vivarn

Gospel truth - "The species of animal (breed) born with it's own culture." Animal-species are classified by the shape of the body. While human species is the same in body shape like ॐ. But get classified as people of the group & sociaty of same mentality. In the beginning this classification remain limited to regionalism & personality. But later,these species are classified in perspective of growth of JAATI-DHARM (job responsibility),the growing community of diverse types of jobs, with development of civilizations.



कालांतर में यही जॉब-रेस्पोंसिबिलिटी यानी जातीय-धर्म मूर्खों के लिए तो पूर्वजों द्वारा बनाई गई परंपरा के नाम पर पूर्वाग्रह बन कर मानसिक-बेड़ियाँ बन जाती हैं और धूर्तों के लिए ये मूर्खों को बाँधने का साधन बन जाती हैं. इस के उपरांत भी विडम्बना यह है कि "जाति" विषयों को छूना पाप माना जाता है. मैं इस विषय को छूने जा रहा हूँ. देखना है कि आज का पत्रकार और समाज इस सामाजिक विषमता के विषय को, सामाजिक धर्म निभाते हुए वैचारिक मंथन का रूप देता है (यानी इस पर मंथन होता है) या मुझे ही अछूत बना लिया जाता है।

Later for fools, this job-responsibility (ethnic-religion) becomes bias caused mental cuffs made ​​by the ancients in the name of tradition. And for racketeers become a means to tie these fools. Besides this the irony is that the "race things" are considered a sin to touch . I'm going to touch this topic. It is to see if today's media and society, plays it's social duty and gives a form of an ideological churning to the topic of social asymmetry or consider even me as an untouchable.

कृपया सभी ब्लॉग पढ़ें और प्रारंभ से,शुरुआत के संदेशों से क्रमशः पढ़ना शुरू करें तभी आप सम्पादित किये गए सभी विषयों की कड़ियाँ जोड़ पायेंगे। सभी विषय एक साथ होने के कारण एक तरफ कुछ न कुछ रूचिकर मिल ही जायेगा तो दूसरी तरफ आपकी स्मृति और बौद्धिक क्षमता का आँकलन भी हो जायेगा कि आप सच में उस वर्ग में आने और रहने योग्य हैं जो उत्पादक वर्ग पर बोझ होते हैं।

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

7. बुद्ध-महावीर के अनुयायी दोनों दिशाओं में !

     बुद्ध ने अपने अनुयायियों को पूर्व दिशा में काम करने को कहा जहाँ वन क्षेत्र सुरक्षित थे तथा महावीर ने अपने अनुयायियों को भारत के पश्चिम में काम करने को कहा जहाँ रेगिस्तान अपने पाँव न सिर्फ पसार चुका था बल्कि और भी पसार रहा था। 
    अभी कुछ वर्ष पूर्व राजस्थान के रेतीले क्षेत्र में विशालकाय वृक्षों के जीवाष्म मिले जो यह प्रमाणित कर रहे थे कि दस हज़ार वर्ष पूर्व यहाँ हरियाली थी। 
    कृष्ण जब अपने परिजनों एवं ग्रामवासियों को द्वारका(गुजरात के समुद्रतट) में छोड़ कर अकेले ही कालयवन की सेना के सामने आ रहे थे तब कालयवन की सेना लूणी नदी के किनारे खड़ी थी। उस समय की लूणी नदी में पानी कितना था,मीठा था या खारा था यह तो बताना मुश्किल है लेकिन तब यह क्षेत्र इतना भयावह रेगिस्तान नहीं था बल्कि हरा भरा जंगल था और अरावली की पहाड़ियाँ यहाँ वर्षा कराने में सहभागी थीं। 
       इस तथ्य से इस बात की सम्भावना बढ़ जाती है कि ग्रीस,मिसापोटामियाँ और मिश्र की माया सभ्यता जब नष्ट हुई थी तो इसका कारण परमाणु युद्ध रहा होगा। यदि परमाणु युद्ध न भी हुआ हो तब भी किसी न किसी तरह के अग्नेयास्त्र काम में लिए गये थे उसी कारण  यह भूमि बंजर हुई। जैसे कि हिरोशिमा और नागासाकी हुए हैं। 
     इसी रेगिस्तान को हरा-भरा होने देने के लिए महावीर ने कहा था किसी भी हरे पौधे को मत उखाड़ो। जब पौधा बीज(जिन) पैदा करके स्वतः सूख जाये,तब उस पौधे के बीज को छोड़कर पौधे के अन्य अवशेष खाने के काम में लो। 
     जमीकन्द मत खाओ क्योंकि उनमें बीज नहीं होते अतः उन्हें ज़मीन के अन्दर ही विस्तार करने दो। 
बुद्ध एवं महावीर के दो सौ वर्षो तक आन्दोलन के परिणामस्वरूप भारत के वन क्षेत्र पुनः हरे-भरे हो गये थे। उनके अहिंसक सत्याग्रह आन्दोलन से कर्मकाण्डी वैदिक पुरोहितों द्वारा चलाये जा रहे वैदिक-यज्ञों में दी जाने वाली बलि पर अंकुश लगा। 
      दूसरी तरफ़ कृषि एवं पशुपालन वाले गाँव भी गणराज्यों के रूप में विकसित हुए। लेकिन जो आसुरी वैदिक यज्ञ करने वाले कर्मकाण्डी पुरोहित थे वे गणराज्यों के मुखियाओं को झाँसे में लेने में सफल हुए। 
   सत्व गुणी की बुद्धि सत्य का बोध करवाती है। जबकि रजोगुणी बुद्धि वाला तथ्य के पीछे के सत्य को जानने के बजाय तथ्य को अपने हित में प्रसंगानुसार उपयोग करता है तथा तमोगुणी बुद्धि सत्य को मिथ्या और मिथ्या को सत्य समझने लगती है। 
      जो भी नये-नये गणराज्यों के नये-नये गणाधीश बने उन्होंने उन आसुरी वैदिक यज्ञों को प्रसंगानुसार अपने लाभ में समझा और अपनी ईश्वर भोगी प्रवृत्ति के अनुकूल माना। 
      जब गणराज्यों के मुखिया गणाधीश के स्थान पर अपने आप को सर्वेसर्वा,स्वायम्भु,डिक्टेटर मानने लगे और रजोगुणी के स्थान पर रजोविकारी हो गये तो वे गणों(ग्रामीणजनों,ग्राम समूहों) को अपने सामने तुच्छ और दुर्बल समझने लगे एवं मनचाहा टेक्स(कर) वसूलने लगे और अत्याचार भी करने लगे। 
      सत्व प्रधान रजोगुणी में ईश्वर-भाव होता है अतः सभी प्रकार की प्रजा की सुरक्षा एवं संरक्षा का काम वह अपने प्रकृतिजनित स्वभाव से वशिभूत हुआ करता है लेकिन जब वही व्यक्ति रजोविकारी हो जाता है तो ईश्वर-भोगी हो जाता है तब उसी एक ही ईश्वर से बनी प्रजा को वह अपने जैसा महसूस नहीं करके उनका आर्थिक,देहिक एवं भावनात्मक शोषण एवं दोहन करने लग जाता है। 
वैदिक सभ्यता-संस्कृति एवं वैदिक भाषा में:-
-सत्व गुणी को देव,
-रजो गुणी को रक्षस एवं यक्ष तथा
-तमो गुणी को यक्ष एवं भूतगण कहा गया है। 
     देव प्रकृति वाला विद्याओं का सृजन करने वाला टेक्नीशियन होता है। वह अपनी प्रकृति से वशीभूत हुआ चिकित्सा,इन्जिनियरिंग,वैज्ञानिक कार्यों की तरफ प्रेरित होता है। 
     रक्षस से दो शब्द बने रक्षक एवं राक्षस। रजोगुणी रक्षक होता है और रजोविकारी राक्षस। यह प्रकृति व्यक्ति को सैनिक,सुरक्षाकर्मी और सेना-नायक व राजा बनने की तरफ प्रेरित करती है। नियमानुसार शासक न बनने पर वह विद्रोही हो जाता है और आतंक का सहारा लेता है। 
     यक्ष की प्रकृति अनुबन्ध में बँधने एवं बाँधने की होती है।
     बहुसंख्यक औद्योगिक श्रमिक तमोगुणी भूतगण कहलाते हैं।  
     देव जहां विद्याऐं सिखाकर जीविकाउपार्जन का मार्ग बताकर साधारण,जन-साधारण,साधुजन पर अनुग्रह करता है और उसे स्वतन्त्र जीवन जीने का,अपने पैरों पर खड़ा करने का काम करता है; रक्षस उसी जनसाधारण वर्ग को शारीरिक सुरक्षा देकर या उस पर बल प्रयोग करके उसके परिश्रम की कमाई पर आश्रित होना पसन्द करता है। जबकि यक्ष वह आचरण होता है जो अनुबन्ध में बांध कर जन-साधारण भूतगणों पर शासन करता है। 
   वेतन व्यवस्था अनुबन्ध की शासन-प्रशासन पद्धति है। एक यक्ष एक तरफ तो राक्षसों एवं रक्षकों को अनुबन्ध में बाँध कर उनका उपयोग अपने हित में करता है दूसरी तरफ जनसाधारण को अनुबन्ध में बांध कर उनका आर्थिक शोषण करता है। अनुबन्ध में बंधे राक्षसों से बल प्रयोग करवा कर अनुबन्ध को मानने पर मजबूर कर देता है। 
   वर्तमान समय में बुद्ध एवं महावीर के उपदेशों को मात्र दर्शन बताने का काम यूरोपियन यक्षों ने किया है और नवबौद्धिक वर्ग ने इसे स्वीकार कर लिया। जबकि बौद्ध-जैन सम्प्रदाय पूर्णतया व्यावहारिक धरातल पर चलने वाला आचरण है। जो जीवन में प्रयोग में लाया जाने वाला उपयोगी और प्रेक्टिकल ज्ञान-विज्ञान है। इसी का परिणाम था कि भारत में सनातन धर्म पुनः विकसित हुआ भारत भूमि दो सौ वर्ष में पुनः ‘‘शस्य-श्यामला वसुंधरा‘‘ बनी। एक अहिंसक आन्दोलन ने भारत के वनों को संरक्षित एवं सुरक्षित किया और उनका विस्तार किया। 
   लेकिन दो सौ वर्ष पश्चात् एक घटना घटी। जो लोग छोटे-छोटे राज्यों के राजा बने बैठे राक्षस प्रवृति के लोग थे,उनको हिला देने वाला एक यक्ष,राक्षसों की लेकर युनान से आया जिसका नाम सिकन्दर था। ग्रीस के युनानी यवन कहे गये थे। 
    उसकी विश्व विजय का अभियान इसलिए सफल होता जा रहा था कि वह यक्ष था अतः वह स्वयं तो सेना के पीछे रहता था और अनुबन्ध से बंधे सैनिक राज सत्ताओं पर आक्रमण करते। जीतने के बाद हारी हुई सेना के सैनिकों को भी वह अनुबन्ध में बांध लेता और जीते हुए स्वर्ण को अपने अधीन कर लेता। 
    सिकन्दर ने अनुबन्ध में बँधे देवों(इतिहास लेखकों) से लिखवा लिया कि वह भारत से जीत कर गया था लेकिन सच्चाई यह है कि भारत से वह बुरी तरह हार कर खाली हाथ गया था और मार्ग में ही उसका देहान्त हो गया था। 
   सिकन्दर के आने की घटना का प्रभाव भारत पर यह पड़ा कि भारतीय भी ‘‘सम्राट क्या होता है‘‘ इसे जानने लगे थे। उसी काल-खण्ड में चाणक्य का उदय हुआ जिसने चन्द्रगुप्त को सम्राट बनाकर यानी शासक बना कर प्रशासन अपने हाथ में ले लिया।

6. बुद्ध एवं महावीर की जोड़ी ने ब्रह्म-परम्परा एवं वेद-परम्परा के मूल रूप को पुनः स्थापित किया !

 जब माया सभ्यता के पतन के लगभग एक हज़ार वर्ष बाद बचे हुए यक्षों में जनसँख्या वृद्धि हुई तो भारत में यक्षों का पुनः आवागमन अथवा आगमन हुआ। सत्रहवीं सदी से यूरोपियन समुदायों ने भारत की वनसम्पदाओं का जिस तरह दोहन किया है वैसा ही दोहन उस समय शुरू हुआ था। तब बुद्ध एवं महावीर की जोड़ी ने ब्रह्म-परम्परा एवं वेद-परम्परा के मूल रूप को आदिवासियों में पुनः स्थापित किया। 
   उस समय सिद्धार्थ का नाम बुद्ध इसलिए पड़ा कि उन्होंने बोधिसत्व की प्राप्ति की थी। बोधिसत्व की प्राप्ति को लेकर अनेक दार्शनिक विवेचन पढ़ने को मिलते हैं जो इस सीधी-सादी बात को गूढ़ रहस्य बनाने का भ्रामक आचरण है। 
     हमारे शरीर रूपी संयत्र में जठराग्नि के माध्यम से यज्ञ का संचालन होता है। इस यज्ञ में तीन तरह के तत्वों[एलीमेण्टस] का निर्माण होता है और इन उत्पादनों के लिए जो कच्चा माल[raw material] होता है वह होता है हमारा आहार। 
   इस आहार का आमाशय[पेट] नामक भट्टी में प्रसंस्करण होता है और इस प्रोसेस में जो तीन तरह के उत्पाद होते हैं,वे इस शरीर रूपी यंत्र में चलने वाले तीन तंत्रों को ऊर्जा देते हैं, उनकी क्षतिपूर्ति करते हैं और उनका संचालन भी यही तीन तरह के उत्पाद करते हैं। ये तीन तंत्र[सिस्टम] हैं:-
1. तंत्रिका तंत्र (नर्वस् सिस्टम)
2. रक्त परिवहन तंत्र (ब्लड सर्कुलेशन सिस्टम)
3. मांसपेशी तंत्र (मस्कुलर सिस्टम)
    इन तीन तत्रों को संचालित करने के लिए जो तीन तत्व बनते हैं उन्हें शरीर की तीन प्रकार की प्रकृति भी कहा जाता है। 
1. कफ  प्रकृति
2. पित्त  प्रकृति
3. वात प्रकृति
इन तीनों से तीन प्रकार के भाव पैदा होते हैं -
1. सत्व
2. रज
3. तम
इन तीनों के संचालन केन्द्र होते हैं। 
1. मस्तिष्क
2. हृदय 
3. नाभि 
शरीर का कुल प्रतिशत 100 माना जाये तो ये 33-33-33 प्रतिशत होते हैं। इसे सम स्थिति कहा जाता है।  
सत्व का निर्माण एवं उत्पादन स्टार्च वसा एवं शर्करा अन्न(दूध,घी-चीनी) से होता है या मीठे फलों या शहद से होता है। 
रज का निर्माण एवं उत्पादन प्रोटीन से होता है। 
    तम का विटामिन एवं मिनरल से होता है। 
    तीनों सम होने से सन्तुलित कहा जाता है जबकि एक की अधिकता से वह विषिष्ट वर्ग में आ जाता है। 
तंत्रिका तंत्र,रक्त परिवहन तंत्र एवं मांसपेशी तंत्र तीनों आपस में गुँथे हुए से पूरी देह में फैले होते हैं। 
रज-तम को आवृत्त करके सत्व बढ़ता है। 
     सत्व-तम को आवृत्त करके रज बढ़ता है। 
     सत्व-रज को आवृत्त करके तम बढ़ता है । 
ये तीनों विकार सहित गुण कहे गये हैं। लेकिन सत्व के विकार में दोष नहीं होता। 
  (1) सत्व की अधिकता वाला ब्रह्म के भाव से भावित रहता है और रचनात्मक कार्यों में रूचि रखता है (2) रज की अधिकता वाला ईश्वर भाव से भावित रहता है अतः संरक्षक बनना चाहता है और राज करना चाहता है। (3) तम की अधिकता वाला सेवा कार्य एवं दया भाव से भावित रहता है अतः सभी वर्गों को आवश्यक सामग्री की आपूर्ति करना चाहता है और व्यापार करना चाहता है। 
       सत्व का विकार व्यक्ति को सात्विक बना देता है तब वह निष्क्रिय और उदासीन होकर अपनी रचनाधर्मिता के आचरण का त्याग कर देता है। इससे समाज को लाभ नहीं मिलता तो समाज को नुकसान भी नहीं होता। 
रज के विकार से व्यक्ति राजसी हो जाता है तब वह ऐश्वर्य भोगने की कामना वाला हो जाता है और उस की कामना में अवरोध आने पर वह क्रोधित होकर आक्रामक हो जाता है। 
तम के विकार से वह तामसी हो जाता है और कंजूस,अंधानुयायी और अंधभक्त हो जाता है। 
बुद्ध ने देखा कि एक वर्ग जो मादक पदार्थों के सेवन और अत्यधिक प्रोटीनयुक्त आहार(मांसाहार) से राजसी प्रवृति का राक्षस हो गया है और उनके आडम्बरपूर्ण कर्मकाण्डों से प्रभावित हुआ एक वर्ग उनका अन्धानुयाई हो गया है और कुपोषण का शिकार होकर दीन-हीन हो गया है। तब उन्होंने कहा उस सत्व की वृद्धि करो जो तुम्हारे अन्दर यह बोध(सेन्स) पैदा करे कि तुम्हें क्या करना व क्या नहीं करना है !
उन्होंने कहा तुम वन्य प्राणियों का शिकार करते हो यह गलत है क्योंकि इससे सनातन धर्म चक्र (ईकोचैनल) टूट जाता है। तुम सत्व प्रधान आहार से बोध पैदा करने वाले सत्व को प्राप्त करो। 
बुद्ध ने बोध(सेन्स) को पैदा करने और बढ़ाने का मार्ग बताया। वन्य प्राणियों की रक्षा और ईकोसेटअप (सनातन धर्म) की रक्षा तथा सनातन धर्म का संवर्धन एवं विस्तार करने के लिए प्रेरित किया।  प्रेरणा देने के लिए स्वयं ने राजपद त्याग कर शिक्षा के विस्तार के काम हाथ में लिए जो शिक्षा साक्षरता नहीं थी बल्कि बोध को विकसित करने की विद्याऐं थीं। 
यह ब्रह्म-परम्परा का मार्ग था। यहाँ ब्रह्म का तात्पर्य ब्रेन(तंत्रिका तंत्र) में सत्व की मात्रा बढ़ाने से भी है तो ब्रह्म का एक पयार्यवाची शब्द चेतना भी होता है।
वनस्पति में ब्रेन(तंत्रिका तंत्र) नहीं होता फिर भी उसमें चेतना तो होती ही है। इसे हम अवचेतन मन भी कहते हैं अतः बौद्ध-सम्प्रदाय के मुख्यालय चैत्यालय भी कहे जाते हैं। 
संस्कृत के शास्त्र शब्द से ग्रीक में सेन्स शब्द बना तो लेटिन में साईन्स शब्द बना। 
बुद्ध ने सेंस को विकसित करने के प्रेक्टिकल उपाय बताये तो महावीर ने शरीर एवं संतति विस्तार की साईन्स बताई। 
महावीर का सम्प्रदाय जैन सम्प्रदाय कहा जाता है। जैन अर्थात् जो जिन[गुण सूत्रों] को तत्व से जानता हो।Knowledge of chromosomal elements. जिन से तीन शब्द विकसित हुए। 
- संस्कृत में जीव या जीव-आत्मा।
- लेटिन में जेनेटिक्स वाला जीन यानी शुक्राणुओं में पाये जाने वाले गुण-सूत्र।
- ग्रीक में यह आत्मा का पर्यायवाची शब्द जिन्न बना। 
       आत्मा से एटम atoms, मुदगल् से मोलिक्यूल molecules बना।
       एक इन्द्रिय जीव यानी एक कोषीय जीव से पंच इन्द्रिय की क्रमिक विकास यात्रा साईंस का विषय है। 
       आयुर्वेद की वैज्ञानिक शब्दावली में सत्व शब्द अनेक रूपों में उपयोग होता है। जैसे कि आप कब्ज को हटाने के लिए सत्व-ईसबगोल काम में लेते है। यानी बीज या बीज के छिलके के अन्दर के तत्व सत्व कहे गये है। नीम्बू के सत्व से अर्थ है किसी भी तत्व का सांध्रित (concentrated) रूप। 
     इसी तरह वीर्य को भी सत्व कहा जाता है और तंत्रिका तंत्र की तंत्रिकाओं के माध्यम से पूरे शरीर में फैला व्हाईट फ्ल्युड (कफ) तो मूल रूप से सत्व होता ही है। 
       बुद्ध ने जहाँ बह्मचर्य की पालना करके सत्व से बोधिसत्व को प्राप्त करने की बात कही वहीं महावीर ने वीर्यवान वीर से भी आगे बढ़कर महावीर्यवान यानी महावीर बनने को प्रेरित किया। जितेन्द्रिय बनने के लिये कहा। 
       जनसंख्या की वृद्धि के लिए महावीर ने जिनालय और नसियाँ विकसित कीं। आपने जैन सम्प्रदाय की नसियाँ देखी-सुनी होंगी। 
  नसियां शब्द से नर्सरी शब्द बना। नर्सरी शब्द का आप तीन जगह उपयोग करते हैं। 
1. प्लाण्ट नर्सरी(पौधशाला)
2. नर्सिंग होम(सन्तान पैदा करने का स्थान)
3. नर्सरी कक्षा(बच्चों को स्वप्रेरणा से स्वाध्याय करने की सुविधा देने वाला स्थान)
     जैन सम्प्रदाय के लोग जब अभिवादन करते हैं तो बोलते हैं जय जिनेन्द्र। जिसका अर्थ होता है जननेन्द्रियों की जय। उसके लिए आत्म-कल्याण की तरफ प्रेरित होकर पहले अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाले आत्म-संयम योग पर आरूढ़ होना पड़ता है। तब वह अपनी इन्दियों को जीत लेता है तब वह जितेन्द्रिय कहलाने लग जाता है।  जितेन्द्रिय वह है जिसके लिए जनन-इन्द्रियाँ सिर्फ़ सन्तानोत्पादन के लिए होती है न कि ईश्वर के बनाये शरीर को भोगने के लिए यानी ईश्वर भोगी बनने के लिए नहीं होती हैं।   
    बुद्ध को सनातन धर्म की सुरक्षा के लिए चलाने वाले आन्दोलनकारी के रूप में विष्णु के नौवें अवतार के रूप में मान्यता दी गई। 
     जब कि महावीर को शैव सम्प्रदाय के नाथ एवं स्वामी सम्प्रदाय में मान्यता देकर उन्हें पच्चीसवाँ तीर्थंकर घोषित किया गया। 
       आदिनाथ और पशुपतिनाथ नाम की दोनों परम्परायें शैव सम्प्रदाय की परम्परायें मानी गई हैं। दोनों में फर्क इतना ही है कि पशुपतिनाथ सम्प्रदाय वाले वनों की सुरक्षा के लिए हथियार उठाने को भी सक्षम एवं स्वतन्त्र होते हैं जबकि बौद्ध एवं जैन ऐसा नहीं करने को पाबन्द होते हैं

5. बुद्ध-महावीर काल[वर्तमान कल्प का आदिकाल] !


 कल्प बनाम युग

   कल्प एवं युग; ये दो शब्द समय को नापने की इकाईयाँ हैं। 
युग उस काल-खण्ड को कहा जाता है जो प्रकृति निर्मित पिण्डों के परिभ्रमण से बने काल खण्ड होते हैं। जो काल खण्ड 12 के जोड़-बाक़ी-गुणा-भाग से बनता है। जैसे कि...
  12-12 होरा[Hours, घण्टों] का एक दिन-रात। 
12 महीनों का एक वर्ष। 
12 दिनों का अन्तिम संस्कार कार्यक्रम। 
12 वर्षो के अन्तरात में कुम्भ का मेला। 
120 वर्षो की मनुष्य की एक पूर्ण आयु।[ज्योतिष में नौ ग्रह बारह राशियों में अपना भ्रमण पूर्ण करते हैं तो उन्हें 120 वर्षो लगते हैं]।
1200 वर्ष के अंतराल में युगान्तरकारी परिवर्तन माना जाता है। 
12000 वर्ष का एक कलियुग माना जाता है। 
12000 गुना 2 = 24000 वर्ष का द्वापर माना जाता है। 
12000 गुणा 3 यानी तीन कलियुगों जितना अर्थात् 36000 वर्ष का एक त्रेता युग तथा 
12000गुणा 4 = 48000 वर्ष का एक सतयुग और 
12 + 24 + 36 + 48 = 1 लाख 20 हज़ार वर्ष का पुनः एक कल्कि युग अर्थात् प्रत्येक चतुष्युगी भी बारह की संख्या में पूर्ण होती है। यह युग उसी तरह चलता है जैसे महादशा में अन्तर्दशा तथा अन्तर्दशा में प्रत्यान्तर-दशा। 
   प्रत्येक चतुष्युगी के बाद इतना ही बड़ा कृतयुग होता है। युग का निर्माण विष्णु करते हैं। विष्णु का अर्थ अणु में व्याप्त[अणु की प्रकृति]। अणुओं से पिण्ड बनते हैं और पिण्डों से ब्रह्माण्ड बनते हैं। ब्रह्माण्ड का संचालक ब्रह्म[सूर्य] होता है जो जीव जगत में चेतना का कारण है। 
   यही विष्णु[प्रकृति] जब अणुओं में व्याप्त होकर देह नामक पिण्ड की रचना करता है तो उस पिण्ड का ब्रह्म होता है ब्रेन। कल्प उस काल खण्ड को कहा जाता है जब कोई ब्रह्मा[ब्रह्म में रमण करने वाला ब्राह्मण यानी कल्पनाशील दार्शनिक-वैज्ञानिक] अपनी कल्पना से संकल्प-विकल्प का सहारा लेकर एक नये कल्प का प्रारम्भ करता हैं। 
   अर्थात् कल्प का आदि कारण ब्रह्मा होता है और युग परिवर्तन का आदिकारण पिण्डों की चक्रीय गति वाली प्रकृति होती है अर्थात् कल्प का काल खण्ड निर्धारण करने वाला ब्रह्म (Consciousnes,Rationality ) प्रकृति का वह रूप है जो मात्र सजीव प्राणी में होता है और विष्णु प्रकृति का वह रूप है जो सजीव-निर्जीव सभी अणुओं में व्याप्त रहता है। 
   आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व कृष्ण-बलराम ने भारत को तो उस जीवन शैली से मुक्त करा दिया था जो सनातन-धर्म[ईको सिस्टम] को नष्ट करती है लेकिन पश्चिम एशिया के मिसापोटामिया[वर्तमान का ईराक] दक्षिण यूरोप का ग्रीस और उत्तर-पूर्व अफ्रीका का मिश्र इस मायावी सभ्यता का केन्द्र बन गया था। 
    आज से साढ़े तीन-चार हजार वर्ष पर यह सभ्यता परवान पर चढ़ी और अग्नि की ज्वाला में भस्म हो गई। हो सकता है उस अग्नि में एटोमिक-ऊर्जा की भी भूमिका रही हो। अब यह कहना तो मुश्किल है कि भारत का ईकोसिस्टम और भारत की जनसंख्या पर उस विनाशकारी युद्ध का ही प्रभाव पड़ा था या कोई अन्य कारण भी उसमें जुड़े थे; लेकिन जब बुद्ध-महावीर की जोड़ी ने सनातन धर्म[ईकोसिस्टम] की रक्षा करने का कार्यक्रम चलाया था तब भारत में दो समस्याऐं थीं। एक तो जन संख्या का धनत्व बहुत कम हो चुका था दूसरी तरफ वनों का विकास भी रूका हुआ सा था। 
    जो लोग अपने आप को वैदिक कहते थे, वे शराब तथा अन्य मादक पदार्थों का निर्माण करने में माहिर थे और उनके पास अग्नि भी हुआ करती थी। वे वन्य प्राणियों का शिकार करते और करवाते थे और मांसाहार एवं मादक पदार्थों का सेवन करने और काम-भोग में लिप्त रहने लगे थे। 
    उस समय बुद्ध एवं महावीर की जोड़ी ने ब्रह्म-परम्परा एवं वेद-परम्परा के मूल रूप को पुनः स्थापित किया। सिद्धार्थ का नाम बुद्ध इसलिए पड़ा कि उन्होंने बोधिसत्व की प्राप्ति की थी। बोधिसत्व की प्राप्ति को लेकर अनेक दार्शनिक विवेचन पढ़ने को मिलते हैं जो इस सीधी-सादी बात को गूढ़ रहस्य बनाने का भ्रामक आचरण है। 
   हमारे शरीर रूपी संयत्र में जठराग्नि के माध्यम से यज्ञ का संचालन होता है। इस यज्ञ में सत्व-रज-तम; तीन तरह के तत्वों[एलीमेण्टस] का निर्माण होता है और इन उत्पादनों के लिए जो कच्चा माल[Raw Material] होता है वह होता है हमारा आहार। इससे सत्व का निर्माण होता है।
  सत्व तंत्रिकातंत्र [Nervous system] में होता है जब इस सत्व की मात्रा पर्याप्त होती है तो व्यक्ति सात्विक बुद्धि का हो जाता है उसी को बोधिसत्व की प्राप्ति कहा गया है। सत्व का एक और पर्यायवाची नाम वीर्य होता है जो सन्तति विस्तार हेतु होता है। इन्हीं को ऊर्ध्वगामी और अधोगामी सत्व कहा जाता है। इन्हीं दोनों विषयान्तर्गत बुद्ध-महावीर की जोड़ी ने आदिवासी समुदाय को जानकारी दी थी। जो ब्रह्म और वेद परम्परा के नाम से सनातन ज्ञान परम्पराएँ हैं। 





4. अनाथों के नाथ आदिनाथ-पशुपतिनाथ !



        आदिनाथ और पशुपतिनाथ नाम की दोनों परम्परायें शैव सम्प्रदाय की परम्परायें मानी गई हैं। दोनों में फर्क इतना ही है कि पशुपतिनाथ सम्प्रदाय वाले वनों की सुरक्षा के लिए हथियार उठाने को भी सक्षम एवं स्वतन्त्र होते हैं जबकि बौद्ध एवं जैन ऐसा नहीं करने को पाबन्द होते हैं। 
      जब क्षत्रिय वनों पर अतिक्रमण करते हैं या हिंसक पशु बढ़ जाते हैं तब ब्राह्मण परम्परा के परशुराम और शैव परम्परा के सन्यासी हथियार उठाते हैं। इनके हाथ में कुल्हाड़ी,त्रिशूल,भाला इत्यादि रहते हैं। 
       जब व्यापारी लोग वनोत्पादन का व्यापारिक दोहन करते हैं तो बौद्ध-जैन अहिंसा का मार्ग अपनाकर वनों का संरक्षण करते हैं। 
      शिव का एक नाम रूद्र है। रूद्र का अर्थ होता है विद्रोह करना या रौद्र रूप धारण करना जबकि रूद्र का धर्म अहिंसा बताया गया है। 
      अहिंसा का सही-सही शब्दार्थ होता है किसी की भी मान्यताओं,विचारों,अवधाराणाओं को अमान्य नहीं करना लेकिन अपने ध्येय की मान्यताओं को मानते रहना। इसीलिए शिव असुरों को भी वरदान दे देते हैं।
     2700 वर्ष पूर्व बुद्ध-महावीर काल को हम वर्त्तमान इतिहास या आधुनिक इतिहास का आदिकाल मानते हैं।
      2700 वर्ष पूर्व तथा 2500 वर्ष पूर्व के बीच के 200 वर्षों के अन्तराल में भारतवर्ष पुनः शस्य श्यामला वसुन्धरा हो गया था और जनसंख्या[वनवासी जनसंख्या] का भी काफ़ी विस्तार हो गया था। 
       इस बिन्दु पर एक दूसरी विचारधारा भी बनती है कि भारत वर्ष पूरी तरह हरा-भरा था और वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था वाला यानी रेन फोरेस्ट ईकोलोजी वाला क्षेत्र था। उसी समय वे यक्ष जिन्हें यवन कहा गया था पुनः भारत आने लगे थे। 
    जिनका सम्राट कालयंवन आज से पांच हजार वर्ष तथा बुद्ध महावीर के समय से ढ़ाई हजार वर्ष पूर्व के महाभारत काल में हुआ था। कालयवन नामक यक्ष को मारने से शरू हुआ यह सिलसिला महाभारत के युद्ध के बाद तेज हो गया था तब उन यक्षों को कृष्ण बलराम ने एक-एक करके खदेड़ा था,जिन्होंने बाद में अपने मूल पैतृक स्थान केस्पीयन सागर क्षेत्र में माया सभ्यता का विकास किया। यह माया सभ्यता भी आज से तीन हजार वर्ष पूर्व अग्नि की भेंट चढ़ गयी थी। तब यक्ष जिन्हें पहले यवन नाम से जानते थे आज यहूदी नाम से जाने जाते हैं भारत आने लगे थे।
    वे यक्ष बुद्ध महावीर के समय पुनः भारत में स्थापित होने लगे और अपनी वित्त,पूंजी,मुद्रा के माध्यम से भारत का आर्थिक दोहन करने लगे थे,जिनसे भारत वर्ष में सनातनधर्म(पारिस्थितिकी) की रक्षा करने के लिए बुद्ध एवं महावीर ने अपने आप का सृजन किया था। 
    चुंकि ये यक्ष जिन्हें यवन कहा गया है और वर्तमान में जिन्हें यहूदी और Jewish कहा जाता है,वित्तीय सत्ता स्थापित कर के लिए प्राकृतिक संसाधनों को बार-बार नष्ट करते आये हैं। वित्त की व्यवस्था से आर्थिक शोषण करके एक बड़े जनसमुदाय को गरीब बनाते आये हैं और इसी बिन्दु पर बार-बार मार भी खाते रहे हैं। 
      बुद्ध महावीर काल के दो तीन सौ वर्ष बाद सिकन्दर आया था। उसने भी मार खाई थी लेकिन अपने तरीके से इतिहास लिखवाया। पैग़म्बर मोहम्मद ने भी इन्हीं के विरूद्ध इस्लामिक आन्दोलन चलाया था।   
      हिटलर ने भी इनको इसलिए मारा था कि इन्होंने जर्मनी में अपनी वित्तीय सत्ता के माध्यम से जापानी औद्योगिक श्रमिकों और जर्मन टेक्नीशियन के शोषण की अति कर दी थी। लेनिन एवं मार्क्स ने भी इन्हीं के विरोध में साम्यवाद की अवधारणा विकसित की थी। इन्हीं से भारत की रक्षा करने हेतु सिद्धार्थ और वर्धमान ने अपने आप का सृजन बुद्ध एवं महावीर रूप में किया। 
    बुद्ध ने अपने अनुयायियों को पूर्व दिशा में काम करने को कहा,जहाँ वन क्षेत्र सुरक्षित थे तथा महावीर ने अपने अनुयायियों को भारत के पश्चिम में काम करने को कहा जहाँ रेगिस्तान अपने पाँव न सिर्फ पसार चुका था बल्कि और भी पसार रहा था।

3. सांस्कृतिक इतिहास !

        ऐहित्य ज्ञान भावित्य की भूमि होती है-- ऐहित्य (ऐतिहासिक साहित्य से प्राप्त) ज्ञान (सफलता विफलता के द्विपक्षीय कारणों की जानकारी) भावित्य (भावी जीवन, भविष्य की रूपरेखा)  बनाने की भूमिका बनाती है। 
      भूमिका में जो कहा जाता है वह मूल कथन का वह बीज होता है जिसको अंकुरित करने के लिए भूमि तैयार की जाती है या कहें, भूमिका वह भूमि होती है जहाँ कथन की मूल(जड़) को रोपित किया जाता है या कहें, भूमिका में जो कहा जाता है उसी को पढ़ कर पाठक के मस्तिष्क में विचारों की उपज तैयार होती है| भूमिका में मैं विगत 2700 वर्षों के ज्ञात इतिहास का लेखा-जोखा दे रहा हूँ लेकिन यह इतिहास वह इतिहास नहीं है जो आपने अभी तक पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा है। यहाँ सांस्कृतिक इतिहास दिया जा रहा है। 
      पाठ्य पुस्तकों में सिर्फ राजनैतिक सत्ताओं का इतिहास है वह भी उन पर्यटकों की डायरियों के माध्यम से जाना गया इतिहास है जो भारत में भ्रमण करने आते रहे थे। ऐसा इसलिए है कि भारत में राजनैतिक सत्ताओं की उठा-पठक का इतिहास कभी भी नहीं लिखा गया। भारत में ऐहित्य नाम से जो भी लिखा गया है  वह उन्हीं राजनैतिक सत्ताओं का इतिहास था जिनके कार्यकाल में संस्कृति-सभ्यता को नये आयाम मिले। 

 संस्कृति:-

     संस्कृति के लिए वेदों में भी कहा गया है कि प्रत्येक प्रजाति का जीव अपने साथ अपनी संस्कृति (प्रजाति,नस्ल,Species के आचरण के संस्कार) लेकर पैदा होता है। जबकि सभ्यता का विकास किया जाता है।

 सभ्यता:- 

         यह सर्वमान्य तथ्य है कि जहाँ मानव निर्मित संविधान,विधि-विधान,मान्यताऐं,आचार-संहिताऐं,शिष्टाचार बनाए जाते हैं वे किसी एक काल-स्थान-परिस्थिति के संयोग से निर्मित परिवेश के अनुरूप व अनुकूल बनाये जाते हैं। जब वे विद्रूप और प्रतिकूल हो जाते हैं तो उन्हें बदलना चाहिये। अतः सभ्यता के मापदण्ड समयानुरूप बदलते रहते हैं।

संस्कृति का आधार सभ्यता:-

    अन्य जीव प्रजातियों एवं मानव जाति में एक मूलभूत भिन्नता है। अन्य जीव प्रजातियाँ अपने मूर्ति रूप[मूर्त रूप] से पहचानी जाती हैं; जैसे कि गाय,घोड़ा,ऊँट,बकरी इत्यादि चौरासी लाख आकृतियों में बँटी जीव योनियाँ कही गई हैं। जबकि मानव जाति की सभी प्रजातियाँ मूर्ति रूप में तो एक जैसी हैं लेकिन मानसिक रूप में मानव जाति अनेक मानसिक प्रजातियों में वर्गीकृत होती हैं। अतः इनके संस्कार भी भिन्न-भिन्न होते हैं। अतः मानवीय सभ्यता के विकास का आधार संस्कृति को बनाया जाता है और संस्कृति का धरातल मजबूत करने के लिए बालपन की वय से ही संस्कार विकसित किये जाते हैं।
सभ्यता संस्कृति के चरण:-
    संस्कृति -सभ्यता को विकास के क्रम से तीन चरणों एवं तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। प्राकृत संस्कृति-ब्राह्मण संस्कृति-वैदिक संस्कृति। 
    जब विकास तीसरे चरण और उच्चतम स्तर पर आ जाता है तो उसके बाद उसको सीमा में बाँधा जाता है लेकिन जब वह विकास अपनी सीमा का उल्लंघन करके अति पर उतारू हो जाता है तो वह विकास ताश के पत्तों से बने महल की तरह धराशायी हो जाता है "क्योंकि अति सर्वत्र वर्जयेत।"
   जब विकास धराशायी हो जाता है तो वह मानव सभ्यता-संस्कृति के कल्प का अन्त माना जाता है। वहां से मानव सभ्यता संस्कृति का पुनः आदिकाल प्रारम्भ होता है। आदि एवं अन्त का यह चक्र अनादिकाल से चल रहा है।
     आदिकाल में जब विकास का प्रथम चरण चल रहा होता है तो उसे प्राकृत संस्कृति कहा जाता है। जिसकी अर्थव्यवस्था को वनोत्पादन की अर्थव्यवस्था  कहा जाता है और उसकी सभ्यता संस्कृति प्राकृतिक जीवन शैली के रूप में होती है। 
    जब जनसंख्या में वृद्धि हो जाती है और वनों में उत्पन्न कन्द-मूल,पत्र-पुष्प,फल-शहद पर्याप्त उदरपूर्ति नहीं कर पाते तब मानव द्वारा अपने ब्रह्म(ब्रेन) का उपयोग करके यानी चिन्तन-मनन करके यानी ब्रह्म में रमण करके कम से कम श्रम से उच्च गुणवत्ता का पौष्टिक आहार प्राप्त करने का उपाय करने वाली संस्कृति विकसित होती है उसको ब्राह्मण-संस्कृति कहा गया है। यहाँ से गोपालन एवं कृषि ग्रामीण व्यवस्था या गणराज्य व्यवस्था का प्रारम्भ होता है। 
     विकास के इस दूसरे चरण को पार करके तीसरे चरण में आते हैं तो वह वैदिक-सभ्यता कही जाती है। 
ट्रेड एण्ड इण्डस्ट्रीज जिसकी अर्थव्यवस्था का आधार होता है। नगरों का निर्माण करना और साइंस एण्ड टेक्नोलोजी के माध्यम से भौतिक विकास करना उनकी जीवनशैली होती है। यहाँ से साम्राज्य व्यवस्था शुरू होती है। यहाँ ग्रामीण सभ्य नागरिक कहलाने लग जाते हैं। जबकि वर्तमान में हम सभी असभ्य, असंस्कारित,अज्ञानी,अशिक्षित हो गये है जो पत्थरों के जंगलों में अपवित्र,दुराचारी,हिंसक पशु समान हैं । 

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

2. शब्द-ब्रह्म !

         इस भूमिका के माध्यम से जो मैं बताने जा रहा हूँ,उसमें सबसे बड़ी अड़चन कहें या रोचकता एक बिन्दु पर आएगी,वह है भाषा में शब्दों का उपयोग। 
       शब्द को शब्द-ब्रह्म भी कहा गया है। क्योंकि शब्द का अर्थ जानने से ही हमारे ब्रह्म(ब्रेन) में रासायनिक क्रिया होती है और हम उस शब्द के परिप्रेक्ष्य में एक डिज़ाइन बनाते हैं। यदि हम शब्द का अर्थ नहीं जानकर मात्र व्याकरण में ही उलझे रहते हैं तो किसी की भी कही हुई बात को तथ्यपरक नहीं जान सकते। विशेषकर जो बात धर्म एवं विज्ञान के विषयान्तर्गत होती है,उसे तो बिल्कुल ही नहीं। जैसे ब्रह्म को ही लें। जब तक आप यह नहीं जानेंगे कि संस्कृत के ब्रह्म का लेटिन उच्चारण ब्रेन है,तब तक आप उलझे रहेंगे। 
       अतः जब मैं अपनी कही हुई बात को प्रामाणिक बनाने के लिए गीता अथवा अन्य धार्मिक-वैज्ञानिक पुस्तक की भाषा का उपयोग करूँगा तो वहाँ पर उन शब्दों के अर्थ बताने आवश्यक होंगे जिन शब्दों का मैं उपयोग करूँगा। क्योंकि इन सभी शब्दों को लेकर पूर्वाग्रह और भ्रामक अवधारणायें विकसित हो गई हैं।   
      इस तरह इस भूमिका में इतिहास के काल खण्ड के साथ-साथ सभी साम्प्रदायिक धर्मों के परिप्रेक्ष्य में मैं जो कुछ भी बताऊँगा,उसको पढ़ते समय शब्दों को समझने के कारण एक तरफ़ प्रवाह में अड़चन भी आ सकती है तो दूसरी तरफ़ वह आपको रोचक भी लग सकता है।    
      अड़चन इसलिए कि आपने शब्दों के उन अर्थों को न तो कभी जानने का प्रयास किया और ना ही उनमें रूचि ली। लेकिन यदि आप भी शब्दों के प्रति रूचि रखते हैं तो आपको यह जानकारी रोचक लगेगी। 
      रोचक इसलिए भी लगेगी कि आपने उन शब्दों के अर्थ जाने,जिनको आप बोलने में काम में लेते हैं और सुनते भी हैं। लेकिन उनके सटीक अर्थ जाने बिना उनके ऊलजुलूल भावार्थ निकालकर उनकी व्याख्या सुनते और करते आये हैं। अतः इन शब्दों के प्रति आप पूर्वाग्रहग्रस्त भी हो सकते हैं। जबकि रोचक इसलिए भी लगेंगे कि आपने उन शब्दों को सुना है लेकिन खण्ड-खण्ड में सुना है,उसकी क्रमबद्धता(Sequence) को नहीं समझा। 
      ऐतिहासिक काल खण्डों तथा धर्म एवं विज्ञान के अन्तर्गत आने वाले संस्कृत एवं लेटिन के शब्दों को समझने के साथ एक सबसे बड़ी अड़चन उन तथ्यों को समझने के परिप्रेक्ष्य में आयेगी जिनको लेकर हम कुण्ठा एवं पूर्वाग्रहों में बँधे हैं। 
      जाति,धर्म,सम्प्रदाय,समाज व्यवस्था से जुड़े कुछ ऐसे विषय हैं जिनसे हम परम्पराओं के नाम से बँधे हैं। उस बन्धन में भी इतनी गाँठें हैं कि हम न तो उन बन्धनों से मुक्त हो पा रहे हैं और न ही उनके पीछे-छिपे मन्तव्यों को समझ पा रहे हैं। समझ इसलिए नहीं पा रहे हैं कि हम उन विषयों को ही अछूत समझ रहे हैं अतः उन पर चर्चा भी नहीं कर पा रहे हैं। 
      इस भूमिका में (1) ऐतिहासिक काल खण्ड (2) धर्म एवं विज्ञान के सम्बन्ध एवं (3) जातीय समाज व्यवस्था इन तीनों के बाद चौथा विषय है (4) वर्तमान की भौतिकवादी विकास यात्रा के प्रति विरोधाभासी मानसिकता। 
      इन चारों तथ्यों को लेकर लिखी जाने वाली इस भूमिका के माध्यम से मैं आपके ध्यान को इस बिन्दु पर केन्द्रित करना चाहता हूँ कि यदि हमें एक सुन्दर मानवीय समाज व्यवस्था बनानी है तो हमें एक ऐसा परिवर्तन लाना होगा जिसमें सब कुछ बदलना होगा। 

सत्ताओं के तीन वर्ग ! 

 तीन तरह की सत्ताऐं होती हैं:
(अ) बौद्धिक सत्ता 
(ब) राजनैतिक सत्ता 
(स) आर्थिक सत्ता 
इनको हम:- 
(अ) शैक्षणिक यानी अध्यापकों के वर्चस्व वाली 
(ब) प्रशासनिक यानी सरकारी मशीनरी के वर्चस्व वाली 
(स) वित्तीय या वैतनिक यानी पूँजीपतियों के वर्चस्व वाली सत्ताएँ भी कह सकते हैं। 
इनको  हमः-  
(अ) धार्मिक सत्ता  
(ब) राष्ट्रीय राजनैतिक या राजाओं की सत्ता  
(स) व्यापारिक प्रतिष्ठानिक सत्ता (कम्पनी सत्ता) भी कह सकते हैं । 
इन्हें हमः- सनातन परम्परा के शब्दों में 
(अ) ब्राह्मण सत्ता  
(ब) क्षत्रिय सत्ता 
(स) वैश्य सत्ता  भी कह सकते हैं।  
 वैदिक शब्दावली में:-  
(अ) देव सत्ता 
(ब) रक्षस सत्ता  
(स) यक्ष सत्ता भी कह सकते हैं। 
      अब यदि हमें इन शब्दों के प्रति पूर्वाग्रह है तो हम नये शब्द गढ़ सकते हैं। अर्थात् हमें चाहे शब्द रचना बदलनी पड़े लेकिन हम एक भ्रष्टाचारमुक्त नैतिक समाज की स्थापना तभी कर सकेंगे जब इन तीनों सत्ताओं की व्यवस्था पद्धतियाँ बदलेंगे और तीनों सत्ताओं को स्वतन्त्र सत्ताऐं बनायेंगे। ताकि कोई भी सत्ता एक-दूसरी सत्ता पर अतिक्रमण नहीं करे। अतिक्रमण का परिणाम अव्यवस्था होता है। 
      भारत में धार्मिक सत्ता,राजनैतिक सत्ता[राज्य सत्ता] और आर्थिक सत्ता तीनों अपने-अपने कार्य क्षेत्र में स्वतन्त्र काम करती रही हैं। 
      भारत की इस 2700 वर्ष की ऐतिहासिक स्थिति का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि बीसवीं शताब्दी से पूर्व के भारत में ये तीनों सत्ताऐं-जब जब अपने-अपने दायरे में रही भारत स्वर्ग रहा और जब जब कभी कोई एक वर्ग सत्ता रहा,भारत भयानक विषमता की चपेट में आया। 
      प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व जो भारतीय अपनी क्षेत्रीय भौगोलिक-राजनैतिक स्थिति की जानकारी तक सीमित थे वे अचानक अन्र्तराष्ट्रीय, भौगोलिक-राजनैतिक स्थिति को जानने लग गये। 
      इसके समानान्तर एक नव-बौद्धिक, नव-धनाढ्य और नव-धार्मिक वर्ग उभरा जिसने भारत का बण्टाधार कर दिया। आज़ादी के बाद इस नव वर्ग के हाथ में सत्ता आई है तो भारत नये राजाओं[राजनीतिज्ञों] की फ़ौज पैदा करने वाली नर्सरी के रूप में उभरा है और तीनों नव-आचरण वालों के हथियार और ढाल बन कर राजनेताओं ने उस भारत को एक शर्मनाक स्थिति में ला खड़ा कर दिया है जो कभी विश्व गुरू था और सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में जिस भारतवर्ष और भारतदेश ने यूरोपीय राष्ट्रों को ऐश्वर्यशाली समृद्धि दी एवज में ख़ुद धृतराष्ट्र बन कर अभावग्रस्त हो गया। 
      अब इसे एक वाक्य में कहें तो भारत की बौद्धिक,राजनैतिक और आर्थिक सत्ताऐं अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय सत्ताओं द्वारा संचालित होने लगी हैं। इसकी पृष्ठभूमि में सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ से आज तक की विभिन्न सत्ताओं की कहानियाँ हैं। घटनाक्रम को गम्भीरता से लिये बिना आप निकट भविष्य में बनने वाली प्रतिकूल एवं विषम स्थिति को गम्भीरता से नहीं ले पायेंगे। 
      इसी तरह सोलहवीं शताब्दी से पूर्व के भारत की स्थिति को जाने बिना आप सोलहवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुए घटनाक्रम को भी गम्भीरता से नहीं ले सकेंगे।
      अतः आइये बुद्ध-महावीर से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी के भारत को समग्र दृष्टिकोणों से,नई दृष्टि से देखें। 
कई बार ऐसा भी हो जाता है कि पुरानी किन्तु ऑरिजिनल चीज़ नई कही जाने लगती है। यह दृष्टिकोण भी ऐसा ही नया दृष्टिकोण है जो कि मूल दृष्टिकोण है। 
      ऐसा भी हो सकता है कि जो लोग तथ्य के परम्-अर्थ की अवहेलना करके स्व-अर्थ से विश्लेषण करेंगे। उन्हें इसमें किन्तु-परन्तु लगेगा लेकिन सर्वकल्याणकारी अर्थ तभी कहा जाता है जब उसका अर्थ स्वार्थ से मुक्त होकर परमार्थ यानी उस गहरे अर्थ तक लिया जाये जो अर्थ सभी पर समान अर्थ में लागू हो,सभी के स्वार्थ की एक समान आपूर्ति करे। 
पौराणिक भारत/समग्र भारत का मूल स्वरूप 
     भारत का नाम कभी आर्यावर्त भी था। उससे पहले इसे जम्बुद्वीप नाम से भी जाना जाता था। भारत का नाम भारत कब पड़ा अभी यहाँ इस प्रसंग में नहीं जाकर इतना ही समझें कि तीन प्रकार के भारत हैं। 
तीनों प्रकार के भारत के तीन-तीन आदर्श हैं। तीनों प्रकार के भारत के तीन राम हैं जो कि तीन प्रकार का पुरूषार्थ करने वाले तीन आदर्श पुरूष हैं और तीन भरत हैं जिनको तीन आदर्श आचरण कहा गया है जिनके नाम पर भारत का नाम भारत पड़ा। 
     जब हम भारत माता या जय भारती कहते हैं तो उसका तात्पर्य नौ प्रकार की अग्नियों में से उस अग्नि से होता है जिसका नाम भारती है।


1. 21-12-2012 से नयी अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक व्यवस्था बनाने की दिशा में काम शुरू होगा !



        नष्ट होने वाली दुनिया से तात्पर्य यदि पृथ्वी या धरती से है,तब तो यह एक मूर्खतापूर्ण अवधारणा या कल्पना है!
        दुनिया से तात्पर्य जगत(जीवजगत) से है तो यह जिज्ञासा का एक बिंदु है कि दुनिया का कालचक्र क्या है!
        लम्बे कालचक्र को जानने से पूर्व यह जानना चाहिए कि माया सभ्यता के कैलेंडर की गणना का आधार क्या है और माया सभ्यता का ख़ुद का इतिहास क्या है,जो समाप्त हो गयी फिर भी दुनिया के फिर से समाप्त होने की भविष्यवाणी बता गयी! 
        उस भूतकाल का अध्ययन,जो वर्तमान से तुलना करने जैसा भी होता है और भविष्य भी होता है,तीन विधियों से होता है।

1. धार्मिक मान्यताओं एवं पौराणिक साहित्य से

2. श्रुति परम्परा से अर्थात पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाई जाने वाली कथाओं,क़िस्से-कहानियों एवं लिखित ऐतिहासिक साहित्य के माध्यम से।

3. विज्ञानसम्मत, तर्कसंगत अनुमानों के माध्यम से। 
भूतकाल के अध्ययन के पीछे तीन मानसिक कारक (फ़ैक्टर) मन्तव्य होते हैं। 

1. अपने पूर्वजों की खोज करने और उन पर गर्व करने की मानसिकता के चलते यह मानसिकता भौतिकवादी तमोगुणी समाज में होती है।

इस ब्लॉग श्रृंखला में भूतकाल का अध्ययन तो तीनों विधियों से किया जायेगा लेकिन इस सामाजिक पत्रकारिता नामक ब्लॉग में महाभारत नामक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखे गए काव्य से शुरू  करते हैं।
अध्ययन का मन्तव्य एक सुन्दर सामाजिक ढाँचे की रचना करने के परिप्रेक्ष्य में समझें ताकि आत्म-अनुशासित रह कर नैतिकता के आधार वाली नीति पर चलने वाले समाज की रचना कर सकें। इसके लिए हमें इतिहास को एक विशेष दृष्टिकोण से समझना है। ताकि हम पूर्व की उन घटनाओं का अवलोकन करें जब भारत में रोज़गार की गारण्टी के लिए जाति प्रथा बनायी गयी ताकि वंश परम्परा  के गुणसूत्र [Dynasty Chromosomal]के साथ अपने जॉब की शिक्षा के लिए शिक्षा संस्कार[Educational Values,Community values,Work Culture]हेतु व्यापारिक शिक्षण संस्थाओं में न जाना पड़े। अतः हम उन घटनाओं का अध्ययन करें और उन घटनाओं से सबक लें जिन घटनाओं के परिणामस्वरूप हम इस बुरे हालात में पहुँचे हैं कि आज न तो जाति को प्रथा बनाने के उद्देश्य को समझ पा रहे हैं और न ही उस का राजनैतिक लाभ उठा पा  रहे हैं। यह भी जानें कि उन घटनाओं से पहले यह जाति प्रथा कैसी थी और उसके क्या-क्या लाभ और सुविधाएँ थीं ताकि हम वर्तमान में ऐसा कार्यक्रम बना सकें जो हमें सन्तुलित समाज व्यवस्था बनाने के लिए एक अवधारणा(दृष्टिकोण) दे सके। 
काल-चक्र  का अध्ययन हम तीन बिन्दुओं को केन्द्र में रख कर करते हैं। 

 2. सत्य को जानने के परिप्रेक्ष्य में जब हम पूर्व के इतिहास का और घटित घटनाओं का अध्ययन करते हैं तो यह मानसिकता दार्शनिक स्वभाव के चलते बनती है। इस विषय में नैतिकता की राजनीति वाले ब्लॉग में पढ़ें।

3. वर्त्तमान की समस्याओं के पीछे छिपे कारणों को खोजने के परिप्रेक्ष्य में ताकि उन घटनाओं से सबक लिया जा सके और सुन्दर भविष्य का निर्माण किया जा सके। यह समाज वैज्ञानिक की जिज्ञासा सामयिक यथार्थ जानने के लिये होती है। इस विषय में निर्दलीय राजनैतिक मंच में पढ़ें।