vivarn

Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.



कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।

Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made ​​by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

सोमवार, 23 जुलाई 2012

21. हर्षवर्धन के कार्यक्रम !


    विगत 2700 वर्ष के वर्त्तमान ज्ञात इतिहास में पहली बार बुद्ध एवं महावीर ने भारत को आर्थिक अभावों से मुक्त करने का अभियान चलाया और भारत वर्ष को पुनः शस्य-श्यामला-वसुंधरा बनाया और 300 वर्ष बाद चंद्रगुप्त गुप्त मौर्य को सम्राट बना कर विष्णुगुप्त [चाणक्य,कौटिल्य] ने भारत में वर्गीकृत व्यवस्था को पुनः स्थापित किया। लेकिन उसके बाद नगरीकरण और विदेश व्यापार के कारण कुल तीन सौ वर्षों में भारत में दुबारा एक तरफ भूखमरी दूसरी तरफ आलीशान अट्टालिकाओं वाला भारत विकसित हो गया। उस भारत को विक्रमादित्य ने पुनः हरा-भरा कृषि क्षेत्र बनाया उसके बाद तीसरी बार पुनः गुप्त[गुप्ता] जाति का वर्चस्व हुआ और तीसरी बार पुनः भारत अवर्गीकृत किन्तु दो वर्गों में विभाजित हो गया,एक कुपोषण, Malnutrition का शिकार भारत और दूसरा अतिपोषण,Over-nutrition का शिकार भारत। जिसको हर्षवर्धन ने बाहर निकाला जिसके लिए लगातार 100 वर्षों तक कार्यक्रम चला।
     चौथी बार अब यह पुनः कुछ-कुछ स्थिति आ गयी है और निरन्तर बढ़ रही है जो अवर्गीकृत भारत में वर्ग-संघर्ष को निमंत्रण दे रही है।
    हर्षवर्धन ने देखा कि वनों एवं गणराज्यों[गावों] की सुरक्षा करने वाला कोई भी वर्ग नहीं है और चारों तरफ वित्त के माध्यम से श्रम का शोषण और धर्म[कर्मकाण्ड] के नाम पर श्रद्धा भावनाओं का शोषण हो रहा है और शासक वर्ग नामक कोई वर्ग बचा ही नहीं है क्योंकि राज्य शासकों की तुलना में तो व्यापारी वर्ग अधिक शक्तिशाली हो गया। वर्तमान की तरह प्रशासनिक कार्यो का नीति निर्धारण व्यापारियों के हाथ में हो गया था।
विक्रमादित्य ने तो इस स्थिति से निपटने के लिए अपने साथ कुछ मित्र रूपी सिपहसालारों को लेकर ही काम चला लिया था क्योंकि अशोक ने सभी बचे हुए रक्षसों[सैनिकों] को व्यापारी बना दिया था लेकिन गुप्तकाल में छोटे-छोटे राजघराने कुकुरमुत्तों  की तरह उग गये थे। उनसे निपटने के लिए एक ऐसी योद्धा जाति की आवश्यकता थी जो युद्ध में पराक्रम दिखा सके। तब रजोगुणी रजपुत्र जाति को उत्पन किया गया।
    हर्षवर्धन स्वयं तो चालीस वर्ष की आयु में ही युद्ध करते हुए मारा गया था लेकिन चूँकि सोलह वर्ष की आयु में ही राजगद्दी पर बैठ गया था अतः अपने शासन काल में अनेक परियोजनाएं शुरू करवा गया,
जिनको हम तीन भागों में वर्गीकृत कर के समझ सकते हैं।
1. तीर्थराज पुष्कर का पुनरोद्धार करवाना और 3 + 2 = 5 प्रशासनिक जातियों की देव-यज्ञ से उत्पति करना और जाति व्यवस्था; जो कि परम्परागत जॉब की व्यवस्था है, बनाना।
2. जिसे कालान्तर में छोटी-काशी कहा गया वहाँ ब्रह्म-यज्ञ के लिए पञ्च गौड़ प्रशासन के गुरुकुल स्थापित करना।[Note -पाँच पाण्डवों द्वारा पञ्चायती राज के लिए लड़ना,शिव के पञ्चाकार रूप की मान्यता को स्थापित करना इत्यादि विषय सभी ब्लॉग्स में आयेंगे। इसी सांख्य का उपयोग हर्षवर्धन द्वारा यहाँ किया गया था।]
3. वन संरक्षण के लिए बौद्धों एवं जैनों के मन्दिरों पर अतिक्रमण करके उन्हें आदिवासियों को सौंपना।
इसी कार्यक्रम को एक शताब्दी बाद सातवीं शताब्दी में आदि शंकाराचार्य[आचार्य शंकर] ने पूरे भारत और विशेषकर दक्षिण भारत में फैलाया उसी समय दक्षिण भारत में पञ्च द्रविड़ प्रशासन व्यवस्था शुरू हुयी। इसे आठवीं में गौरक्षनाथ[गोरखनाथ] ने एक अलग ऊँचाई दी। अगर आप ऐसा सोचते हैं कि आचार्य शंकर ने शास्त्रार्थ में कर्मकांडियों को हराकर उन्हें सत्ताच्युत कर दिया था और उन्होंने चुपचाप सत्ता छोड़ दी तो यह आपका भ्रम है। इस तरह कोई भी अपनी सत्ता नहीं छोड़ता है। सच्चाई यह है कि हारने के बाद भी जब वे सत्ता नहीं छोड़ते थे तो वे राजपूत वहाँ आ जाते थे और उनके भय से वे सत्ता छोड़ देते थे। ऐसे कर्मकांडियों के पीछे तमोगुणियों का बड़ा समूह होता है उन्हीं से उन्हें बल मिलता है।

20. गुप्तकाल !


जब भारत में पुनः किसी कारणवश औद्योगिक निर्माण एवं ट्रेड की एक आँधी आई जिसे गुप्तकाल कहा जाता है तो जन-साधारण भारतीयों का जीवन पुनः नरक बनता गया। यह सिलसिला शायद राजा भोज की वैभवशाली उज्जयनी नगरी बसाने के बाद से शुरू हुआ होगा। क्योंकि राजा भोज के समय वैज्ञानिक साहित्य भी कलात्मक तरीके से लिखा जाने लगा और कालिदास इसके प्रणेता थे। कालिदास ने एक से बढ़कर एक साहित्यिक रचनाएँ लेकिन सभी रचनाओं की पृष्टभूमि वैज्ञानिक [वैदिक-ज्ञान] पर आधारित थी जैसे कि रघुवंशम में लंका विजय के बाद जब राम सीता के साथ वायुमार्ग से आते हैं तो सभी जीव-प्रजातियों के बारे में बताते हुए आते हैं और कहते हैं ये सभी मेरी तरह ही रघु के वंशज हैं| यह रचना प्राणियों के आचरण के विज्ञान [प्राणी विज्ञान] की रचना है|
    इसी तरह कुमारसंभव कार्तिकेय के जन्म से सम्बन्ध रखती है। इसमें शिवपार्वती के माध्यम से प्रणय विज्ञान,सौन्दर्यबोध और प्रसूति विज्ञान को कलात्मक भाषा में रचा है। पार्वती के पैरों के नख के सौन्दर्य के वर्णन से शुरू होकर जब जंघा पर आते हैं तो फिर आज का कुंठित समाज निःसंदेह उसे अश्लील कह कर, भारतीयों की आस्था के ठेकेदार बन कर उसका विरोध करेंगे।
    इसी तरह मेघदूत एक तरफ प्रेमी-प्रेमिका के विरह की दास्तान है तो दूसरी तरफ भारत की भौगोलिक स्थिति का वर्णन है।
    इन रचनाओं के एक-एक दो-दो छोटे-छोटे पार्ट का ही प्रकाशन हुआ है और बहुत सी रचानायें तो प्रकाश में भी नहीं आई हैं। लेकिन यहाँ हम जिस परिप्रेक्ष्य में बात कर रहे हैं वह यह है कि निःसंदेह उस समय पुनः वैभव का प्रदर्शन लोकप्रिय हुआ होगा और भारत प्रथम चरण में निर्माण और नगरीकरण से आकर्षित हुआ होगा तत्पश्चात वैश्वीकरण में आया होगा और अपनी लुटिया डुबोयी होगी लेकिन उसके बाद आये गुप्त काल में भारत सोने की निर्जीव और बन्धक चिड़िया बन गयी।
गुप्तकाल में धातु उद्योग नहीं फैला था जैसा कि चाणक्य व अशोक के कार्यक्रमों से फैला था और न ही बड़ी-बड़ी यांत्रिक औद्योगिक इकाईयाँ लगी थी बल्कि गृहउद्योग एवं कुटीर उद्योग में निर्माण कार्य होता और निर्यात होता एवज में सोना आयात होता था। भारत सोने की चिड़िया बना। लेकिन उस सोने को प्राप्त करने के लिए भारतीय सभ्यता संस्कृति ने जो कीमत चुकाई वह आज भी चुकाई जा रही है और न जाने कितनी सदियों तक चुकाई जायेगी। 
बहुत बड़े-बड़े क्षेत्रों में कपड़ा उद्योग,चमड़ा उद्योग और बर्तन तथा अन्य विषयों के औद्योगिक-गाँव बसाये गये जहाँ सभी प्रकार की निर्माण सामग्री हस्त-उद्योगों द्वारा निर्मित होती थी। 
विक्रमादित्य के कार्यक्रमों में व्यापार का काम बौद्धों एवं जैनों से छीन लिया गया था व्यापार का काम घुमन्तु चरवाहे-बिणजारे करते थे। व्यापार भी सिर्फ प्राकृतिक उत्पादनों का होता था वह भी सिर्फ वस्तु विनियम से। वित्त प्रबन्धन के लिए यक्षों के स्थान पर श्रेष्ठ लोगों को स्थापित किया गया। श्रेष्ठ से सेठ शब्द बना है।
श्रेष्ठ या सेठ का उत्तरदायित्व था, सभी बिन्दुओं पर प्रिय एवं उचित अर्थव्यवस्था बनी रहनी चाहिये। ये ही श्रेष्ठ(सेठ) बाद में काल में गुप्त शासक बने जिसे गुप्त काल कहा जाता है।
गुप्तकाल में शासक भी गुप्ता बणिये थे तो अन्य व्यापारी तो बणिये होते ही हैं। बौद्ध-जैन व्यापारी फिर से पनपने लगे।
गुप्तकाल के अन्त तक अर्थात सौ वर्षों के अन्दर-अन्दर भारत फिर उसी स्थिति में आ गया जब एक तरफ तो गुप्त शासकों,गुप्तों,बौद्धो एवं जैनियों की पुनः भव्य अट्टालिकाऐं बन गईं जबकि दूसरी तरफ खाद्यान्न की कमी आ गई। वन नष्ट हो गये और ब्राह्मणों का स्थान लेकर पुरोहित पुनः आसुरी वैदिक यज्ञों में लिप्त हो गये। पशुबलि और नशीले विषों का सेवन ही यज्ञ की परिभाषा हो गई।
लेकिन इनसे भी कई गुणा अधिक बुरी स्थिति हुई हस्त उद्योगों से जुड़े वर्गों की। हुआ यह कि निर्यात के दबाव के चलते और सोने के लालच के चलते एक तो हस्त उद्योगों के गाँव के गाँव बसा दिये गये और उनमें दिन-रात निर्माण करते रहने को उन्हें मजबूर किया गया । दूसरा यह कि उन्हें उचित मूल्य नहीं दिया जाता था अतः वे पौष्टिक आहार नहीं ले पाते थे।
गाँव के गाँव एक ही जाति के होने के कारण उनमें एक ही तरह का सघन प्रदुषण होता था। दूसरी तरफ पौष्टिक आहार की कमी के कारण उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो गई थी। दोनों स्थितियों के कुयोग से उन हस्त उद्योगों से जुड़ी जातियों में छूत की बीमारियाँ हो गईं।
चमड़ा उद्योग से जुड़ी जातियों में चर्म रोग हो गया,जुलाहों में दमा जैसी बीमारियाँ हो गईं क्योंकि वातावरण में कपास की डस्ट उड़ती थी जो श्वसन क्रिया से फेफड़ों में जाती थी। लुहारों में टी.बी.जैसी बीमारियाँ हो गईं। इन छूत की बीमारियों के कारण वे अछूत कहलाये। 
     गुप्त काल की समाप्ति; तत्पश्चात् हर्षवर्धन के कार्यक्रमों से ये सभी जातियाँ छूत की बीमारियों से मुक्त तो हो गईं लेकिन इन्हें आज भी इस संबोधन से मुक्ति नहीं मिली है।
गुप्त शासकों के जिस काल-खण्ड पर आप यह सोचकर गर्व करते हैं कि भारत सोने की चिड़िया था,वह सोना तो पुनः यूरोपियन यक्षों के हाथों लग गया। वास्को डी गामा के भारत की खोज के बाद पंद्रहवीं सोलहवीं शताब्दी से ही वह सोना यूरोप जाने लग गया और आज भारतीय रिज़र्व बैंक बिना सोना रखे करेंसी छाप रही है लेकिन अछूत एवं दलित वर्ग की अवधारणा आज भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रही। जबकि अंग्रेज़ों ने तो सभी भारतीयों को अछूत और दलित बना दिया था तब सिर्फ इन जातियों को ही क्यों इस सम्बोधन से हीन भावना ग्रस्त बनाया जा रहा है। यही काम जब भारी औद्योगिक प्रतिष्ठानों में होता है तब वह प्रतिष्ठित सवर्ण जाति का हो जाता है और वे करोड़ों अरबों रुपयों के ऋण हजम करने वाले हो जाते हैं।लेकिन यही निर्माण गृह-उद्योग में करने वाला विद्वान[विद्या-वान] दलित,अछूत,गरीब,पिछड़ा हुआ, अशिक्षित इत्यादि कहलाता है।
हर्षवर्धन ने गुप्त साम्राज्य व्यवस्था को तहस नहस करके पुनः एक ऐसी समाज-व्यवस्था व जीवन-शैली को विकसित करने का क्रान्तिकारी कार्यक्रम चलाया जो सनातन धर्म की रक्षा का कार्यक्रम था। उस आन्दोलन से जो समाज व्यवस्था बनी वह सोलहवीं शताब्दी तक अक्षुण्ण चली। बाद में उसे मुग़ल शासकों विशेषकर अकबर शाहजहां और ओरगज़ेब ने एक सिरे से हानि पहुँचाई दूसरे सिरे से ईस्ट इण्डिया कम्पनियों ने वनों को हानि पहुँचाई। लेकिन इसको जड़ सहित उखाड़ने का अभियान चलाया 1947 के बाद अपने ही लोगों ने। तथाकथित भारत के नव प्रतिनिधियों ने। नव-धनाढ्य,नव-बौद्धिक,नव-धार्मिक एवं नव सामन्त[राजनेता] वर्ग ने। 

रविवार, 22 जुलाई 2012

19. विक्रमादित्य के भारत को पुनर्जीवित करना है !

       वर्त्तमान के आदिकाल[बुद्ध-महावीर काल] के बाद 200 वर्षों तक ईको-चैनल या ईकोसिस्टम इस स्थिति तक आ गया था जिसको लेकर कह सकते हैं कि सनातन धर्म पुनः अपनी निरन्तरता को प्राप्त हो गया था।     
     यह काम बुद्ध-महावीर द्वारा सनातन धर्म की रक्षा के लिए चलाये आन्दोलन का परिणाम था। 
     तत्पश्चात् जब चाणक्य का उदय हुआ तो चाणक्य ने तीनों प्रकार की अर्थव्यवस्था को एक दूसरे का पूरक बना दिया था।
1. वनों से वनौषधियाँ मिलती रहीं।
2. गण राज्यों में कृषि और पशुपालन होता रहा। उस समय कृषि एवं पशुपालन दोनों दो अलग-अलग जातीय वर्ग करते थे। पशुपालक ही वनों में अपने पशु चराने जाते और वनौषधियों का संग्रह करके लाते थे। पशु भी बेचते थे।
3. औद्योगिक नगरों का विकास करके निर्माण एवं वाणिज्य यानी ‘‘ट्रेड एण्ड इण्डस्ट्रीज‘‘ की अर्थव्यवस्था को पुनः उच्च स्थान दिलाया। क्योंकि पूर्व की त्रासदी को भुला दिया गया। यह मामला सौ वर्षों तक चला। 
   तत्पश्चात् अशोक का उदय हुआ उसने भारत-वर्ष एवं भारत-देश[भारतीय गण राज्यों] को भारत राष्ट्र बनाया। यहाँ तक तो फिर भी ठीक था लेकिन जब कूटनीति होती है तो उसका अच्छा परिणाम तभी निकलता है जब वह कूटनीति कृष्ण और चाणक्य की तरह स्व-विवेक से अपनाई जाये। लेकिन यह कूटनीति अशोक की ख़ुद की नहीं थी कि अपनी सेना को अहिंसाधर्म अनाने को प्रेरित किया जाये और उन्हें व्यापारी बना दिया जाये। 
यदि यहाँ एक विद्वान व्यक्ति स्व-विवेक से निर्णय लेता तो सैनिक कर्मचारियों को कृषि कार्यों में लगा सकता था। लेकिन उसकी कुटिलता यह थी कि उसने कलिंग विजय में हुई हत्याओं को लेकर अपने हृदय परिवर्तन के नाम से यह कार्य किया। पुनः कहता हूँ कि हिरोशिमा और नागासाकी की घटना के बाद तो किसी का हृदय परिवर्तन नहीं हुआ जो भला अशोक का होता। 
एक बहुत-बड़े वर्ग को व्यापार में झोंक कर और विदेश व्यापार को बढ़ावा देकर उसने जो किया उसका परिणाम यह हुआ कि दो सौ वर्षा के अन्दर-अन्दर बौद्ध-जैन व्यापारियों ने उसी जंगल को बेच खाया जिसको बुद्ध एवं महावीर ने पनपाया था।
इस स्थिति के लिये यह कहा जायेगा कि अशोक ने सिर्फ़ व्यापार को महत्व देकर और अपने सैन्य ख़र्च को समाप्त करके जिस सम्पन्नता की नींव डाली उसी मार्ग को और उसी लक्ष्य को उसने सब कुछ समझ लिया था।
     लेकिन विक्रमादित्य ने जिस आन्दोलन या जिस कार्यक्रम की नींव डाली, उसमें उसने निर्माण एवं वाणिज्य की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह नकार दिया और वेदों के उस बिन्दु पर अपना ध्यान केन्द्रित कर दिया जो वैज्ञानिक शोध संबंधी था।
     [Note- वेद शब्द का जहाँ कहीं भी उपयोग होता है वहाँ आप वेदों की दो धाराओं को एक साथ ध्यान में लायें। एक धारा वेदत्रयी की है जो पूरी तरह शरीर,सन्तति और साम [self harmonious] सम्बन्धी होती है। दूसरी धारा अथर्ववेद की है जिसमें आयुर्वेद की औषधि निर्माण और चिकित्सा पद्धति के साथ-साथ वास्तु निर्माण की सभी धाराएँ आ जाती हैं।
     विक्रमकाल में वास्तु निर्माण की धारा की पूरी तरह अवहेलना की गयी क्योंकि वास्तु[वस्तु ] से प्राप्त सुख सिर्फ भ्रम होता है जो ब्रह्म द्वारा सुख को महसूस करने की संवेदनशीलता और दुःख को बर्दाश्त करने की प्रतिरोधक क्षमता दोनों के स्तर को हानि पहुंचाता है।
     आज चाहे वस्तुओं के उपभोग को ले लें या भेषज द्रव्यों Pharmaceutical substances के भोग को ले लें या भोजन के भोग Enjoyment of food को ले लें या फिर सम-भोग को ले लें सभी तरफ यही देखने में आता है की सभी अतृप्त हैं,किसी में भी तृप्ति का भाव नहीं है सभी में भयानक तृष्णायें और अभाव विद्यमान हैं।
विक्रम का सोचना निःसन्देह उचित था क्योंकि उसका कार्यक्रम भारत की मूल सांस्कृतिक अवधारणा पर केन्द्रित था अतः प्रत्येक दृष्टिकोण से वह उचित था तभी तो उस समय की समाज व्यवस्था में किसी वर्ग में विपन्नता और अभाव नहीं रहा। पृथ्वी एक तरह से स्वर्ग बन गई थी। 
     लेकिन इस तथ्य को जानते हुए भी कि जीवन का मूल लक्ष्य सत-चित्त-आनन्द घन की स्थिति को प्राप्त करना है जिसे एक शब्द में सुख कहा जाता है फिर भी एक भौतिक देह-धारी भौतिक-विज्ञान के विकास के चमत्कारी रूप से आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकता, चाहे वह विकास उसके सुख को नष्ट करे। 
      इसी कारण ब्राह्मण-क्षत्रियों के भारत और यक्षराक्षसों के भारत में रस्साकस्सी चलती रहती है। इसी का परिणाम था कि चन्द्रगुप्त और विष्णुगुप्त चाणक्य का काल गुप्त काल बन कर पुनः वैश्वीकरण काल आ गया।
      अतः इतिहास से सबक लेते हुए हमें अब ऐसा भारत बसाना है जिसमें एक तरफ तो किसान-क्षत्रियों  और अध्यापक ब्राह्मणों का भारत भी अपनी समृद्ध संस्कृति के साथ सुरक्षित रहे तो दूसरी तरफ एक ऐसा वैभवशाली सभ्य भारत हो जो पूरी तरह उदारता के साथ[उदारीकरण के साथ] वैश्वीकरण में अग्रणी राष्ट्र हो।मेरे ख़याल से इस संरचना में किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए अतः भारत की राजनीति को भी दल दल मुक्त करने कराने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

शनिवार, 21 जुलाई 2012

18. विक्रमादित्य काल अर्थात अनुसन्धान काल !



     उसी काल खण्ड में चरक संहिता लिखी गई। संहिता का एक तात्पर्य होता है विश्व कोष। 
आज आयुर्वेद की औषधियों पर उस औषधि के योग के बारे में एक छोटा सा संकेत लिखा होता है कि यह चरक संहिता के किस भाग से लिया गया है।
योग तीन श्रेणी में बँटे होते हैं। प्रथम श्रेणी सांख्य योग जिसका अर्थ है सिद्धान्तों का योग। जैसे धैर्य एवं उत्साह का योग,निर्भयता एवं सावधानी का योग... इत्यादि।
द्वितीय श्रेणी का योग भेषज योग होता है। रसोईघर[यज्ञशाला] में मसालों का योग और औषधियों का योग और ऋतु चक्र में लिये जाने वाले खाद्य पदार्थों का योग इत्यादि। 
     तीसरी श्रेणी को आसन योग कहा जाता है।
प्रथम एवं सर्वोच्च श्रेणी का योग बौद्धिक योग है। द्वितीय एवं मध्यम श्रेणी के महत्व का योग है, भेषण योग जो पाचन तंत्र के लिए है। तीसरे वर्ग का आसन योग या योगासन सिर्फ़ मांसपेशियों के लिए है। 
चरक संहिता भेषण योग का विश्व कोष है। आप किचन में मसालों का उपयोग या प्रयोग करते हैं वे इसी भेषण योग के आधार पर प्रचलित किये गये योग हैं।
      इसी काल खण्ड में शल्य चिकित्सा का विश्वकोष सुश्रुत संहिता लिखी गई। सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा में लिए जाने वाली कैंचियों[सीज़र्स] की आकृतियाँ,चिमटों की आकृतियाँ और चाकुओं की आकृतियाँ शिकारी पक्षियों की चोंचों एवं पंजो से ली गई थी। सिलाई के लिए चींटे के मुख का उपयोग होता था जिसमें जीवणुनाशक रसायन यानी एण्टिसेप्टिक रसायन प्रकृति जनित होते हैं। जहाँ सिलाई करनी होती थी वहाँ चींटे को चेंटा देते थे और उसके पीछे के हिस्से को तोड़ देते थे। शल्य चिकित्सा के स्तर का आप इस तथ्य से भी आँकलन कर सकते हैं कि पहले दिन हताहत हुआ सैनिक दूसरे दिन पुनः युद्ध के मैदान में उतर जाता था।
इसी काल खण्ड में आर्यभट्ट जैसा गणितज्ञ होता है। आपको याद हो या नहीं हो जब मंगल पर पहला यान भेजा गया तो वह दूरी के आंकलन की त्रुटि के कारण मंगल पर उतर नहीं सका था। बाद में आर्यभट्ट की पुस्तक में लिखी दूरी को प्रमाणिक मान कर यान को सेट किया तो वह अभियान सफल रहा।
 इसी काल खण्ड में भृगु संहिता को पुनः प्रकाशित किया गया। इस काल खण्ड में यांत्रिक यज्ञशालाएँ नहीं थी। न ही वैभवशाली अट्टालिकाओं वाले नगर थे। सभी को नष्ट कर दिया गया था या खण्डहर हो गये थे। लेकिन विज्ञान की सभी दिशाओं और सभी विषयों पर उच्चतम स्तर के शोध हुए थे। पूरा भारत वनों से आच्छादित हो गया था। वन भी उन वृक्षों के थे जो रसीले फल देते थे। वनों में ही उच्चस्तर की शैक्षणिक संस्थाएँ थीं। वनों में ही चिकित्सा के शोध केन्द्र थे। वनों में ही बड़े-बड़े आश्रम[आश्रय स्थल] थे जहाँ नर्सरीज थी। ये नर्सरीज बुद्ध महावीर की नसियों की प्रतिलिपियाँ नहीं थी बल्कि प्रजातियों की उच्चस्तर की संकर नस्लें तैयार करने वाली प्रयोगशालाएँ, पौधशालाएँ, पाठशालाएँ और जन्तुआलय थे। 
      आज भारत में वनस्पति और पालतू पशुओं की अथाह प्रजातियाँ, नस्लें, species हैं जो विक्रमादित्य काल की देन है।
बौद्ध एवं जैन भिक्षुक वे वनवासी थे जो अपने पूर्वाग्रहों में बँधे लीक पीट रहे थे। नगरीय सभ्यता और व्यापारिक जीवन शैली को पूरी तरह मिटा दिया गया था। उस काल के लेखन में कहीं भी बौद्ध-जैन वर्ग का वर्णन नहीं आता है। 
      उस समय के बारे में कहा जाता है कि न तो विदेश व्यापार किया गया था। यहाँ तक कि विदेश में जाना और विदेशी पर्यटकों को भारत की सीमा में आना भी वर्जित कर दिया था। लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है।
       सच्चाई यह है कि विक्रम के कालखंड में ईसा यूराल पर्वत के मार्ग से भारत में कश्मीर तक आये थे और जब अशोक वाले भारत से विदेश व्यापार बंद हो गया था तब ईसा ने ही कश्मीर से भेड़ें ले जाकर वहाँ भेड़पालन को अर्थव्यवस्था का आधार बनाने को प्रेरित किया था और पशुपालन संस्कृति को कृष्ण धर्म नाम दिया था, जो उच्चारण दोष के कारण क्रिश्चियन धर्म बन गया।
      उस समय के यूरोप में चमड़े के वस्त्रों के प्रचलन का उल्लेख मिलता है जो इस बात का प्रमाण है कि मांस और चमड़े की आपूर्ति हेतु भारत से वहाँ पशुओं का निर्यात भी होता था
यदि सक्षिप्त शब्दों में कहें तो वह काल खण्ड बौद्धिक वर्ग का काल खण्ड था। कृषि-पशुपालक से उतना ही उत्पादन किया जाता था जितनी आवश्यकता होती थी और 90 % जनता उसी से जुड़ी थी। अतः अपनी खाद्य सुरक्षा के लिए साल-भर का खाद्यान्न इकट्ठा करके बाक़ी के समय में उत्सव त्यौहार मनाते रहते थे। 
एक वाक्य में कहे तो यह मात्र ब्राह्मण-क्षत्रिय[अध्यापक-किसान] समाज व्यवस्था थी जिसमें न तो यक्ष थे और न ही राक्षस और न ही भूत गण। राज्य एवं राजा नामक भी कोई वर्गीकरण नहीं था। एक मात्र जो था वह भारत था। सिर्फ राजा भोज की उज्जयनी नगरी का उल्लेख मिलता है जो ट्रेड सेण्टर नहीं था बल्कि बौद्धिक समागम का क्षेत्र था। उस नगरी के बसने के बाद तो भारत पुनः वाणिज्य संस्कृति में आने लगा था। 
शक एवं हूण कहे जाने वाले दोनों वर्गों में भी सामवेद की ऋचाऐं गाई जाती थीं। उसी कालखण्ड में सामवेद की ऋचाओं से तीन संगीत धारायें निकलीं। 
1. शास्त्रीय संगीत।
2. आरतियाँ-भक्ति संगीत।
3. लोक-संगीत।
     उस काल खण्ड को इतिहास से न सिर्फ़ निकाला गया बल्कि उसकी अप्रतिष्ठा के लिए अनेक यूरोपियन इतिहासकारों ने यह अवश्य लिखा है कि वैदिक ऋचाऐं तो उस समय वनवासी गाया करते थे। 
     यहाँ सोचने की बात है कि जब उन्हें उस समय के अन्य पहलुओं का पता नहीं था तो फिर इस पहलू का पता कैसे लगा।
     जब हमारा जीवन इतना सरल हो जाये कि गायें अपने आप चरकर आ रही हैं, आपको तो सिर्फ़ उन्हें दूहना है। वर्षाकाल में खाद्यान्न उत्पादन के लिए सामूहिक खेती की जा रही हो जिसमें विषेष श्रम नहीं करना पड़े और वह श्रम भी वर्ष के सिर्फ तीन-चार महीनों के लिए ही हो।वनों से मीठे फल और शहद उपलब्ध हो और साथ में हो गाय का दूध तो फिर अन्न की आवश्यकता बहुत कम रह जाती है।
     तब फिर सत्व प्रधान सात्विक बुद्धि वाले समाज के व्यक्ति बोधिसत्व को प्राप्त प्रबुद्ध समाज में सत्य की खोज[वैज्ञानिक अनुसंधान],विश्व-शान्ति और अंतरिक्ष-शान्ति की बात की जाती है और सांसारिक-जीवन में तनाव पैदा करने वाली प्रतिस्पर्धाओं से मुक्त होकर आनन्दमय-जीवन हो जाता है।
      इसके विपरीत जब शरीर में रज बढ़ जाता है और वह सत्व को आवृत्त कर देता है तब वह रजोगुणी समाज पहले तो प्रशासन अपने हाथ में लेकर अनुशासन के नियम गढ़ कर शासक बनता है फिर धन का दुरूपयोग करके दुर्योधन बन जाता और दुखदायी शासन देने वाला दुःशासन बन जाता है।
     विक्रम ने भारत को भुखमरी से मुक्त ऋषियों-मुनियों यानी वैज्ञानिकों-दार्शनिकों यानी Researchers - philosophers का भारत बना दिया था।
      इस काल खंड में शल्यचिकित्सा का विश्वकोश सुश्रुत संहिता लिखी गयी। औषधि व् जड़ी-बूटी चिकित्सा का विश्वकोष चरक संहिता लिखा गया। शून्य का आविष्कार करने वाले गणितज्ञ आर्यभट्ट भी इसी कालखंड की देन हैं। अंतरिक्ष विज्ञान Space Science,ज्योतिष विज्ञान Astrological sciences, नक्षत्र विज्ञान Satellite science ,Star-Planetary Sciences, भूगर्भ विज्ञान Geology इत्यादि अनेक वैज्ञानिक विषयों के अलावा जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य किया गया वह था मानसून को नियंत्रित करने वाले वैदिक यज्ञों पर अनेक अनुसंधान और शोध कार्यों का करना।
    मैं जिस अक्ष सिचाई प्रणाली का बार-बार उल्लेख कर रहा हूँ वह प्रणाली विक्रम के काल का अविष्कार है।

17. पुष्कर झील का निर्माण !



       विक्रम ने पुष्कर झील का निर्माण कराया जो एक सौ वर्ग किलोमीटर तक फैली थी,पानी से लबालब भरी थी। इस झील को तीर्थों का राजा कहा गया था जहाँ सभी पापों से मुक्ति मिलने की बात भी कही गई थी 
       पाप और पुण्य के दो वर्ग होते हैं। एक होता है शरीर सम्बन्धी जो वैदिक परम्परा से है दूसरा बौद्धिक स्तर पर जिसे ब्रह्म-परम्परा के वर्ग में रखा जाता है।
वैदिक धर्म में पाप-पुण्य का सम्बन्ध आहार से होता है। जब हम आहार लेते है तो वह पाचन तंत्र में जाकर पाप और पुण्य में बदल जाता है। पुण्य का शरीर में संग्रह हो जाता है और पाप शरीर से बाहर, उत्सर्जन तंत्र के माध्यम से विरेचित तत्वों के रूप में निकल जाता है। [पाचन तंत्र एवं उत्सर्जन तंत्र मांसपेशी तंत्र के ही भाग होते हैं।]
सत्व को पुण्य कहा गया है जिसका शरीर में संग्रह होता है। रज[रक्त] का संग्रह एक सीमा तक होता है जबकि तम[खनिज] का संग्रह हड्डियों के ढाँचे को मजबूत करता है। लेकिन सत्व का संग्रह वसा के रूप में होता है जो अतिरिक्त हो सकता है और शरीर के स्थाई स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। रक्त का निर्माण व संग्रह प्रोटीन के रूप में होता है। प्रोटीन से ही शरीर के सभी टिश्यु[उत्तक] बने होते हैं। लेकिन शारीरिक कमज़ोरी में महत्वपूर्ण भूमिका धातुओं की कमी यानी मिनरल एवं विटामिन्स की कमी की होती है।
     भारत में और अन्य सभी क्षेत्रों में जहाँ पीने के पानी का सम्पर्क भूमि से होता है वहाँ पानी में मिनरल घुल जाते हैं। ये खनिज[मिनरल] शरीर के पाचन तंत्र में भी अपनी भूमिका निभाते हैं। जैसे कि नमक के बिना भोजन नहीं पचता तो हड्डियों और हड्डियों के बीच की मज्जा में भी धातु लवणों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । 
     इससे भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि पानी और ऑक्सीजन जो कि जीवित रहने के लिए प्रतिक्षण चाहिये उनको हम शुद्ध H2O और शुद्ध O2 के रूप में नहीं ले सकते। 
    आक्सीजन के साथ नाइट्रोजन आवश्यक होती है और पानी के साथ धुलनशील लवण होने आवश्यक होते हैं।
    शुद्ध O2 और शुद्ध H2O शरीर की श्वास नलियों एवं पाचन तंत्र को ऐसी क्षति पहुंचा देते हैं जैसे कि अम्ल। 
     यूरोप में जहाँ सर्दी में मानसून आता है अतः स्नोफ़ॉल होता है और बिना भूमि के सम्पर्क में आया पानी ज़हर होता है अतः वहाँ मिनरल वाटर की परम्परा है यानी वे पानी में मिनरल घोल कर फिर पीने के काम में लेते हैं।
     पुष्कर झील का निर्माण कुछ इस तरह से किया गया कि चारों तरफ की पहाड़ियाँ पर पकी हुई मिट्टी [ईंटें] डाली गईं और वहाँ अनेक प्रकार की वनस्पतियाँ[वृक्ष,झाड़ियाँ एवं पशु चारा] उगाया गया। साथ ही पहाड़ियों के ऊपर चारागाह बनाया गया जो गौचर भूमि थी।
    पुष्कर की पहाड़ियों पर जब वर्षा आती है तो वर्षा का पानी फिसल कर तुरन्त नीचे नहीं आता क्योंकि पकी हुई मिट्टी उस पानी को सोख लेती है। वह पानी पहाड़ियों के गर्भ में जाकर फिर रिसता हुआ झील में आता है। इस प्रकार पहाड़ियों पर गोबर और गौमूत्र में पाये जाने वाले लवण[मिनरल] और पकी हुई मिट्टी के मिनरल पानी में धुल जाते हैं और वह पानी जब पीया जाता था तो शरीर में धातुओं की कमी दूर होती थी और तीर्थ यात्री कुछ दिनों के प्रवास से वहाँ सभी शारीरिक व्याधियों यानी पापों से मुक्त हो जाता था। 
  पौष्टिक आहार के लिए वहाँ यज्ञशालाएँ चलती थीं और प्राकृतिक आवास से शुद्ध वायु मिलती थी इसलिए इसे पुष्करराज या तीर्थराज कहा जाता था। 
विक्रम संवत के चार सौ वर्ष तक के काल में अनेक विषयों की विभूतियाँ विकसित हुईं। उनमें एक विभूति का नाम कालीदास था। 
  कालीदास की ‘‘मेघदूत‘‘ का नायक एक यक्ष होता है जो अपने मालिक के किसी अनुबन्ध में बँधकर दक्षिण भारत में प्रवास करता है और उसकी प्रेयसी हिमालय पर रहती है।
  नायक दक्षिण भारत के समुद्र से उठने वाले मेघ[बादल] के माध्यम से अपनी प्रेयसी को प्रेम सन्देश भेजता है। तब वह मेघ को पूरे मार्ग के बारे में बताते हुए पुष्कर झील के बारे में भी बताता है और कहता है; जब तुम अधिकांश मार्ग पार करके बरसते-बरसते रीत जाओ तो तुम्हें अरावली के पास एक बहुत बड़ी झील मिलेगी जिसका नाम पुष्कर है। तुम वहाँ पर झुककर उसे प्रणाम करना और वहाँ से वापस भर जाना और गन्तव्य की तरफ बढ़ जाना। लेकिन वहाँ रहने वाले जोड़ों को भयभीत मत करना। मेघदूत में उज्जयनी नगरी के वैभव का भी रोचक वर्णन है।

16. हूण बनाम जाट क्षत्रिय !



        इस तरह एक तरफ़ तो पूर्वकाल की सभी औद्योगिक इकाइयाँ बन्द हो गईं क्योंकि विदेश व्यापार बन्द हो गया था, बौद्ध-जैन व्यापारी लूट लिए गये थे। तब औद्योगिक श्रमिकों में बेरोज़गारी भी फैल रही थी।                    
      दूसरी तरफ़ सभी काम खुद करने वाली जाति के रूप में हूणों ने अपनी पहचान बनाई और भारत में अनेक जातियों में बँटे लोग भी मजबूरन कृषि-पशुपालन कार्य में आने लगे। जाति का उच्चारण जात भी होता है। अतः पहले तो ‘‘एक ही जात‘‘ नाम से पहचान बनी फिर सिर्फ 'जात' नाम से पहचान बनी। चूँकि हूण जहाँ से आये थे वहाँ का उच्चारण होता है अतः ये 'जाट' कहलाये। भारत की करीब-करीब सभी किसान जातियाँ जाटों में से ही निकली हुई हैं। पंजाब के सिक्खजट्ट, राजस्थान के बिश्नोई, गुजरात के पटेल, महाराष्ट्र के पाटिल, पीटल तथा सीरवी और बिहार के कुड़मी ये सभी जाटों से निकले हुए हैं। 
     भारत में कुछ जातियाँ सिर्फ पशुपालन पर निर्भर हैं। जब हूण से जात बने जाटों ने पशुपालन भी शुरू कर दिया तो उन जातियों पर आर्थिक संकट आया तब उन्होंने जाटों से संघर्ष किया। अन्ततः एक समझौता हुआ और वनो में विचरण करते हुए पशुओं को पालने वाली जातियों के लिए वन क्षेत्र सुरक्षित किया और उन्होंने अपनी अलग सत्ता बनाई। इनमें अधिकांश वे लोग थे जो पहले से या तो व्यापार करते थे या फिर औद्योगिक श्रमिक थे। ये लोग शक कहलाये, जिन्होंने अपनी राष्ट्रीय शक संवत अलग से चलाई। इस जाति में आने वाले बिणजारे, बणजारे भी कहे जाते हैं। इनमें भेड़-पालकों, ऊँट पालकों के साथ गोपालक भी होते हैं। इन्हें रायका, रेबारी, मीणा, वनबावरी इत्यादि भी कहा जाता है। इनमें बहुसंख्यक वर्ग गुर्जर कहलाता है। यादव भी इसी में आते हैं। वर्तमान के यादव कृष्ण-बलराम काल के नहीं हैं। इनका उदय भी उसी काल खण्ड में एक जाति विशेष के रूप में हुआ था। इन्होंने मध्य भारत के दक्षिण-पूर्व में अपना साम्राज्य भी स्थापित किया था।
     जिस विक्रमादित्य के नाम से विक्रम संवत चलती है, उसने बौद्ध-जैन व्यापारियों के क़र्ज़ से सभी को मुक्त कराया था।
     जिस विक्रमादित्य के पराक्रम की कथाऐं चलती है उस विक्रमादित्य को इतिहास से इसलिए निकाल दिया क्योंकि उसने जो किया वह उन यक्षों[यहूदियों] के विरूद्ध था जो वित्तीय ऋण से बंधक बनाने वाली सत्ता के संचालक थे,हैं और रहेंगे। सुधरेंगे नहीं,ईमान नहीं ला पायेंगे।
     विक्रमादित्य सनातन धर्म के समर्थन में था तथा औद्योगिकीकरण के विरूद्ध था। अतः वह उस यूरोपियन एवं यहूदी समाज के आचरण के विरूद्ध आचरण था जो सोलहवी से अट्ठारहवीं शताब्दी में अपने तरीक़े से भारत का इतिहास लिखवा रहे थे। 
विक्रमादित्य के चलाये क्रान्तिकारी आन्दोलन के काल में निम्नलिखित कार्य हुए थे...
     पूरे भारत से उन यांत्रिक उपकरणों एवं फाउण्डरियों को पूरी तरह काल कलवित कर दिया गया जो चाणक्य ने स्थापित की थी और अशोक के समय फली-फूलीं और उनके विकास से बड़े-बड़े वित्तेश तो पैदा हुए लेकिन शैक्षणिक एवं राजनैतिक दृष्टि से भारत संज्ञा शून्य हो गया था। विक्रमादित्य ने उस भारत को महान भारत बनाया था।

15. विक्रमादित्य काल !

     अशोक की हिंसा-अहिंसा की परिभाषा और शहरीकरण औद्योगीकरण से भारत एक तरफ़ तो धनाड्य वर्ग का ईश्वर-भोगी भारत बन गया था तो दूसरी तरफ़ ग़रीबी की सीमा रेखा के नीचे वाला भारत था।     
        तब फिर भगवान् की मनुष्य योनी ने विक्रमादित्य नाम के सम्राट के रूप में अपने आप का सृजन किया। वर्त्तमान की पाठ्य पुस्तकों में भी एवं इतिहास की अन्य पुस्तकों में भी कहीं भी विक्रमादित्य का नाम नहीं आता है जबकि उसके नाम से विक्रम संवत चलता है। 
        नया संवत चलाने के लिए तीनों में से कोई एक आधार होना चाहिये।
1. कोई धार्मिक नेता जिसे भगवान कहा जाने लगे उसके उदय के काल के किसी दिन से। जैसे कि कृष्ण संवत, जैन-बौद्ध संवत, ईस्वी सन्, हिजरी संवत इत्यादि। [जो चन्द्रमा की गति से नापे जाने वाले कालखण्ड से चलते हैं,वे संवत् कहलाते हैं और जो सूर्य की गति से नापे जाते हैं वे सन् कहलाते हैं।]
2. कोई राजनैतिक क्रान्ति हो और उसके माध्यम से कोई स्वतन्त्रता जैसी घटना घटे तो उस घटना के दिनों के किसी दिन से नया संवत चलाया जा सकता है। जैसेकि 1947 की घटना को आधार बनाया जा सकता है। 
3. कोई ऐसी आर्थिक क्रान्ति हो कि कोई सम्राट अपने शासनकाल में सभी प्रकार के कर्ज़ से अपनी जनता को मुक्त कर दे तो वह अपने नाम से संवत चला सकता है। विक्रम संवत चलाने का अधिकार इसी बिन्दु पर विक्रमादित्य को मिला था।
विक्रमादित्य का उदय:-
चन्द्रगुप्त भी क्षत्रिय किसान वर्ग से था जिसे चाणक्य ने योद्धा बनाया था। विक्रमादित्य भी क्षत्रिय कृषक वर्ग से था जो एक मिट्टी के टीले पर अपने साथियों के साथ खेला करता था। किसी एक विशेष स्थान पर जब वह बैठता था तो उसमें नेतृत्व के भाव पैदा हो जाते उन भावों को उसके साथी भी महसूस करते थे। एक दिन उन्होंने उस टीले की खुदाई की तो उन्हें वहाँ एक स्वर्ण सिंहासन मिला और उसके नीचे सुरक्षित पुस्तकालय मिला। ये वे शास्त्र थे जो वैदिक एवं ब्राह्मण परम्परा के मूलाधार थे। साथ ही साथ स्वर्ण भण्डार भी था। विक्रमादित्य जब कौतुहलवश उस सिंहासन पर नियमित बैठने लगा तो स्वप्रेरित होकर उन किसानों का नेतृत्व करने लगा। विक्रमादित्य को वहाँ अस्त्र-शस्त्र भी मिले और वह स्वप्रेरणा से ही उनको चलाने का अभ्यास भी करने कराने लगा। 
       जब विक्रमादित्य का उदय हुआ तब उसकी तलवार का सामना करने वाला बौद्धों-जैनों के भारत में कोई नहीं बचा था अतः बिना लूटे ही व्यापारियों की सम्पति उसके पास ही या उसके कब्जे में ही मानी जाये लेकिन वनों के विस्तार और कृषि कार्य के लिए उसको श्रमिक जन सहयोग नहीं मिला। 
       तब वह सुदूर यरूशलम तक गया और वहाँ के यक्षों से बंधुआ श्रमिकों को मुक्त कराया और भारत लेकर आया। उन्होंने फिर यहाँ कृषि एवं पशुपालन को एक साथ करके जो एक संस्कृति विकसित की वह जाट-ब्राह्मण संस्कृति कहलाई। 
      विक्रमादित्य तलवार और सोने के सिक्कों की थैलियाँ दोनों लेकर उसी क्षेत्र में गया जो क्षेत्र कभी औद्योगिक क्षेत्र था और अब पुनः औद्योगिक क्षेत्र के रूप में विकसित हो गया था। वहाँ मछलियाँ एवं अन्य समुद्री जीवों को पकड़ने का काम भी ज़ोरों पर था अतः वहाँ एक बहुत बड़ा श्रमिक वर्ग था जिसे यहूदियों ने अनुबन्ध के माध्यम से बंधुआ मजदूर बना कर रखा हुआ था। विक्रमादित्य ने तलवार तथा थैली दिखाकर दोनों विकल्पो में से कोई चुनने का विकल्प दिखा कर वहाँ के श्रमिकों को मुक्त कराया। 
      उस घटना में विक्रमादित्य का नाम नहीं आता और न ही बंधुआ श्रमिकों का नाम आता है लेकिन उस घटना का वर्णन इतिहास में जो आता है वह इस प्रकार है...
      पश्चिम एशिया से टिड्डी दल की तरह हूण निकले और आक्रमणकारी दलों के रूप में चारों तरफ फैलने लगे। भारत में भी आये और यूरोप की तरफ भी गये। हुणों ने भारत पर आक्रमण किया और तीन सौ से अधिक वर्ष तक भारत में संघर्ष चलता रहा तब तक कोई भी विदेशी भारत में नहीं आया अतः वह काल खण्ड भारतीय इतिहास का अज्ञात काल है।
      इस तरह से विक्रमादित्य के काल को अज्ञात काल कहा गया अर्थात् इतिहास से विक्रमादित्य को निकाल बाहर किया गया। अब यहाँ प्रश्न पैदा होता है कि क्या कोई आक्रमणकारी जाति किसी एक स्थान पर इतनी संख्या में इकट्ठा रहेगी कि टिड्डी दल की तरह चारों तरफ एक साथ फैलेगी! यह स्थिति तो तभी सम्भव होती है जब कोई वर्ग जेल में से मुक्त हो। 
     विक्रमादित्य ने हूणों को भारत में स्थापित किया और एक ऐसी कृषि-संस्कृति का विकास किया जो कृषि एवं गौपालन एक साथ करते थे। भेड़,बकरी, ऊँट तथा भैंस पालतू पशु नहीं हैं। मूलतः ये जंगली पशु  हैं। हूणों ने इन्हें भी पालतू बनाया। जंगल नष्ट होने से ये पशु भी लुप्त हो रहे थे । इसके साथ-साथ हूण चुंकि औद्योगिक श्रमिक तो थे ही अतः वे अपने लिए कपड़ा, फ़र्नीचर, मकान, वाहन इत्यादि भी ख़ुद ही बनाने लग गये। 
     आज भी भारत के ग्रामीण अंचलों में रहने वाले लोग इन कार्यों में इतने दक्ष हैं कि वनों में उपजने वाली सामग्री से आवास और आवश्यक फर्नीचर बना लेते हैं।