बहुसंख्यक औद्योगिक श्रमिक तमोगुणी भूतगण कहलाते हैं।
वेदवाक्य :-"प्राणी अपनी प्रजाति( नस्ल) की संस्कृति के साथ ही पैदा होता है। " पशु-प्रजातियाँ देह की आकृति से वर्गीकृत होती हैं। जबकि मनुष्य-जाति देहाकृति में तो एक समान ॐ आकार की होती है लेकिन प्रजा के रूप में मानसिक-प्रजातियों में वर्गीकृत हो जाती हैं। शुरुआत में यह वर्गीकरण क्षेत्रीयता और रूप-रंग तक सीमित होता है,किन्तु कालांतर में सभ्यताओं के विकास के साथ विकसित होने वाले विविध प्रकार के रोज़गारों के कारण जाति(जॉब)धर्म की वृद्धि के परिप्रेक्ष में इन मानसिक प्रजातियों को वर्गीकृत किया जाता है।
vivarn
Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.
कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।
Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.
कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।
Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.
कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।
Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.
कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।
गुरुवार, 19 जुलाई 2012
7. बुद्ध-महावीर के अनुयायी दोनों दिशाओं में !
बहुसंख्यक औद्योगिक श्रमिक तमोगुणी भूतगण कहलाते हैं।
6. बुद्ध एवं महावीर की जोड़ी ने ब्रह्म-परम्परा एवं वेद-परम्परा के मूल रूप को पुनः स्थापित किया !
उस समय सिद्धार्थ का नाम बुद्ध इसलिए पड़ा कि उन्होंने बोधिसत्व की प्राप्ति की थी। बोधिसत्व की प्राप्ति को लेकर अनेक दार्शनिक विवेचन पढ़ने को मिलते हैं जो इस सीधी-सादी बात को गूढ़ रहस्य बनाने का भ्रामक आचरण है।
तम का विटामिन एवं मिनरल से होता है।
तीनों सम होने से सन्तुलित कहा जाता है जबकि एक की अधिकता से वह विषिष्ट वर्ग में आ जाता है।
एक इन्द्रिय जीव यानी एक कोषीय जीव से पंच इन्द्रिय की क्रमिक विकास यात्रा साईंस का विषय है।
इसी तरह वीर्य को भी सत्व कहा जाता है और तंत्रिका तंत्र की तंत्रिकाओं के माध्यम से पूरे शरीर में फैला व्हाईट फ्ल्युड (कफ) तो मूल रूप से सत्व होता ही है।
5. बुद्ध-महावीर काल[वर्तमान कल्प का आदिकाल] !
कल्प बनाम युग
12-12 होरा[Hours, घण्टों] का एक दिन-रात।
12 महीनों का एक वर्ष।
12 दिनों का अन्तिम संस्कार कार्यक्रम।
12 वर्षो के अन्तरात में कुम्भ का मेला।
120 वर्षो की मनुष्य की एक पूर्ण आयु।[ज्योतिष में नौ ग्रह बारह राशियों में अपना भ्रमण पूर्ण करते हैं तो उन्हें 120 वर्षो लगते हैं]।
1200 वर्ष के अंतराल में युगान्तरकारी परिवर्तन माना जाता है।
12000 गुना 2 = 24000 वर्ष का द्वापर माना जाता है।
12000 गुणा 3 यानी तीन कलियुगों जितना अर्थात् 36000 वर्ष का एक त्रेता युग तथा
12000गुणा 4 = 48000 वर्ष का एक सतयुग और
12 + 24 + 36 + 48 = 1 लाख 20 हज़ार वर्ष का पुनः एक कल्कि युग अर्थात् प्रत्येक चतुष्युगी भी बारह की संख्या में पूर्ण होती है। यह युग उसी तरह चलता है जैसे महादशा में अन्तर्दशा तथा अन्तर्दशा में प्रत्यान्तर-दशा।
सत्व तंत्रिकातंत्र [Nervous system] में होता है जब इस सत्व की मात्रा पर्याप्त होती है तो व्यक्ति सात्विक बुद्धि का हो जाता है उसी को बोधिसत्व की प्राप्ति कहा गया है। सत्व का एक और पर्यायवाची नाम वीर्य होता है जो सन्तति विस्तार हेतु होता है। इन्हीं को ऊर्ध्वगामी और अधोगामी सत्व कहा जाता है। इन्हीं दोनों विषयान्तर्गत बुद्ध-महावीर की जोड़ी ने आदिवासी समुदाय को जानकारी दी थी। जो ब्रह्म और वेद परम्परा के नाम से सनातन ज्ञान परम्पराएँ हैं।
4. अनाथों के नाथ आदिनाथ-पशुपतिनाथ !
2700 वर्ष पूर्व बुद्ध-महावीर काल को हम वर्त्तमान इतिहास या आधुनिक इतिहास का आदिकाल मानते हैं।
जिनका सम्राट कालयंवन आज से पांच हजार वर्ष तथा बुद्ध महावीर के समय से ढ़ाई हजार वर्ष पूर्व के महाभारत काल में हुआ था। कालयवन नामक यक्ष को मारने से शरू हुआ यह सिलसिला महाभारत के युद्ध के बाद तेज हो गया था तब उन यक्षों को कृष्ण बलराम ने एक-एक करके खदेड़ा था,जिन्होंने बाद में अपने मूल पैतृक स्थान केस्पीयन सागर क्षेत्र में माया सभ्यता का विकास किया। यह माया सभ्यता भी आज से तीन हजार वर्ष पूर्व अग्नि की भेंट चढ़ गयी थी। तब यक्ष जिन्हें पहले यवन नाम से जानते थे आज यहूदी नाम से जाने जाते हैं भारत आने लगे थे।
वे यक्ष बुद्ध महावीर के समय पुनः भारत में स्थापित होने लगे और अपनी वित्त,पूंजी,मुद्रा के माध्यम से भारत का आर्थिक दोहन करने लगे थे,जिनसे भारत वर्ष में सनातनधर्म(पारिस्थितिकी) की रक्षा करने के लिए बुद्ध एवं महावीर ने अपने आप का सृजन किया था।
हिटलर ने भी इनको इसलिए मारा था कि इन्होंने जर्मनी में अपनी वित्तीय सत्ता के माध्यम से जापानी औद्योगिक श्रमिकों और जर्मन टेक्नीशियन के शोषण की अति कर दी थी। लेनिन एवं मार्क्स ने भी इन्हीं के विरोध में साम्यवाद की अवधारणा विकसित की थी। इन्हीं से भारत की रक्षा करने हेतु सिद्धार्थ और वर्धमान ने अपने आप का सृजन बुद्ध एवं महावीर रूप में किया।
3. सांस्कृतिक इतिहास !
संस्कृति:-
सभ्यता:-
संस्कृति का आधार सभ्यता:-
शुक्रवार, 13 जुलाई 2012
2. शब्द-ब्रह्म !
शब्द को शब्द-ब्रह्म भी कहा गया है। क्योंकि शब्द का अर्थ जानने से ही हमारे ब्रह्म(ब्रेन) में रासायनिक क्रिया होती है और हम उस शब्द के परिप्रेक्ष्य में एक डिज़ाइन बनाते हैं। यदि हम शब्द का अर्थ नहीं जानकर मात्र व्याकरण में ही उलझे रहते हैं तो किसी की भी कही हुई बात को तथ्यपरक नहीं जान सकते। विशेषकर जो बात धर्म एवं विज्ञान के विषयान्तर्गत होती है,उसे तो बिल्कुल ही नहीं। जैसे ब्रह्म को ही लें। जब तक आप यह नहीं जानेंगे कि संस्कृत के ब्रह्म का लेटिन उच्चारण ब्रेन है,तब तक आप उलझे रहेंगे।
अतः जब मैं अपनी कही हुई बात को प्रामाणिक बनाने के लिए गीता अथवा अन्य धार्मिक-वैज्ञानिक पुस्तक की भाषा का उपयोग करूँगा तो वहाँ पर उन शब्दों के अर्थ बताने आवश्यक होंगे जिन शब्दों का मैं उपयोग करूँगा। क्योंकि इन सभी शब्दों को लेकर पूर्वाग्रह और भ्रामक अवधारणायें विकसित हो गई हैं।
इस तरह इस भूमिका में इतिहास के काल खण्ड के साथ-साथ सभी साम्प्रदायिक धर्मों के परिप्रेक्ष्य में मैं जो कुछ भी बताऊँगा,उसको पढ़ते समय शब्दों को समझने के कारण एक तरफ़ प्रवाह में अड़चन भी आ सकती है तो दूसरी तरफ़ वह आपको रोचक भी लग सकता है।
अड़चन इसलिए कि आपने शब्दों के उन अर्थों को न तो कभी जानने का प्रयास किया और ना ही उनमें रूचि ली। लेकिन यदि आप भी शब्दों के प्रति रूचि रखते हैं तो आपको यह जानकारी रोचक लगेगी।
रोचक इसलिए भी लगेगी कि आपने उन शब्दों के अर्थ जाने,जिनको आप बोलने में काम में लेते हैं और सुनते भी हैं। लेकिन उनके सटीक अर्थ जाने बिना उनके ऊलजुलूल भावार्थ निकालकर उनकी व्याख्या सुनते और करते आये हैं। अतः इन शब्दों के प्रति आप पूर्वाग्रहग्रस्त भी हो सकते हैं। जबकि रोचक इसलिए भी लगेंगे कि आपने उन शब्दों को सुना है लेकिन खण्ड-खण्ड में सुना है,उसकी क्रमबद्धता(Sequence) को नहीं समझा।
ऐतिहासिक काल खण्डों तथा धर्म एवं विज्ञान के अन्तर्गत आने वाले संस्कृत एवं लेटिन के शब्दों को समझने के साथ एक सबसे बड़ी अड़चन उन तथ्यों को समझने के परिप्रेक्ष्य में आयेगी जिनको लेकर हम कुण्ठा एवं पूर्वाग्रहों में बँधे हैं।
जाति,धर्म,सम्प्रदाय,समाज व्यवस्था से जुड़े कुछ ऐसे विषय हैं जिनसे हम परम्पराओं के नाम से बँधे हैं। उस बन्धन में भी इतनी गाँठें हैं कि हम न तो उन बन्धनों से मुक्त हो पा रहे हैं और न ही उनके पीछे-छिपे मन्तव्यों को समझ पा रहे हैं। समझ इसलिए नहीं पा रहे हैं कि हम उन विषयों को ही अछूत समझ रहे हैं अतः उन पर चर्चा भी नहीं कर पा रहे हैं।
इस भूमिका में (1) ऐतिहासिक काल खण्ड (2) धर्म एवं विज्ञान के सम्बन्ध एवं (3) जातीय समाज व्यवस्था इन तीनों के बाद चौथा विषय है (4) वर्तमान की भौतिकवादी विकास यात्रा के प्रति विरोधाभासी मानसिकता।
इन चारों तथ्यों को लेकर लिखी जाने वाली इस भूमिका के माध्यम से मैं आपके ध्यान को इस बिन्दु पर केन्द्रित करना चाहता हूँ कि यदि हमें एक सुन्दर मानवीय समाज व्यवस्था बनानी है तो हमें एक ऐसा परिवर्तन लाना होगा जिसमें सब कुछ बदलना होगा।
सत्ताओं के तीन वर्ग !
(ब) राजनैतिक सत्ता
(स) आर्थिक सत्ता
इनको हम:-
(अ) शैक्षणिक यानी अध्यापकों के वर्चस्व वाली
(ब) प्रशासनिक यानी सरकारी मशीनरी के वर्चस्व वाली
(स) वित्तीय या वैतनिक यानी पूँजीपतियों के वर्चस्व वाली सत्ताएँ भी कह सकते हैं।
इनको हमः-
(अ) धार्मिक सत्ता
(ब) राष्ट्रीय राजनैतिक या राजाओं की सत्ता
(स) व्यापारिक प्रतिष्ठानिक सत्ता (कम्पनी सत्ता) भी कह सकते हैं ।
इन्हें हमः- सनातन परम्परा के शब्दों में
(अ) ब्राह्मण सत्ता
(ब) क्षत्रिय सत्ता
(स) वैश्य सत्ता भी कह सकते हैं।
वैदिक शब्दावली में:-
(अ) देव सत्ता
(ब) रक्षस सत्ता
(स) यक्ष सत्ता भी कह सकते हैं।
अब यदि हमें इन शब्दों के प्रति पूर्वाग्रह है तो हम नये शब्द गढ़ सकते हैं। अर्थात् हमें चाहे शब्द रचना बदलनी पड़े लेकिन हम एक भ्रष्टाचारमुक्त नैतिक समाज की स्थापना तभी कर सकेंगे जब इन तीनों सत्ताओं की व्यवस्था पद्धतियाँ बदलेंगे और तीनों सत्ताओं को स्वतन्त्र सत्ताऐं बनायेंगे। ताकि कोई भी सत्ता एक-दूसरी सत्ता पर अतिक्रमण नहीं करे। अतिक्रमण का परिणाम अव्यवस्था होता है।
भारत में धार्मिक सत्ता,राजनैतिक सत्ता[राज्य सत्ता] और आर्थिक सत्ता तीनों अपने-अपने कार्य क्षेत्र में स्वतन्त्र काम करती रही हैं।
भारत की इस 2700 वर्ष की ऐतिहासिक स्थिति का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि बीसवीं शताब्दी से पूर्व के भारत में ये तीनों सत्ताऐं-जब जब अपने-अपने दायरे में रही भारत स्वर्ग रहा और जब जब कभी कोई एक वर्ग सत्ता रहा,भारत भयानक विषमता की चपेट में आया।
प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व जो भारतीय अपनी क्षेत्रीय भौगोलिक-राजनैतिक स्थिति की जानकारी तक सीमित थे वे अचानक अन्र्तराष्ट्रीय, भौगोलिक-राजनैतिक स्थिति को जानने लग गये।
इसके समानान्तर एक नव-बौद्धिक, नव-धनाढ्य और नव-धार्मिक वर्ग उभरा जिसने भारत का बण्टाधार कर दिया। आज़ादी के बाद इस नव वर्ग के हाथ में सत्ता आई है तो भारत नये राजाओं[राजनीतिज्ञों] की फ़ौज पैदा करने वाली नर्सरी के रूप में उभरा है और तीनों नव-आचरण वालों के हथियार और ढाल बन कर राजनेताओं ने उस भारत को एक शर्मनाक स्थिति में ला खड़ा कर दिया है जो कभी विश्व गुरू था और सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में जिस भारतवर्ष और भारतदेश ने यूरोपीय राष्ट्रों को ऐश्वर्यशाली समृद्धि दी एवज में ख़ुद धृतराष्ट्र बन कर अभावग्रस्त हो गया।
अब इसे एक वाक्य में कहें तो भारत की बौद्धिक,राजनैतिक और आर्थिक सत्ताऐं अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय सत्ताओं द्वारा संचालित होने लगी हैं। इसकी पृष्ठभूमि में सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से आज तक की विभिन्न सत्ताओं की कहानियाँ हैं। घटनाक्रम को गम्भीरता से लिये बिना आप निकट भविष्य में बनने वाली प्रतिकूल एवं विषम स्थिति को गम्भीरता से नहीं ले पायेंगे।
इसी तरह सोलहवीं शताब्दी से पूर्व के भारत की स्थिति को जाने बिना आप सोलहवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुए घटनाक्रम को भी गम्भीरता से नहीं ले सकेंगे।
अतः आइये बुद्ध-महावीर से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी के भारत को समग्र दृष्टिकोणों से,नई दृष्टि से देखें।
कई बार ऐसा भी हो जाता है कि पुरानी किन्तु ऑरिजिनल चीज़ नई कही जाने लगती है। यह दृष्टिकोण भी ऐसा ही नया दृष्टिकोण है जो कि मूल दृष्टिकोण है।
ऐसा भी हो सकता है कि जो लोग तथ्य के परम्-अर्थ की अवहेलना करके स्व-अर्थ से विश्लेषण करेंगे। उन्हें इसमें किन्तु-परन्तु लगेगा लेकिन सर्वकल्याणकारी अर्थ तभी कहा जाता है जब उसका अर्थ स्वार्थ से मुक्त होकर परमार्थ यानी उस गहरे अर्थ तक लिया जाये जो अर्थ सभी पर समान अर्थ में लागू हो,सभी के स्वार्थ की एक समान आपूर्ति करे।
पौराणिक भारत/समग्र भारत का मूल स्वरूप
भारत का नाम कभी आर्यावर्त भी था। उससे पहले इसे जम्बुद्वीप नाम से भी जाना जाता था। भारत का नाम भारत कब पड़ा अभी यहाँ इस प्रसंग में नहीं जाकर इतना ही समझें कि तीन प्रकार के भारत हैं।
तीनों प्रकार के भारत के तीन-तीन आदर्श हैं। तीनों प्रकार के भारत के तीन राम हैं जो कि तीन प्रकार का पुरूषार्थ करने वाले तीन आदर्श पुरूष हैं और तीन भरत हैं जिनको तीन आदर्श आचरण कहा गया है जिनके नाम पर भारत का नाम भारत पड़ा।
जब हम भारत माता या जय भारती कहते हैं तो उसका तात्पर्य नौ प्रकार की अग्नियों में से उस अग्नि से होता है जिसका नाम भारती है।
1. 21-12-2012 से नयी अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक व्यवस्था बनाने की दिशा में काम शुरू होगा !
नष्ट होने वाली दुनिया से तात्पर्य यदि पृथ्वी या धरती से है,तब तो यह एक मूर्खतापूर्ण अवधारणा या कल्पना है!
दुनिया से तात्पर्य जगत(जीवजगत) से है तो यह जिज्ञासा का एक बिंदु है कि दुनिया का कालचक्र क्या है!
लम्बे कालचक्र को जानने से पूर्व यह जानना चाहिए कि माया सभ्यता के कैलेंडर की गणना का आधार क्या है और माया सभ्यता का ख़ुद का इतिहास क्या है,जो समाप्त हो गयी फिर भी दुनिया के फिर से समाप्त होने की भविष्यवाणी बता गयी!
उस भूतकाल का अध्ययन,जो वर्तमान से तुलना करने जैसा भी होता है और भविष्य भी होता है,तीन विधियों से होता है।
1. धार्मिक मान्यताओं एवं पौराणिक साहित्य से
2. श्रुति परम्परा से अर्थात पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाई जाने वाली कथाओं,क़िस्से-कहानियों एवं लिखित ऐतिहासिक साहित्य के माध्यम से।
1. अपने पूर्वजों की खोज करने और उन पर गर्व करने की मानसिकता के चलते यह मानसिकता भौतिकवादी तमोगुणी समाज में होती है।
अध्ययन का मन्तव्य एक सुन्दर सामाजिक ढाँचे की रचना करने के परिप्रेक्ष्य में समझें ताकि आत्म-अनुशासित रह कर नैतिकता के आधार वाली नीति पर चलने वाले समाज की रचना कर सकें। इसके लिए हमें इतिहास को एक विशेष दृष्टिकोण से समझना है। ताकि हम पूर्व की उन घटनाओं का अवलोकन करें जब भारत में रोज़गार की गारण्टी के लिए जाति प्रथा बनायी गयी ताकि वंश परम्परा के गुणसूत्र [Dynasty Chromosomal]के साथ अपने जॉब की शिक्षा के लिए शिक्षा संस्कार[Educational Values,Community values,Work Culture]हेतु व्यापारिक शिक्षण संस्थाओं में न जाना पड़े। अतः हम उन घटनाओं का अध्ययन करें और उन घटनाओं से सबक लें जिन घटनाओं के परिणामस्वरूप हम इस बुरे हालात में पहुँचे हैं कि आज न तो जाति को प्रथा बनाने के उद्देश्य को समझ पा रहे हैं और न ही उस का राजनैतिक लाभ उठा पा रहे हैं। यह भी जानें कि उन घटनाओं से पहले यह जाति प्रथा कैसी थी और उसके क्या-क्या लाभ और सुविधाएँ थीं ताकि हम वर्तमान में ऐसा कार्यक्रम बना सकें जो हमें सन्तुलित समाज व्यवस्था बनाने के लिए एक अवधारणा(दृष्टिकोण) दे सके।