vivarn

Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.



कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।

Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made ​​by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

रविवार, 29 जुलाई 2012

39. ब्रह्मविद्या का उपयोग करके ही छठी शताब्दी में एक सनातन समाज व्यवस्था बनाई

      गुप्तों के शासन का पतन जिस कारण हुआ था उसकी तुलना आज की स्थिति से की जा सकती है। जैसे कि एक तरफ विश्व  के सभी राष्ट्र भयानक ऋण में डूबे हैं और जिनके हाथ में अर्थ[धन-धान्य] पैदा करने की सत्ता हैं वे गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं।
     दूसरी तरफ आप युवा वर्ग अच्छी वित्तीय स्थिति[अच्छे वेतनमान] को प्राप्त करने के लिए उन व्यापारिक घरानों-प्रतिष्ठानों के नौकर बनकर उनके लिए दिन रात मेहनत करके उन्हें राष्ट्रों को खरीदने की क्षमता रखने वाले वित्तेश बनाने को आतुर हो रहे हैं। ये वित्तेश अपने भवनों को राष्ट्रपति भवन जैसा बनाने में सक्षम हो रहे हैं। ऐसा क्यों है और इससे पूर्व भी ऐसा बार-बार क्यों होता आया है ?
क्योंकि देव, रक्षस, यक्ष इन तीन वैदिक सत्ताओं के पीछे जो तीन स्वभावों की सत्ताऐं हैं उसके ऊपर एक सत्ता है जिसे आत्म-भाव यानी आत्म-अनुशासन की सत्ता कहा जाता है इसे ब्राह्मण-धर्म की सत्ता कहा जाता है। वह सत्तावर्ग आज हाशिये पर आ गया है। ब्राह्मण[अध्यायक] को शूद्र[नौकर,तनख्वाह लेने वाला तनखैया,वेतन लेने वाला वृत्तिधारी,प्रशासन का गुलाम] बना दिया है,ऐसी स्थिति में योग्य[योगी]तो ब्राह्मण बनना भी नहीं चाहेगा।
प्रत्येक वर्गीकृत सत्ता की तरह ब्राह्मण सत्ता में भी दो वर्ग तो होते ही है, एक शासक दूसरा शासित(जन साधारण प्राकृतिक उत्पादक)। 
जब तीनों वैदिक सत्ताओं के स्वभाव में विकार आ जाता है तो प्रथम स्तर पर वे अपने द्वारा शासित वर्ग के शोषक बन जाते है तत्पश्चात् वे अन्य दोनों वर्गों को भी शासित करना शुरू कर देते हैं और उनके भी शोषक बन जाते हैं। क्योंकि इन सभी प्रकार के वर्गो के मनोविज्ञान में मूल मनोविकार एक ही होता है और वह है असन्तुष्टि। उस असन्तुष्टि के कारण पैदा होता है राग एवं द्वैष नामक अभाव। अभाव के कारण तृष्णा बनी रहती है.
जबकि यदि शासक वर्ग शिक्षित ब्राह्मण अध्यापक है और आत्म-अनुशासन में आत्म-भाव में, आत्म-विश्वास में रहता है और अपनी प्रकृति, प्रवृति, स्वभाव, अध्यात्म, नेचर, आदत, फ़ितरत को अपने वश  में करने का मानसिक सामर्थ रखता है तत्पश्चात् जो शासित वर्ग है उसको अपने-अपने स्वभाव के स्वाभाविक स्तर अर्थात् अपने-अपने आध्यात्मिक स्तर का, अपनी रूचि एवं क्षमता के अनुरूप काम (Job) मिल जाता है तो उसे कार्य सन्तुष्टि Job satisfaction रहती है तब उस व्यवस्था को ब्राह्मण धर्म आधारित व्यवस्था कहा जाता है। वह सनातन बनी रहती है। 
       लेकिन यह संभव तभी हो पाता है जब शासित होने के पीछें आर्थिक मजबूरी नहीं हों। सभी को प्रकृति प्रदत अर्थशास्त्र का ज्ञान हो।
इस ब्रह्मविद्या का उपयोग करके ही छठी शताब्दी में एक सनातन समाज व्यवस्था बनाई थी। लेकिन सोलहवी शताब्दी में इस व्यवस्था पर चारों तरफ से आघात हुए लेकिन इसको जड़ से उखाड़ कर फेंका इस संस्कृति की अपनी ही सन्तानो ने । 
छठी शताब्दी से पूर्व तक और बुद्ध-महावीर से पूर्व, कृष्ण-बलराम से पूर्व कष्यप ऋषि से पूर्व यहाँ तक कि आदि पुरूष शंकर से भी पूर्व की परम्परा है ब्राह्मण परम्परा। 
श्रीमद्भगवद् गीता सहित सभी वर्गों के धार्मिक ऐहित्य (पौराणिक  साहित्य) में उल्लेख आता है कि सभी पुरूष प्रधान सभ्यता संस्कृतियों के आदि के संस्कारित पुरूष सप्त-ब्रह्मण कहे गये हैं। वैदिक साहित्य में उन्हें सप्त-ऋषि कहा गया । 
एक इस बिन्दु पर भी ग़ौर करें कि शंकर को इस पृथ्वी का पहला नर पुरूष बताया गया है और प्रजापति कष्यप को भी कल्प का आदि पुरूष बताया गया है लेकिन शक्ति पार्वती को भी और कष्यप की पत्नियों को भी दक्ष प्रजापति की कन्याऐं बताया गया है । 
इस विषय के सभी पहलुओं को स्पष्ट करने के लिए अलग से लेखन होगा लेकिन यहाँ इतना ही समझना पर्याप्त है कि ब्राह्मण-सत्ता की परम्परा शरीर की वंश (Hereditary,Genetic) परम्परा नहीं है जो शुक्राणुओं के गुणसूत्रों के सहारे चलती है बल्कि यह तो वह परम्परा है जो सुर्य के चुम्बकीय क्षेत्र से जुड़ी है। 
प्रकृति और पुरूष अर्थात् गुरूत्वाकर्षण बल और पदार्थ (ईथर) अजर-अमर है। इसी को गीता में देही और शरीर कहा गया है जो कि न मरता है न पैदा होता है। न जलाया जा सकता है इत्यादि - इत्यादि । लेकिन ब्रह्मा की आयु होती है जो कि हज़ारों युगों की होती है । 
ब्रह्मा के दिन के समय पृथ्वी पर जीव-जगत व्यक्त होता है और रात्रि के समय अव्यक्त में चला जाता है । यह गीता सहित अनेक उपनिषदों में कहा गया  है । 
इसका तात्पर्य है जब सूर्य में हाइड्रोजन के आणविक विस्फोट से उर्जा बनती है तो वह ब्रह्मा के दिन का काल-खण्ड होता है। सभी वनस्पति जीव सूर्य की ऊर्जा से चेतना ग्रहण करते हैं और वैदिक परम्परा का, बोडी की परम्परा का निर्वाह होता है जिसके मूल सिद्धान्त दो है -
     (1) जीव ही जीवन का भोजन है ।
     (2) जीव से जीव की उत्पति होती है । 
तात्पर्य यह कि जैविक-विकास तो सूर्य (ब्रह्मा) के प्रकाशित होने के बाद होता है जबकि सूर्य जब ठण्डा गोला होता है और पृथ्वी बर्फ का गोला होती है, तब भी सूर्य का चुम्बकीय क्षेत्र या चुम्बकीय बल रेखायें बनी रहती है। 
वैदिक-ज्ञान यानी विज्ञान का ज्ञान तो तब शुरू होता है जब मानव देह का विकास हो चुका होता है,वह शारीरिक,मानसिक रूप से कमजोर हो चूका होता है तब उसे वैदिकज्ञान [विज्ञान] की आवश्यकता होती है और जब नस्ल कमजोर हो जाती है तो वह आत्म-अनुशासित भी नहीं रह सकती तब उसे वैदिक-प्रशासन प्रणाली की आवश्यकता होती है।   
   जबकि ब्रह्म (चेतना) की परम्परा तो तभी पुनः शुरू हो जाती है जब ब्रह्मा के दिन के समय के प्रारम्भ में पृथ्वी पर पुनः रासायनिक योगिक (मोलिक्यूल) का रूप लेती है और एमीनो एसिड (प्रोटीन) के मुदगलों में जीव (चेतना) का विकास होने लगता है । 
बीच में इस विषय को लाने का अभिप्राय यह है कि ब्रह्म परम्परा को लेकर कोई अतिशियोक्ति या अतिवादी विचार न माने बल्कि यथार्थ धरातल पर सोचे कि पृथ्वी के नष्ट होने या 2020 तक सभी कुछ नष्ट होने इत्यादि की प्राकृतिक दुर्घटना से डरने के स्थान पर यह सोचे कि हम अगर अव्यय जीवआत्मा बन कर ब्रह्म के चुम्बकीय क्षेत्र में अपने भाव से भावित रह कर अमर हो जाते हैं तो हम काल से अतीत हो जाते हैं।  लेकिन अभी हमें यह सोचना है कि हम जिस विकास की तरफ जा रहे हैं वह हमारा वर्तमान का जीवन ही नरक बना रहा है, उस  स्थिति में आगामी जीवन की कोन सोचेगा। हमें इस यथार्थ को समझना है कि जो काम हमारे बलबूते का है, उसे हम कैसे कर सकते हैं और हमने खुद ने आपस में राग-द्वेष पालकर राग-द्वैष जनित प्रतिस्पर्धा को जीवन की सच्चाई मान ली है उससे मुक्त होकर हम वर्तमान में क्या कर सकते हैं! एक सुन्दर भविष्य कैसे बना सकते हैं! 
अतः यहाँ मैं उस ब्रह्म परम्परा की बात कर रहा हूँ जो न तो साक्षरता से सम्बन्ध रखती है और न ही सभ्यता से और न ही प्राकृत स्थिति से उसमे रूकावट आती है। 
ब्रह्म-परम्परा तो वह स्मृति परम्परा है जो संस्कार बन कर जन्म-जन्मान्तर के लिए साथ चलती है और आगामी जीवन में पुनः उन्हीं भावों-अभावों को विकसित करती है। अब यह निर्णय आपका है कि आप भाव में भावित रह कर यह कलेवर (देह का ढ़ाचा) छोड़ कर जाना चाहते हैं या अभाव ग्रस्त होकर। 
जब तक अभावों से मुक्त नहीं होंते, भाव में भावित नहीं हो सकते, अतः इस लेखन को समझने के लिए इसमें उपयोग में लिए जा रहे, वैज्ञानिक-शब्दों को विज्ञान एवं दर्शन के शब्दकोष के रूप में समझें। इनके प्रति पूर्वाग्रहों को समाप्त करने के लिए ही मैं ब्रह्म,वेद शब्दों का बार-बार उपयोग कर रहा हूँ। फिर यह तथ्य भी है कि जहाँ विज्ञान के शब्द हैं वहाँ उनके स्थान पर कथा साहित्य के शब्दों का उपयोग करना सम्भव भी नहीं है। अतः ब्रह्म, ब्रह्मणी स्थिति, ब्रह्मण परम्परा, ब्राह्मण-धर्म शब्दों को उसी परिप्रेक्ष में समझने की चेष्टा करे जिस परिप्रेक्ष में, जिस प्रसंग में, जिस तात्पर्य से इनका उपयोग किया जा रहा है। क्योंकि मजबूरी यह है कि इन संस्कृत शब्दों के भावार्थ तो सभी भाषा में मिल सकते है लेकिन इसके शब्दार्थ और तत्वार्थ समझे बिना भावार्थ से भ्रामक धारणाये विकसित हो गई हैं। उन्हीं भ्रामक धारणाओं के कारण आपके मन में इन शब्दों के प्रति पूर्वाग्रह बन गये हैं जैसे कि ये ब्रह्मणवाद या साम्प्रदायिकता फैलाने वाले शब्द हैं। जबकि आप युवा पीढी को तो इन शब्दों के मूल अर्थो को जानना चाहिये । 
आप कल्पना करें कि वर्तमान का सभी प्रकार का विकास समाप्त हो जाये तब भी मानव जाति समूल नष्ट तो हो नहीं सकती। बची हुई जनसंख्या में कुछ शिक्षित लोग भी बचेंगे। उनमें इतनी समझ तो होगी ही होगी कि वो बचे हुए वर्ग को आदिम स्थिति में नहीं जाने देंगे। उनका बौद्धिक नेतृत्व करेंगे और स्वयं पीछे की घटनाओं और भविष्य की सम्भावनाओं पर चिन्तन करेंगे। यहीं से ब्राह्मण-परम्परा शुरू हो जाती है क्योंकि वह व्यक्ति ब्रह्म में रमण करने वाला दार्शनिक बन कर जब विज्ञान के इस विकास के सकारात्मक-नकारात्मक पक्ष पर चिन्तन करेगा यहीं से ब्राह्मण परम्परा शुरू हो जाती हैं। इस घटना क्रम में यह महत्वहीन हो जाता है कि वह किस जातीय सम्प्रदाय का था । 
जितने भी वैज्ञानिक आविष्कार और अनुसंधान हुए हैं, उनके जनक दार्शनिक रहे हैं। जिस वैज्ञानिक शोधकर्ता में दार्शनिक चरित्र जितना अधिक होता है वह उस शोध की निर्णायक स्थिति तक उतना ही जल्दी पहुँचता है । 
यह मनीषी परम्परा सिर्फ शुक्राणुओं, गुण-सूत्रों पर नहीं चलती अतः सभी-कुछ नष्ट होने पर भी पुनः जीवित हो उठती है लेकिन इसके विकास के हेतु संस्कार हैं। संस्कार के हेतु माता-पिता होते हैं अतः यह एक पितृकुल और दो गुरूकुल तीनों कुलों के सति होने से अर्थात् तीनों कुलों के माध्यमों को सेतु बना कर अपने आप में विकसित होती है। अर्थात् जिसे माता-पिता और परिजनों से बना परिवेस ब्रह्म में रमण करने वाला मिलता है, वह ब्राह्मण कहलाने वाली मानसिक प्रजाति का बन जाता है। इसके लिए उसे आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक इत्यादि सेतुओं की आवष्यकता नहीं होती अतः सभ्यता-संस्कृतियों के पतन और उत्थान से अविचलित यह परम्परा भारत में सदा बनी रहती है। 
भारत में इसलिए कि भारत वर्ष ही इस पृथ्वी का जैवविविधता वाला एक मात्र स्थान बचा हुआ है जहाँ सभी प्रकार के पौष्टिक आहार वर्षा के वार्षिक चक्र से स्वतः प्रक्रिया से उत्पादित होते रहते हैं । विश्व  के अन्य किसी भी भाग में इतनी अधिक वनस्पतियाँ एवं प्राणियों की प्रजातियाँ नहीं है और इस नस्ल की गायें भी नहीं है जो वनों में चरकर स्वतः अपने खूंटे पर पहूँच जाती हों । 
छठी शताब्दी में जब राजपूतों की उत्पत्ति हुई थी तो उनके शारीरिक बल को और मांसपेसियों की लचक को विशिष्ट बनाने के लिए वैदिक यज्ञों को माध्यम बनाया और उनके गुण सुत्रों (जीन्स) में एक विषेष कोड  विकसित कर दिया था लेकिन साथ ही साथ उनमें संस्कार भी विकसित किये थे और वे संस्कार थे गाय, ब्राह्मण एवं स्त्री की रक्षा करना। 
गुप्त शासकों के पतन के समय भी यह ब्राह्मण जाति दूरदराज़ के गांवों में, एकान्त में व्यापारिक, राजनैतिक, प्रतिस्पर्धाओं से मुक्त, दृढ़ता से जमी हुई थी। आज भी है, भविष्य में भी बनी रहेगी। यही ब्राह्मण जाति भारत में ज्ञान-विज्ञान को समूल नष्ट नहीं होने देती । 
छठी शताब्दि में जो क्रान्ति हुई उसमें सम्पूर्ण भारत वर्ष को ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के माध्यम से एक सूत्र में बाँध दिया गया था। जबकि राजाओं की सत्ता अपने छोटे-छोटे राज्यों तक सीमित थी और वे कृषि उत्पादक क्षत्रिय वर्ग की सुरक्षा के साथ-साथ ब्राह्मण सत्ता  को स्थापित करने और संरक्षण करने में भी मुख्य भूमिका में थे। 

38.वित्त की रचना प्रकृति ने नहीं की है यह मानवीय धूर्त बुद्धि की खोज है !

      जब संसद में सभी सांसद बैठते है तो वहाँ हम का भाव होना चाहिये कि हमें मिल-जुलकर एक-एक निर्णय पर इस तरीके से विचार-विमर्श करना चाहिये कि उस बिल में ऐसा कोई नकारात्मक पक्ष न रहे जो लाभ से अधिक हानि कर दे| वहाँ तो सभी अपने अपने अहम् में आ जाते हैं और अपने विचार को, अपने प्रश्न को अपनी शंका को इस तरह आवेशित होकर व्यक्त करते है जैसे कि यह एक बिन्दु समस्या का सम्पूर्ण पक्ष है और प्रश्न का उत्तर देने वाला या अपने बिल का समर्थन करने वाला इस तरीके से उत्तर देता है कि उसका अहम् भाव उस प्रश्न और प्रश्नकर्ता को महत्वहीन बना देता है। लेकिन उसी सांसद या मन्त्री को जब 'हम' के विपरीत 'अहम्' भाव में आकर स्वविवेक से सोचने की स्थिति में होना चाहिये कि मुझे जनता ने अपना प्रतिनिधि चुना है अतः मैं अपने बलबूते पर क्षेत्र और राष्ट्र की जनता के लिए क्या कर सकता हूँ; तब वह अपनी पार्टी, अपने कार्यकर्ता अपने अनुयाई अपने हाईकमान तथा अपने परिजनों को ख़ुश रखने की तिकड़म के बारे में सोचने लग जाता है।
सच्चाई तो यह है कि जिसमें सच्चा अहम् भाव होता है और अहम के ऊपर सिर्फ परम को मानता है किसी अन्य व्यक्ति को नहीं, वही परम के यथार्थ(यथा-अर्थ) को समझ कर परमार्थ भाव से सर्व-कल्याणकारी व्यवस्था कर सकता है। 
यहाँ अहम शब्द का तात्पर्य आत्म से होता है तो परम का तात्पर्य परम्-आत्म[परमात्मा] से हो जायेगा और अहम् का तात्पर्य स्वयं से होता है तो परम् का तात्पर्य प्रत्येक से या सर्व से हो जाता है। जो अहम् का सच्चा भाव रखने वाला ब्रह्मणि स्थिति में रहता है, वही व्यक्ति वैदिक-धर्म में आने पर जगत की प्रत्येक रचना और समाज के प्रत्येक व्यक्ति के हित के बारे में सोचता है और सार्वजनिक जीवन में हम का भाव रख सकता है। स्वार्थ से परमार्थ पर आ जाता है।
ब्रह्मपुत्र घाटी क्षेत्र को आप असम कहते हैं जबकि इसका मूल नाम अहम है और भाषा अहमिया भाषा कही जाती है। आप जब सामूहिक बन्द का आयोजन करते हैं तो कितना कुछ करते हैं, फिर भी पूर्ण बन्द नहीं रख पाते जबकि असम में जब बन्द का आह्वान होता है तो वह जनता कर्फ्यू बन जाता है क्योंकि अहम् भाव वाला आत्म-अनुशासित होता है अतः बन्द के आह्वान मात्र से सभी अपने आप ही बन्द को अनुशासित तरीक़े से अन्जाम देते हैं। यह एक उदाहरण है, जिससे आप मेरी बात को अतिवादी नहीं समझें कि ब्रह्म-परम्परा कोई यथार्थ से दूर भ्रामक या विभ्रम की अवधारणा हैं।
सच्चाई तो यह है कि बालक जब अबोध होता है तब उसमें वे सभी गुण होते हैं जो एक आत्म-संयम योग पर योगरूढ़ योगी में होते हैं लेकिन ज्यों-ज्यों वह बुद्धिमान होता है, उसमें भ्रामक अवधारणाएँ पनपने लग जाती हैं, इसे संग दोष कहा जाता है।
वर्तमान में हम जिस भ्रष्टाचार की बातें करते हैं, वह संग-दोष का ही परिणाम है। यदि हम यह चाहते हैं कि भारत एक भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र बने तो इसका एक मात्र रास्ता है एक ऐसा वर्गीकृत ढ़ाँचा बनाया जाये जहाँ एक वर्ग, अपने वर्ग की जीवन-शैली सिद्धान्तों एवं मान्यता को सभी वर्गों पर समान रूप से थोपने की कोशिश न करे।
जो आचरण एक वर्ग के लिए मान्य होता है, वही आचरण दूसरे वर्ग के लिए अमान्य हो सकता है, अतः वह भ्रष्ट-आचरण कहलाता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आचरण के अनेक पहलू होते हैं जबकि आप सिर्फ वित्तीय घोटालों को ही भ्रष्टाचार कहते हैं। वित्त की रचना प्रकृति ने नहीं की है यह मानवीय धूर्त बुद्धि की खोज है अतः जहाँ वित्त का प्रचलन होगा वहाँ हेराफेरी होगी ही। वित्त को अर्थ[धन-धान्य] पर हावी करने से आज भारत एक शर्मनाक स्थिति में पहुँच गया है जबकि दूसरी तरफ भारत इतनी तरह की संस्कृतियों और भौगोलिक भागों में बंटा रहने के बाद भी, इतना वित्तीय भ्रष्टाचार होने के बाद भी राजनीति में और संसद में इतने अधिक आपराधिक प्रवृति के लोग होने के बाद भी आश्चर्यजनक रूप से प्रजातान्त्रिक राष्ट्र बना हुआ है।
        क्यों!क्योंकि भारत की मूल संस्कृति ब्राह्मण संस्कृति है अर्थात् आत्म-संयम की संस्कृति है अतः कुछ मूर्ख अनुयाइयों के सिवा कोई भी भारतीय वर्ग-संघर्ष की सीमा तक नहीं जाता है।
वैदिक संस्कृति के आदर्श पुरूष राम ब्राह्मण संस्कृति से जुड़े होने के कारण ही सनातन धर्म की रक्षा करते हैं, जबकि रावण ब्राह्मण होते हुए भी वैदिक-सभ्यता संस्कृति के आसुरी पक्ष का विस्तार करता है और सनातन धर्म को नष्ट करता है क्योंकि वह ऋषि की सन्तान होने से ब्राह्मण कहलाया जबकि ब्राह्मण का तात्पर्य आचरण से होता है, आत्म-संयम से होता है, विषमता को सम में बदलने की प्रतिभा से होता है।रज और तम सत्व को आवृत्त कर देते हैं अतः व्यक्ति ब्राह्मणत्व से गिर जाता है।
    भारत की सांस्कृतिक जीवन शैली के पतन का एक मात्र कारण रहा है कि ब्राह्मण की पहचान आचरण से नहीं होकर वंशानुगत जाति के रूप से होने लगी। यह ठीक ऐसा ही है जैसे कि एक अध्यापक के निरक्षर चरित्रहीन अनपढ़ गंवार और असंस्कारित बेटे को भी अध्यापक के रूप में समाज पर थोपा जाए । इस से शिक्षा व्यवस्था का क्या हाल होगा ? यही हाल ब्राह्मण परम्परा का हुआ है।
     इससे भी गहरी बात यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये चार समसामयिक-धर्म Contemporary-righteousness,समयानुकूल कर्त्तव्य और अधिकार होते हैं। जाति तो वह होती है जो आपके रोजगार का विषय होता है।

शनिवार, 28 जुलाई 2012

31. वैदिक गवर्नमेण्ट व्यवस्था vs ब्राह्मण गवर्नमेण्ट व्यवस्था !

यहाँ आप वैदिक गवर्नमेण्ट व्यवस्था और ब्राह्मण गवर्नमेण्ट व्यवस्था के मूल बिन्दुओं को तुलनात्मक तरीके़ से समझें।
    वैदिक सत्ता[प्रशासनिक व्यवस्था] में देव, यक्ष, राक्षस तीन प्रशासक होते हैं वहीं ब्राह्मणी सत्ता में ब्राह्मण,वैष्णव,शैव तीन संरक्षक गुरु होते हैं।
वैदिक-सत्ता जहाँ टैक्स, कर, लगान,शुल्क इत्यादि से चलती है वहीं ब्राह्मण-सत्ता दान-दक्षिणा-भेंट-उपहार-वस्तु-विनिमय,श्रम-सहयोग से चलती हैं। कर या लगान में गणितीय आंकलन होता है जबकि दान में ऐसा नहीं है। एक कंजूस व दीन-हीन-कृपण आजीवन निःशुल्क लाभ उठा सकता है तो एक उदार व्यक्ति अपनी पूरी की पूरी संपत्ति दान में दे सकता है। जबकि टैक्स,लगान इत्यादि कम देने पर चोरी मानी जाती है और अधिक देने पर देने वाले के प्रति शंका पैदा होती है।
वैदिक-सत्ता में प्रोटोकॉल होता है। एक के ऊपर एक पद होते हैं और छोटे-बड़े का क्रम होता है। एक संस्था दूसरी संस्था को अनुशासित करती है। नीचे से ऊपर तक सजदा करने,नमस्कार,प्रणाम,अभिवादन करने की मानव निर्मित नियमानुसार एक प्रक्रिया होती है।
     जबकि ब्राह्मण-सत्ता में कोई प्रोटोकॉल नहीं होता। एक होता है स्वयं-आत्म जो कि स्वतन्त्र, स्वाधीन आत्म-अनुशासित एक व्यक्ति का 'मैं' होता है जो उभयपक्षी होता है जिसका एक पक्ष परम गति वाले ब्रह्म का अहँकार होता है जिसके आयतन के विस्तार की सीमा को नापा नहीं जा सकता; दूसरा पक्ष स्वाभिमान का घनत्व इतना अधिक होता है कि प्रोटोकोल में उसके आत्म के ऊपर कोई नहीं होता सिर्फ परम्-आत्म [परमात्मा] होता है। किसी को भी सजदा करना उसकी मजबूरी नहीं होती, उसका स्वविवेक होता है।
वैदिक-सत्ता में नीति का तात्पर्य पॉलिसी और संवैधानिक नियम होते हैं जबकि ब्राह्मण-सत्ता में नीति का तात्पर्य नैतिकता और काम करने की नीयत होती है। संविधान के स्थान पर स्वविवेक होता है।
वैदिक-सत्ता सभ्यता और असभ्यता के मापदण्डों पर चलती है जबकि ब्राह्मण-सत्ता स्मृति-संस्कारों पर आधारित होती है यानी अवचेतन में संस्कारों को आधार बना कर स्वाधीन होकर स्वतन्त्र चलती है।
वैदिक-सत्ता का शासन वेतनभोगी कर्मचारियों द्वारा आगे से आगे बढ़ता है जबकि ब्राह्मण परम्परा तीन तरह की पुत्र परम्परा है।
  आप सन्तान और पुत्र को एक ही मानते हैं जबकि इन दोनों शब्दों में अन्तर है। पुत्र शब्द का अर्थ है परम्पराओं की पालना करने की पात्रता रखने वाला। परम्पराऐं तीन प्रकार की होती हैं अतः पुत्र भी तीन प्रकार के होते हैं।
जो सन्तति परम्परा की पालना करने की पात्रता रखता है उसे सन्तान रूपी पुत्र कहा जाता है। यदि संतान अविवाहित रहता है तो वह मात्र सन्तान ही कहा जायेगा, पुत्र नहीं।
जो गुरू-शिष्य यानी गुरूकुल परम्परा की पालना करने की पात्रता रखता है वह शिष्य रूपी पुत्र होता है।यह अध्यापक परम्परा है।
जो गुरूसेवक परम्परा की पालना करने की पात्रता रखता है वह सेवक रूपी पुत्र होता है। यह चिकित्सा परम्परा से जुड़ी अनेक समसामयिक परम्परायें हैं।
वैष्णव एवं शैव परम्परा प्रारम्भ में गुरू-चेला परम्परा थी क्योंकि किसी भी अस्वस्थ, अनाथ, अपाहिज, असामान्य मनोस्थिति वाले अबोध के भोजन, आवास और चिकित्सा में सेवा भावना की आवश्यकता होती है। आजकल ये सेवा करते नहीं बल्कि करवाते हैं। ईसाई मिशनरी इसे सेवा के स्थान पर सर्विस कह देते हैं।
     इन उदाहरणों की लम्बी सूची बनाई जा सकती है लेकिन चूँकि इन प्रारम्भिक संदेशों में संक्षिप्त में संकेत रूप में ही बताया जा रहा है फिर जब आपकी जिज्ञासा होगी तो एक-एक बिंदु पर विस्तार से भी कहा जा सकता है। लेकिन मैं जहाँ तक सोचता हूँ कि सनातन धर्म के दो पक्ष और तीन आधारों को स्पष्ट करने का मेरा प्रयास सही दिशा में चल रहा है।
वैदिक-सत्ता सब्जेक्टस यानी विषय के भोगों को लेकर विस्तार लेती है जबकि ब्राह्मण परम्परा ऑब्जेक्ट यानी उद्देश्य को केन्द्र में लेकर विस्तार लेती है।
भारत में ब्राह्मण परम्परा सदा जीवित रहती है। आज भी भारत की केन्द्रीय सरकार एवं सभी राज्य सरकारें जितने टैक्स का संग्रह करती हैं, उस राशि से कई गुना अधिक राशि भारतीय लोग दान में दे देते हैं। उस का अधिकांश भाग सीधा दान में दिया जाता है जबकि मन्दिरों में दिया हुआ दान उसका थोड़ा सा अंश होता है। भारतीयों की अर्थव्यवस्था की सनातन स्थिति बनी रहने के लिऐ दो ही बिन्दु पर्याप्त हैं। 
एक बिन्दु है ग्रीष्म ऋतु में वर्षा के वार्षिक चक्र का आना और धन धान्य का उपजना और दूसरा बिन्दु है दान देने की प्रथा में श्रद्धा और विश्वास से जुड़े रहना। इसी का नतीजा है कि इतनी आर्थिक विषमता के बाद भी भारत में भूख से मरने वाली घटनाऐं अपवाद स्वरूप ही होती हैं।
जब कभी भी पृथ्वी पर कोई ऐसी घटना घटती है जिसके परिणामस्वरूप सभी सभ्यता संस्कृतियाँ नष्ट हो जाती हैं और साथ ही पृथ्वी के अधिकांश भू-भाग पर मानव-प्रजातियाँ अर्थात् मनुष्य की मानसिक-प्रजातियाँ नष्ट हो जाती हैं या विलुप्त हो जाती है तब भी भारत में मनीषी[मनुष्य] प्रजाति या ब्राह्मण प्रजाति या कहें कि कुलीन-योगियों के कुल की प्रजाति बची हुई रहती है और उसी मनुष्य प्रजाति से मानव-प्रजातियाँ पुनः पृथ्वी के भू-भाग पर फैलती है।
इस ब्राह्मण जाति का मूल उत्पत्ति स्थान है ब्रह्मपुत्री क्षेत्र जिसे ब्रह्मपुत्र घाटी कहा जा सकता है। 
ब्रह्मपुत्र नदी तीन प्रकार के भूभागों में विभाजित है। एक भाग दक्ष प्रजापति का क्षेत्र है जो हिमालय का वह क्षेत्र है जहाँ नदी हिमालय पर ही चलती रहती है। दूसरा क्षेत्र जो तिब्बत का पठार है,जहाँ से नदी हिमालय से उतरती है और ढलान में घाटी में बहती है तथा तीसरा वह क्षेत्र जहाँ नदी समुद्र के मुहाने पर समतल भूमि पर आती है। 
जहाँ घाटी और पहाड़ी क्षेत्र है वह दक्ष प्रजापति की कन्याओं का क्षेत्र है अर्थात् वहाँ मातृ-सत्तात्मक संस्कृति रही है। घाटी के तीनों तरफ की पहाड़ियों के बाहर का क्षेत्र जो वर्तमान में पश्चिम बंगाल, बांग्लादेश और म्याँमार[पूर्व का बर्मा] है ये पूरा क्षेत्र ब्रह्म देश कहलाता था। 
विश्व  की सर्वप्रथम लिपी यहीं से विकसित हुई जिसे ब्राह्मी लिपी कहा जाता है। विश्व  की विभिन्न प्रकार की लिपियाँ इसी से प्रेरित हैं। ब्राह्मी लिपी और ब्रह्मणी भाषा में व्याकरण का उपयोग नहीं होता। अतः शब्द ही बोले जाते हैं, शब्द ही ब्रह्म रूप हैं और व्याकरण न होने से शब्द स्त्रिलिंग पुल्र्लिग नहीं होते, बहुवचन भी नहीं होता शब्दों के द्वन्द्व समास से भावाभिव्यक्ति होती है। 
संस्कृत, हिन्दी, नेपाली, मराठी इत्यादि भाषाऐं देव-नागरी लिपी में लिखी जाती है। नगरों में रहने वाले देवों[विद्वानों] ने इसकी रचना की अतः यह देव नागरी लिपी कहलाती है। 
वैदिक-भाषा संस्कृत-भाषा में शब्द की उत्पत्ति धातु से होती है और धातुओं की संख्याएँ मुश्किल से चार-पाँच सौ होगी अतः कह सकते हैं कि विश्व की सभी धार्मिक वैज्ञानिक भाषाओं के असंख्य शब्दों की जननी संस्कृत के सिर्फ चार-पांच सौ शब्द ही हैं। वर्तमान की संस्कृत में अनेक शब्द वैदिक संस्कृत से, तो अनेक शब्द ब्रह्मणी एवं प्राकृत भाषाओं के हैं। 
इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसी मानव प्रजाति नहीं है जो ब्रह्मपुत्री क्षेत्र में नहीं हो अर्थात् विश्व की सभी मानव प्रजातियां ब्रह्मपुत्री क्षेत्र में हैं बल्कि ऐसी अनेक प्रजातियाँ भी ब्रह्मपुत्री क्षेत्र में मिलेगी जो पृथ्वी के किसी भी अन्य भू-भाग में नहीं मिलतीं। 
  आज जब हम नारी के उत्थान और महिला अधिकारों की बात करते हैं तो इस परिप्रेक्ष्य में इससे अधिक विडम्बना, इससे बड़ा अधर्म और भ्रष्टाचार क्या हो सकता है! कि ये महिला-कल्याण संगठन और तथाकथित नारी स्वतन्त्रता की बातें करने वाले पुरूष संगठन, विश्व की एक मात्र मातृ-सत्तात्मक संस्कृति के बचे हुए क्षेत्र पर भी पुरूष सत्ता के अतिक्रमण का विरोध नहीं कर रहे हैं। पृथ्वी के एक मात्र भू-भाग पर, जहाँ जीव-ब्रह्म का अस्तित्व बना रहता है, उस पर भी वित्त की सत्ता के माध्यम से भौतिक-विकास के नाम पर वनों को नष्ट करके वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था वाली उस भूमि पर किये जा रहे अतिक्रमण की तरफ से आँखें मूँद रखी हैं। यही वह भू-भाग है जो धरती पर सनातन धर्म के अस्तित्व को बचाए रखता है यानी ईको-चैनल को पुनः विस्तार देने के लिए वनस्पति,प्राणी और मानव साम्राज्य की विभिन्न प्रजाओं [प्रजातियों,नस्लों] को एक साथ संरक्षित करके रखता है।
इसलिए आज की आवश्यकता है, हम इस सभ्यता और विकास के बहाव को रोकें जो कि ग़लत दिशा  में बह रहा है। निःसन्देह बहाव कभी भी रोका नहीं जा सकता उसकी सिर्फ़ दिशा बदली जा सकती है। पानी का एक बहाव भूमि का कटाव करके उपजाऊ भूमि को बंजर बना देता है तो दूसरी तरफ़ पानी के उसी बहाव को व्यवस्थित तरीके से उपयोग में लिया जाये तो फसलें उपजाने के काम आता है। 
जहाँ सभी कुछ वित्तीय सत्ता के बहाव में बहा जा रहा है वहाँ दो-चार पत्थर अवरोध रूप में व्यवस्थित करने से क्या भ्रष्टाचार का बहाव रूक सकता है ? आज की आवश्यकता है एक वर्गीकृत ढांचा बनाने की जिसमें हम करेंसी की लिक्विडिटी का पूरा उपयोग कर सकें,साथ ही साथ यह तरल मुद्रा शोषक-शोषित वर्ग पैदा न कर सके इसके लिए वर्गीकृत व्यवस्था अर्थात सर्वकल्याणकारी व्यवस्था पद्धति को स्थापित एवं प्रतिष्ठित कर सकें, न कि इस लिक्विडिटी के बहाव में बहते रहें। 

37. भारत वर्ष को पुनः ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के माध्यम से एक सूत्र में बाँधना होगा !

      गुप्तों के शासन का पतन जिस कारण हुआ था उसकी तुलना आज की स्थिति से की जा सकती है। जैसे कि एक तरफ विश्व के सभी राष्ट्र भयानक ऋण में डूबे हैं और जिनके हाथ में अर्थ (धन-धान्य) पैदा करने की सत्ता है वे गरीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं। 
     दूसरी तरफ आप युवा वर्ग अच्छी वित्तीय स्थिति (अच्छे वेतनमान) को प्राप्त करने के लिए उन व्यापारिक घरानों-प्रतिष्ठानों के नौकर बनकर उनके लिए दिन-रात मेहनत करके उन्हें राष्ट्रों को खरीदने की क्षमता रखने वाले वित्तेष बनाने को आतुर हो रहे हैं। ये वित्तेश अपने भवनों को राष्ट्रपति भवन जैसा बनाने में सक्षम हो रहे हैं। ऐसा क्यों है ? और इससे पूर्व भी ऐसा बार-बार क्यों होता आया है ?
क्योंकि इन तीन वैदिक सत्ताओं के पीछे जो तीन स्वभावों की सत्ताऐं हैं उसके उपर एक सत्ता है जिसे आत्म-भाव यानी आत्म-अनुशासन की सत्ता कहा जाता है। इसे ब्राह्मण-धर्म की सत्ता कहा जाता है। वह सत्ता वर्ग हाशिये पर आ गया है। ब्राह्मण[अध्यायक] को शूद्र[नौकर,तनख्वाह लेने वाला तनखैया,वेतन लेने वाला वृतिधारी,प्रशासन का गुलाम] बना दिया है,ऐसी स्थिति में योग्य[योगी]तो ब्राह्मण बनना भी नहीं चाहेगा।
जब तीनों वैदिक सत्ताओं के स्वभाव में विकार आ जाता है तो प्रथम स्तर पर वे अपने द्वारा शासित वर्ग के शोषक बन जाते हैं तत्पश्चात् वे अन्य दोनों वर्गों को भी शासित करना शुरू कर देते हैं और उनके भी शोषक बन जाते हैं। क्योंकि इन सभी प्रकार के वर्गों के मनोविज्ञान में मूल मनोविकार एक ही होता है और वह है असन्तुष्टि। उस असन्तुष्टि के कारण पैदा होता है राग एवं द्वैष नामक अभाव।
जबकि प्रत्येक वर्गीकृत सत्ता की तरह ब्राह्मण सत्ता में भी दो वर्ग तो होते ही हैं। एक शासक, दूसरा शासित[जन साधारण प्राकृतिक उत्पादक]। यदि शासक वर्ग शिक्षित ब्राह्मण अध्यापक है और आत्म-अनुशासन में, आत्म-भाव में, आत्म-विश्वास में रहता है और अपनी प्रकृति, प्रवृत्ति, स्वभाव, अध्यात्म, नेचर, आदत, फ़ितरत को अपने वश में करने का मानसिक सामर्थ्य रखता है और जो शासित वर्ग है उसको अपने-अपने स्वभाव के स्वाभाविक स्तर अर्थात् अपने-अपने आध्यात्मिक स्तर का, अपनी रूचि एवं क्षमता के अनुरूप काम[Job] मिल जाने के कारण कार्य सन्तुष्टि[Job satisfaction] रहती है तब उस व्यवस्था को ब्राह्मण धर्म आधारित व्यवस्था कहा जाता है। वह सनातन बनी रहती है। 
इस ब्रह्म विद्या का उपयोग करके ही छठी शताब्दी में एक सनातन समाज व्यवस्था बनाई थी। लेकिन सोलहवीं शताब्दी में इस व्यवस्था पर चारों तरफ से आघात हुए लेकिन अंततः इसको जड़ से उखाड़ कर फेंका इस संस्कृति की अपनी ही सन्तानो ने। 
छठी शताब्दी से पूर्व तक और बुद्ध-महावीर से पूर्व, कृष्ण-बलराम से पूर्व कश्यप ऋषि से पूर्व, यहाँ तक कि आदि पुरूष शंकर से भी पूर्व की परम्परा है दक्ष ब्राह्मण परम्परा।
श्रीमद्भगवद् गीता सहित सभी वर्गों के धार्मिक ऐहित्य[ऐतिहासिक साहित्य] में उल्लेख आता है कि सभी पुरूष प्रधान सभ्यता-संस्कृतियों के आदि के संस्कारित पुरूष सप्त-ब्रह्मण कहे गये हैं। वैदिक साहित्य में उन्हें सप्त-ऋषि कहा गया।
एक इस बिन्दु पर भी ग़ौर करें कि शंकर को इस पृथ्वी का पहला नर पुरूष बताया गया है और प्रजापति कश्यप को भी कल्प का आदि पुरूष बताया गया है लेकिन पार्वती को भी और कश्यप की पत्नियों को भी दक्ष प्रजापति की कन्याऐं बताया गया है।
इस विषय के सभी पहलुओं को स्पष्ट करने के लिए अलग से लेखन होगा लेकिन यहाँ इतना ही समझना पर्याप्त है कि ब्राह्मण-सत्ता की परम्परा शरीर की वंश (Hereditary,Genetic) परम्परा नहीं है जो शुक्राणुओं के गुणसूत्रों के सहारे चलती है बल्कि यह तो वह परम्परा है जो सूर्य के चुम्बकीय क्षेत्र से जुड़ी है। 
प्रकृति और पुरूष अर्थात् गुरूत्वाकर्षण बल और पदार्थ (ईथर) अजर-अमर हैं। इसी को गीता में देही और शरीर कहा गया है जो कि न मरता है न पैदा होता है, न जलाया जा सकता है इत्यादि- इत्यादि । लेकिन ब्रह्मा की आयु होती है जो कि हज़ारों युगों की होती है।
ब्रह्मा के दिन के समय पृथ्वी पर जीव-जगत व्यक्त होता है और रात्रि के समय अव्यक्त में चला जाता है। यह गीता सहित अनेक उपनिषदों में कहा गया है।
इसका तात्पर्य है जब सूर्य में हाइड्रोजन के आणविक विस्फोट से ऊर्जा बनती है तो वह ब्रह्मा के दिन का काल-खण्ड होता है। सभी वनस्पति जीव सूर्य की ऊर्जा से चेतना ग्रहण करते हैं और वैदिक परम्परा का, बौडी की परम्परा का निर्वाह होता है जिसके मूल सिद्धान्त दो हैं -
     (1) जीव ही जीवन का भोजन है।
     (2) जीव से जीव की उत्पति होती है। 
तात्पर्य यह कि जैविक-विकास तो सूर्य (ब्रह्मा) के प्रकाशित होने के बाद होता है जबकि सूर्य जब ठण्डा गोला होता है और पृथ्वी बर्फ का गोला होती है, तब भी सूर्य का चुम्बकीय क्षेत्र या चुम्बकीय बल रेखायें बनी रहती है अर्थात् ब्रह्म में सत का भाव बना रहता है।
वैदिक-ज्ञान यानी विज्ञान का ज्ञान तो तब शुरू होता है जब मानव देह का विकास हो चुका होता है।जबकि ब्रह्म (चेतना) की परम्परा तो तभी पुनः शुरू हो जाती है जब ब्रह्मा के दिन के समय के प्रारम्भ में पृथ्वी पर पुनः रासायनिक योगिक (मोलिक्यूल) का रूप लेती है और एमीनो एसिड (प्रोटीन) के मुदगलों में जीव (चेतना) का विकास होने लगता है।
बीच में इस विषय को लाने का अभिप्राय यह है कि ब्रह्म परम्परा को लेकर कोई अतिशयोक्ति या अतिवादी विचार न मानें बल्कि यथार्थ धरातल पर सोचें। पृथ्वी के नष्ट होने या 2020 तक सभी कुछ नष्ट होने इत्यादि की प्राकृतिक दुर्घटना से डरने के स्थान पर यह सोचें कि हम अगर अव्यय जीव-आत्मा बन कर ब्रह्म के चुम्बकीय क्षेत्र में अपने भाव भावित हो कर अमर हो जाते हैं तो हम काल से अतीत हो जाते हैं।लेकिन अभी हमें यह सोचना है कि हम जिस विकास की तरफ जा रहे हैं वह हमारा वर्तमान का जीवन नरक बना रहा है। हमें इस यथार्थ को समझना है कि जो काम हमारे बलबूते का है, उसे हम कैसे कर सकते हैं और हमने खुद आपस में राग-द्वेष पालकर जिस राग-द्वेष जनित प्रतिस्पर्धा को जीवन की सच्चाई मान ली है, उससे मुक्त होकर हम वर्तमान में क्या कर सकते हैं! एक सुन्दर भविष्य कैसे बना सकते हैं !
अतः यहाँ मैं उस ब्रह्म परम्परा की बात कर रहा हूँ जो न तो साक्षरता से सम्बन्ध रखती है और न ही सभ्यता से और न ही उसमें प्राकृत स्थिति से रूकावट आती है।
ब्रह्म-परम्परा तो वह स्मृति परम्परा है जो संस्कार बन कर जन्म-जन्मान्तर के लिए साथ चलती है और आगामी जीवन में पुनः उन्हीं भावों-अभावों को विकसित करती है। अब यह निर्णय आपका है कि आप भाव में भावित रह कर यह कलेवर(देह का ढांचा) छोड़ कर जाना चाहते हैं या अभावग्रस्त होकर।
जब तक अभावों से मुक्त नहीं होते, भाव में भावित नहीं हो सकते। अतः इस लेखन को समझने के लिए इसमें उपयोग में लिए जा रहे वैज्ञानिक-शब्दों को विज्ञान एवं दर्शन के शब्दकोष के रूप में समझें। इनके प्रति पूर्वाग्रहों को समाप्त करने के लिए ही मैं इनका बार-बार उपयोग कर रहा हूँ। फिर यह तथ्य भी है कि जहाँ विज्ञान के शब्द हैं वहाँ उनके स्थान पर कथा साहित्य के शब्दों का उपयोग करना सम्भव भी नहीं है।अतः ब्रह्म, ब्रह्मणी स्थिति, ब्रह्मण परम्परा, ब्राह्मण-धर्म शब्दों को उसी परिप्रेक्ष में समझने की चेष्टा करे जिस परिप्रेक्ष में जिस प्रसंग में जिस तात्पर्य से इनका उपयोग किया जा रहा है। क्योंकि मजबूरी यह है कि इन संस्कृत शब्दों के भावार्थ तो सभी भाषा में मिल सकते है इसके शब्दार्थ और तत्वार्थ समझे बिना भावार्थ से भ्रामक धारणाये विकसित हो गई हैं। उन्हीं भ्रामक धारणाओं के कारण आपके मन में इन शब्दों के प्रति पूर्वाग्रह बन गये हैं जैसे कि ये साम्प्रदायिकता फैलाने वाले शब्द हैं। लेकिन आप युवा पीढी को तो इन शब्दों के मूल अर्थों को जानना चाहिये।
आप कल्पना करें कि वर्तमान का सभी प्रकार का विकास समाप्त हो जाये तब भी मानव जाति समूल नष्ट तो हो नहीं सकती। बची हुई जनसंख्या में कुछ शिक्षित लोग भी बचेंगे। उनमें इतनी समझ तो होगी ही होगी कि वो बचे हुए वर्ग को आदिम स्थिति में नहीं जाने देंगे। उनका बौद्धिक नेतृत्व करेंगे और स्वयं पीछे की घटनाओं और भविष्य की सम्भावनाओं पर चिन्तन करेंगे। यहीं से ब्राह्मण-परम्परा शुरू हो जाती है क्योंकि वह व्यक्ति ब्रह्म में रमण करने वाला दार्शनिक बन कर विज्ञान के सकारात्मक-नकारात्मक पक्ष पर चिन्तन करेगा। तो बस यहीं से ब्राह्मण परम्परा शुरू हो जाती है। इस घटना क्रम में यह महत्वहीन हो जाता है कि वह शरीर से किस जातीय सम्प्रदाय का था।
जितने भी वैज्ञानिक आविष्कार और अनुसंधान हुए हैं, उनके जनक दार्शनिक रहे हैं। जिस वैज्ञानिक शोधकर्ता में दार्शनिक चरित्र जितना अधिक होता है वह उस शोध की निर्णायक स्थिति तक उतना ही जल्दी पहुँचता है।
यह मनीषी परम्परा सिर्फ शुक्राणुओं, गुणसूत्रों पर नहीं चलती अतः सभी  कुछ नष्ट होने पर भी पुनः जीवित हो उठती है लेकिन इसके विकास के हेतु संस्कार हैं। संस्कार के हेतु माता-पिता होते हैं अतः यह पितृकुल और गुरूकुल तीनों कुलों के सति होने से अर्थात् तीनों कुलों के माध्यमों को सेतु बना कर अपने आप में विकसित होती हैं। अर्थात् जिसे माता-पिता और परिजनों से बना परिवेश ब्रह्म में रमण करने वाला मिलता है,वह ब्राह्मण कहलाने वाली मानसिक प्रजाति का बन जाता है। इसके लिए उसे आर्थिक,सामाजिकराजनैतिक इत्यादि सेतुओं की आवश्यकता नहीं होती अतः सभ्यता-संस्कृतियों के पतन और उत्थान से अविचलित यह परम्परा भारत में सदा बनी रहती है।
भारत में इसलिए कि भारत वर्ष ही इस पृथ्वी का जैव-विविधता वाला एक मात्र स्थान बचा हुआ है जहाँ सभी प्रकार के पौष्टिक आहार वर्षा के वार्षिक चक्र से स्वतः प्रक्रिया से उत्पादित होते रहते हैं। विश्व के अन्य किसी भी भाग में इतनी अधिक वनस्पतियाँ एवं प्राणियों की प्रजातियाँ नहीं हैं और इस नस्ल की गायें भी नहीं हैं जो वनों में चरकर स्वतः अपने खूंटे पर पहुँच जाती हों।
छठी शताब्दी में जब राजपूतों की उत्पत्ति हुई थी तो उनके शारीरिक बल को और मांसपेशियों की लचक को विशिष्ट बनाने के लिए वैदिक यज्ञों को माध्यम बनाया और उनके गुणसुत्रों[जीन्स] में एक विशेष कोड  विकसित कर दिया था लेकिन साथ ही साथ उनमें संस्कार भी विकसित किये थे और वे संस्कार थे गाय, ब्राह्मण एवं स्त्री की रक्षा करना।
गुप्त शासकों के पतन के समय भी यह ब्राह्मण जाति दूरदराज़ के गांवों में, एकान्त में व्यापारिक, राजनैतिक, प्रतिस्पर्धाओं से मुक्त, दृढ़ता से जमी हुई थी। आज भी है, भविष्य में भी बनी रहेगी। यही ब्राह्मण जाति भारत में ज्ञान-विज्ञान को समूल नष्ट नहीं होने देती।
छठी शताब्दि में जो क्रान्ति हुई उसमें सम्पूर्ण भारत वर्ष को ब्राह्मण गवर्नमेण्ट के माध्यम से एक सूत्र में बाँध दिया गया था। जबकि राजाओं की सत्ता अपने छोटे-छोटे राज्यों तक सीमित थी और वे कृषि उत्पादक क्षत्रिय वर्ग की सुरक्षा के साथ-साथ ब्राह्मण सत्ता को स्थापित करने और संरक्षण करने में भी मुख्य भूमिका में थे।

34. चार ब्रह्म सूत्र



  वह परम-गति वाला सभी के अन्दर सभी के बाहर सब से अन्तःस्थ तथा सब से दूरस्थ, समान भाव से सर्वत्र व्याप्त, सर्वत्र स्थिर-स्थित एक ही है फिर भी उसकी विषेषता यह है कि वह सब में विषिष्ट दृष्टिगोचर होता है । (अर्थात् देखने में सब में विषिष्ट या असमान लगता है) 
इसको शब्द में भी परिभाषित किया गया है जो शब्द है ‘‘वसुघैव कुटुम्बकम्‘‘ अर्थात् पृथ्वी पर विद्यमान जगत का प्रत्येक जीव ब्रह्म की तंरगों से बँधा एक ही कुटुम्ब, कम्यून, कम्युनिटी का हिस्सा है ।
ब्रह्मपरम्परा का ज्ञान सिर्फ चार सूत्रों में सिमटा हुआ है । 

1- ‘‘ब्रह्म जगदोद्भव कारणम्‘‘

ब्रह्म ही जगत के उद्भव का कारण है‘‘
अर्थात् इस निर्जीव सृष्टि में जो जीव-सृष्टि यानी जगत है उसके उद्भव (उपजने, उत्पन्न होकर वृद्धि करने) के पीछे जो कारण और कारक Causes and Factors  है वह ब्रह्म ही है।

2- ब्रह्म-सत्य जगंमित्थ्या 

अर्थात् ब्रह्म जो है वह सत्य है जबकि जगत का यह भौतिक-रूप एक मिथक की तरह बनावटी है । यहाँ जगत से तात्पर्य यदि मानव निर्मित समाज व्यवस्था से हो तो वह तो बनती बिगड़ती रहती है जबकि इस व्यवस्था के बनने बिगड़ने के पीछे ब्रह्म का वह रूप है जिसे हम मनो-विज्ञान के नाम से जानते है । 
एक मुनि-ऋषि यानी मनीषी यानी मनुष्य अपने ब्रेन का उपयोग करके मान्यताऐं, विधि-विधान, संविधान बनाता है जिसे मानव का स्वनिर्मित धर्म कहा गया है वह धर्म जब मान्यता प्राप्त कर लेता है तो फिर एक मानव अपनी मानसिकता उसी तरह की बना लेता है और उस पर चलता रहता है । इसे ब्राह्मण संस्कृति की समाज व्यवस्था कहते हैं। ये मान्यताऐं जब अज्ञान जनित पूर्वाग्रहों का रूप धारण कर लेती हैं तो पुनः कोई मनीषी वर्ग अपने ब्रह्मसत्य का उपयोग करके काल-स्थान परिस्थिति के अनुरूप नई मान्यताऐं बनाता है, नये मिथक गढ़ता है, एक नई मैथोलोजी पनपती है अतः जगत का यह रूप मित्थ्या (बनावटी) अवधारणाओं पर चलता है । जैसे कि अनेक देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के रूप में जो मिथक गढे गये, उनसे भारतीय समाज का अनुशासन बना हुआ था और कमोबेस आज भी है । लेकिन इन सभी मिथको पर भारी पड़ने वाला एक मिथक गढ्ढा गया जिसका नाम करेंसी नोट है । इसे वित्त के नाम से, पुंजी के नाम से जनमानस में स्थापित कर दिया गया है यह सभी मिथको पर भारी पड़ रहा है। 

3- एको ब्रह्म द्वितियो नास्ति ।

ब्रह्म सर्वत्र एक ही है अतः इस में प्रथम द्वितीय का प्रोटोकोल नहीं होता है । कुछ भी नीच और सर्वोच्च नहीं होता, तुलनात्मक आंकलन नहीं होता क्योंकि प्रत्येक जीव-पिण्ड अपने आप में विषिष्ट होता है  ।
अब आप वैदिक-जगत की ईश्वर प्रणीत देह में आते हैं तो पहला भेद नर-मादा का होता है। पुरूष सत्तात्मक समाज व्यवस्था में पति प्रथम और पत्नी द्वितीय स्थान पर होती है और मातृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था में पत्नी प्रथम व पति द्वितीय स्थान पर होता  है । 
इसी तरह बड़ा भाई, छोटा भाई प्रथम-द्वितीय होता है। संस्था में अध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष इत्यादि का प्रोटोकोल होता है। राजकीय विभाग में ग्रेड होते हैं इत्यादि । 
जबकि ब्राह्मण संस्कृति में गणितीय सांख्य शून्य एवं एक पर चलता है। शुन्य जो कि indefinite  है और मैं डेफिनेट Definitely हूँ। परम्ब्रह्म इनडेफिनेट indefinite है जबकि मैं Definitely हूँ। 
     अहम् और परम् के बीच मे यह मिथकीय जगत फ़ैला है| जब एक ही ब्रह्म सर्वत्र स्थिर स्थित है लेकिन प्रत्तेक 'मैं' में विषिष्ट होता है तो सबसे पहला धर्म और कर्म यह होना चाहिए की मैं अपने आप को पहचानू,आत्म साक्षात्कार Self-interviewing करूँ दूसरों से, द्वितीय पक्ष से अपनी तुलना और प्रतिस्पर्धा क्यों ?     

4- अहं ब्रह्मास्मि ।

मैं ब्रह्म हूँ। हमारे स्वयं के शरीर के विभिन्न नाम हैं । हम अपने पालतू पशुओं का भी नाम रखते हैं । नामकरण संस्कार करते है और अपने बच्चो का एक नाम रखते हैं, जो उसकी देह का नाम होता है । जबकि ब्रह्म के रूप को हम सभी एक ही नाम से पुकारते हैं अर्थात् ‘‘मैं‘‘ नाम से पुकारते हे । संस्कृत के अहम का तात्पर्य है कि हम के विपरीत जो होता है वह अहम ही ब्रह्म रूप है क्योंकि मैं जो अपने आप के बारे में महसूस करता हूँ वही सत्य । 
यही अहं जब हम हो जाता है तब वह हमारा रूप वैदिक-धर्म का रूप हो जाता है क्योंकि हम सभी मानव सभी जीव वेद (बॉडी के विज्ञान) से एक दूसरे से बंधे है। हमारी अपनी सभी प्रकार की अवष्यकताऐं एक दूसरे से पूरी होती हैं। हम सभी मिलकर सभी प्रकार की व्यवस्थाऐं बनाते हे ताकि हम अनुशासित रहते हुए जीवन को सुखपूर्वक जियें । 
अब खुद सोचो कि यह कैसी विडम्बना है कि जहाँ आपको हम होना चाहिये वहाँ आपका अहम् जाग जाता है और जहाँ अहम् जागना चाहिये वहाँ अहम् सो जाता है और धर्म के नाम पर आप हम में शामिल हो जाते हैं और किसी न किसी विषय में या अनेक विषयों में अपना गुरु ढूंढते फिरते हैं.। 
जहां हमें आपस में मिल-बैठ कर एक सर्वकल्याणकारी व्यवस्था पद्धति के बारे में विचार-विमर्श  करना चाहिये वहाँ तो हमारा अहम् जाग जाता है और कहने लग जाते है कि मैं जो कर रहा हूँ वह तो उचित आचरण है और दूसरे जो कर रहे हैं, वह भ्रष्टाचार है । 
इसके विपरीत जब आप में अहम् भाव होना चाहिये तथा एकान्त सेवन करना चाहिये वहा आप अपने अहं को नष्ट करके दीन-हीन कृपण बन के आत्म-कल्याण का मार्ग तलाशने उस बाजार में निकल जाते हैं जहाँ पाखण्डी पण्डितों ने तथा विशेष आडम्बरपूर्ण वेशभूषा धारण किये बाबाओं, धर्मगुरूओं, आध्यात्मिक गुरूओं ने दुकानें सजा रखी हैं । 
जब संसद में सभी सांसद बैठते है तो वहाँ हम का भाव होना चाहिये कि हमें मिल-जुलकर एक-एक निर्णय पर इस तरीके से विचार-विमर्श  करना चाहिये कि उस बिल में ऐसा कोई नकारात्मक पक्ष न रहे जो लाभ से अधिक हानि कर दे, वहाँ तो सभी अपने अपने अहम् में आ जाते है और अपने विचार को, अपने प्रश्न को अपनी शंका को इस तरह आवेशित होकर व्यक्त करते है जैसे कि यह एक बिन्दु समस्या का सम्पूर्ण पक्ष है और प्रश्न  का उत्तर देने वाला या अपने बिल का समर्थन करने वाला इस तरीके से उत्तर देता है कि उसका अहम् भाव उस प्रश्न  और प्रश्न कर्ता दोनों को ही महत्वहीन बना देता है । 
   लेकिन वही सांसद या मन्त्री जब हम के विपरीत अहम् भाव में होकर सोचने की स्थिति में होना चाहिये कि मुझे जनता ने अपना प्रतिनिधि चुना है और मैं अपने बलबूते पर क्षेत्र और राष्ट्र की जनता के लिए क्या कर सकता हूँ तब वह अपनी पार्टी, अपने कार्यकर्ता अपने अनुयाई तथा अपने परिजनों को ख़ुश रखने की तिकड़म के बारे में सोचता है और अपने हाईकमान द्वारा संचालित होता है.

32. सांख्य का अर्थ होता है सिद्धान्तों का ज्ञान !

      सांख्य का अर्थ होता है सिद्धान्तों का ज्ञान। प्रिंसिपल्स एवं थ्योरीज़ की जानकारी। 
यही सांख्य (Mental Status) जब सांख्यिकी (Statistics) बन जाता है तो यह वैदिक-धर्म का आधार हो जाता है क्योंकि विज्ञान एवं टेक्नोलोजी की प्रत्येक जानकारी पदार्थ[मेटर] से शुरू होती है, तत्व (एलीमेण्ट) से शुरू होती है जिसमें संख्याओं का उपयोग होता है। अंको का उपयोग होता है। सांख्यिकी को ही वैदिक-सांख्य कहा गया है।
एक लेखा विभाग[एकाउन्ट] का व्यक्ति कैशबुक से लेकर बेलेन्सशीट तक दोनों पक्षों के अंको के योग को जब समान अंको में ले आता है तब उसे सांख्यिकी कहते हैं।
एक समाज-वैज्ञानिक और अर्थ-शास्त्री के लिए सांख्य का अर्थ है आँकड़े बनाना ताकि सभी को समान साधन-सुविधायें वितरित की जा सकें। बराबर की संख्या में विभाजित किया जा सके।
एक भौतिक-वैज्ञानिक की सांख्यिकी कहती है कि इस सम्पूर्ण सृष्टि में पदार्थ और ऊर्जा की कुल मात्रा का अनुपात हमेशा बराबर बना रहता है और जितना पदार्थ सृष्टि में है उतना ही बना रहता है। 
एक रसायन-वैज्ञानिक के लिए सांख्य का अर्थ है पदार्थ की अविनाशिता का नियम अर्थात् एक तत्व दूसरे तत्व से मिलकर जब तीसरा या अन्य अनेक तत्वों[एलीमेण्टस] का निर्माण करते हैं तब भी उन तत्वों में विद्यमान परमाणुओं की कुल संख्या समान अंको में रहती है। 
यही सांख्य जब जीवो-जीवस्य भोजनम के सिद्धान्त पर आकर ब्राह्मण-परम्परा से जुड़े विज्ञान अर्थात् जीव-विज्ञान में आता है तो इसे पूर्णता का सिद्धान्त कहा जाता है।
पूर्ण इदम् पूर्ण तदम...
‘‘यह भी पूर्ण है वह भी पूर्ण है । पूर्ण को पूर्ण में मिला देते हैं तो दोनों के मिलने से जो बनता है वह भी पूर्ण है। पूर्ण को पूर्ण में से निकाल लेते हैं तो जो निकला है वह भी पूर्ण है और शेष बचा है वह भी पूर्ण ही कहा जाता है ।‘‘
अर्थात् परमाणु भी पूर्ण है उनके योग से बना अणु[Molecule -मुद्गल्] भी पूर्ण है। उन अणुओं-योगिकों Compounds से बनी जीव-कोषिका भी पूर्ण है और एक ही जैसी जीव कोषिकाओं के समूह के रूप में बना ऊत्तक (Tissue) भी पूर्ण संरचना है और उन ऊत्तकों से बना अंगविशेष भी पूर्ण संरचना है और विभिन्न अंगों से बनी जीव की देह भी पूर्ण संरचना है। अब यदि एक जीव, दूसरे जीव को भोजन रूप में ग्रहण करता है और वह भोजन शरीर में जाकर भोग Decomposition,अपघटन  होता है तब भी विघटित होकर बने विभिन्न योगिकों में से प्रत्येक कम्पाउण्ड पूर्ण है और उसका एक पार्ट शरीर में जुड़ जाता है वह भी पूर्ण है और बचा हुआ पार्ट मलमूत्र शरीर से विरेचन excretion की क्रिया से बाहर निकल जाता है उनमें भी पूर्ण संरचना है। खाद है तब भी कृत्स्नं है और खाद्य सामग्री है तब भी कृत्स्न [कार्बनिक योगिक Organic compounds] पूर्ण है अर्थात प्रत्येक संरचना अपने आप में पूर्ण है कम्पलीट है,कोई संरचना अधूरी नहीं है। 
इसलिए ब्राह्मण-परम्परा कहती है कि आप इसकी संख्या के चक्कर में क्यों पड़ते हो, अंको की गणित में क्यों उलझते हो ? जो भी संरचना है वह अपने आप में पूर्ण है। देह के मरने के बाद भी उसकी प्रत्येक कोषिका चाहे वह सड़े-गले शरीर के रूप में है फिर भी पूर्ण है। अब जब सभी कुछ पूर्ण है तो उसके प्रति भाव एवं अभाव में क्यों उलझते हो ? आप को चाहिये इस पूर्ण जगत की प्रत्येक संरचना से अपना ध्यान हटाकर अपना ध्यान अपने आप पर केन्द्रित करो और शम से सम्बन्ध बनाने वाले समाधि-योग का अभ्यास करो तब आप को उस पूर्ण का भी दर्शन हो जायेगा जो सभी पूर्ण[कम्पलीट] संरचनाओं में समान भाव से स्थिर-स्थिर है अतः वह पूर्ण कहा गया है। सम्पूर्ण[Whole] तो एक ही है जिसे ब्रह्म कहा गया है क्योंकि वह अखण्ड है,अखंडित है फिर भी प्रतेक पिण्ड,खण्ड,जैविक संरचना में विशिष्ट दृष्टिगोचर होता है।

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

30. तीन भागों में विभाजित ब्राह्मण-सत्ता !

      हर्षवर्धन की क्रान्ति में यह ब्राह्मण-सत्ता तीन भागों में विभाजित करके स्थापित की गई। 
      1. एक भाग उत्तर भारत में पंच-गौड़ ब्राह्मण और दक्षिण-भारत में पंच-द्रविड़ ब्राह्मण नाम का था। 
      2. दूसरा-भाग उन अध्यापकों या वैदिक देवों का भाग था जो अपने-अपने जातीय समुदाय के रोज़गार के विषयान्तर्गत शास्त्र रखते थे और अपनी जाति विशेष की प्रत्येक समस्या को सुलझाते थे। जनसंख्या की दृष्टि से भले ही सभी ब्राह्मण मिलाकर भी उतनी संख्या में नहीं होंगे लेकिन भारत में अन्य जितनी जातियाँ हैं उतनी की उतनी ब्राह्मण जातियाँ हैं अर्थात् प्रत्येक जाति का गुरू, अध्यापक, ब्राह्मण अलग बनाया गया। जो अपनी ही जाति से विकसित हो कर बनते थे। 
      3. तीसरा भाग उन साम्प्रदायिक गुरूओं का था जो सेवा परम्परा अर्थात् स्वास्थ एवं चिकित्सा परम्परा से जुड़े थे। गृह त्याग कर चुके होते थे। ये विशिष्ट विषय के गुरु द्विज होते हैं। इनमें सन्तान परम्परा नहीं होती,शिष्य परम्परा होती है। इन्हें प्रथम दो वर्गों में विभाजित किया गया जिन्हें वैष्णव एवं शैव नाम दिया गया। वैष्णव पीले वस्त्र धारण करते थे और शैव भगवाँ वस्त्र। 
वैष्णव सम्प्रदाय वाले अपने नाम के पीछे दास लगाते हैं और नाम के आगे संत लगाते हैं। इनको वैष्णव मन्दिरों के मुखिया के रूप में महन्त कहा जाता है। मन्दिरों की भूमिका ब्राह्मण-गवर्नमेन्ट प्रशासनिक कार्यालयों के समकक्ष रखी जा सकती है। इन्हें सतनामी भी कहा जाता है क्योंकि ये पुनः सात ज़िम्मेदारियों में विभाजित हो जाते हैं। 
मन्दिरों के माध्यम से निःशुल्क उपलब्ध होने वाली सुविधायें थीं; भोजन, विश्राम-स्थल, औषधियाँ इत्यादि और भजन कीर्तन के माध्यम से हारमोनी[सम] में रखने इत्यादि के साथ-साथ निःशुल्क शिक्षण संस्थान चलाना। या कहें सभी प्रकार की नैसर्गिक, मौलिक एवं आधारभूत भौतिक सुख-सुविधाऐं निःशुल्क उपलब्ध कराना।
शैव सम्प्रदाय चार भागों में विभाजित किया गया है।
1. संन्यासी[स्वामी और दसनामी के नाम से जाने जाते हैं],
     2.  नाथ,
     3.  वैरागी और
     4.  उदासीन।
वैरागी एवं उदासीन सम्प्रदाय मनोचिकित्सा के दो विभाग थे तथा
     स्वामी और नाथ शरीर चिकित्सा-विभाग के दो सम्प्रदाय थे।
दसनामी संन्यासी अपने नाम के आगे स्वामी लगाते हैं और नाम के पीछे दस में से कोई एक नाम। संन्यासी वनों के ट्रस्टी बनाये गये और जड़ी-बूटी चिकित्सा यानी वनोंषधि चिकित्सा उनका विषय था। इनकी दसनामी जातियों का काम भी विभागीय बँटवारा था। जैसे कि...
     पुरी उन्हें कहा गया जो पुर[घिरे हुए स्थान] में होने वाली व्याधियों के चिकित्सक थे।
     गिरी वे थे जो पहाड़ों पर होने वाली बीमारियों के चिकित्सक थे।
     तीर्थ वे थे जो तीर्थाटन पर आने वाले विभिन्न वर्गों के सम्पर्क से होने वाली संक्रामक बीमारियों के चिकित्सक थे।
     सागर वे कहलाये जो मछुआरों की बीमारियों की चिकित्सा करते थे। सरस्वती वे कहलाये जो नृत्य एवं संगीत से जुड़े वर्ग की बीमारियों की चिकित्सा करते थे इत्यादि। 
नाथ सम्प्रदाय वाले अपने नाम के आगे योगी, जो अपभ्रंश होकर जोगी बन गया, लगाते थे और नाम के पीछे नाथ। यह वर्ग प्राणियों के शरीर के अवषेष से चिकित्सा करता था और आयुर्वेद की विष चिकित्सा तथा यौन रोग चिकित्सा इनका विषय था। चर्म विकार और छूत की बीमारियों की चिकित्सा करते थे। यूनानी चिकित्सा पद्धति इसी शाखा से ली गई है।
अभी जितने भी धर्म और सम्प्रदाय वैश्वीकरण में फैले हुए हैं वे मुख्यतः वैष्णव समप्रदाय के ही आदर्शों पर फैले हैं। वैष्णवों का सन्त शब्द ईसाईयों में सेण्ट बन गया।
इन विषयों पर अधिक विस्तार एवं गहराई में जाना चाहते हैं तो आप स्वयं भी इनका अध्ययन कर सकते हैं और पकी-पकाई चाहते हैं तो जिज्ञासायें कर सकते हैं। लेकिन हमारे इस लेखन-पठन का उद्देश्य होना चाहिए भारतीय सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक व जातीय सम्प्रदाय की व्यवस्था के मूल-मूल बिन्दुओं को समझना ताकि हम भारत में सर्वकल्याणकारी समाज व्यवस्था की स्थापना के लिए डिज़ाइन (ढाँचा) बना सकें।