकास ने पृथ्वी के अधिकांश भू-भाग पर सनातन धर्म को नष्ट कर दिया था तब भारत वर्ष ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र बचा था जहाँ सनातन धर्म बचा हुआ था।
      सनातन धर्म अर्थात् वर्षावन पारिस्थितिकी[Rainforest Ecology] की रक्षा करने के उद्धेश्य से बुद्ध एवं महावीर ने अपने गणराज्यों के मुखियाओं का पद त्याग दिया था। 
       सनातन धर्म परम्परा के तीन आधार होते हैं जिन पर यह परम्परा टिकी है ।
       एक है शिक्षा परम्परा-ज्ञान का विकास करना,विद्याऐं सीखना और बुद्धि को सात्विक बनाना। मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखना मनोबल,आत्म-बल, नैतिक बल को बढ़ाना। इसका मूल नाम है ब्रह्म परम्परा।
        दूसरी है सन्तति परम्परा,शरीर को स्वस्थ रखना,आहार को पहचानना,पकाना और ग्रहण करना। इसे वेद परम्परा कहा गया है। स्वस्थ एवं शक्तिशाली वंश[जेनेटिक्स] का विस्तार।
     धर्म के ये दोनों आधार आत्म कल्याण के आधार हैं अर्थात् व्यक्तिगत स्वास्थ्य को बनाये रखना मानव का धर्म है। यह व्यक्तिगत स्वास्थ्य मानसिक एवं शारीरिक दो भागों में विभाजित होता है लेकिन ये दोनों एक दूसरे के लिए पूरक हैं अतः इसे अद्वैत कहा गया है। 
     धर्म का तीसरा आधार सामूहिक आधार है। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का संवर्धन सरंक्षण करना!
     'वसुधेव कुटुम्बकम्' यानी भावों के परस्पर सम आदान-प्रदान वाले चक्र ने वसुधा[सम्पूर्ण उपजाऊ धरती] को एक कुटुम्ब The Family with Households and Relatives बना रखा है, भगवान के बनाए इस वर्गीकृत जीवजगत साम्राज्य में कुटुम्ब-कबीले,Clan में विभिन्न प्रकार के परिवार रहते हैं। इस साम्राज्य को प्रकृति ने त्रिगुणात्मक Three times higher three properties बना रखा है। एक प्रकार के  परिवार का उत्पादन करने पर दो का उत्पादन स्वतः होता है। इतनी लाभप्रद पारिस्थितिकी आधारित अर्थव्यवस्था  Ecologically-oriented economy, Ecologically-operated economy को नकारना अधर्म और पाप कहा गया है,निसंदेह पाप का परिणाम नरक भोगना होता है।
     Ecology यानी सनातन धर्म यानी भगवान की बनाई हुई अर्थव्यवस्था है। इस का शुभारम्भ प्लाण्ट किंगडम यानी वनस्पति साम्राज्य व एनीमल किंगडम यानी प्राणी साम्राज्य के बीच भावों के परस्पर सम आदान प्रदान से होता है। 
     जैसा कि उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में नव-बौद्धिक, नव-धनाढ्य और नव साम्प्रदायिक वर्ग उभरा, उसने सब कुछ बंटाधार कर दिया । 
      उसी सिलसिले में यह समझना चाहिये कि प्राकृत धर्म(बौद्ध एवं जैन धर्म) प्राकृत लोगों के लिए है और प्राकृत व्यक्ति में सिर्फ दार्शनिक चरित्र विकसित होना हास्यास्पद माना जायेगा। जैन मुनि में मुनि शब्द मौन रह कर मनन करने वाले दार्शनिक के लिए काम में आता,मौन रहना और अग्नि का त्याग करना ही जैन मुनि की परिभाषा रही है जबकि सच्चाई तो यह है कि बौद्ध एवं जैन धर्म पूर्णतया प्रेक्टिकल धर्म हैं जो आदिवासी समाज को बताया गया था। क्या आदिवासी अव्यावहारिक दर्शन Impractical philosophy में पड़ कर मानसिक ऐयाशी कर सकते हैं या समय व्यतीत करने के लिए उन्हें भ्रामक अवधारणाओं की आवश्यकता होती है! फिर भी इन धर्मों के बारे में कहा जाता है कि ये तो मात्र फ़िलोसोफ़ी हैं। 
     आज आप किसी भी प्रकाशक की सूची उठाकर देख लो,आप को दर्शन या दार्शनिक साहित्य की सूची में जैन एवं बौद्ध दर्शन की भरमार मिलेगी। ऐसी स्थिति हो गई है जैसे बौद्ध एवं जैन धर्म और दर्शनशास्त्र एक दूसरे के पर्याय हैं। 
     जब की षट्दर्शन में इन दोनों दर्शनों का नाम तक नहीं है। 
     नव बौद्धिक वर्ग ने जैन-बौद्ध धर्म को सनातन धर्म से अलग कर दिया जबकि सनातन धर्म की नींव ही बौद्ध-जैन सम्प्रदाय हैं। क्योंकि ईकोलोजी का मूल स्वरूप तो वन क्षेत्र में ही उभरता है और वनों की रक्षा के लिए बुद्ध एवं महावीर ने अपना राजकुमार जीवन त्याग कर कठोर जीवन अपनाया। पहले इस ईको सिस्टम को ब्राह्मणों ने समझा तत्पश्चात् इसको वनों में प्रत्यक्ष देखा,इसपर मनन किया और आत्म संयम की समाधि का प्रभाव शरीर व् बुद्धि पर महसूस किया तत्पश्चात इस की शिक्षा वनवासियों को दी।
     यह बिना व्यवहार में लाये बिना यानी प्रेक्टिकल किये बिना, मात्र सुनी सुनाई बातों पर दर्शन के नाम पर की जाने वाली मानसिक ऐयाशी नहीं है।
    वन संरक्षण का कार्य वे अपने कर्मचारियों से भी करवा सकते थे लेकिन ऐसा नहीं करके उन्होंने जो मार्ग अपनाया उसके पीछे दो मुख्य कारण रहे होंगे। 
    एक तो यह कि वे स्वयं इस विज्ञान या विद्याओं को जानना चाहते थे जिनके माध्यम से सिद्धार्थ को बोद्धिसत्व की प्राप्ति हुई और वे बुद्ध कहलाये तथा वर्धमान को शारीरिक बल(वीर्य) की प्राप्ति हुई और वे महावीर कहलाये। 
     दूसरा कारण था कि प्रजा यह महसूस करे कि राजकुमार होते हुए भी इन्होंने यह मार्ग अपनाया है तो निःसंदेह यह मार्ग कल्याणकारी है। 
    Rainforest Ecology/वानिकी पारिस्थितिकी को जानना सनातन धर्म को जानना कहा गया है और ईकोसिस्टम की रक्षा करना सनातन धर्म की रक्षा करना कहा गया है। 
    Ecology/पारिस्थितिकी का मूलभूत यानी मौलिक ज्ञान वन क्षेत्र से ही शुरू होता है या कहें सनातन धर्म का मूल-भूत यानी मौलिक ज्ञान प्राकृत क्षेत्र से ही शुरू होता है। चारागाहों वाले अरण्य वन क्षेत्र को ही धर्म क्षेत्र कहा गया है। जहाँ प्रकृति अपनी मूल स्थिति में होती है,वहाँ एक निरक्षर और अनपढ़ व्यक्ति भी सनातन धर्म को जान सकता है क्योंकि वह अपने आँखों के सामने इस सनातन धर्म प्रक्रिया को क्रियाशील देखता है। मेरा यह व्यक्तिगत अनुभव है कि एक गडरिया भगवान् को जितना सटीक परिभाषित करता है,उतना एक उच्चपदस्थ धर्माधिकारी भी नहीं कर सकता।

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

8. 2700 वर्ष पूर्व बुद्ध और महावीर ने प्राकृत धर्म की पुनःस्थापना की !



     आज से लगभग 2700 वर्ष पूर्व बुद्ध और महावीर ने प्राकृत धर्म की पुनः स्थापना की क्योंकि आज से लगभग साढे तीन-चार हजार वर्षों पूर्व आज के ईराक-टर्की-इजिप्ट के बीच के क्षेत्र में एक बहुत परिष्कृत औद्योगिक नगरों का क्षेत्र फैला था। भारत में आज से पाँच हज़ार वर्ष पहले कंस,दुर्योधन इत्यादि द्वारा भारत की पश्चिमी दिशा के काल यवन एवं पूर्वी दिशा के जरासंध जैसे राष्ट्राध्यक्षों से आर्थिक संधि करके भारत में भी औद्योगिक-नगरों का विस्तार किया गया था। 
    कृष्ण ने कूटनीतिक चालों द्वारा एक युद्ध का आयोजन करवाया और इस भौतिकवाद से ग्रसित विकास को नष्ट किया था और रोक लगाई।
     अधिकांशतः महाभारत तथा कृष्ण के परिपे्रक्ष्य में युद्ध और गीता का उपदेश ही प्रचलित जानकारियों का केन्द्र है। लेकिन असली काम तो युद्ध के बाद में कृष्ण ने किया था और वह काम था यक्षों को भारत से खदेड़ना।  
   वर्तमान की यह मानव सभ्यता वैदिक सभ्यता है किन्तु यह देवों के स्थान पर यक्ष एवं रक्षसों की सभ्यता है। यक्ष उस चरित्र का नाम है जो अनुबन्ध में बाँध कर शासन करते हैं और यदि अनुबन्ध का उल्लंघन होता है तो राक्षस सेना द्वारा बल प्रयोग करवा कर अनुबन्ध मानने  को मजबूर किया जाता है।
   कृष्ण ने रक्षसों को तो युद्ध में मरवा दिया और यक्षों को यह अल्टिमेटम दिया कि या तो आप भारत को छोड़ कर चले जाओ या फिर वित्त के माध्यम से आर्थिक शोषण को बन्द करके भारत में पशुपालन और कृषि की अर्थव्यवस्था वाली मुख्यधारा में आ जाओ अर्थात सनातन धर्म को अपना लो।
      इस तरह भारत तो सुरक्षित हो गया लेकिन यरूशलम में यक्षों ने अपने कार्यालय स्थापित किये जो आर्थिक राजधानी बनी और अपने चारों तरफ के क्षेत्र जिसमें अफ्रीका के उत्तर पूर्व के समुद्रतट का क्षेत्र और पश्चिम एशिया के ईराक,टर्की,जोर्डन,सीरिया,इज़राईल के क्षेत्र में तथा ग्रीस के क्षेत्र में औद्योगिक अर्थव्यवस्था को तेज गति दी।
     कृष्ण का जो माखन-चोर का चरित्र है,उसे जो लोग भक्ति-भाव के नाम पर आँख(दिमाग़) बंद करके स्वीकार कर रहे हैं वे भी उनके इस आचरण के पीछे छिपे मन्तव्यों से अनभिज्ञ हैं। और जो धर्म सम्प्रदाय जैसे शब्दों को अपने कुंठित विचारों में लादकर इसे एक काल्पनिक एवं मिथकीय कथा मात्र मान रहे हैं,वे भी सच्चाई से अनभिज्ञ हैं ।
    गौपालक कृष्ण और हलधर बलराम दो नायकों के इर्द-गिर्द घूमती महाभारत कथा भारत के इतिहास की वह कथा है जो सनातन है। कृष्ण ने उस आर्थिक व्यवस्था का विरोध किया था जिसमें दूध,दही,मक्खन का उत्पादन तो गांवों में होता है लेकिन मुद्रा(करेंसी) के लालच में यह पौष्टिक आहार नगरों में चला जाता है और ग्रामीण जन आर्थिक एवं शारीरिक दोनों पक्षों में बलहीन होते जाते हैं ।
    यहाँ जो प्रसंग चल रहा है,उसी के परिप्रेक्ष्य में पुनः ज़िक्र है कि जो औद्योगिक सभ्यता-संस्कृति पाँच हज़ार वर्ष पूर्व परवान पर चढ़ रही थी,जिसे माया सभ्यता भी कहा गया,जिसका एक रूप जो बौद्धिक राजधानी के रूप में था,ग्रीक तक फैल गया था,जहाँ से यूरोप में विस्तार हो रहा था; वह साढ़े तीन हज़ार वर्ष पूर्व ताश के पत्तों से बने महल की तरह ढह गई थी।
    आपने ग़ौर किया होगा कि पारसी जिन्हें Indian Jewish भी कहा जाता है वे अग्नि की पूजा करते हैं, इनके धर्म स्थल अगियारी कहलाते हैं। यहूदी भी अग्नि की पूजा करने के साथ-साथ रोटी की भी पूजा करते हैं।
     प्रथम वेद ऋक्-वेद के प्रथम छंद में कहा गया है ‘‘अग्नि मिळे पुरोहितम‘‘ अर्थात् वैदिक सभ्यता की शुरूआत में जिस अग्नि की पूजा की जाती है, वह अग्नि पुरोहित को यज्ञशाला (पाक शाला) में भोजन पकाना प्रारम्भ करने के लिए चाही गई।
      लेकिन उसी अग्नि की जब औद्योगिक ईकाईयों में प्रोसेस के लिए बड़ी मात्रा में आवश्यकता होती है और ऊर्जा के नाम से उस अग्नि का अति-उत्पादन हो जाता है तो वही अग्नि वैदिक सभ्यता के अन्त का कारण बनती है। इसलिए प्राकृत धर्मानुयाई मुनि अग्नि का त्याग करते हैं।
      साढे़ तीन हज़ार वर्ष पूर्व जब माया सभ्यता का विनाश हुआ तो यह क्षेत्र पूरी तरह वनस्पति विहीन और गर्म रेगिस्तान में बदल गया। क्योंकि सिन्धु नदी के उस पार से पूरे पश्चिम एशिया में फैले औद्योगिक नगर इस विनाश में नष्ट हुए। राजस्थान तक इसका प्रभाव पड़ा।
     इस तरह वर्तमान में जिस सभ्यता-संस्कृति को हम तहस-नहस होते देख रहे हैं या कहें कि आज जिस असभ्यता और अपसंस्कृति का विकास हो रहा है वह इस बात का संकेत है कि मानवीय सभ्यता-संस्कृति का पुनः अन्तकाल आ गया है क्योंकि इसी विकास से विषमता बढ़ रही है। इस सभ्यता संस्कृति का आदिकाल आज से साढे़ तीन हज़ार वर्ष पूर्व माना जायेगा। लेकिन चुंकि हमें जिस इतिहास की जानकारी है वह 2700 वर्ष पूर्व से यानी बुद्ध एवं महावीर से शुरू होता है।
इस तरह इतिहास का एक बिन्दु है 'काल खण्ड' जो इस प्रकार है।
     [1] बुद्ध महावीर काल लगभग 300 वर्ष तक चला और भारत वर्ष पुनः हरा-भरा हुआ,अथवा यदि हरा-भरा था और यवनों ने आकर यहाँ के की वनसंपदा को हानि पहुंचानी शुरू की तो उसकी सुरक्षा हुई और संवर्धन हुआ।
आज से 2700 वर्ष पूर्व, 700 वर्ष ईसापूर्व से
आज से 2600 वर्ष पूर्व, 600 वर्ष ईसापूर्व और
आज से 2500 वर्ष पूर्व, 500 वर्ष ईसापूर्व तक
      [2] चाणक्य-चन्द्रगुप्त काल लगभग 100 वर्ष तक माना जाये तो भारतवर्ष पुनः राष्ट्र की अवधारणा में बंधा लेकिन वह वर्गीकृत था। चाणक्य के नेतृत्व में भारत राष्ट्र में औद्योगिक क्रान्ति और नगरीकरण हुआ।
आज से लगभग 2400 वर्ष पूर्व, 400 वर्ष ईसापूर्व
      [3] अशोक काल लगभग 200 वर्ष तक चला उस समय भी भारतवर्ष और देश पर आज ही की तरह भारतराष्ट्र हावी हो गया था।
आज से 2300 वर्ष पूर्व,300 वर्ष ईसा पूर्व और
आज से 2200 वर्ष पूर्व, 200 वर्ष ईसा पूर्व
      [4] विक्रमादित्य का कालखण्ड लगभग 300 से 400 वर्ष तक चला इसमें नगरीकरण,औद्योगिकीकरण और भौतिकवादी विकास वाले राष्ट्र की अवधारणा पूरी तरह नकार दी गयी लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में एक से बढ़ कर एक प्रतिभाएं विकसित हुईं। आज आप भारत के जितने भी वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक शोधों के बारे में पढ़ते सुनते हैं वे सभी विक्रमादित्य द्वारा स्थापित व्यवस्था के काल खंड में हुए।
आज से 2100 वर्ष पूर्व,100 वर्ष ईसा पूर्व से 
आज से 2000 वर्ष पूर्व, 0   वर्ष ईसा विक्रम और 
आज से 1900 वर्ष पूर्व, पहली सदी और 
आज से 1800 वर्ष पूर्व, दूसरी सदी तक 
     [5] लगभग 300 वर्ष तक चले गुप्तकाल में पुनः वाणिज्य व्यापार चला और भारत सोने की चिड़िया बना लेकिन सभी वनखंड नष्ट हो गए और निर्माण और निर्यात की ऐसी आंधी आई की निर्माण से जुडी सभी जातियां पोष्टिक आहार की कमी और प्रदूषित वातावरण में रहने से छूत की बीमारियों से ग्रसित हो गयी और इन्सान ने इन्सान को अछूत बना दिया।
आज से 1700 वर्ष पूर्व, तीसरी सदी से 
आज से 1600  वर्ष पूर्व, चौथी सदी और 
आज से 1500 वर्ष पूर्व, पांचवी सदी तक 
    [6] हर्षवर्धन द्वारा प्रारम्भ राजपूतकाल और ब्राह्मण प्रशासनिक पद्धति का सांस्कृतिक काल जो सोलहवीं सदी तक चला।
आज से 1400 वर्ष पूर्व, छठी सदी से 
आज से 1300 वर्ष पूर्व, सातवीं सदी
आज से 1200 वर्ष पूर्व, आठवीं सदी
आज से 1100 वर्ष पूर्व, नवीं सदी
आज से 1000 वर्ष पूर्व, दसवीं सदी
आज से   900 वर्ष पूर्व, ग्यारवीं सदी
आज से   800 वर्ष पूर्व, बाहरवीं सदी
आज से   700 वर्ष पूर्व, तेहरवीं सदी
आज से   600 वर्ष पूर्व, चौहदवीं सदी
आज से   500 वर्ष पूर्व, पन्द्रवीं सदी तक
    [7] मुगलकाल तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनियों द्वारा आर्थिक शोषण काल
आज से   400 वर्ष पूर्व, सोहलवीं सदी
आज से   300 वर्ष पूर्व, सत्रहवीं सदी
आज से   200 वर्ष पूर्व, अट्ठारहवीं सदी
   [8] आज से 150 वर्ष पूर्व 1857 के बाद की उन्नीसवीं सदी से ब्रिटिश शासन द्वारा आर्थिक शोषणकाल
   [9] वर्तमान काल बीसवीं सदी का उत्तरार्ध अपनों ही द्वारा भारतीय सभ्यता संस्कृति के आत्मपतन का काल।
    यह काल-खण्ड इस लिए दर्शाया गया है ताकि इसे ईसा पूर्व या ईस्वी संवत से समझना चाहें तो आप लगभग समझें। यहाँ मैं संस्कृति-सभ्यता का इतिहास एक विशेष उद्धेश्य से बता रहा हूँ। अतः इसे उसी दृष्टिकोण से समझने का कष्ट करें जो मेरा उद्धेश्य है। इसे किसी सत्ताधीश के सत्ता पर बैठने और उतरने तथा उसकी दिनांक और वर्ष जैसे क्षुद्र एवं महत्वहीन तथ्यों पर नहीं जायें।
     इन ऐतिहासिक काल खण्डों में हुए परिवर्तन का जब हम सभ्यता-संस्कृति के दृष्टिकोण से अवलोकन कर रहे हैं तो इसमें सर्वाधिक घनत्व(डेनसिटी) वाले तथ्य धर्म एवं धार्मिक सम्प्रदायों के उत्थान पतन से जुड़े तथ्य और घटनाऐं ही होंगी।
     इस भूमिका के माध्यम से जो मैं बताने जा रहा हूँ,उसमें सबसे बड़ी अड़चन कहें या रोचकता एक बिन्दु पर आएगी,वह है भाषा में शब्दों का उपयोग।